Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनुयोगबारसूत्रे पञ्चविधत्वं दर्शयति-तं जहा' इत्यादिना 'तं जहा' तद्यथा-तज्ज्ञान यथा पञ्चविधं भवति, तथा प्रोच्यते । तत्र (१) प्रथमं ज्ञानम्-'आभिणिबोहियनाणं' आभिनिबोधिज्ञानम्, 'अभि' इति अभिमुनः-वस्तुयोग्यदेशावस्थानापेक्षी, 'नि' इति नियतः- इन्द्रियमन समाश्रित्य स्व स्व विषयापेक्षीबोधःअभिनिबोधः, स एव आभिनिबोधिकम् तच्च तद् ज्ञानं च आभिनिवाधिकज्ञानम् । अत्र 'ज्ञान' शब्दः सामान्यज्ञान-वाचकः। अभिनिबोधशब्दः इन्द्रिय नो
से सूत्रकारने रकट की है। अथवा, "पण्णत्तं" इस पद की संस्कृत छाया "ज्ञाप्त" ऐसी भी होती है-इस का अर्थ यह है कि ज्ञान में पंच प्रकारता गणधरों ने प्राज्ञ तीर्थ कर सर्वज्ञ भगवान से प्राप्त की है। अथवा इसी छाया के पक्ष में ऐसा अर्थ भी होता है कि ज्ञान में यह पंच प्रकारता भव्य प्राणियों ने अपनी बुद्धि से ही पाई है। विना बुद्धि से तो यह प्राप्त की नहीं जा सकती है । इस तरह जो प्रज्ञाप्त है बही प्राज्ञाप्त हैं। (तं जहा) वह ज्ञान में पंच प्रकारता इस तरह से है।
(आभिणिबोहियनाणं) (१) आभिनिबोधिक ज्ञान-यह ज्ञान वातु को योग्य देश में होने की अपेक्षा रखता है तथा पांच इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है । यह बात “अभि" और "नि' शब्द से प्रकट होती है। इस तरह योग्य देश में स्थित वस्तु को इन्द्रिय और मन की सहायता से जानने वाले ज्ञान का नाम अभिनिबोध ज्ञान है। यह अभि नबोध ही आ भभिबोषिक "पण्णत्त" मा ५४नी सत्कृत छाया "प्राज्ञाप्तं" छ. ॥ प्राज्ञानी अपेक्षा જે વિચાર કરવામાં આવે તે તેને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે જ્ઞાનમાં પંચવિધતાની પ્રાપ્તિ ગણધરોએ પ્રાજ્ઞ તીર્થકર સર્વજ્ઞ ભગવાન પાસેથી કરી છે.
અથવા તેને અર્થ એવો પણ થાય છે કે-જ્ઞાનમાં આ પાંચ પ્રકારના ભવ્ય જીવોએ પિતાની બુદ્ધિથી જ પ્રાપ્ત કરેલ છે. બુદ્ધિ વગર તે તેની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી જ નથી. साशते २ प्रज्ञाप्त छ, से प्राज्ञात छे. (तं जहा) ज्ञानना ते पांय मारे। नीय प्रमाणे छे-(आभिणिबोहियनाणं) (१) मालिनिधि ज्ञान
આ જ્ઞાન વસ્તુ લેગ્ય દેશમાં હોય એવી અપેક્ષા રાખે છે, તથા પાંચ छन्द्रियो भने भननी सहायताथी थाय छे. मे पात "अभि" मने "नि" ઉપસર્ગો દ્વારા પ્રકટ કરી છે. આ રીતે આમિનિબેધિક જ્ઞાનની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે થાય છે-“ગ્ર દેશમાં સ્થિત (રહેલી) વસ્તુને ઈન્દ્રિયે અને મનની સહાયતાથી જાણનારા જ્ઞાનનું નામ અભિનિબંધ છે. તે અભિનિબંધ જ આભિનિધિક
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