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जीव अधिकार
(वसंततिलका) संज्ञानभावपरिमुक्तविमुग्धजीव:
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म। निर्मुक्तिमार्गमणुमप्यभिवांछितुं नो
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके ।।३२।। यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं
नि:कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे। मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः ।।३३।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) भावकरम केरोध से द्रव्य करम कारोध।
द्रव्यकरम के रोध से हो संसार निरोध ||३१|| भावकर्म के निरोध से द्रव्यकर्म का निरोध होता है और द्रव्यकर्म के निरोध से संसार का निरोध होता है।
यह तो सर्वविदित ही है कि यदि मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्मों का सद्भाव न हो तो द्रव्यकर्मों का बंध नहीं होता। जब न तो भावकर्म होंगे और न द्रव्यकर्म ह ऐसी स्थिति में संसार कैसे खड़ा रह सकता है ?||३१|| तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(सोरठा) करें शुभाशुभभाव, मुक्तिमार्ग जाने नहीं।
अशरण रहें सदीव मोह मुग्ध अज्ञानि जन ||३२|| सम्यग्ज्ञान रहित जो मोही जीव अनेकप्रकार के शुभाशुभ कर्मों को करता हआ मोक्षमार्ग को रंचमात्र भी नहीं जानता, नहीं चाहता; उस जीव को इस लोक में शरण देनेवाला कोई नहीं है।
३०वें छन्द में कहा था कि सदगरु के प्रसाद से जो शद्धात्मा को जानता है: वह मक्ति को प्राप्त करता है और अब इस ३२वें छन्द में यह कह रहे हैं कि जो जीव शुद्धात्मा को नहीं जानता; उसे इस संसार में कोई भी शरण देनेवाला नहीं है। तात्पर्य यह है कि शुद्धात्मा को जानने की वांछा रखनेवाले को तो व्यवहार से सद्गुरु की और निश्चय से शुद्धात्मा की शरण विद्यमान ही है; किन्तु अज्ञानी जीव को कोई शरण नहीं है।|३२||