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णत्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि। जह जह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अत्थि ।।
(भग. आ. 783) ___ जैसे अणु से छोटा कोई अन्य द्रव्य नहीं है और आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है, 卐 वैसे ही अहिंसा जैसा कोई (अधिक सूक्ष्म और महान्/श्रेष्ठ) अन्य व्रत नहीं है।
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कुव्वंतस्स वि जत्तं तुंबेण विणा ण ठंति जह अरया। अरएहिं विणा य जहा णटुं णेमी दु चक्कस्स ॥ तह जाण अहिंसाए विणा ण सीलाणि ठंति सव्वाणि। तिस्सेव रवखणठं सीलाणि वदीव सस्सस्स ॥
(भग. आ. 786-787) लाख प्रयत्न करने पर भी जैसे चाक के आरे तुम्बी के बिना नहीं ठहरते और आरों 卐 के बिना नेमि नहीं ठहरती, वैसे ही अहिंसा के बिना सब शील नहीं ठहरते। उसी (अहिंसा)
की रक्षा के लिए शील हैं, जैसे धान्य की रक्षा के लिए बाड़ होती है।
{28) जह पव्वदेसु मेरू उच्चावो होइ सव्वलोयम्मि। तह जाणसु उच्चायं सीलेसु वदेसु य अहिंसा॥
(भग. आ. 784)
जैसे सब लोक में मेरु सब पर्वतों से ऊंचा है, वैसे ही शीलों में और व्रतों मे अहिंसा सब से ऊंची (बड़ी) है।
(29) सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु॥
(भग. आ. 789) ॥ सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का गर्भ और सब व्रतों और गुणों का पिण्डीभूत सार अहिंसा ही है।
अहिंसा-विश्वकोश/9]