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जागागागागानगर
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तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि ।।
(भक्त. 91) जैसे जगत् में मेरुपर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसी ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।
O हिंसाः प्रगादत कषाय की अशुभ उपज
{31) इन्द्रियाद्या दश प्राणाः प्राणिभ्योऽत्र प्रमादिना। यथासंभवमेषां हि हिंसा तु व्यपरोपणम्॥
__ (ह. पु. 58/127) इस संसार में प्राणियों के लिए यथासम्भव इन्द्रियादि दश प्राण प्राप्त हैं। प्रमादी बन कर उनका विच्छेद करना 'हिंसा' है।
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यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम्। सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता ॥ विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च। अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परिकीर्तितः॥
__ (उपासका. 26/318-319) 卐 प्रमाद के योग से प्राणियों को प्राणों का घात करना 'हिंसा' है और उनकी रक्षा करना 'अहिंसा' है। जो जीव विकथा, कषाय, इन्द्रियां, निद्रा और मोह के वशीभूत है उसे 'प्रमादी' कहते हैं।
हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य होइ हिंसा हु। तम्हा पमत्तजोगो पाणव्ववरोवओ णिच्चं ॥
(भग. आ. 800) हिंसा से विरत न होना 'हिंसा' है। अर्थात् 'मैं प्राणी के प्राणों का घात नहीं करूंगा' ऐसा FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFEESEEN [जैन संस्कृति खण्ड/10
{33)