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जीव अधिकार
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मानुषाद्विविकल्पाः कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः । सप्तविधा नारका ज्ञातव्याः पृथ्वीभेदेन ।। १६ ।। चतुर्दशभेदा भणितास्तिर्यंच: सुरगणाश्चतुर्भेदाः । एतेषां विस्तारो लोकविभागेषु ज्ञातव्य: ।। १७ ।। चतुर्गतिस्वरूपनिरूपणाख्यानमेतत् । मनोरपत्यानि मनुष्याः । ते द्विविधाः, कर्मभूमिजा भोगभूमिजाश्चेति । तत्र कर्मभूमिजाश्च द्विविधाः, आर्या म्लेच्छाश्चेति । आर्याः पुण्यक्षेत्रवर्तिनः । म्लेच्छाः पापक्षेत्रवर्तिनः । भोगभूमिजाश्चार्यनामधेयधरा जघन्यमध्यमोत्तमक्षेत्रवर्तिनः एकद्वित्रिपल्योपमायुषः । रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभिधानसप्तपृथ्वीनां भेदान्नारकजीवा: सप्तधा भवन्ति । प्रथमनरकस्य नारका ह्येकसागरोपमायुषः । द्वितीय नरकस्य नारकाः त्रिसागरोपमायुषः । तृतीयस्य सप्त । चतुर्थस्य दश । पञ्चमस्य सप्तदश । षष्ठस्य द्वाविंशतिः । सप्तमस्य त्रयस्त्रिंशत् ।
अथ विस्तारभयात् संक्षेपेणोच्यतो । तिर्यञ्चः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तबादरैकैन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकद्वींन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकत्रीन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकचतुरिन्द्रियपर्याप्तका
कर्मभूमिज और भोगभूमिज ह्न इसप्रकार मनुष्य दो प्रकार के हैं। सात नरक भूमियों की अपेक्षा नारकी सात प्रकार के हैं । तिर्यंच चौदह प्रकार के और देव चार प्रकार के हैं। इनके बारे में विस्तृत जानकारी लोकविभाग नामक परमागम से करना चाहिए।
इस गाथा का भाव तात्पर्यवृत्ति टीका में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यह चारों गतियों के स्वरूप का निरूपण है। मनु की संतान मनुष्य कर्मभूमिज और भोगभूमिज के भेद से दो प्रकार के होते हैं। आर्य और म्लेच्छ के भेद से कर्मभूमिज मनुष्य भी दो प्रकार के होते हैं । पुण्यक्षेत्र में रहनेवाले आर्य हैं और पापक्षेत्र में रहनेवाले म्लेच्छ हैं ।
भूमि मनुष्य आर्य ही हैं । वे जघन्य, मध्यम और उत्तम क्षेत्र में रहते हैं तथा एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्य की आयुवाले होते हैं ।
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा नामक सात पृथवियों के भेदों के कारण नारकी जीव सात प्रकार के होते हैं । पहले नरक के नारकी एक सागर, दूसरे नरक के नारकी तीन सागर, तीसरे नरक के नारकी सात सागर, चौथे नरक के नारकी दश सागर, पाँचवें नरक के नारकी सत्तरह सागर, छठवें नरक के
नारकी बाईस सागर और सातवें नरक के नारकी तैंतीस सागर की आयुवाले होते हैं ।
विस्तारभय से संक्षेप में बात करने से तिर्यंचों के चौदह भेद हैं। (१-२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
(३-४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।