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नियमसार
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा । कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो।।१८।।
कर्ता भोक्ता आत्मा पुद्गलकर्मणो भवति व्यवहारात् ।
कर्मजभावेनात्मा कर्ता भोक्ता तु निश्चयतः ।।१८।। कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रकारकथनमिदम् । आसन्नगतानुचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदुःखानां भोक्ता च, आत्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहराग___ अपनी बात को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि यदि तेरे हृदय में जिनेन्द्र भगवान और उनकी वाणी के प्रति अनुराग है तो तुझे उक्त वैभव बिना चाहे ही स्वयं प्राप्त हो जायेगा; क्योंकि जिस पुण्योदय से उक्त वैभव की प्राप्ति होती है, वह पुण्य तो भगवान के भक्तों को सहज ही बंधता है।
यद्यपि यह सत्य है कि जिनेन्द्र भगवान का स्वरूप समझकर उनके गुणों में अनुराग होना भक्ति है। ह्न ऐसी भक्ति से पुण्य का बंध होता है और उस पुण्य के उदय में आने पर लोक में अनुकूल संयोग प्राप्त होते हैं; तथापि ज्ञानी धर्मात्माओं के जिनेन्द्र भगवान के गुणों में अनुरागरूप भक्ति तो होती है; किन्तु वे पुण्यबंध के प्रति उत्साहित नहीं होते।
तात्पर्य यह है कि वे पुण्यबंध की भावना से भक्ति नहीं करते; तथापि उक्त भक्ति से पुण्य तो बंधता ही है और उसके उदयानुसार अनुकूल संयोग भी प्राप्त होते ही हैं ।।२९।।
विगत गाथाओं में जीव के शुद्धस्वरूप और नारकादि व्यंजन-पर्यायों की चर्चा करने के उपरान्त अशुद्धजीव अर्थात् जीव की अशुद्धावस्था का निरूपण करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) यह जीव करता-भोगता जड़कर्म का व्यवहार से।
किन्तु कर्मजभाव का कर्ता कहा परमार्थ से||१८|| व्यवहारनय से आत्मा पौद्गलिक कर्मों का कर्ता-भोक्ता है और अशुद्धनिश्चयनय से कर्मजनित रागादि भावों का कर्ता-भोक्ता है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यह कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्रकार का कथन है। आत्मा निकटवर्ती अनुपचरितअसद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्म का कर्ता और उसके फलरूप सुख-दुःख का भोक्ता है; अशुद्धनिश्चयनय से सभी मोह-राग-द्वेषादि भावकर्म का कर्ता-भोक्ता है; अनुपचरित