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तत्त्वभावना
(वहत सामायिक पाठ) अन्वयार्थ, विस्तृत टोका व छन्द सहित
टोकाकार श्री ब्र० शोतल प्रसाद जी
सम्पादन : महावीर प्रसाद जैन सर्राफ १३२५ चांदनीचौक, दिल्लो
प्रकाशक:
विशम्बर दास महावीर प्रसाद जैन सर्राफ
१३२५, चांदनी चौक, दिल्ली-६
तत्तोष वृत्ति २४-२-१९६२
फागुन वदो ७ चि. सं. २०४८
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प्रस्तावना सम्प्रत्यस्ति ने केवली किल कलो त्रैलोक्य चड़ामणिस्तवाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्योतिका । सदलत्र्यधारिणो यति वरास्तेषां समालम्बनं, तत्पूजा जिनवाचिपुजन मतः साक्षाज्जितः पूजितः ।।
॥पद्मनन्दी पं० ॥ वसंमान कलिकाल में तीन लोक के पूज्य केवली भगवान जो राग-द्वेष से रहित ध्यान में लीन, समस्त पदार्थों के ज्ञाता और कर्ममल रहित है, जोवों को संसार पार उतारने में निमित्त हैं इस भरतक्षेत्र में साक्षात् नहीं हैं तथापि समस्त भरतक्षेत्र में जगत्प्रकाशिनी केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी के आधार स्तम्भ श्रेष्ठ रत्नत्रधारी मुनि भी हैं जो समस्त विषयों, आशाओं और आरम्भ से रहित होते हैं, सदैव ध्यान अध्ययन में रहते हैं, जिन भगवान की आज्ञा में चलने वाले हैं सच्चे गुरु हैं इसीलिए उन मुनियों की पूजन तो सरस्वती का पूजन है तथा सरस्वती का पूजन साक्षात् केवली भगवान् का
तीर्थकर देव द्वारा प्रत्यक्ष देखी गई, दिव्यध्वनि में प्रस्फटित तथा गणधर द्वारा गुन्थित वह महान् आचार्यों द्वारा प्रसारित जिनवाणी को रक्षा हो इसी उद्देश्य से
बिशम्बर दास महावीर प्रसाद जैन सर्राफ १३२५, चांदनी चौक, देहली-६ ने स्व० पूज्य ला० बिशम्बर दास जी बन, श्रीमती केसर देवी जैन, श्रीमती सुन्दरी देवी जैन, श्रीमती जैनो देवी जैन एवं श्रीमती विमला देवी जैन की पुण्य स्मति में फरवरी १९९२ में श्री अमितगति आचार्यकृत तत्त्वभावना प्रन्थ प्रकार शित कराया। . ..
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( iv ) अब फरवरी १९९२ में श्री अमितगति आचार्य विचित 'तत्त्वभावा' वह मायिक पास मकालत कर रहे हैं ताकि स्वाध्याय प्रेमो बन्धु आत्म कल्याण कर सकें। ___ मालवा प्रान्त के राजा मुंज के गुरु आचार्य माधव सेन के शिष्य आ. नेमी सैन के परम शिष्य श्री १०८ आचार्य अमितगति ने 'तत्त्वभावना' अर्थात वहद सामायिक पाठ १२० श्लोकों में रचा और छोटा सामायिक पाठ अर्थात् भावना द्वित्रिशिका ३२ श्लोकों में रची। आप ११वीं शताब्दी के महान विद्वाम् कवि एवं वीतरागी संत थे। आपके रचे हुए ७ ग्रंथ प्राप्त हैं। १. सुभाषित रत्नसंदोह वि. सं. १०५०; २. धर्म परीक्षा वि. सं. १०७०, ३. पंचसंग्रह वि. सं. १०७३ में रचे थे; ४. उपासकाचार, ५. आराधना, ६. सामाजिक पय, ७. भावना कि त्रिशिका एवं तत्त्वभावना ।
प्रस्तुत ग्रंथ 'तत्त्वभावना' वैराग्य और आत्मज्ञान का भंडार है। इसका हिन्दी पद्यानुवाद एवं टोका ब्र• शीतलप्रसाद जी ने ४-१०-१९२८ असोज बदी ५ गुरुवार वीर सं. २४५४ वि. सं. १९८५ में रोहतक चातुर्मास में की थी। आपके लिखे एवं अनुवाद किये लगभग १०० ग्रंथ हैं। सभी सारभूत एवं आध्यात्मिक हैं। ब० जी का जन्म वि. सं. १९४५ में हुआ था। आप ३२ वर्ष की आयु में गृह त्याग कर जिनवाणी का प्रचार-प्रसार अन्तिम समय तक करते रहे।
प्रथम बार यह ग्रंथ श्री मूलचंद किशनचंद कापड़िया ने सूरत से प्रकाशित कराया था। द्वितीय वति आचार्य देशभूषण जो ने जनवरी १९७३ में दिल्ली से प्रकाशित कराई। ग्रंथराज अप्राप्य होने की वजह से तृतीय वृत्ति प्रकाषित की जा रही है।
जो अगणित संसार के दुःखों से छुटाकर बनन्त सुख स्वरूप
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'मोक्ष में ले जाकर रक्खे, परमानन्दमय सुख का रसास्वादन करावे वो ही वास्तविक धर्म है। अहिंसा, अपरिग्रह और बने कान्त जैन संस्कृति को मल आत्मा है। यही जिनवाणी का सार भी है। भगवान जिनेन्द्र देव ने सम्य ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण सम्यग्दर्शन को ही कहा है वो ही मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है धर्म का बीच है। पांचों इन्द्रियों का दमन सिवाय सम्यग्ज्ञान के दूसरे से नहीं हो सकता है। प्राय: आज के आध्यात्मिक वक्ता, एकान्तवादी एवं निश्चयाभासी ये भूल जाते हैं कि सम्यकचारित्र के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ हैं। "जामत शद्रोपयोग पावत नाहीं मनोग, तावत ही करन योग कही पूण्य करनी।" धूप से छांव में बैठना सुखद है । प्रत, उपवास, व्यवहार, चारित्र पालन कर नरक निगोद से बचना श्रेष्ठ है। मुझे तत्वज्ञान है समस्त इन क्रियासों को छोड़कर मात्र अध्यात्म का ऊपर से गुणगान करेगा तो इधर का रहेगा ना उधर का और अनन्तों सागर दुःख उठाना पड़ेगा |समस्त शुभ क्रियाएँ तो छोड़ने योग्य हैं ही नहीं किन्तु उन्हें धर्म मानना गलत है। शुद्धोपयोग की अवस्था में स्वतः छूट जाती हैं छोड़ना नहीं पड़ता है।
सम्यग्दर्शन रूपी हार को अपने हृदय में धारण करके, ज्ञानरूपी कुण्डलों को अपने दोनों कानों में पहनकर और चारिश्ररूपी मुकुट को अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए। ये तीनों रत्न हो मोक्षरूपी लक्ष्मी को वश करने में कारण है । व्यवहार रत्नभय भी निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति में मुख्य निमित्त है परन्तु जब तक चित्त में बाह्य क्रियाओं की चिन्ता का समावेश रहेगा तब तक कभी भी रत्नत्रय का पालन नहीं हो सकता। यह विषयकषाय रागादि भावों से रहित है, मोका प्रदान करने वाला है । ये ध्यान के द्वारा जाना है वोत रागी मुनियों के ही होता है
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रागियों के नहीं। अपनी निजी आत्मा ही तीन लोक का नाम है अनन्त अविनाशी गुणों का समुद्र है। ध्यान मार्ग से उसका स्वरूप जाना जाता है एवं जिस प्रकार समस्त कमों से रहित सिद्धों का स्वरूप शुद्ध है उसी प्रकार हमारी आत्मा भी द्रव्यदृष्टि से शुद्ध है इस प्रकार अपने अन्तरंग परमात्मामें जो श्रद्धान होना है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। उत्कृष्ट मात्मा ही ज्ञान है, जो स्वसंवेदन स्वरूप आत्मा का ज्ञान करना है वहो निश्चय सम्यग्ज्ञान है । यह निजात्मा सम्यक्चारित्र स्वरूप है । अन्तरंग में ध्यान के द्वारा जो स्वयं अपना आचरण करना है वही निश्चय चारित्र है। " पर द्रव्यन लें भिन्न आप में रुचि सम्यक्त भला है, अमरूप को जानपनी सः सम्यकज्ञान कला है। आप रूप में लोन रहे थिर सम्यकचारित्र सोई।" ऐसा ध्यान वीतरागी मुनियों के हो मुख्य रूप से सम्भव है । मात्र आत्मा आत्मा कहकर परिग्रह के संचय में लिप्त रहने बालों के नहीं। जो ज्ञानी चैतन्य स्वरूप उत्कृष्ट आत्मा-परमात्मा का ध्यान करते हैं उनके ध्यानरूपी अग्नि से अनन्ते कर्म पिंड देखते-२ भस्म हो जाते हैं।
अनादि काल से यह जोव चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में जन्म मरण के दुःखों को उठा रहा है लेकिन इसके दुःखों का अन्त नहीं आया। सभी जोव सुख चाहते हैं लेकिन सुख का उपाय कोई नहीं करना चाहता । अनन्तों सागर निगोद में रहकर मात्र दो हजार सागर कुछ अधिक के लिए बस पर्याय प्राप्त होती है जिसमें १६ भव पुरुष, १६ भव स्त्री एवं १६ भव नपुंसक पर्याय के प्राप्त होते हैं यदि इस में अष्ट कर्मों का विनाश करके मोक्ष की प्राप्ति नहीं की तो फिर अनन्तों सागर तक निगोद में जाना पड़ता है। ___ “यह मानुष पर्याय सुकुल सुनियो जिनवाणी" ऐसा सब मुख प्राप्त करके भी भविष्यत के अनन्तों भवों का नाश इसा पर्याय
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में करने का भाव लेकर कब मैं निग्रंथ मुनि बनं समाधि मरण करू, ऐसा भाव न आया तो जन्म निरर्थक होगा।
नाधकों के अष्ट मूल धारण करके, देव दर्शन, श्री जी का प्रक्षाल, पूजा पाठ, जाप, स्वाध्याय, सामाधिक, व्रत, उपवास, तीर्थयात्रा, दान, मुनि समागम, प्राणोमात्र पर करुणा का भाव ऐसा करते हुवे निम्न कार्यों का त्याग करना चाहिए। सप्त ध्यसन-मद्य, मांस, मध, अण्डा, जिमीकाद, रात्रि भोजन, २२ अभक्ष्य, चांदी व सोने का वर्क, होटल में जाना वहां जाकर खाना, रात्रि को शादी में भाग, राधिको शादी का पानी अनछना पानी पीना, पांच पाप इत्यादि । निरस्तर महाव्रती बनने की भावना रक्खे और अन्त में समता भावपूर्वक समाधिमरण करूं ऐसी भावना हमेशा भावे। ____ मैं किसी का भला बुरा कर सकता है या कोई मेरा कर देगा ऐसा कर्तृत्व भाव न लावे | कोई देवता मेरा भला बुरा कर सकता है, मैं कुटुम्ब का पालन करता हूं, चेतन स्त्री, पुत्र कुटुम्बी अचेतन धन, मकान, परिग्रह से राग द्वेष मोह घटाये, मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करे-त्रिकाली ध्रुव अजर अमर आत्मा एकाको है अपनी है बाकी समस्त पदार्य, मेरा शरीर भी पर है ऐसा दृढ विश्वास लाकर अहंकार ममकार का त्याग करे। "जीव जुदा पुद्गल जदा, याही तत्व को सार | सब ग्रन्थों में 'पढ़ लोजिए, है याही को विस्तार ।" "लाख करोड़ ग्रन्थन को सार, भेद ज्ञान और दया विचार।" जब शरोर भी मुझसे भिन्न है तो फिर बाकी सभी पदार्थ तो साक्षात् भिन्न दिख ही रहे हैं ।
इस जगत का बनाने वाला, पालन हारा, विनाश करने वाला कोई ईश्वर नहीं है । जगत अनादि निधन है । अपने स्वयं के किले कर्मों के अनुसार जोवों को सुख-दुःख भोगना पड़ता है। इन सभी बातों का वर्णन अमितगति आचार्य ने बहुत ही सुन्दर
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रूप में किया है। मोक्ष प्राप्ति का सरल उपाय ध्यान का विशेष वर्णन इसमें लिखा है। "निज को निज में जान, पर को पर में मान । तेरा आतम है परमातम, और सभी पर मान ।"
कर्मों की शिक्षा का गान मायाधि, एकाकीपन, निसंगता, आत्मा के सन्मुख होना, आत्मा में रमणता या ब्रह्मा चर्य, स्व में रमण या स्वाध्याय, साम्पभाव, सिद्धि, स्वात्मोपलब्धि, आत्मलीनता, चित्त को स्थिरता, सामायिक, ध्यान इत्यादि सभी पर्यायवाची शब्द हैं। महावती के लिए तो इनको विशेष प्रमुखता है हो किंतु श्रावकों का भो २ या ३ बार अवश्य करने को कहा है ताकि आगे जाकर सरलता से आत्म कल्याण कर सकें । कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष प्राप्ति का ये ही उपाय है। सामायिक में प्राणी मात्र से दोषों को क्षमा मांगकर, क्षमा करके, अचल आसन, समय की पाबन्दी, राग द्वेष माह का त्याग करके संकल्प-विकल्प को छोड़कर शरीर को पड़ोसो समझ कर अन्दर जो चैतन्य स्वरूप ज्ञाता दृष्टा परमात्मा विराजमान है अर्थात् शरीररूपी देवालय में जो मेरा मात्मा भगवान स्वरूप है उसको सबसे एकाकी अनुभव करना है वो देखने दिखाने की चोज नहीं, अतीन्द्रिय है, सिर्फ अनुभवगम्य है और अनुभव भी पर से विरक्त हुवे बिना नहीं होगा। कुछ भी काम करते हुए, प्रत्येक क्रिया को हमारी कोई अन्दर अनुभव कर रहा है वो ही मेरा परमातम स्वरूप आत्मा है। सेठ के यहां लाखों करोड़ों का व्यापार करता हुआ मुनोम उस धन की लाभ-हानि से विरक्त है । लड़की की सगाई पक्की होने पर लड़की भी मां-बाप के घर को पर मानने लगती है। इसी प्रकार ज्ञानीजन शरीर से भो बिरगत रहते हैं।
कहते हैं संसार में शरण नहीं। वो पर्याय को अपेक्षा है। यधिपंचपरमेष्ठो की शरण लेकर अपनी बारमा का घरुण लिया .
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जावे तो अनादि का जन्म मरण का रोग मिट जावे । "शुधारम और पंचगुरु जग में शरणा दो।" जितने भी सिद्ध हुए हैं, हो सहे हैं और होंगे, इसी उपाय से हुए हैं।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति चारों गतियों में हो सकती है किंतु संयम धारण मात्र मनुष्य पर्याय में ही हो सकता है मत: संयम मुख्य है । सर्वार्थ सिद्धि के देव भी जो निरन्तर ३३ सागर तक उत्कृष्ट धार्मिक चर्चा में हो लगे रहते हैं संयम धारण नहीं करने के कारण मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते सोचते हैं कब मनुष्य पर्याय पावें, मुनिव्रत धारण करके तप द्वारा ध्यानाग्नि में कर्मों को विनष्ट करके मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति करें।
पानंद मनि ने परमार्थविशति में आत्भध्यान आत्मतत्व में एकाग्र होने की भावना बताई है
देव तत्प्रतिमा गुरु मुनि जन शास्त्रादि मन्य महे । सर्व भक्तिपरा वयं व्यवहृतो मार्ग स्थिता निश्चयात् ॥ अस्माकं पुनरेकताश्च यणतो व्यक्तीभवश्चिद् गुणस्फारी भ्रूतमति प्रबंध महसामात्मैव तत्वं परम् ॥१३॥
जब हम व्यवहार मार्ग में चलते हैं तब हम श्री जिनेन्द्र देव छनको प्रतिमा, जिनगुरु व साधुजन तथा शास्त्रादि सबकी भक्ति करते हैं परन्तु हम जब निश्चयमार्ग में जाते हैं तब प्रगट चैतन्य गुण से झलकती हुई भेदविज्ञान की ज्योति जल जाती है उस समय हम एक भाव में लय हो जाते हैं तब हमको उत्कृष्ट तत्व एक मात्मा हो अनुभव में आता है अर्थात् जहाँ शुद्ध आत्मा के सिवाय अन्य कुछ अनुमव में न आवे वही निर्मल आत्मध्यान है।
जिनके भीतर ज्ञान अग्नि बढ़ती सम्यक्त को पवन से ।
इंधन कर्म जलाय, दोष मन सब कर दूर निज रमण से ५ सम्यक्त्व ज्ञानवृत्तत्रय ममधमते ज्ञान मात्रेण मूढा। . "लपित्वा जन्मदुर्ग निरूपमितं सुखा ये यियासंति सिद्धि 1.।
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ते शिवोषन्ति नूनं निजपुरमुधि बाहयुग्मेन तोर्वा । कल्पांतोद्भूतवाता भितजल घरासार कोर्णान्तरालम् ||६||
मोक्ष का उपाय रत्नत्रय की एकता है । मार्ग को जान लेने मात्र से ही कार्य को सिद्धि नहीं हो सकती है। जो ऐसा मानते हैं कि हमने आत्मा को पहचान लिया है अब हमें कुछ भी चारित्र पालने की आवश्यकता नहीं हम चाहे पाप करें या पुण्य करेंहमें बन्ध नहीं होगा वे ऐसे मूढ़ हो हैं जैसे वे लोग मूर्ख हैं जो अपनी भजा से समुद्र पार कर-करा, चले जायेंगे जो कल्पकाल की घोर पवन से डांवाडोल है जिसमें अनेक मगरमच्छ भयानक जंतु हैं।
सम्यग्दर्शन सम्यक ज्ञान सम्यक्चारित्र तीनों की एकता की जरूरत है। जैसे व्यापार करना है तो पहले रोतियों को समझते हैं, विश्वास लाते हैं फिर जब उस विश्वास सहित ज्ञान के अनुसार उद्योग गाना है तबीयापार करने का फल पा सकता है।
ममितमति हमाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैसदर्शनज्ञान तपोदमाढ्यश्चारित्र भाज: सफला: समस्ताः । व्यपश्चिरित्रेण बिना भवन्ति ज्ञात्त्वेह सन्तश्चरिते यतन्ते ।।२४२
सम्यकदर्शन सम्यग्ज्ञान तथा तप व इन्द्रिय दमन सहित जो जीव चारित्र को पालन करने वाले हैं वे सर्व ही सफलता कोपा लेते हैं क्योंकि चारित्र के बिना उन सबका होना व्यर्थ है। तीनों को एकता से जो भाव पंदा होता है उसे स्वानुभव कहते हैं।
जहां श्रद्धान ज्ञान सहित आत्मस्वरूप में रमणता होती है वहीं स्वानुभव या आत्मध्यान पैदा होता है। यही ध्यान मोक्ष का मार्ग है, कमों को निर्जरा करके मात्मा को शद करता है। इसलिए मात्र जानने से ही कार्य बनेगा इस बुद्धि को दूर कर श्रवान व शाल सहित चारित्र को पालना चाहिए। मन को
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निराकुल करने के लिए आवक या मुनि का चारित्र पालन करना ही चाहिए
मन
सम्कदर्शनरूपी नौका/सम्यग्ज्ञानरूपी जल/सम्यकचारित्र रूपी
खिवैया तभी भवसागर
से तिरोगे। विश्वास रीति समझना व्यापार करना वचन
काय मौत के मुंह में हूँ और मेरी उम्र क्षण भर भी नहीं है ऐसा सोचकर मनुष्य को यथा सम्भव जप, तप, संयय, स्वाध्याय, पूजा, दानादि का आचरण करते रहना चाहिए।
सारांश में ध्यान ही मुक्ति का कारण है ! जो शरीर इन्द्रिय मन और वचन में आत्मबद्धि/ममकार व अहंकार बुद्धि रखता है वह बहिरात्मा आत्मविमुख ध्यान करने में असमर्थ है।
जो शरीर व आत्मा में भेद करता हुआ सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र से युक्त होकर प्रमाण, नय और निक्षेप के आषय से जीवादि नौ पदार्थों, सात तत्वों, छह द्रव्यों और पांच अस्ति: कायों के साथ शरीर व मात्मा के भेद को जानता है अन्तरंगबहिरंग परिग्रह रहित ऐसा अन्तरात्मा ही परमात्मा के ध्यान में समर्थ होता है।
सम्यग्ज्ञानी श्रीव के मोह क्षोभ से रहित बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध ही साम्यभाव/सम्यक्धारित्र है जो मुक्ति का साक्षात् मार्ग है।
ध्यान के चार प्रकार में-१. बासंध्यान, २. रोदध्यान
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दोनों चार-चार प्रकार के हैं संसार के कारण हैं, त्याज्य है, क्रमशः तिथंच गति नरक गति को ले जाने वाले हैं। ३. धर्मध्यान स्वर्ग का कारण है परम्परा से मोक्ष का. पंचम भाव में हो सकता है। ये आशा विषय, विपाक विचय, अपाय विषय, संस्थान विचय ४ प्रकार का है-१. पिण्डस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ, ४. रूपातीत के भेद से भी चार प्रकार का है।
पिण्डस्थ की पृथ्वी अग्नि जल आदि ५ धारणाओं एवं ध्यान का समस्त विषय सचित्र पेज ३१२ से आचार्य श्री ने बहुत ही अच्छा वर्णन किया है। चित्रों को देखकर अभ्यास करने से सरलता से ध्यान मार्ग में प्रवृत्त हो सकते हैं। ४. शुक्लध्यान इस पंचम काल में नहीं होता है साक्षात् मुक्ति का कारण है।
सभी साधर्मी जन इस अन्य राज का स्वाध्याय कर आत्मा कल्याण करें इसी शुभ भावना के साप।
२४-२-१९१२ सोमवार
विनीत: फागुन वदी ७ सं० २०४८ जिन चरण सेवक श्री चन्दा प्रभु जो शानकल्याणक महावीर प्रसाद जैन सर्राफ एवं
१३२५. चांदनी चौक श्री गुगानागी info amarn.
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श्री अमितगति प्राचार्यकृततत्त्वभावना
बड़ा सामायिक पाठ ।
मङ्गलाचरण-दोहा। प्रर्ह सिद्धाचार्यको, बंदि साधु गुणदाय । निवारणी वृष चैत्यजिन, मंदिर नमूं सुध्याय ॥१॥ परमातम सम आपको, ध्याय सुगुरष उर लाय । समताभाव प्रकाशके, मातम सुख झलकाय ॥२॥ सामायिकके भावको, कर प्रकाश निज ज्ञान । भव्यजीव भी रस पियें, यह उपकार पिछान ॥३॥ अमितिगती प्राचार्यकृत, तस्त्रमावना सार । बालबोध भाषा करू, भवधि तारणहार ॥४॥ सम्मति वीर सुधीरको, बर्द्धमान महावीर । गौतम गुरु कुन्दादिको, सुमरौं लिय धरि धीर ॥५॥
उत्थानिका-पहले ही चलने में जो हिंसा हुई उसका पश्चात्ताप करते हैं
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तत्त्वभावना
शार्दूलविक्रीडित छन्द एकति बिषीकवत्प्रभृतयो ये पंचधावस्थिताः । जीवाः संचरता मया दशदिशश्चित्तप्रभावात्मना ।। ते ध्यस्ता यदि लोलिता विघटिताः संघट्टिता मोरिताः । मार्गालोचनमोबिना जिन ! तदा मिथ्यास्तु मे दुष्कृतम् ॥१॥
अन्वयार्थ (जिन) है जिनेन्द्र ! (चित्तप्रमादात्मना) प्रभाद या आलस्य या असावधानता या कषाय सहित चित्तको करके (मार्गालोबन मोचिना) मार्ग या पथको देखना छोड़कर (दशदिश संचरता) पुर्वादि दश दिशामों में चलते हुए (मया) मेरे से (एक द्विविहृषीकवत्प्रभृतयः) एकेन्द्रिय, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, आदिक अर्थात् चौन्द्रिय व पंचेन्द्रिय (थे) जो (पंचधा) पांच प्रकार से (जीवाः) संसारो जोव (अवस्थिताः) शास्त्र में स्थापित किये गए हैं (ते) वे जोव (यदि) यदि (ध्वस्ता:) नाश किये गए हों (लोढिता:) उलट पुलट किये गए हों (विघटिताः) अलग अलग कर दिये गए हों (संघटिताः) मिला दिये गए हों (मोटिताः) पैरों से रौंदे गए हों (तदा) तो (मे) मेरा (दुष्कृतम्) यह पाप (मिथ्या) नाश (अस्तु) हो।
भावार्थ-सामायिक करते समय पिछले किये गए पापों को याद करके प्रतिक्रमण या पश्चात्ताप इसीलिए किया जाता है कि जिसमें आगेके लिए उस पाप से बचा जावे। अहिसाबत की रक्षाके लिए यह आवश्यक है कि चार हाथ जमीन आगे देखकर चला जावे । मुनिगण महाव्रती होते हैं वे दिन के प्रकाश में प्राशुक रोंदो हुई जमीन पर ही चलते हैं और बड़ी भारी सावधानी रखते हैं कि मेरे द्वारा कोई छोटा-बड़ा वृक्षभी रोंदा न जावे, कोई छोटा
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तत्त्वभावना
कीड़ा भी परोंके नीचे न आजावे । फिर भी साधन अवस्था में किसी समय सावधानी न रहने से कोई जतु कदाचित् पेरके नीचे दबकर मर जाय, या उलट पलट हो जावे, अथवा शरीर, जमीन, कमंडल आदिको मुलायम पोंछोसे पोंछते हुए कोई जंतु जो मिले थे अलग-२ कर दिये जावें, व कई जो अलग थे वे मिला दिये जायें इत्यादि कारणोंसे प्रमाद हेतु होने से हिंसा सम्बन्धी पापका बंध संभव है। उस पापके बंधको छुड़ाने के लिए मुनिगण इस तरह विचारकर भावना भाते हैं । इस भावना से, पाप कर्म जो बंधचुका है उसकी स्थिति में व उसके अनुभाग में कमी हो जाती है । श्रावकोंमें आरंभ त्यागी आठवीं प्रतिमासे उद्दिष्ट त्यागी ग्यारवी श्रेणी तकके श्रावक हिंसासे वचने में बहुत ही सावधान होते हैं। वे स्वयं हिंसाकारक आरम्भ नहीं करते हैं, न कराते हैं। इसलिए ये शवक भी मुनि के समान किसी सवारी पर नहीं चढ़ते हैं-मार्गको देखकर चलते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा वाले ऐलक मुनि समान व्यवहार करते हैं; इसलिए रात्रि को न चलते हैं न वोलते हैं। उससे पहले के श्रावक अति आवश्यकता हो तो धर्मकार्यवश प्रकाश में मार्गको देखते हुए चलते हैं । आठवींसे नीचेके श्रावक आरम्भ त्यागी नहीं होते हैं। उनसे हिंसा अधिक हो जाती है। वे आरम्भी हिंसा से बच नहीं सकते तथापि यथासम्भव आरम्भ व्यर्थ व अनावश्यक नहीं करते । आवश्यक आरम्भ करते हुए भी जीबदधा भावों में रखते हैं। यथासम्भव जीवघात बचाते हैं। युद्ध में सामना करने वालेको हो प्रहार करते हैं। भागते हुएको, शरण में आए हुएको, धायलको, स्त्रीको, बालकको नहीं सताते हैं। खेती में भी जान बूझकर किसीको नहीं मारते हैं । व्यापारमें भी पशुओं पर अधिक भार लादकर कष्ट नहीं देते हैं। सवारी पर चलते हुए अधिकतर रौंदे हुए
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मार्ग पर सवारीको ले जाते हैं। पैदल चलते हुए अपनी आंखोंसे देखकर चलते हैं । तोभी आरंभी धावकसे बुहारी देते हुए, घरके काम करते हुए, माल उठाते धरते हुए, मकानादि बनवाते हुए बहुत अधिक जीवहिंसा हो जाती है। यहां इस श्लोक में मात्र चलते समय जो हिंसा होती है उसीकी मुख्यता है । हिंसासे लगे हुए पाप-रसको घटानेका विचार ऐसे श्रावकभी करते हैं जिससे आगेके लिए उनके व्यवहारमें आंधक सावधाना हो जावे। जी मानव किसी कर्मको छोड़ नहीं सकता है परंतु निरंतर विचारता है कि यह कर्म छोड़ देने योग्य है वह कभी न कभी छोड़भी देगा व उसे कम करता जायगा, इसलिए हिसा त्यागकी भावना हरएक मुनि व श्रावकको करना उचित है। यह पाठ सर्व ही प्रकारके धर्मात्मा मुनि, आपिका, श्रावक व श्राविका द्वारा मनन करने योग्य है । हिंसा हुई हो तो उसनर पश्चात्ताप अहिंसा पालनमें सावधान करने वाला होता है।
मूल श्लोकानुसार छन्द गोता हे श्री जिनेन्द्र ! प्रमाव चित्त हो मार्ग को देखे विना। दश विश भ्रमण करते विराधे पंच विध अंतू धना। जो एक द्वै वय आदि इन्द्रिय दलमले छिनमिन किये। उलटे तथा पलटे मिलाए, पाप मिथ्या होंय ये ॥१॥
उत्थानिका-हमारा समय शुभ कार्यों में बीते ऐसी भावना करते हैं
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अर्हक्तिपरायणस्य विशदं जनं वचोऽभ्यस्यतो। निजिह्वस्य परापवादवदने शक्तस्य सत्कीतने ।। चारित्रोद्यतचेतसः क्षपयतः कोपादिविद्वेषिणः । देवाध्यात्मसमाहितस्य सकलाः सार्यतु मे वासराः ॥२॥
अन्वयार्थ (देव) हे जिनेन्द्रदेव (मे; मेरे (सकलाः) सर्व (वासरा:) दिवम (अहंदभक्तिपरायणस्) अन्नको भक्ति को लीननामें (विशद) निर्मल (जैन चो) जिनवाणीके (अभ्य स्पन:) अभ्यास करने में, (परापवादवचने) दूसरों को निन्दा कहने में (निर्जिह्वस्य) जिह्वा रहित रहने में अर्थात् दूमों की निन्दा न करने में (सत्कीर्तने) संत तुरुषों के गुणों के वर्णन में (शक्तस्य) अपनी शक्ति लगाने में (चारित्रोद्यत्तचेतसः) चारित्र के लिए उद्यमी चित्त रखने में (कोपादिविद्वेषिणः) क्रोध आदि शत्रुओं को (क्षपयतः) क्षय करने में तथा (अध्यात्मसमाहितस्थ) आत्मा के भील र भले प्रकार लीन होने में (सयतु) बोते।
भावार्थ- यहां मोक्षार्थी सुख शांतिको चाहता हुआ व स्वाधीनता के मनोहर वन में रमने को उत्कंठा करता हुआ, सुख शांति व स्वाधीनता के निमित्त कार्यों में नित्य लगे रहने की भावना करता है । साधक शिष्य का प्रयोजन अपने भावों में से क्रोधादि कषायों के मन को कम करके शांति, क्षमा, वरार,
आत्ममनन, आत्मानुभव आदि शुभ तथा शुद्ध भावों को प्राप्त करना है। इस मतलब को ध्यान में लेकर जिन को संगति करने से व जिस क्रिया के करने से वह मतलब मिड हो उसमें अपने मन को जोड़ता है। और जिनकी संगति से व जिस क्रिया से क्रोधादि कपान चढ़े व संसार से मोह अधिक हो आबे उनसे
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बचता है। जनधर्म के सेवन का यही प्रयोजन है। यह धर्म सुखशांतिमय है तथा सुखशांति को देने वाला है। इस धर्म में वही देव पूजने योग्य है जो सर्वज्ञ, वीतराग व आनन्द-यी है। वहीं शास्त्र मानने योग्य है जिसमें सुखशांति पाने का उपाय यथार्थ बताया हो। वहीं गुरु वन्दने योग्य है जो आत्मज्ञानो, बैरागी व सुख शांति का भोगने वाला है। वही मनन व ध्यान कार्यकारी है जो सुख व शांति प्रदान करे। इसलिए साधक ने नीचे लिखे कार्यों में लगे रहने की भावना की है। (१) श्री अर्हत को भक्ति व पूजा व गुणों का स्मरण; क्योंकि यह भक्ति अवश्य परिणामों को शांत कर देती है। (२) जिनवाणी का पढ़ना; क्योंकि इससे अज्ञान और अशांति मिटती है। (३) दूसरों को निन्दा न करना; क्योंकि जिसकी आदत परनिन्दा की पड़ जाती है वह दूसरों के अवगुणों को ढूंढा करता है। उसका उपयोग अपनी उन्नति में दृढ़ नहीं होता है व वह स्वयं औगुण वाला हा जाता है। (४) धर्मात्माओं के गुणों का वर्णन; क्योंकि ऐसे गुणों के कथन से मन उन गुणों के लाभ में उत्साही हो जाता है । (५) चारित्र के लिए उत्साही होना व उद्यम करना; क्योंकि रागद्वेष के हटाने का उपाय मुनि व धावक का चारित्र पालना है। भीतरी चारित्र आत्मस्वरूप में लीनता है, उसका निमित्त साधक व्यवहार में महावत व अणुव्रत का पालन है। (६) क्रोधादि शत्रुओं को नाश करना । वास्तव में जितना इनका अभाव होगा उतना अपना आत्मा का स्वभाव प्रकाशमान होगा। (७) मात्म स्वरूप में लीनता या अनुभव; क्योंकि यही स्वात्मानुभव वास्तव में सुखशांति को साक्षात् देनेवाला है । जो मानव सच्चे दिल से इन सातों बातों को चाहता है, इनके साधनके लिए उपाय क्रिया
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तस्वभावना
करता है वही सुख शांति को पाता हआ मोक्षमार्ग पर चलने घाला है । जैन मंदिरों में जो नित्य पूजा के पीछे शांतिपाठ पढ़ा जाता है उसमें भी इसी तरह की भावना बताई है । जैसे
शास्त्राभ्यासो जिनपवनुतिः संगतिः सर्ववाध्यः । सदवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे मौनम् ॥ सर्वस्यापि प्रियहितबची भावना चास्मतत्त्वे। सम्पद्यन्तां मम भव भवे यावदेतेऽपवर्गः ।।
भावार्थ-जब तक मोक्ष न हो तब तक भव में इतनी बातें प्राप्त हों (१) शास्त्र पठन (२) जिन भक्ति (३) सत् पुरुषों की संगति (४) सुचारित्र बालोंके गुणों की कथा (५) परनिंदा न करना (६) सबसे प्यारे मीठे वचन बोलना (७) आत्मतत्व में विचार रहना .
जहां तक आत्मतत्त्व भले प्रकार न जाग्रत हो वहाँ तक व्यवहार धर्म में देवशास्त्र गुरुका आराधन करते ही रहना चाहिए । श्रीपद्मनंदि मुनि परमार्थविशति में इस तरह कहते हैं
वेवं तत्प्रतिमां गुरुं मुनिजनं शास्त्रावि मन्यामहे । सर्व भक्तिपरा अयं व्यवहतौ मार्गे स्थिता निश्चयात् ॥ अस्माकं पुनरेकताश्रयणतो व्यक्तीमयचिदगुणाः। स्फारोभूतमतिप्रबंधमहतामात्मैव तत्त्वं परम् ॥
भावार्थ-हम व्यवहार धर्म में चलते हुए अत्यन्त भक्तिर्वत हों जिनेन्द्र देव को, उनकी मूर्तिको, मुनीश्वरको व शास्त्र आदि सर्व को मानते हैं अर्थात् इन सबकी सेवा किया करते हैं। परन्तु जब हा रत्नत्रय की एकता अर्थात् समताभाव का आश्रय करेंगे और हमारे भीतर चैतन्य तत्त्व प्रकट होकर बुद्धि विशाल हो
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तत्त्वभावना
जायगो तब हमारे लिए निश्चय से एक आत्मतत्व हो देव, मुरु या शास्त्र हो जाएगा। इस प्रकार साधक को व्यवहार धर्म की भाषना निश्चयधर्म के लाभ के लिए करते रहना चाहिए।
मूल इलोकानुसार गीता छन्द हे देव ! श्री जिन भक्ति करते अन च अभ्यासते । निन्दा न करते अन्यजन की साधु गुण सुप्रकाशते ।। चारित्र चितमें चाहते क्रोधादि शत्र निवारते। बीते दिवस मेरे सभी अध्यात्म अनुभव धारते ॥शा
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मेरे चरित्र में जो दोष लगे हों वे व्यर्थ हो
आलस्याकुलितेन मुद्धमनसा सन्मार्गनिर्णाशिना। लोमक्रोधमवप्रमाश्मदनद्वेषाविविग्यात्मना ।। यद्देवाचरितं विरुद्धमधिया चारित्रशुद्धमेया। मिथ्या दुष्कृतमस्तु भो जिनपते ! तत्त्वत्प्रसादेन मे ॥३॥ अन्वयार्थ - (देव) हे भगबन (आलस्याकुलतेन) आलस्यसे भरकर व (मटमनसा) मन में विवेक को छोड़कर मूर्खता धार के (सन्मार्गनिर्णाशिना) मोक्षमार्ग को विराधना करते हुए (लोभक्रोधमदप्रमादमदनद्वेषादिदिग्धात्मना) व अपने आरमाको क्रोध, लोभ, मान, असावधानो, कामभाव, देष आदि से लिप्त करके (मया) मुझ (अधिवा) निर्बुद्धि के द्वारा (यत्) जो कुछ (चारित्रशुद्धः) चारित्रको शुद्धतासे (विरुद्धम् } विपरीत (आच. रितं) आचरण किया गया हो (भो जिनपते !) हे जिनेन्द्र भगबान ! (स्वत्प्रसादेन) आपके प्रसाद से (तत्) वह (मे) मेरा (दुष्कृतम् ) दुष्कृत या पाप या दोष (मिथ्या) नाश (अस्तु) हो ।
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तत्त्वभावना
. भावार्थ---यहां पर भी प्रतिक्रमण का भाव झलकाया गया है । जहाँ तक कषायों का अभाव न हो अर्थात् वीतरागी न हो जावे वहां तक बाषायों का जोर कभी कम व कभी अधिक होता रहता है। जिस समय परिणाम में कषाय मंद होती है तब ही भावों में शांति, विवेक, बुद्धिमानी झलकती है। तब वह मानव मुनि हो या श्वावक अपने धारण किये हुए चारित्र के नियमों में बहुंत बड़ा सावधान रहता है और मन, वचन, काचसे कोई दोष नहीं लगने देता है। परन्तु जिस समय किसी निमित्तवश परिजाम में लोभ का कुछ जोर हो जावे या क्रोध का वेग उठ आवे या मानभाव मे अन्धेरा हो जावे या आलस्य हो जावे या द्वेष. बुद्धि पैदा हो जावे या कामभाव से चावला हो जावे उस समय मन में अशांति, अज्ञान और मढ़ता कम व अधिक घर कर लेती है । सब उसी मुनि व श्रावक से चारित्र के पालन मे बहुत से दोष लग जाते हैं। कदाचित काय व वचन सम्बंधी न हों व बहुत ही अल्प हों परन्तु मानसिक दोष तो हो ही जाते हैं। इसीलिए प्रतिक्रमण किया जाता है। जिसमें यह भावना भाई जाती है कि वे दोष दूर हों व उनसे लगा हुआ पाप क्षय हो जावे या कम हो जावे । श्री जिनेन्द्र भगवान के गुण परम पवित्र हैं। इसलिए उनके निर्मल मुणों के स्मरण से परिणाम निर्मल हो जाते हैं और पवित्र भावों में यह शक्ति है कि पापों का नाश कर डालें। जैसे स्थूल शरीर में बहुत सावधानी से हवा, पानी व भोजन लेते हुए व समय में भोजनपान, नीहार, विहार व निद्रा लेते हए कभी भी किसी न किसी बात में भूल हो जाती है। अनिष्ट भोजन जबान के स्वादव खा लिया जाता, रात्रिको देर तक जागकर निद्रा कम ली जाती, व काम-काज में उलझ जानेसे बेसमय भोजन किया जाता, ब अधिक स्त्री-प्रसंग किया जाता इत्यादि अपनी
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ही भूलोंसे छोटे या बड़े रोग पैदा हो जाते हैं । तब गृहस्य लोग उनके दूर करने के लिए औषधियां काम में लेते हैं कि वह रोग शीघ्र मिट जावे, अधिक न बढ़े जिससे कि शरीर बेकाम हो जावे | इसी तरह मुनि व श्रावक बड़ी सावधानी से अपना आचरण पालते हैं तथापि कभी-काही कारणों के वश होकर चलने में देखनेका प्रमाद हो जावे, बोलने में कठोर व कषाय युक्त बचन निकल जावे, भोजन में स्वादिष्ट पदार्थ की लालसा हो जावे, किसी स्त्रीको देखकर मनमें विकार हो जावे, असुहावनी कृति को देखकर मन में अरतिभाव माजावे, सामायिक करते हुए धर्मध्यान न होकर किसी कारण से आतंध्यान हो जावे इत्यादि दोष हो जाना संभव है। तब वह मुनि या श्रावक प्रतिक्रमण करके तथा परमात्मा के पवित्र गुणों का स्मरण करके अपने भावोंको निर्मल करता है, मानों दोषोंके रोगोंको हटाने के लिए. औषधि पीता है। ऐसा करने से दोषरूपी रोग मिटते रहते हैं, बढ़ने नहीं पाते। और वह आगामी के लिए सावधान रहता है। वास्तव में यह प्रतिक्रमण एक तरह का स्नान है जो मन के मैल को व आत्मा के पापों को धो देता है ।
तत्वावधान
श्री पद्मनंदि सुनिने आलोचना पाठ में ऐसा ही कहा है-पापं कारितवान्यदत्रकृतवानन्यैः कृतं साध्विति । त्याऽहं प्रतिपन्नवांश्च मनसा वाचा व कायेन च ॥ काले संप्रति यच्च माविनि नवस्थानोद्गतं यत्पुनः । तन्मि व्याखिलमस्तु मे जिनपते ! स्वं नियतस्ते पुरः ॥७॥
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तत्त्वभावना
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! जो मैंने अपने मन वचन कायके द्वारा इस समय तक पाप किया हो, कराया हो व दुसरों से किये जाने पर उसे भ्रमबुद्धि में पड़कर भला माना हो ऐसे नव तरहके दोष जो पहले लगे हों व अब लगते हों व आगे लगेंगे उन सब दोषों का नाश हो । मैं आपके सामने अपनी निन्दा कर रहा हूं।
___ मूल श्लोकानुसार छन्द गीता हे देव ! आलस ठान हो अविवेक वषपथ नासिया । कर क्रोध लोभ प्रमाव मान कु काम द्वेष प्रकाशिया ॥ चारिख शुद्ध विरुद्ध जो कुछ भी रहित मैंने किया। जिनराज ! तव परसाद से हो नाश मैं अघ बांधिया ॥३॥
उत्थानिका...आगे भावना करते हैं कि मेरा समय धर्मध्यान व रत्नत्रय को एकाता में वति
जीवाजीवपदार्थतत्त्वविवषो बंधानवी चंपतः। शाश्वसंवरनिर्जरे विवधतो मुक्तिप्रिय कांशतः ।। वेहावेः परमात्मतत्त्वममलं मे पश्यतस्तत्त्वतो । धमध्यानसमाधिशुद्ध मनसः कालः प्रयातु प्रभो ॥४॥ अन्वयार्थ - (प्रभो) हे प्रभु ! (जीवाजीवपदार्थतत्त्वविदुषः) जीव और अजीव पदार्थों को जानते हुए (बंधानवी रुंधतः) आस्रव और बंधको रोकते हुए (शाश्वत) निरंतर (संवरनिर्जरे विदधतः) संवर और निर्जराको करते हुए (मुक्तिप्रियं कांक्षतः) मोक्षरूपी प्रियाकी चाह रखते हुए (देहादेः) शरीर आदि पर पदार्थोसे भिन्न (अमल) निर्मल (परमात्मतत्व) परमात्माके स्वरूपको (तत्वतः) यथार्थ रूपसे {पश्यतः) अनुभव करते हुए और
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तत्वभावना
धर्मध्यानसमाधिशुद्धमनसः) धर्मध्यान और समाभाव में शुद्ध मनको लगाते हुए (मे) मेरा (काला:) समय (प्रयातु) वीते।
भावार्थ - इसमें आचार्य ने जैन सिद्धांत के मूलश्लोकभूत सात तत्वोंका संकेत करते हुए उन पर श्रद्धानको दृढ़ किया है। तथा उनमें कौन ग्रहण योग्य हैं व कौन त्यागने योग्य हैं इस भेद विज्ञान का स्वरूप निश्चय और प्यवहारनय दोनोंसे बताया है। असल बात यह है कि जिसको सुखशांति पाने की चाह हो व अपने आत्माको पवित्र करनेको रुचि हो उसको सात तत्त्वोंको भले प्रकार समझकर उन पर अपना विश्वास नाना चाहिए। जीव और अजीव नत्व में तो यह समझाया है कि यह लोक जीव और अजीव पदार्थों का समुदाय है। बिना इन दो पदार्थों को माने हुए संसार और मोक्ष वन ही नहीं सकता है । यदि एक मात्रजीव ही पदार्थ होता तो सब जीव शुद्ध अपने स्वभाव ही में पाए जाते । न कोई अशुद्ध होता न कोई दुःखी होता न शुद्ध होने के लिए व सुखी होने के लिए कोई धर्म का साधन करता। क्योंकि जीव का स्वरूप जानदर्शन सुख शांतिमय है। यह स्वभाव से सबको जानने देखने की शक्ति रखता है, क्रोधादि इसका स्वभाव नहीं है किन्तु शांति इसका स्वभाव है, जानंद भी इसका स्वभाव है। सब हो जीव परमात्म स्वरूप हो उस लोक में होते यदि एक जोव पदार्थ ही होता और यदि एक अजीब पदार्थ ही होता तो सब कुछ जड़ अचेतन होता फिर कोई जानने वाला व सुख दुःख को वेदने वाला नहीं होता फिर कहना सुनना समझना समझाना कुछ भी नहीं होता सो दोनोंका एकांत नहीं है। जगत में जोवभी
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तस्त्वचा
और अजीब भी हैं। संसारी जीव सब अशुद्ध हैं; क्योंकि इनमें ज्ञान की कमी है, क्रोत्रादि है, क्लेश आदि भोगते हैं । यह अशुद्धता इसीलिए है कि इनके साथ कर्मरूपी पुद्गलों का जो बहुत सूक्ष्म हैं तथा अजीव के पांच भेदों में से एक है, उनका बंध है । इसी को पाप व पुण्य कर्म का बंध कहते हैं। अजीव पांच है-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल । इनमें पुद्गल मूर्तिक है; क्योंकि इसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, गुण पाए जाते हैं, शेष चार अमृतिक हैं। सारी रचना जो हमारी पांचों इंद्रियों से मालूम करने में आती है पुद्गलसे रमी हुई है। हम शरोर से पुद्गल को छूते हैं; मुख से पुद्गल को खाते पीते ब चन्नाते हैं, नाक से पुद्गल को ही सूंघते हैं, आंख से पुद्गल को ही देखते हैं, कान से शब्दों को सुनते हैं जो पुद्गल से बने हुए हैं। सूक्ष्म पुद्गल इंद्रियों के द्वारा ग्रहण में नहीं आते हैं तथापि उनके कार्य प्रगट हैं। उन कार्यों के द्वारा उनका होना समझ लिया जाता है । जैसे कर्म पुद्गल बहुत सुक्ष्म हैं इंद्रियों से जाने नहीं जाते परंतु संसार में जांवों के भीतर अशुद्धता व दुःख सुख को भोगना देखकर अनुमान लगाते हैं कि पाप व पुण्य का अथवा कर्मों का बंध है । इस लोक में जीब और पुद्गल एक दूसरे पर असर डालते हैं, हलन चलन करते हैं, तरह-२ के कामों को करने वाले ये दो ही बड़े कार्यकर्ता हैं। बहुत से पुद्गल अपने स्वभाव से काम किया करते है, जैसे आग को गर्मीसे पानी का भाप बनना, बादलों का गिरकर पानी बरसना, धूप होना, छाया होना आदि काममुद्गलों के द्वारा उनके स्वभाव हो से हुआ करते हैं, बहुत से कामों को यह संसारी जीव करता है। जैसे खेती करना, मकान बनाना, कपड़ा बनना आदि - २
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तीसरा कोई एक ईश्वर कराने वाला
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नहीं है, न काम करने कराने में इसकी कोई आवश्यकता ही है । घी के सामने अग्नि आने से पिघलेगा ही, वर्फ के सामने गर्मी आने से पानी होगा ही । ईश्वर का इन कामों में हाथ है ऐसा कहना व्यर्थ है। ईश्वर निर्विकार, इच्छारहित, परमानन्दमई है, वह किसी वस्तु के बनाने व बिगाड़ने में दखल नहीं देता है।
तत्त्वभावना
जीव और पुद्गल चार काम अपनी ही ताकत से करते हैं; जैसे - चलना, ठहरना, जगह पाना और अवस्थाओं को बदलना । क्योंकि हरएक कामके लिए खास निर्मित कारण की जरूरत है । इसलिए इन चारों कामोंके लिए जैन सिद्धांत ने चार द्रव्य माने हैं। जो जीव मुद्दों के बल में उदासीन कारण है वह लोकव्यापी धर्मद्रव्य है । जो जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहकारी है वह लोकव्यापी अधमंद्रव्य है। जो सब द्रव्योंकी अवकास देता है वह अनंतव्यापी आकाशद्रव्य है । जो सब द्रव्योंको अवस्था बदलने में मदद देता है वह कालाणु नामका कालद्रव्य है, जो रत्नों के समान अलगर लोकके असंख्यात प्रदेशों में तिष्ठा है।
जीव और कर्म पुद्गल इन दो द्रव्योंके सम्बन्ध के कारण से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच तत्व व्यवहार किये जाते हैं।
संसारी जीवों के मन, वचन, कायके कामोंके होते हुए आत्मा के प्रदेश काँपते हैं इस कारण से चारों तरफ के कर्म पुद्गल जीव के अच्छे या बुरे भावों के अनुसार पुण्य या पापरूप में आते हैं। इसी को आस्रव तत्व कहते हैं। ये आए हुए ही कर्मपुद्गल जीव के साथ जो कार्माण शरीर है उसीमें बंध जाते हैं । यह बंधन किसी नियमित समय के लिए होता है। उस समय के
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तत्त्वभावना
भीतर-२ वे अवश्य गिर जाते हैं। जिन कर्मों के अनुकूल सामग्री होती हैं वे कर्मफल देकर व अनुकूल सामग्री विना फल दिये भी झड़ जाते हैं।
आस्रव और बंध तत्व से यह ज्ञान होता है कि जीव अशुद्ध कैसे होता है। क्योंकि जब तक परमात्म स्वभावके निकट न पहुंचे तबतक संसारी जीवोंके मन वचन काय काम किया करते हैं और हर समय जैसे पुराने कर्म झड़ते हैं वैसे नए पुण्य या पाप कर्म बंधते भी जाते हैं। यदि आत्मा को कर्मबंध से छुड़ाना हो तो संबर और निर्जरा तत्वको समझना चाहिए । कोंके आने और बंधके रोकने को संवर कहते हैं। संवर के लिए उद्यम करना चाहिए। जिन भावों से कर्म बंधते हैं उनको रोकना चाहिए । इस संवर के लिए हिंसादि पांच पाप छोड़कर अहिंसा सत्य आदि पाँच व्रत पालना चाहिए, क्रोधादि भागोंको रोककर उत्तम क्षमा आदि दशधर्म पालना चाहिए, आर्तध्यान रौद्रध्यान रोककरधर्म. ध्यान शुक्लध्यान साधना चाहिए, प्राचीन बंधे हुए कर्मोको अपने समय के पहले व उनका बिना फल भोगे हुए दूर करने की रोति को निर्जरा तत्व कहते हैं तप करनेसे अर्थात् इच्छाओं को रोक कर आत्मध्यान व वोत राग भावका अभ्यास करनेसे कर्म मड़ते जाते हैं । सर्व कर्मों के बंधसे छुटकर आत्माके पवित्र हो जानेका नाम मोक्ष तत्व है। मोक अवस्था में आत्मा सदा अपने ज्ञानानंदका विलास किया करता है। इन सात तत्वोंमें अजीव आस्रव व बंध त्यागने योग्य है जबकि जीव, संवर, निरा व मोक्ष ग्रहण करने योग्य हैं। परंतु निश्चयनयसे इन सात तत्वोंमें दो ही पदार्थ
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हैं -- जीव और अजीव । इन दोनों में से जोवको हो ग्रहण करके उसके हो शुद्ध स्वरूप का अनुभवव करना चाहिए इसलिए आचार्यने कहा है कि जीव अजीब से भिन्न है ऐसा जाना, आस्रव बंधके कारणों को रोका, सदा संबर और निर्जराका उपाय करो, स्वाधीनता रूप मोक्ष पाने को उत्कंठा रक्खो तथा निश्चयनय से एक अपने हो शुद्ध आत्मतत्व को भेद विज्ञान के बल से रागद्वेषादि भावों से भिन्न वीतराग विज्ञानमय विचारो ओर अनुभव करो। यही मार्ग सुख शांति पाने का तथा कर्मोके बंध से छूटने का है। जब तक हम इस देह में हैं हमें अपना समय इसी तरह पर बिताकर सफल करना चाहिए। यही मानव-जीवन का लाभ है। श्री पद्मनंदि मुनि ने आलोचना के पाठ में मुक्तिपद की हो भावना की है जैसे
तत्त्व भावना
इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा घोनयः । संसारे क्षमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयानंतशः ॥ तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विभुक्तप्रदाम् । सम्यग्दर्शन बोधवृत्तिपदंची तां देव ! पूर्णां कुरुः ।। मावार्थ- हे देव ! मैंने इस संसार में चिरकालसे भ्रमण करते हुए इन्द्रपना तथा निगोदपना तथा इनके मध्य की बहुत प्रकार योनियों को अनंतबार पाया। इसलिए सिवाय मोक्षके देनेवाले सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रमई रत्नत्रय की पदवी के और कोई वस्तु मेरे लिए अपूर्व नहीं है अर्थात् मैं सिजाय अभेद रत्नत्रयरूप आत्मानुभव के और किसी वस्तुको नहीं चाहता हूँ; क्योंकि इसी से ही मुक्ति प्राप्त होती है। इस कारण आप इसी की पूर्ति कीजिए ।
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वास्तव में ऐसो-२ भावना परिणामोंको निर्मल करनेवाली हैं और सुख शान्ति प्रदान करने वाली हैं।
मूल श्लोकानुसार छंद गीता सत् तत्व जीव अजीब जानत बंध आलय रोकते। करते सुसंवर निर्जरा नित मुक्तिप्रिय अवलोकते॥ बेहादिभिन्न सुनिर्मलं परमात्म तत्व सुध्यावते । मम काल बीते हे प्रभो ! वृष ध्यान समता पावते ॥४॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्तम कार्य वही कर सकता है जिसका संसार वास समाप्त होने को आया है व जो मुक्ति पाने के लिए शीघ्र ही अधिकारी हो गया है
पवीत सुध कषायमवनिर्जयः सकलसंगनिर्मुक्ता। चरित्रपरमोडमी जननदुःखतो भीरता ।। मुनीन्चपदसेवना जिनवचोविस्थागिता ।
हषोकहरिनिगहो निकटनिवतेजयिते ॥५॥ अन्षया—(कषायमदनिर्जयः) क्रोधादि कषायोंके मदको जीतना (सकलसंगनिमुक्तता) सर्व परिग्रह का त्याग (चरित्रपरमोद्यमो) चारित्र के लिए गाढ़ प्रयत्न (जननदुःखतो भीरुता) संसारके दुःखोंसे भय (मुनीन्द्रपदसेवना) मुनोश्वरोंके चरणों को सेवा (जिनवचोरुचिः) जिनवाणी में रुचि (त्यागिता) सर्व वस्तु का त्याग या एक देश त्याग अथवा दान करना और (हृषीकहरिनिग्रहा) इन्द्रिय रूपी सिंह को वश करना (निकटनिर्वते:) जिसके मुक्ति निकट है उस महात्मा के (जायते) ये बातें प्रकट होती हैं।
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तस्वभावना
भावार्थ-यहां यह दिखलाया है कि जिनको संसार-समुद्र तिरने में बहुत थोड़ी देर है अर्थात् जो दीर्घकाल तक संसार में फसे न रहेंगे और शोघ्र ही मुक्ति को पाएँगे उन महात्माओं को ही वे सब कारण व साधन सहज में मिल जाते हैं, जो कर्मो को काटने वाले हैं । वास्तव में मुक्ति का साक्षात् साधन निग्रंथ पद है । अर्थात सर्व परिग्रह रहित साधुपद है । जिसका बाहरी भेष नग्न दिगम्बर है, मात्र पोछो व कमंडल और होता है, जिससे जीवदया पाली जाये और शौच का काम लिया जावे । ये साधु शरीरसे ममता के त्यागी होते हैं, इसीलिए अपने केसों को हाथ से घास के समान उखाड़ कर फेंक देते हैं। तथा ये अहिंसावत के पूर्ण पालक होते हैं इसीलिए चार हाय प्राशक भूमि आगे देखकर दिन में चलते हैं । रात्रि को एक स्थान में ठहरते हैं । जिनके वचन बड़े मिष्ट, अल्प व शास्त्रोक्त होते हैं। जो शुद्ध भोजन समताभाव से गृहस्थों को बिना किसी प्रकार का कष्ट दिये हुए जो उन्होंने अपने कुटुम्बक हेतु बनाया है उसीका कुछ भाम भक्तिपूर्वक दिए जाने पर लेते हैं । जो निजंतु स्थानों में मल मूत्र करते हैं व जो किसी वस्तु को देख शोधकर उठाते घरते हैं। ऐसे पांच समिति के पालक हैं, जो बिना दिए हुए अपने से कभी कोई वस्तु यहां तक कि पानी व फलफुल भी नहीं लेते। जो सत्य वचनों के सिवाय कभी भी हिंसाकारी असत्य नहीं कहते । जो परम शुद्ध ब्रह्मचर्य की दृष्टि से देखते हुए कामभाव को अपने मन में जगह नहीं देते । जो किसी क्षेत्र व रुपये पैसे पर व किसी अन्य चेतन अचेतन पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं रखते । ऐसे पांच अहिंसादि महावतों के पालक हैं।
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तत्त्वभावना
जिन्होंने क्रोधादि कषायों को ऐसा जीत लिया है कि सताये जाने पर भी किसी पर द्वेष नहीं करते हैं। अपने शत्रु को भी आत्मा का हित ही चाहते हैं । जो विद्वान व माननीय होने पर भी कभी घमंड नहीं करते । कहीं तिरस्कार हो जाय तो जरा भी उदास नहीं होते। जो कभी कपट या मायाचार नहीं करते मन में जो होता है वही वचन से कहते, वचन से कहते वही क्रिया करते हैं। जो लोभ के यहां तक त्यागी हैं कि अनेक प्रलोभनों के कारण मिलने पर भी वीतराग भाव से नहीं हटते । जिनका निरंतर यह उद्यम रहता है कि हम स्वरूपाचरण चरित्र में डटे रहें अपने निजात्मा का अनुभव करते रहें, जिनके मन में चार गतिरूप संसार महाभयंकर आकुलता का समुद्र दीखता है, सदा यह खटका रखते हैं कि यह मेरा आत्मा कहीं इस गोरखधंधे में न फंस जावे । जो अपने गुरुओं की सेवा इसीलिए करते रहते हैं कि गुरु उनके चारित्रकी संभाल रखते और उनको सदा मोक्ष मार्गपर 'मले प्रकार चलने के लिए उत्तेजना देते व सुधार करते हैं। जो जिनवाणी को तत्वविचार में परम उपयोगो समझकर उसका निरन्तर बड़े प्रेम से अभ्यास करते हैं । जो अपने आत्मीकशुद्ध भावों के सिवाय सर्व पर भावोंको त्याग देते हैं या जो निरंतर जीवरक्षा करके अभयदान देते व धर्मोपदेश देकर जानदान देते हैं व जिनके वश में पांचों इन्द्रियां रहती हैं। इसीसे वे जिन या जितेंद्रिय होते हैं ऐसे साधु महात्मा भावलिंगो मुनि होते हैं । वे यातो उसी जन्म से या दो चार दस जन्म में संसार से मुक्त हो जाते हैं। आचार्य के कहने का मतलब यह है कि इन सब बातों को बड़ा दुर्लभ व परम उपयोगी समझना चाहिए और जब इनमें से कोई या सब बातें प्राप्त हो जावें तो
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तत्त्वभावना
बड़ा उत्तम समय मानना चाहिए और प्रमाद छोड़कर अपने हित में दढ़ रहना चाहिए । जो पुरुषार्थी होते हैं वे ही साधु निजानन्द भोगते हुए अनंत सुख के अधिकारी हो जाते हैं ।
श्रीपद्मनंद मुनि यतिभावनाष्टक में मुनिका स्वरूप कहते हैंआवाय व्रतमास्मतत्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा बनम् । निःशेषामपि मोहकर्मनितां हित्वा विकल्पाबलीम् । में मिति मनोमान्चिटनलकत्त्वप्रमोदं गता। निष्कम्पा गिरिवज्जयन्ति मुनयस्ते सर्वसंगोजिसताः ॥१॥
मावार्थ-जो साधु महावतों को लेकर, निर्मल आत्मा के तत्व को समझकर तथा वन में जाके सब ही मोह कर्म के वश से पैदा होने वाले अनेक विकारों को छोड़ करके मन, श्वासोच्छवास और आत्मा तीनों को निश्चलता में एकतान होते हुए आनन्द को भोगते हुए पर्वत के समान कंप रहित रहते हैं वे सर्व परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ साधुविनय प्राप्त करते हैं अर्थात् कर्मोंको जीतकर परमात्मा, परमेश्वर व परमब्रह्म हो जाते हैं
मूलश्लोकानुसार छन्द गोता कुकषाय अरिको चूरना अर सब परिगह त्यागना । चारित्रमें उद्यम घना संसार क्लेश निवारना । आचार्य पद का सेवना जिनयाणि में रुचि धारना । इन्द्रिय विजय पर त्याग हों दिग मोक्ष का जब आधना ॥५
उत्थानिका-आगे भावना भाते हैं कि सुख-दुःख आदि में मेरा भाव समता भाव को भजे क्योंकि यही समता निर्जरा का कारण है।
मंदाक्रांता विद्विण्टे वा प्रशमबति या बांधवे वा रिपौवा। मोघे वा बुधससि व पसने वा बने वा ॥
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संपत्ती वा मम विपदि वा जीवते वा मृतौ या कालो देव ! व्रजतु सकलः कुर्वतस्तुल्यवत्तिम् ॥ ६ ॥
तत्वभावना
अन्वयार्थ -- (देव) हे जिनेन्द्रदेव ! (मम) मेरा ( सकलः ) सर्व ( काल : ) समय ( विद्विष्टे वा) मेरे से द्वेष करने वाले में ( प्रशमवति वा ) अथवा मेरे ऊपर शांत भाव रखने वाले में, ( बांधवा) बन्ध में (रिपी वा ) अर्थात् शत्रु में (मूखौं घे बा ) भूखों के समुदाय में ( बुधसदसि वा ) अथवा बुद्धिमानों की सभा मैं ( पसने वा ) नगर में ( बने वा) अथवा जंगल में (संपत्ती वा ) घनादि की प्राप्ति में (विपदि वा ) अथवा आपत्ति में ( जीवते वा) जीने में (मृतौ वा ) अथवा मरने में ( तुल्यवृत्तिम् ) समान रूप या समता रूप वर्तन ( बुर्बत: ) करते हुए ( ब्रजतु) बीते 1 शिखरिणी छन्द
सुखे वा दुःखे वा व्यसनजन के या सुहृदि था। गृहे वारण्ये वा कनकनिकरे वा दृषदि वा ॥ प्रिये वातिष्टे वा मम समधियों यांतु दिवसा । वधानस्य स्वान्ते तव जिनपते ! वाक्यमनघम् ॥७॥
अन्वयार्थ - ( जिनपते) हे जिनेन्द्र ( सुखे वा ) सुख में (दुःखे वा ) अथवा दुःख में ( व्यसनजन के वा) आपत्ति में डालने वाले शत्रु में (सुहृदि वा ) अथवा मिश्र में (गृहे वा ) घर में ( अरण्ये वा) अथवा जंगल में ( कनकनिकरे वा) सुवर्णके ढेर में (दुषादि वा) अथवा पाषाण में ( प्रिये वा) किसी प्रिय या मनोज्ञ वस्तुमें ( अनिष्टे वा) अथवा किसी अमनोज्ञ वस्तु में (समधियः ) समता बद्धिको रखते हुए तथा ( तव ) आपके ( अनयम् ) पापरहित या
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२२ ]
पवित्र (वाक्यम्) वचन को (स्वान्ते) अपने मन में ( दधानस्य ) धारण करते हुए (मम) मेरे ( दिवसाः ) दिन (यांतू) वीर्त ।
भावार्थ इन दो श्लोकों में आचार्य ने सामायिक के स्वरूप को दिखला दिया है। वास्तव में समताभाव को ही सामायिक कहते हैं । यह समताभाव असल में तबही जगता है जब निश्चय नयकी शरण ग्रहण की जावे औरव्यवहार नयकी दृष्टिको गौण रक्खा जावे। निश्चय नय वह दृष्टि या अपेक्षा है जिसके द्वारा देखने से हर एक पदार्थ का मूल या असली रूप दिख जाता है। यही द्रव्य दृष्टि है, द्रव्यको मात्र उसके असली स्वभाव में देखने वाली है । व्यवहार नय वह दृष्टि है जिसके पदार्थ की भिन्न- २ अवस्थाओं को व पार्थ के भेदी को व असली हालत पर पहुंचने के साधनों को व उसके अशुद्ध स्वरूप को देखा जा सके। जैन सिद्धांत ने यह आवश्यक बताया है कि दोनों नयों से पदार्थों को देखना चाहिए जैसा कहा है-
व्यवहार निश्वयो यः प्रबुद्धय तत्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः सएव फलमविफलं शिष्यः ॥ ( पुरुषार्थ ० ) । भावार्थ - जो शिष्य व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों को समझकर मध्यस्थ या वीतरागी हो जाता है या किसी एक नय के पक्षपात से रहित हो जाता है वही जिनवाणी को समझने के पूर्ण फल को प्राप्त करना है ।
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तत्त्वभावना
यह जगत व्यवहारनय ( PRACTICAL POINT OF VIEW ) से देखते हुए अनंत भेदरूप विचित्र दिखलाई पड़ता है । यह राजा है यह रंक है, यह स्वामी यह सेवक है, यह धनवान
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तत्वभावना
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है यह निधन है, यह सुजन है यह नुसा है यह बलवान है ग्रह निर्बल है, यह विद्वान् है यह मूर्ख है, यह गुरु है यह शिष्य है, यह पूज्य है यह पूजक है, यह वंदनीय है यह वंदना करने वाला है, यह साध है यह गृहस्थ है, यह शत्रु है यह मित्र है, यह पिता है यह पुत्र है, यह माता है यह पुत्री है, यह बांधब है यह अन्य है, यह पुरुष है यह स्त्री है, यह बालक है यह जवान है, यह वृद्ध है यह शिशु है, यह निरोगी है यह सरोग है, यह हिन्दू है यह मुसलमान है, यह पारसी है यह सिक्ख है, यह जर्मन है यह जापानी है, यह अंग्रेज है यह फ्रांसीसी है, यह अमेरिकन है यह आफ्रिकाबासी है, यह गोरा है यह काला है, यह क्षत्रि है यह वैश्य है, यह ब्राह्मण है यह शूद्र है, यह पर्वत है यह नदी है, यह सूर्य है यह चन्द्र है, यह स्वर्ग है यह नर्क है, यह स्वदेश है यह परदेश है, यह यह भरत है यह विदेह है, यह घर है यह जंगल है, यह बन है यह उपवन है, यह सुवर्ण है यह कांच है, यह रत्न है यह पाषाण है, यह महल है यह श्मशान है, यह फूल है यह कंटक है, यह शय्या है यह भूमि है, यह चांदी है यह लोहा है, यह तांबा है यह मिट्टी है, यह निर्मल है यह मैली है, यह घट है यह पट है, इत्यादि जितने कुछ भेद प्रभेद हैं ये सब व्यवहारनय की दृष्टि में हैं । यही दृष्टि रागद्वेष मोह का कारण है जिन चेतन पदार्थों से अर्थात् स्त्री, पुत्र, मित्र, बंधु, पशु आदि से अपना स्वार्थ सधता है अथवा जिन अचेतन पदार्थों से अर्थात् घर, वस्त्र, वर्तन सामान आदि से अपना मतलब निकलता है उनसे तो राग
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२४ ]
तत्वभावना
होता है तथा जिन पुरुषों से व स्त्रियों से अपने स्वार्थ साधन में हानि पड़ती है अथवा जो घर, वस्त्र, वर्तन या सामान अपने चित्त को कष्टप्रद भासते हैं उनसे द्वेष पैदा हो जाता है । व्यवहारनय की दृष्टि से देखते हुए अहंकार व ममकार पैदा होते हैं, मैं राजा हूं, मैं धनवान हूं, मैं बड़ा हूं, मैं दोन हूं, मैं दुखी हूं, मैं रोगी हूं, मैं निरोगी हूं, मैं सुन्दर हूं, मैं कुरूप हूं, मैं पुरुष हूँ मैं स्त्री
अहंबुद्धि होती है। यह तन मेरा है, यह धन मेरा है, यह वस्त्र मेरा है, यह घर मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह खेत मेरा है, यह आभूषण मेरा है, यह भोजन मेरा है, यह ग्रन्थ मेरा है, यह मंदिर मेरा है, इत्यादि ममकार बुद्धि पैदा होती है। इस अहंकार ममकार के द्वारा वर्तन करते हुए चारों कषायों की प्रबलता हो जाती है। कषायों के द्वारा तीव्र कर्म का बंध हो जाता है और यह मोही प्राणी संसार के झंझटों में व सुख तथा दुःख में उलझा रहता है। कभी अपने सच्चे सुख को व अपनी सच्ची शांति को नहीं पाता है ।
निश्चय नय से देखते हुए ये सब ऊपर लिखित भेद नहीं दीखते हैं । ये सब भेद जीब और पुद्गल इन दो मूल द्रव्यों के निमित्त से हैं। बस जो निश्चय से देखता है उसे सवं ही जीव संसारो या सिद्ध, नारकी, देव, पशु, मनुष्य, छोटे, बड़े, राजा, 'रंक आदि एक रूप अपने शुद्ध केवल स्वभाव में ही दिखते हैं। सब ही पूर्ण ज्ञान दर्शन सुख वीर्य के धारी परमात्मारूप ही दिखते हैं। आप भी अपने को परमात्मारूप दिखता है, अन्य सब भी परमात्मारूप दिखते हैं । तथा सब पुद्गल स्पर्श, रस, गंधवान अजीवरूप एक से दिखते हैं। इस दृष्टि से देखते हुए ही समताभाव की जागृति होती है, रागद्वेष का अभाव होता है,
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तस्वभावना
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स मित्र को कल्पना मिटती है, अमनोज्ञ व पदार्थ का भेद निकलता है, इष्ट व अनिष्ट का दूत मिट जाता है । यही दृष्टि वीतरागभाव को पैदा करती है। स्वामी नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने द्रव्य संग्रह में कहा है -
माणगणताडि य सनि वंति तद् असतणया । विष्णेया संसारीसक्ने सुद्धा हु सुखमया ।।
भावार्थ-व्यवहारनय से १४ मार्गणा के भेद कि यह अमुक गतिवाला है यह अमुक इन्द्रिय वाला है इत्यादि अथवा १४ गुण स्थान के भेद कि यह मिथ्याती है यह सम्यक्ती है, यह साघ है, यह केवली है इत्यादि संसारी जीवों में दिखते हैं परन्तु शद्ध निश्चयनय से देखते हुए सर्व ही जीव शुद्ध एक रूप परमात्मा है। समताभाव लाने के लिए हमको व्यवहारनय से देखना बन्द करके निश्चयनय से देखने का अभ्यास करना चाहिए। यही कारण है कि जो साधु या गृहस्थ सामायिक में तन्मय होते हैं वे उपसर्ग करने वाले पर व प्रशंसा करने वाले पर समताभाव रखते हैं। वीतराग भाव का साधक निश्चयनय के द्वारा अव. लोकन करता है । तत्व विचार के समय आत्मध्यान जगाने के लिए निश्चयनय का आश्रय हो कार्यकारी है। जैसा कि स्वामी अमतचन्द्र आचार्य ने समयसार कलश में कहा है
इवमेव तात्पर्य हेयः शुद्धनयो नहि ।।
नास्ति बन्धस्तदत्यागात् तत्यागाद्वन्ध एव हि ।। भावार्थ-मतलब यही है कि शुद्ध निश्चयनय भी छोड़ना न चाहिए क्योंकि जब तक इसका सहारा होगा तब तक कर्म का बंध न होगा तथा इस नय के त्याग होते हो कम का बंध होगा। दोनों श्लोकों में आचार्य ने निश्चयनय को प्रधान करके
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२६ ]
तत्वंभावना
समताभाव का स्वरूप दिखलाया है । यह सच्ची तत्वभावना का एक प्रकार है। __ वास्तव में समताभाव लाने के लिए ऐसी ही भावना कार्यकारी है । श्री पद्मनंदि मुनि निरचय पंचाशत में कहते हैं
शुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्माप्नोस्यशुद्धमेवस्वम् । · जनयति हेम्नो हम लोहाल्लोहं नरः कटकम् ।।१८।।
भावार्थ---जो कोई अपने आत्मा को शुद्ध स्वरूपमय ध्याता है वह शुद्ध आत्मा को पाता है तथा जो अशुद्ध रूप अपने को ध्याता है बह अशुद्ध ही आत्मा को पाता है जैसे कोई मनुष्य सोने से सोने का कड़ा व लोहे से लोहे का कड़ा बना लेता है।
__ मूल श्लोकानुसार सन्द गीता द्वेषकारो शांतिधारी बंधु में अर शत्रु में। मुखंजन वा पंडितों में शुभ नगर वा बनों में ।। सम्पत्ति वा विपति में, या जन्ममें वा मरणमें। हे देव ! मेरा काल बोते भाव समता धरण में ॥६॥ सुख में वा दुःख में वा क्लेशकर अरि मित्र में। घरमें अरणमें कनक ढेरी और लोष्ट पाषाणमें ।। प्रिय वस्तु वा अप्रिय रहो ममदिवस हों समबुद्धिमें।
हे जिन पते ! तब निर्मलं च सदा धारूं हृदय में ||७|| उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्तम कार्य करनेवाला ऊंची गतिको व नीच कार्य करनेवाला नीची गतिको जाता है--
(शार्दूलविक्रीडत छन्द) ये कार्य रचयंति नियमधमास्ते यांति नियां गतिम् । ये बंधे रचयंति बन्धमतयस्ते याति वंद्यां पुनः॥
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तत्वभावना ____[ २७ ऊध्वं यान्ति सुधागृहं विवधतः कूप खनंतस्त्वधः । कुर्वन्तीसि विबुध्य पापविमुखा धर्म सवा कोविवाः ।।८।।
अन्वयार्य-(ये) जो (भाषा:) नीच लोग (निंद्यम )निन्दा के लायक खराब (कार्य) काम (रचयन्ति) करते हैं (त) वे (निद्यां) निदनीय या बुरी (गतिम्) गतिको (यांति) पहुंचते हैं (पुनः) परन्तु (ये) जो (बंद्यमतयः) प्रशंसनीय बुद्धिधारी (वा) प्रशंसा के लायक उत्तम कार्य को (रचयनिस) करते हैं तो वे (वंद्यां) माननीय या उत्तम गति को (यांति) जाते हैं जैसे (सुधागह) राजमहल को (विदधतः) बनाने वाले (ऊर्व) ऊपर को (तु) परन्तु(कूप) कुएंको (खनंतः)खोदनेवाले (अध:) नीचेको (यांति) जाते हैं (इति) ऐसा(बिबुध्य ) भले प्रकार जानकर (पापविमुखा: पापोंसे मुंह मोड़नेवाले (कोविदा:द्धिमान पुरुप (सदा) निरन्तर (धर्म)धर्म को (कुर्वन्ति) साधते रहते हैं ।
भावार्थ-इस श्लोक में आचार्य ने दिखलाया है कि हरएक जीव अपने भले या बुरे का जिम्मेदार है। जो जैसा कार्य करता है वह वसा हो जाता है । इस संसारी जी के पास मन वचन काय से तीन पाप तथा पुण्य कर्मके आने के द्वार हैं। जब ये शभ कार्यों में वर्तते हैं तब मस्यतासे पुण्य कर्म आते हैं और जब ये अशुभ कार्यों में वर्तते हैं तब पाप कर्म आते हैं । यह जीव हर समय अपने शुभ या अशुभ भावों के अनुसार पुण्य तथा पाप कर्मों को बांधता रहता है । साधारण रूप से आयुक्रम को छोड़ कर ज्ञानावरणादि सात कमों को नित्य बांधता रहता है । आयु कर्म को विशेष काल में अपनी भोगने वाली आयु के आठ त्रिभागों में से किसी में या मरण के पहले बांधता है । आयुकर्म के अनुसार ही यह जीव चार गतियों में से किसी गति में जाता
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२८ ]
तत्त्व भावना
है : एक मानव की अपेक्षा देवगति ही ऊंची है नरकगति व पशुगति नीची है व मानब गति बराबर की है। यदि उच्चभाव होंगे तो ऊंचो आयु को नीच भाव होंगे तो नीच आयु को, मध्यम भाव होंगे तो मध्यम आयु को वांधकर तदनुसार गति में जाता है । जो रौद्रध्यानी हिंसक, दुष्कर्मी है वह नर्कायु बांध नर्क को, जो आर्तध्यानी दुःखित भावधारी है वह तिर्यंच आयु बांध कर पशु गति को, जो धर्मध्यानी है वह देव आयु बांधकर देव गति को, जो कोमल परिणामो है यह मनुष्य आयु बांधकर मनुष्य गति को जाता है। परन्तु जो शक्लध्यान को आराधता है और गुणस्थानों में चढ़ता हुआ अर्हत केवलो हो जाता है वह कोई भी आयु न बांधकर सब कमों से छुटकर शुद्ध परमात्मा हो जासः . ! इस लोक में भी देखा जाता है कि जो लोग परोपकार, दान, पूजा, गुरु सेवा आदि शुभ काम किया करते है उनकी प्रतिष्ठा व मान्यता होती है तथा जो परका अपकार, पर को बुराई, अन्याय के विषयों में प्रवृत्ति हिसककर्म, चोरी आदि बुरे काम करते हैं वे निन्दायोग्य व बुरे समझे जाते हैं।
यहां दृष्टांत दिया है कि जो लोग राजमहल बनाते हैं वे दिन पर दिन ऊपर को चढ़ते जाते हैं परन्तु जो कुआं खोदते हैं वे दिन पर दिन नीचे धंसते जाते है।। __इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि सदा धर्म के सेवन मेंलगे रहें । जो सम्प्रकदर्शन पूर्वक धर्म का सेवन करगे वे इस लोक तथा परलोक दोनों में सुख पाएंगे।
वास्तव में जैन धर्म वीतराग विज्ञानमय है । इसको हरएक धर्म क्रिया में आत्मा के गुणों का ध्यान आता है । आत्मा सुखशांति मय है, इससे धर्म सेवन करते हुए सुख शांति तो तुतं प्राप्त
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तत्त्वभावना
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होती है तथा अन्तराय कर्म का क्षयोपशम होने से आत्म बल बढ़ता है। तथा पाप कर्मों का रस कम होने से व पुण्य कर्मों का रस बढ़ने से सांसारिक क्लेश घटते हैं और सांसारिक सुख बढ़ते हैं तथा तीव्र आपत्ति पड़ने पर धैर्य की प्राप्ति होती है। इतने लाभ इस शरीर में रहते हुए ही प्राप्त होते हैं, इसलिए जो धर्म का सेवन करते हैं वे परलोक के लिए उत्तम आयु बांधकर शुभ गति में जाते हैं, ऐसा समझकर हा पदाको सपनिमन धर्म की शरण में सदा रहकर व इसे निरंतर आराधनकर इस लोक तथा परलोक को प्रशंसनीय बनाना चाहिएश्री शुभचन्द्राचार्य श्री ज्ञानावर्णव में लिखते हैं
मालिनी छन्द) यवि नरकनिपातस्यक्तुमत्यन्तमिष्ट --- स्त्रिदशपतिमहद्धि प्राप्तुमेकान्ततो या॥ यदि चरमपुमर्यः प्रार्यनीयस्तदानीं ।
किमपरमभिधेयं नाम धर्म विधत्त ॥२३॥ भावार्थ-यदि तुझ नरक में जाने से रुकना अति प्यारा है व यदि तू इंद्र की महा विभूति को प्राप्त करना चाहता है, अथवा यदि तू चारों पुरुषार्थों में से अन्तिम मोक्ष पुरषार्थ को करना चाहता है तो तुझसे और अधिक क्या कहें तू एक मात्र धर्म ही का साधन कर ।।
मूल श्लोकानुसार गीता छन्द जो निन्धजन दुष्कर्म करते निन्ध गति में जात हैं। जो सन्तजन शुभ कर्म करते उच्च गति को पात है।
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अरु राज्य गृह रच उच्च जाते कूप खनते नीच हों। हम जान बुधजन धर्म से पाप से भयभीत हो ||८||
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो लोग शरीर के सुख के लिए कुचेष्टा करते हैं वे अपनी शक्ति को नष्ट करते हैं
चेष्टाश्चिसशरीरबाधनकरोः कुर्वति चित्तेऽधमाः। सौख्यं यस्य चिकोर्षवोऽक्षवशमा लोकद्वयध्वंसिनीः ।। कायो यत्र विशीयंते, स शतधा मेघो यथा शारदस्तवामी बत ! कुर्वते किमधियः पापोद्यम सर्वदा ॥६॥
अन्वयार्य-(अक्षवशगाः) इन्द्रियों के वश में पड़े हुए (अधमाः) नीच पुरुष (यस्य) जिस शरीर के (सौख्यं) सुख को (चिकीर्षवः) चाहते हुए (चित्तशरीरबाधनकरीः) मन और शरीर को बाधा देनेवाली तथा (लोकदयविध्वंसिनीः) इस लोक व परलोक दोनों को बिगाड़ने वाली (चेष्टा:) क्रियाएं (चित्ते) अपने मन में (कुर्वन्ति) करते रहते हैं व (पत्र) जिस संसार में (स काय:) वही शरीर (यथा) जैसे (शारद:) शरद ऋतु का (मेघो) मेघ विघट जाता है तैसे (शतधा) सैकड़ों तरह से (विर्शीयले) नष्ट हो जाता है (नत्र) तिस संसार में (अमी) ये (अधियः) मूर्ख लोग (किं) क्यों (सर्वदा) सदा (पापोद्यम) पाप का उद्यम (कुर्वते) करते रहते हैं (बत !) यह बड़े खेद की बात है।
भावार्थ-इस श्लोक में आचार्य ने बताया है कि जो पुरुष मिथ्या दृष्टि बहिरात्मा है अर्थात् जिनको आत्मीक सच्चे सुख का पता नहीं है वे शरीर के सुख को सुख मानते हैं वे इंद्रियों के दास हो जाते हैं और इन इंद्रियों के द्वारा जो नाना प्रकार की इच्छाएं पैदा होती हैं उन्हीं को पूरा करने के लिए रात-दिन
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तत्त्वभावना
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उद्यम करते रहते हैं। वे धनके पिपासु होकर, किसोको सताकर झूठ बोलकर, चोरी करके, विश्वासघात करके धन कमाने में ग्लानि नहीं मानते, उनको अपनी स्त्री व परस्त्री का विवेक नहीं रहता है, वे भक्ष्य व अभक्ष्यके विचार से शून्य हो जाते हैं। जिस तरह इंद्रियों की तृप्ति हो उसी तरह वर्तन करना उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उनको मांस व मदिरा से भी परहेज नहीं रहता है । उनको जो जो क्रियायें होती हैं वे सब हानिकारक होती हैं । इंद्रियों की लम्पटता से विवेक शुन्य हो, चाहे जो कुछ खा पी लेते हैं और वे रोगों के शिकार हो जाते हैं, अधिक विषयभोग से निर्बल हो जाते हैं। फिर तो उनको शारीर सम्बन्धी और मन सम्बन्धी महान् कष्ट होते हैं उस समय उनके मन की आकुलता को समझना एक अनुभवी मानव का ही काम है। इंद्रियों के भोगों को चाहना रहनेपर भी वे विचारे इन्द्रियों का भोग शरीर की निर्बलता व रोग के कारण नहीं कर सकते । आर्तध्यान में मन दुःखित रहता है। यदि कदाचित् थोड़ी भी मुक्ति रोग से हो जाती है कि फिर अन्धे हो विषयों के बन में पागल हो दौड़ते हैं, फिर अधिक रोगी हो जाते हैं। भावों में तीन विषयवासना से व हिंसा, झूठ, चोरी कुशील तथा तीन शरीर की व धन की व विषयभोग योग्य पदार्थों की ममता से अशुभ उपयोग में फंस जाते हैं । यह अशुभ उपयोग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय और मोहनीय कर्म का तीव्र बंध करता है, साथ में असाता वेदनीय, अशुभनाम व नीच गोत्र का बंध हो जाता है तथा जब आयुकर्म के बंध का अवसर
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तत्त्वभावना
आता है तब यह प्राणी नरक व पशु आयु को बांध लेता है। एक न एक दिन चाह की दाह में जलता हुआ शरीर त्यागता है और नारकी या पशु या एकेंद्रिय जीव पैदा हो जाता है। इस तरह विषयलम्पटी प्राणी अपने इस अमूल्य शरीरको नष्ट करते हुए इस लोक में दुःखी व अपयश के भागी होते हैं और परलोक में कुमति के अधिकारी होते हैं । आचार्य खेद करते हैं कि ऐसे अज्ञानी लोगों को क्या यह मालूम नहीं है कि यह शरीर शरद ऋतु के मेधों की तरह नष्ट होने वाला है, यह स्थिर रहने का नहीं है। जैसे मिट्टी का घड़ा थोड़ी सी ठोकर लगने पर टूट जाता है ऐसे ही यह शरीर आयुकर्मी के क्षेत्र से कभी तो पूरी आयु भोग कर कभी अकाल में ही छूट जाता है तब पछताता हुआ चला जाता है । तब वे कोई भी सचेतन या अचेतन पदार्थ इसका साथ नहीं देते हैं जिनके ऊपर ये अपने सुख का आधार रखता था।
योड़ी सी मनुष्यायु में पापों का उद्यम करके इसलोक और परलोक को बिगाड़कर वे मूर्खजन अपना घोर अहित कर लेते हैं। आचार्य सचेत करते हैं कि हे जीवो ! यदि तुम इन्द्रियों के दास न होकर उनको अपने वश में रखते और अपनी बुद्धिबल से अपने आत्मा को समझ लेते तो तुम्हें आत्मा के भीतर रहे हुए सुख समुद्र का पता लग जाता जिसमें स्नान करने के लिए किसी परपदार्थ की जरूरत नहीं रहती है। यदि आत्मा को समझ लिया जाता तो जगत की आत्माओं से प्रेम पैदा हो जाता तब यह हिंसादि पापों में स्वयं नहीं प्रवर्तता किन्तु जीव दया व परोपकार भाव में वर्तता हुआ पुण्य की कमाई करता-इस
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नश्वर शरीर से आत्मोन्नति कर जाता। यहां भी सुखी रहता और परलोक में भी शुभ भावों से शुभ गति पाता है। बुद्धिमानों को खूब सोच विचारकर इस शरीर का उपयोग कुचेष्टाओं में न करके सुकर्म में करना चाहिए। जिससे यह मानवजीवन स्व पर उपकारी बनकर अपना समय सफल कर सके ।
तत्त्वभावना
श्री अमितगति आचार्य सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं कि इन्द्रिय सुखों में लीनता महान मूर्खता है । नानाविधव्यसनधूलिविभूतिवातं । तत्वं विविक्तमवगम्यजिनोशिनोक्तम् ॥ यः सेवते विषयसौख्यमसौ विमुच्य । हस्तेऽमृतं पिबति रौद्रविषं निहीनः ॥६५॥ दासत्वमेति वितनोति विहीनसेवां । धमं धुनाति विदधाति विनिन्द्य कर्म ॥ रेकश्चिनोति कुरुतेऽति विषयवेषं । किं वा हृषीकवसतस्तनुते न भरर्यः ॥६६॥
भावार्थ---जो अज्ञानी जिनेन्द्र के कहे हुए उस आत्म स्वरूप को जो सर्व परभावों से रहित है व जो नाना प्रकार आपत्तियों की धूल के ढेर को उड़ाने के लिए पवन के समान है, भले प्रकार समझकर विषयों के सुख को सेवता है वह मूर्ख हाथ में आए हुए अमृत को छोड़कर भयानक विष को पीता है। जो इन्द्रियों का दास हो जाता है वह दूसरों की चाकरी करता है, नोचों की सेवा करने लगता है, धर्म को नाथ कर देता है, हिंसादि निन्द्यकर्म को करने लगता है, पापों को संजय करता है, अपना रूप अति कुरूप कर लेता है। अधिक क्या कहें इन्द्रियों के वश में पड़ा मानव
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तत्त्वभावना
क्या - २ अनर्थं नहीं कर लेता है ? वास्तव में जो इन्द्रियों का दास है वह पशु से भी निकृष्ट है। मानव ही वह है जो इन्द्रियों को काबू में रखकर अपना जीवन सुकायों में विता कर सफल करता है ।
मूलश्लोकानुसार गीता उन्द
जग नोच जन हो दास इन्द्रिय काय सुखको चाहते । इस लोकद्वयको नाशकारी कर्म निन्द्य रचावते ॥ बहु काय मन पोड़ा सहें तो काय शारद मेघ सम । यह नष्ट होती हा ! कुधी नित पाप करते हैं अधम ॥६॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि मोह में अन्धो हुई बुद्धि संसार बढ़ाने वाली और मोक्ष को बहुत दूर रखने वाली है। कांतेयं तनुमूरयं सुहृदयं मातेयमेषा स्वसा । जामेयं रिपुरेष पत्तनमिवं सद्मेवमेतद्वनम् ।। एवा यावदुदेति बुद्धिरधमा संसारसंवर्द्धिनी । तावद्गच्छति निर्वृति बत कुतो दुःखमोच्छेदिनीं ॥१०॥ अन्वयार्थ - ( इयं ) यह (कांता ) स्त्री है (अर्थ) यह पुत्र है (अयं ) यह ( सुहृत्) मित्र है ( इयम् ) यह (माता) मा है (एषा ) यह (स्वसा ) बहिन है ( इयं ) यह (जामा) पुत्री है ( एषः ) यह (रिपुः ) मात्र है ( इदं ) यह ( पत्तनम् ) नगर है (इदम्) यह ( स ) घर है ( एतत् ) यह (वनं) बाग है ( यावत्) जब तक (एषा ) ऐसी ( अधमा ) तुच्छ व (संसार संवर्धिनी) संसार को बढ़ाने वाली (बुद्धिः ) बुद्धि ( उदेति) पैदा होती रहती है ( तावत् ) तब तक ( कुतः ) किस तरह से (दुःखदुमोच्छेदिनी) दुःखरूपी वृक्षों को
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तत्त्वभावना
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छेदने वाली (निर्वृति) मुक्ति को ( गच्छति ) यह जीव पहुंच सकता है (बल) यह बड़े खेद की बात है ।
भावार्थ - यहां पर आचार्य खेद प्रगट करते हुए कहते हैं कि मोही जीव मोह में फँसकर अपने स्वरूप को भूल जाता हैं इस लिए अनन्त सुख को देने वाली मुक्ति को कभी नहीं पा सकता है । वास्तव में मुक्ति अपने सच्चे आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति है और वह अपने से ही अपने को अपने में हो प्राप्त होती है। जिसका उपयोग अपने आत्मा के स्वभाव के सन्मुख होगा वही आपको पाएगा, परन्तु जिसका उपयोग अपने आत्मा को छोड़कर परपदार्थों में रमता है वह कभी भी अपने स्वरूप को नहीं पा सकता है। संसार का कारण मोह है, जबकि मुक्ति का कारण निर्मोह है । मोही जीव क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के वशीभूत पड़े रहते हैं, इसीलिए कर्म को बांधकर संसार की चारों गतियों में भ्रमण किया करते हैं। मोही जीवों को अपने आत्मा का अपने शरीर से भिन्न विश्वास नहीं होता है । वह शरीरको ही आपा माना करते हैं। शरीर की भ्रमता से वे पांचों इन्द्रियों की इच्छाओं के दास हो जाते हैं। उन इच्छालों की पूर्ति करने में जो चेतन व अचेतन पदार्थ सहकारी हैं उन्हीं से गाढ़ प्रीतिवान हो जाते हैं। इसलिए शरीरके जितने सम्बन्ध हैं उनको अपना सम्बन्ध समझ लेते हैं: पुत्र, पुत्री, मित्र आदि के मिलने में में हर्ष व उनके वियोग में विषाद किया करते है। एक कुटुम्ब जीव भिन्न- २ गतियों से आकर जमा हो जाते हैं वे ही जोब आयु पूरी करके अपनी-२ बांधी गति के अनुसार चले जाते हैं । धर्मशाला में यात्रियों के समागम के समान कुटुम्बोजनों का समागम है । मोही जीव उनसे गाढ़ मोह करके अपने स्वात्मा को भूल • जाते हैं । इसीलिए आचाची ने बताया है कि जब तक इन भिन्न
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तस्वभावधान
पदार्थों में ममकार है कि यह तन मेरा है, यह धन मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह उपवन मेरा है, यह घर मेरा है, यह देश मेरा है, यह नगर मेरा है, यहां तक मेरा ज्ञान दर्शन सुख वीर्य स्वभाव मेरा है, मेरा पद सिद्धपद है, मेरी परिणति शुद्ध वीतराग है यह बुद्धि नहीं जमती अर्थात् भेद विज्ञान को न पाकर वे कभी भी आत्मा के श्रद्धावान नहीं हो पाते। वे उन्मत पुरुष की नाई जगत में चेष्टा करते हुए अनंतकाल खोया करते हैं। इसलिए श्री अमितगति महाराज का तात्पर्य यह है कि अब तो तुम समझो, अब तो परपदार्थों को अपना मानना त्यागो तथा अपने मात्मीक शुद्ध गुणों को अपना मानो। जिससे निज आत्मा का अनुभव प्राप्त हो, यही तत्वभावना का फल है।
अनित्यपंचाशत् में श्री पश्मनंदि मुनि कहते हैं--- दुःखव्यालसमाकुल भव बन जाड्यांधकाराश्रितं। तस्तिन्दुर्गति पल्लिपाति कुपथे भ्राम्यति सर्वेगिनः ॥ तम्मध्ये गुरुवाक्यवोपममलमानप्रभामासुरं । प्राप्यालोक्य च सप्तयं सुखप्रदं याति प्रबुद्धो ध्रुवं ॥१७॥
भावार्थ-यह संसाररूपी जन दुःखरूपी अजगरों (सों) से भरा हुआ है, यहां अज्ञानरूपी अंधकार फैला हुआ है। इस वन में दुर्गतिरूपी भीलों की तरफ ले जाने वाला खोटा मार्ग है। ऐसे वन में सर्व ही संसारो प्राणी भ्रमण किया करते हैं। परन्तु चतुर मनुष्य इसी वन के मध्य में गुरु के वचनरूपी दीपक को जो निर्मल ज्ञान के प्रकाश से चमक रहा है, पाकरके सच्चे मार्ग को ढूंढकर अधिनाशी आनन्दभई पद को पहुंच जाता है।
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तत्त्वभावना
मूलश्लोकानुसार छन्द गीता यह नारि पुन सुमित्र माता है हमारी यह बहन । पुत्री अरी यह घर नगर मेरा यही है सार बन ॥ जब तक रहे यह नीच मति संसार का वर्सन करे। तब कुःखहरु हन्त्री मुकति तिय किस तरह सुख से बरे ॥१०॥
उस्थानिका-- आगे कहते हैं कि भेद विज्ञान से ही मुक्ति हो सकती है।
नाहं कस्यचिलिम कश्वन न मे भावः परो विद्यते । मुक्त्वात्मानमपास्तकर्मसमिति ज्ञानेक्षणालंकुतिम् ॥ यस्यैषा मतिरस्ति वेतसि सदा जातात्मतत्वस्थितः। बंधस्तस्य न यंत्रितं त्रिभुवनं संसारिकंबन्धनः ॥११॥
अन्वयार्थ - (ज्ञानेक्षणालंकृतिम) ज्ञान दर्शन स्वभाव से शोभायमान तथा (अपास्तकर्मसमिति) द्रव्यकर्म भाव कर्म नोकर्म के समुदाय को दूर रखने वाले (आत्मानम् ) आत्मा को (मुक्त्वा) छोड़कर (कश्चन) कोई भी (परः) अन्य (भाव:) भाव (मे) मेरा (न) नहीं (विद्यते) है (न) और न (अहं) मैं (कस्यचित्) किसी अन्य का (अस्मि) हूं (एषा) ऐबी (मतिः) बुद्धि (ज्ञातात्मतत्वस्थितेः) आत्मस्वरूप की मर्यादा को जानने वाले (यस्य) जिस किसी के (चेतसि) चित्त में (सदा) नित्य (अस्ति) रहा करती है (तस्य) उस महात्मा के (बंधः न) कर्मों का बंध नहीं होता, यों तो (त्रिभवन) तीनों लोक के संसारी प्राणी (संसारिके:वन्धनैः) संसार के बंधनों से (यंत्रित) जकड़े हुए हैं। : भावार्थ- यहां पर आचार्य ने सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञानकी
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३८]
सस्वभावना
महिमा बताई है। इस जगत में यह संसारी प्राणी जीव पुद्गलका मिला हुआ एक आकार रखता है। अनादि काल से ही इसके कर्मों का बंध होता ही रहता है। कौके उदय से राम-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ मादि अशुद्ध भाव होते हैं तथा कर्मों के ही उदय से शरीर होता है व शरीर के साथी स्त्री पुत्रादि नौकर चाकर होते हैं। कर्मों के बड़े विकट फैले हुए जालके भीतर इतना सघन आत्मा का स्वरूप फंस जाता है कि तत्वज्ञान रहित प्राणियोंको आत्मा का ज्ञान व श्रद्धान नहीं होता। हरएक तत्वज्ञान रहित मानव या जीव पर्यायबुद्धि बना रहता है । जिस शरीर में होता है उसी रूप अपने को मान लेता है। कभी भी अपने असली आत्मस्वरूप को नहीं पाता है। इसीलिए इन्द्रियों के सुखोंमें मग्न होकर रात-दिन इन्द्रियसुख की चेष्टा किया करता है तथा तीन रागद्वेष मोह में पड़कर तीन पापकर्म बांधकर पशु आदि गतियों में भ्रमण किया करता है। वास्तव में कर्मबंध का मूल कारण मिथ्यात्व है । संसार की जड़ ही मिथ्यात्व है । जिसने अनंतानुबन्धो चार कषाय तथा मिथ्यात्व को वश कर लिया है उसने संसार वृक्ष को जड़ काट डाली है । उसने जो कुछ कषायों के शेष रहने से कर्म का बंध होता भी है वह संसार के भ्रमण को अनंत+ कालीन नहीं कर सकता है। वह बन्धन अवश्य शोन कट भी जायगा। इसका कारण यह है कि उसकी बुद्धि संसार में लिप्त नहीं होती है। क्योंकि उसके अंतरंग में यह भेद विज्ञान भले प्रकार जानत है कि मेरे आत्मा का स्वभाव ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई अमूर्तीक अविनाशी है । कोई भी रागादि भाव आत्मा का स्वभाव नहीं है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म व शरीरादि नो कर्म सर्व भिन्न पदार्थ हैं, इस जगत में परमाणु मात्र भी मेरा
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नहीं है, मेरा स्वरूप सर्व अन्य आत्मद्रव्यों से भी निराली सत्ता का रखने वाला है, मेरे में अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का तो अस्तित्व है परन्तु परद्रव्ध क्षेत्र काल भावका नास्तित्व है। इस भेद विज्ञान के कारण से वह सदा आत्मसुख के स्वाद का उत्सुक रहता हुआ अपने आत्मा का मनन किया करता है। इसलिए उसका आत्मा संसार के बढ़ाने वाले कर्मों से गाढ़ बन्धन में नहीं पड़ता है। आचार्य ने प्रेरणा की है कि ये भव्यजीवो ! यदि तुम समताभाव को पाना चाहते हो तो इस भेद विज्ञान का भले प्रकार अभ्यास करो, यही स्वामुभव को जगाने वाला है । एकत्व अशीति में पद्मनंद मुनि कहते हैं
तत्त्वभावना
हेयं हि कर्म रागादि तत्कार्यं च विवेकिनः । उपादेयं परं ज्योतिरूपयोगकलक्षणम् । यवैव चतन्य महंतदेव तदेव जानाति तदेव पश्यति। सवेव बँक परमस्ति निश्चयाद्गतोस्मि भावेन तदेकतां
परम् ।। ७५-७६।।
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भावार्थ- ज्ञानी पुरुषों को उचित है कि रागादि सब कम को त्यागने योग्य समझकर इनसे मोह छोड़ दें और ज्ञानदर्शन मई उपयोग लक्षण के धारी परमज्योतिरूप आत्मा को जो ग्रहण करने योग्य है ग्रहण करले जो कोई चैतन्यमई है वही में हैं, वही जानता है, वही देखता है, वही निश्चय से एक उत्कृष्ट पदार्थ है, मैं उसी के साथ परम एक भाव को प्राप्त हो गया हूँ । इस प्रकार की भावना ही स्वानुभव को उद्योत करने वाली हैं। मूलश्लोकानुसार छन्द गीता
मैं नियत दर्शन ज्ञानमय नहि कर्म बंधन राखता । मैं तो किसी का हूं नहीं परमाव मम नहि छाजता ॥
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४० ]
तत्त्वभावना
सदबुद्धि ऐसो चित्त जिसके तत्त्व निज पहचानता । बह बंध में पड़ता नहीं अग जंतु बंधन ठामता ॥११॥
उत्पानिका-फिर भी उपदेश करते हैं कि संसार के मोह में न पड़के आत्मकल्याण करो।
चित्रोपायविधितोपि न निजो केहोपि यतात्मनो। भावाः पुत्रालमित्रतनयाजामाततातावयः ॥ तत्र स्वं निज कर्मपूर्ववशगाः केवां भवन्ति स्फुटं। विज्ञायेति मनीषिणा निजमतिः कार्या सदात्मस्थिता ॥१२॥
अम्बयार्थ-(यत्र) जिस संसार में (चित्रोपायविवर्धितः) अनेक उपायोंसे पालन-पोषण करके बढ़ाई हुई (अपि)भी (निजदेहोऽपि) यह अपनी देह भी (आत्मनः न ) अपनी नहीं होती है (तत्र) वहा (निजपूर्वकर्मयशगः) अपने-२ पूर्व में बांधे हुए कर्मों के वश पड़े हुए(पुत्रकलबमित्रतनयाजामातृतातादय:) पुत्र, स्त्री, मित्र, पुत्री, जमाई व पिता आदिक (भावा: बिलकुल जुदे पदार्थ (केषां) किन जोवों के (स्व) अपने (स्फुट) प्रगटपने (भवन्ति हो सकते हैं (इति) ऐसा (विज्ञाय) जान करके (मनी षिणा) बुद्धिमान मानव को (सदा) सदा(निजमति:) अपनी बुद्धि (आत्मस्थिता) अपने आत्मा में स्थिर (कार्या) करनी उचित है।
भावार्थ-- यहाँ फिर आचार्य ने जगतके सम्बन्ध को नाशवन्त झलकाया है। जगत के मोही प्राणी अपने इन्द्रियों के विषय भोग में सहकारी स्त्री, पुत्र, मित्र आदिकों से राग करते हैं व जो बाधक हैं उनसे द्वेष करते हैं। ये सब सचेतन पदार्थ बिलकुल हमसे जुदा हैं, ये सब अपने-२ भिन्न-२ कर्मों को बांधकर भिन्न भिन्न गतियों से आए हैं और इस जन्म में भिन्न-२ कर्म बांधकर
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भिन्न - २ गतियोंको जायेंगे। इनको अपना मानना महान मूर्खता हैं। ये सब कुछ सम्बन्ध रखते हैं तो वह सम्बन्ध इस शरीर के साथ है । शरीर के उत्पन्न करनेवाले को माता पिता कहते हैं । एक माता के पुत्र पुत्रियों को भाई बहन कहते हैं, शरीर को ही देखकर ऐस जगत के पुजारी अपने केटा होकर हमारी देहसे प्रीति दिखलाते हैं। जब हमसे स्वार्थ नहीं निकलता है तब बात भी नहीं पूछते हैं । आचार्य कहते हैं कि इन पदार्थों के स्नेह टूटने की व छूट जाने की बात क्या करते हैं । ये तो प्रगट ही जुदे हैं । अरे ! यह शरीर जो जन्म से मरण तक साथ रहता है और जिसको नाना प्रकार भोजन पान देकर खिलाते पिलाते, सुलाते, पहनाते, उठाते, पालते व जिसके लिए पेसा कमाते व रात दिन उसी की ही चितामें लगे रहते कि कहीं यह चिगड़ न जावे, ऐसा शरीर भी एक क्षणमात्र में हमें छोड़ देता है। आयुकर्म के आधीन देह का सम्बन्ध है । आयुकर्म का नाश होते ही एक समयभर भी यह शरीर आत्मा का साथ नहीं दे सकता । तब जो लोग इस देह के साथ व देह के सम्बन्धी स्त्री पुत्रादि के साथ ऐसी दोस्ती बांधते हैं कि मानो हम इनके है व ये हमारे हैं वे लोग अवश्य मूर्ख हैं क्योंकि इनके मोह में अन्धे हो वे अपने आत्माके हितको भूल जाते हैं। वे कभी दिन रात में एक क्षण भी आत्मा के हित का चिन्तवन नहीं करते हैं इसलिए आचार्य कहते हैं कि यदि तुम चतुर मनुष्य हो तो नाशवन्त पदार्थों से क्यों स्नेह बढ़ाकर अपना बुरा करते हो ? इन पदार्थों का सम्बन्ध यदि है तो इनसे अलिप्त रहते हुए इनसे अपना प्रयोजन साधलो व उनका यथासम्भव उपकार कर दो। परंतु उनके • साथ भीतरी प्रीति न रक्खो, इनकी प्रीति अन्त में धोखा देनेवाली
सस्वभावना
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होगी, इनकी प्रीति शोकसागर में डुबानेवाली होगी। क्योंकि ये सब पदार्थ एक दिन छूट जाएंगे या हम छोड़ेंगे या वे छोड़ेंगे। खास ध्यान अपने आत्माकी तरफ रक्खो। हमें उचित है कि हम अपने आत्मा के सच्चे स्वरूपको जो निश्चय से परमात्मा के समान आता दुष्टा अतिना है पहनाने उसपर विश्वास लावें व उसका ध्यान करें तो हमको सुख व शांतिका लाभ होगा और हम जो आज अपवित्र हैं वे धोरे २ पवित्र होते चले जाएंगे । वास्तव में आत्मा की प्रीति हमको पवित्र करने वाली है और शरीर की व शरीर के सम्बन्धियों की प्रीति हमें अपवित्र करनेवाली हैं। सुभाषितरत्न संदोह में श्री अमितगति महाराज कहते हैंकिमिह परमसौख्यं निःस्पृहत्वं यदेत किमथ परमदुःखं सस्पहत्वं यदेतत् ॥ इति मनसि विधाय त्यक्ससंगाः सदा ये ।
तत्यभावना
विवधति जिनधर्मं ते नराः पुष्पवन्तः ॥१४॥
भावार्थ - इस संसार में परम सुख क्या है तो वह एक इच्छा रहितपना है तथा परम दुःख क्या है तो वह इच्छाओं का दास हो जाना है । ऐसा मन में समझकर जो पुरुष सर्व से ममता त्यागकर जिन धर्म को सेवन करते हैं वे ही पुण्यात्मा व पवित्र है | शरीर व शरीर के सम्बंधियों के संबंध में चिन्ता करना इच्छाओं के पैदा करने का बीज है, इनसे मोह, त्यागना ही इच्छाओं के मिटाने का बीज है ।
मूल श्लोकानुसार त्रिभंगी छन्द
बहू यत्न कराए वर्द्धन पाए देह न थाए जहं अपनी
तहं पुत्र कलश्रं पुत्री मित्रं जामानं भगिनि जननी ॥
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तस्वभावना
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निज कर्म बसाएं सुख दुःख पाए होत सदा ये नहि अपने । इम जान सुबुद्धी आतम शुद्धी कर निज बुद्धो प्रगटपने ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि धर्म हो जीवका परममित्र हैबुर्दामोत्कर्मशैलदलने यो दुनिवारः पविः । पोतो दुस्तरजन्म सिंधुतरणे यः सर्वसाधारणः ॥
निःशेषशरीरिरक्षणविधौ शश्वत्पितेवावृतः । सर्वज्ञ ेन निवेदितः स भवतो धर्मः सदा नोऽसु १३॥ अन्वयार्थ -- (यः) जो ( दुर्दा मोतिकर्मशैलदलने) कठिनता ने नाश करने योग्य बड़े कठोर कर्मरूपी पर्वतों को चूर्ण करने में ( दर्शनवार: ) किसोसे हटाया जा न सके ऐसा (पक्षिः) बा है (यः) जो (दुस्तरजन्मसिधुतरणे) कठिनता से पार होने योग्य ऐसे संसार समुद्र से पार ले जाने में (सर्व साधारणः ) सर्व जोवों के लिए एक रूप सामान्य (पोतः ) जहाज है (यः) जो ( निःशेषशरीरिरक्षणविधौ ) सर्व शरीरधारी प्राणियों की रक्षा करने में (पिता इब ) पिता के समान ( भारत ) सदा ( आदृतः ) माना गया है ( स ) वह ( सर्वज्ञेन ) सर्वज्ञ भगवान से ( निवेदितः ) कहा हुआ (धर्मः ) धर्म (नः) हमें ( भवतः ) संसारसे ( सदा ) हमेशा (अवतु ) रक्षित करे ।
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भावार्थ - यहां आचार्य ने जिनधर्म की यथार्थ महिमा बताई है। असल में जो जिनधर्म की शरण ग्रहण करते हैं उनकी सदा रक्षा होती है । जनसिद्धांत ने बताया है कि जब इस जीवके शुद्ध वीतराग भाव होते हैं तब तो कर्मोकी निर्जरा होती है तथा जब शुभ भाव होते हैं तब पूण्य कर्म का बंध होता है। पुण्य बंध दुःखों से बचाता है तथा वीतराग भाव कम्मल को हटाकर मुक्ति
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में पहुंचता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्वारित्र मई निश्चय रत्नत्रय को जो स्वानुभवरूप है जैनधर्म कहते हैं। यह स्वानुभव परम वैराग्यमई है। यहां रागद्वेषसे रहित समतामयभाव है। इस स्वानुभाव में रुकी हुई परिणतिको वीतराग भाव कहते हैं तथा स्वानुभूति की रुचि रखते हुए स्वानुभूति के कारणरूप अर्हत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय तथा साधू इन पंचपरमेष्ठियों की भक्ति करना शास्त्र विचारकरना आदि कार्यों में रागभाव को शुभोपयोग कहते हैं। यह जैनधर्म परम कल्याणकारी है। इसी स्वानुभव रूप जैन धर्मकी शक्ति चार घातिया कर्मनाश हो जाते हैं और यह जीव केवलज्ञानी परमात्मा होजाता है । इसलिए यह धर्म पर्वतों के चूर्ण करनेको वच्चके समान है। यह संसार समुद्र - रागद्वेष के जलसे भरा हुआ है। इनमें अनेक विभावरूपी लहरें उठ रही हैं इससे पार होना बहुत कठिन है परन्तु जिनको वीतरागमय और जानमय धर्मरूप जहाज मिल जाता है वे इसके पार हो जाते हैं, यह जहाज सर्व साधारण के लिए है। किसीको इसपर चढ़नेकी मनाई नहीं है। जो संसार - समुद्र से तर जाने के लिए दिल में पक्के उत्साही हैं उनको यह धर्मरूपी जहाज वरण देता है क्योंकि यह जैनधर्म अहिंसा धर्मके व्याख्यान में बस स्थावर सर्व प्राणी मात्रकी रक्षाका उपदेश देता है व पूर्ण अहिंसाधर्मके धारी साधु - तदनुसार वर्तते हुए सर्व जीवमात्र को रक्षा करते हैं। अतएव उनका बर्तन पिता के समान होता है इसलिए यह जैनधर्म भी प्राणियोंकी रक्षाके उपाय बतानेके कारणसे पिता के समान है । ऐसे पवित्र जैनधर्मकी जो सेवा करेंगे वे दुःखों से बचकर उन्नति करते २ परमात्मापद में अवश्य पहुंच जाएंगे। धर्म की महिमा
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तस्वभावना
श्री शुभचन्द्रजी ने ज्ञानावर्णव में इस भांति कहो है
__ शार्दूलविक्रीडित छन्द धर्मः शर्मभुजंगपुंगषपुरोसारं विधातुं समो। धर्मः प्रापितमत्यलोकपिपुलप्रीतिस्तवाशसिना ॥ धर्मः स्वर्नगरोनिरन्तरसुखास्वादोक्यस्यास्पदम् । धर्मः किं न करोति मुक्तिललनासंभोगयोग्यं जनम् ॥२२ भावार्थ- यह धर्म धर्मात्मः पुरुषोंको अनुभमुरी सार सुध के प्राप्त करानेको समर्थ हैं । यह धर्म मध्यलोकके महान चक्रवर्ती आदिके सुखोंको देनेवाला है, यही धर्म स्वर्ग को निरन्तर रहने वाले सुखोंके प्रगट कराने का उपाय है, यही धर्म प्राणीको मुक्ति रूपी स्त्रीके भोगने योग्य बना देता है। धर्म हमारा क्या क्या उपकार नहीं करता है ? वास्तव में जिनधर्म का स्मरण तत्व. भावना है । इस भावना को कभी नहीं भूलना चाहिए।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द परम फठिन कर्म शैलदलने सुवनं । दुस्तर भवसिधु तारणे सारपोतं ।। समलजगतसत्वं रक्षकर्ता पितासम् ।
जिनकथितं धर्म रक्ष भवसे सदा हम ।।१३ उत्थानिका—आगे जिनवाणी से प्रार्थना करते हैं--- यन्मात्रापश्याक्यवाच्यविकलं किंचिन्मयाभाषितम् । मालस्यास्य कषायवर्पविषयव्यामोहसक्तात्मनः ॥ वाग्वेषी जिनवक्त्रपनिलया तन्मे क्षमित्वाखिलं । वस्वा नाम विशुद्धिभूर्षिततमां देयावनिय प॥१४॥
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तत्त्यभावना
अन्ययार्थ--(मया) मेरे से (यत्किंचित् ) जो कुछ (मात्रापदबाक्यवाच्यविकल)मात्रा,पद, वाक्य व अर्थ में कम बढ़(भाषितं) कहा गया हो (स्त् शनिं) उस सर्वको क्षमित्वा) क्षमा करके (कषायदर्पविषयव्यामोहसक्तात्मनः) क्रोधादि कषाय, गर्ष, ५ विषयों की चाहना में आसक्त (अस्म बालस्य मे)ऐसा जो बालक समान में उसे (जिनवक्त्रपद्मनिलया) जिनेन्द्र के मुख कमल में निकास करने वाली (वाग्देवी) सरस्वती देवी अर्थात् जिनवाणी (अजिततमी) उत्कृष्ट (ज्ञानविद्धि) ज्ञान की निर्मलता को (दवा) देकर (अनिद्यं पदं) परम प्रशंसनीय मोक्षपद (देयात्) प्रदान करें।
भावार्थ-यहां पर आचार्य ने दिखलाया है कि जिनवाणी को शुद्ध ही पढ़ना चाहिए और शुद्ध ही उसका अर्थ समझना चाहिए फिर भी यदि कमी प्रमादसे कुछ भूल हो गई हो, किसी वचन को कमबढ़ कह दिया हो तो उसके कारण जो पापबंध हुआ हो उस को दूर करने के हेतु से यह भव्यजीव प्रतिक्रमण या पश्चाताप करता है जिनवाणी मुझपर क्षमा करे यह मात्रभक्ति करने का व उच्च भावना भाने का एक प्रकार है जिससे भावों में यह बात आजावे कि मुझे शुद्ध ही पढ़ना चाहिए। फिर वह जिनवाणी को हृदयमें धारकर यह विचारता है कि मैं बिलकुल अज्ञानी हूं इसोसे क्रोध, मान, माया व लोभ कषायोंके वशीभूत हो जाता हूँ या पांचों इन्द्रियोंके विषयों में आशक्त हो जाता हूं जिससे मेरे भावों में अशुद्धि हो जाती है और मैं कर्मों का बंध कर लेता है। अब में यह प्रार्थना करता हूं कि जिनवाणी के निरन्तर मननसे यह मेरी कलुषता मिटे और परम शुद्धता मेरे आत्माको प्राप्त हो अर्थात् शुद्धोपयोग रहा करे जिससे मैं अवि
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तत्वभावना
नाशी निजपदको पासक, जहां कोई कर्मका सम्बन्ध नहीं रहता है और यह आत्मा स्वयं परमात्मा हो जाता है। वास्तव में सम्यग्दष्टि व ज्ञानी जीव को वीतराग भाव की ही प्राप्ति का यत्त करना चाहिए । यह वीतरागता उसी समय प्राप्त होती है जब विषय कषायों से ग्लानि हो जावे और शद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा से प्रीति बढ़ जावे। क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही परम वीतरागमय है इसलिए आत्मा के ध्यान से स्ययं वीतरागता झलक जाती है और तब सुखशांतिकी प्राप्ति होती है, पिछला कर्म कटता है। असल में आत्मा की भूमिमें चलना ही जीव का परम हित है।
श्री पद्मनंदी मुनि निश्चयपंचाशत् में कहते हैंस्वपरविभागावगमे जायते सम्यक परे परित्यक्ते । सहजकबोधरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं सिद्धः ।।४२॥
भावार्थ- जब आपा परका भेदरूप ज्ञान भले प्रकार पैदा हो जाता है तब पर से मोह छोड़ने पर यह स्वयं सिद्ध आत्मा स्वाभाविक एक ज्ञान स्वरूप में ठहर जाता है।
मल श्लोकानुसार मालिनी छन्द कथन किया जो मैं शब्द पद अर्थहीनं । विषय विमोही हो क्रोध मानायधीनं । जिनमुखसे प्रगटो वाणिदेवी क्षमाकर ।
वर निर्मलज्ञानं देय शिवपद कृपाकर ॥१४॥ उत्थानिका--आगे साधक विचारता है कि मेरी बुद्धि ज्ञान होने पर भी विषयों से क्यों विरक्त नहीं होती है
निःसारा मयदायिनोऽसुखकरा भोगाः सदा मश्वराः । निवस्थाममवातिभावजनकाः विद्याविदा निविता ॥ .
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तत्त्वभावना
नेत्थं चितयतोपि में बस मतिविर्तते मोगतः। कंपन्छामि कमायामि कमहं मूकः प्रपद्ये विधिम् ।।१५।।
अन्वयार्थ-(भोगाः) ये इन्द्रियों के भोग (निःसारा:) असार अर्थात् सार रहित तुच्छ जीर्ण तृण के समान हैं (भयदायिनः) भय' को पैदा करने वाले हैं (असुखकरा:) आकुलता भय कष्टको उत्पन्न करने वाले हैं व (सदा) सदा ही (नश्वरा:) नाश होने धाले हैं (निद्यस्थानभवार्तिजनकाः) दुर्गति में जन्म कराकर क्लेश को गंदा करने वाले हैं सपा जिलाजिना) विज्ञानों के द्वारा (निदिता:) निंदनीय हैं (इत्थं) इस तरह (चितयतः अपि) विचार करते हुए भी (मे) मेरी (मतिः) बुद्धि (बत) खेदकी बात है कि (भोगतः) भोगों से (न) नहीं (व्यावर्तते) हटती है तव (अहं) मैं (मूड़ा) बुद्धि रहित (क) किसको (पृच्छामि) पंछ (कम) किसका आश्रयामि) सहारा लूं (कम) कौन सी (विधिम् ) तदबीर (प्रपद्ये) करूं !
भावार्थ-इस श्लोक में एक श्रद्धावान जैनी अपनी भूलको विचारते हुए अपने कषायों के जोर को कम कर रहा है। इस जोव के साथ मोह कर्म का बन्ध है। मोह ही उदय में आकर जोवको बावला बना देता है और यह उन्मत्त हो न करने वाग्य कार्य कर लेता है। मोहकर्मके मूल दो भेद हैं—एक दर्शनमोह, दूसरा चारित्रमोह, दर्शनमोहके उदयसे आत्माको अपने आपका सच्चा विश्वास नहीं होपाता है। चरित्रमोहका उदय आत्मा में ठहरने नहीं देता है-अपने आत्माके सिवाय अन्य चेतन व अचेतन पदार्थों में राग द्वेष करा देता है। इसके चार भेद है-अनन्तानुबन्धी कषाय, जो बाजान के बिगाड़ने में दर्शनमोह के साथी हैं।
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तत्वभावना
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अप्रत्यास्यानाकरण कषाय-जिसके उदय होने पर श्रद्धान होने पर भी एक देश भी त्याग नहीं किया जाता अर्थात् श्रावक के व्रत नहीं लिए जाते । प्रत्याख्यानावरण कषाय-जिसके उदय से पूर्ण त्याग कर साधु का माचरण नहीं पाला जाता है। संज्वलन कषाय-जो आत्मध्यान को नाश नहीं कर सकते परन्तु जो मल पैदा करते हैं, जो पूर्ण वीतरागता को नहीं होने देते। जिस किसी महान पुरुष के अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शन मोह के दबने से सम्यग्दर्शन हो गया है वह पुरुष यह अच्छी तरह समझ गया है कि विषयभोगों से कभी भी इस जीव को तृप्ति नहीं होनी है ! उल्टी ताणा की आग बढ़ती हुई चली जाती है, इसीलिए ये भोग असार है, फल कुछ निकलता नहीं, तथा भोगों के चले जाने का व अपने मरण होने का भय सदा बना रहता है । यह भोगो जीव चाहता है कि भोग्य पदार्थ कभी नष्ट न हों व मैं कहीं मर न जाऊँ। तथा इन भोगों की प्राप्ति के लिए व उनकी रक्षा के लिए बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है और यदि कोई भोग नहीं रहता है तो यह प्राणी आकुलता में पड़कर दुःखी हुआ करता है। ये भोग अवश्य नष्ट होने वाले हैं। या तो आप ही मर जायगा या ये भोग्य पदार्थ हमारा साथ छोड़ देंगे तथा इनके भोगने में बहुत तीव्र राग करना पड़ता है जिससे दुर्गति हो जाती है तथा इसीलिए इन भोगों को विद्वानों ने निन्दा योग्य बुरा समझा है। श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी ज्ञानार्णव में कहा है
अतप्तिजनकं मोहवाषचन्हेमले धनम् । असातसन्ततेोजमक्षसौख्यं अजिमाः 11१३|
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५. ]
तत्त्वभावना
विना विपनलमन्यापक्ष यास्पक्ष । करणग्राह्यमेतद्धि यवक्षार्थोत्थितं सुखम् ।।१।। यद्यपि दुर्गतिबोज तृष्णासंतापपापसंकलितम् ।
तदपि न सुखसंप्राप्य विषयसुखं वांछितं नृणाम् ।।२४॥ भावार्थ-जिनेन्द्रों ने कहा है कि इंद्रियों से होने वाला सुख कभी तृप्ति नहीं देता है। यह तो मोह को दावानल अग्नि के बढ़ाने को महान ईंधन का काम करता है। यह असाता की परिपाटी का बीज है । इससे आगामी दुःख मिलता ही रहता है। यह इंद्रिय सुख विघ्नों का बीज है । सेवते-सेवते हजारों अंतराय पड़ जाते हैं, आपत्तियों की जड़ है। इस सुख के आधीन प्राणी असत्य, चोरी, कुशोल, हिंसादि पापों में फंसकर इस लोक में ही अनेक दुःखों में पड़ जाता है। यह सुख पराधीन है, अपने ही आधीन नहीं है । तथा भयभीत रखने वाला है और इस सुखको इंद्रियां यदि बलवती हों तब इंद्रियां ही ग्रहण कर सकती हैं। यह सुख यद्यपि तीव राग के कारण से दुर्गति का बीज है और तृष्णा संताप तथा पापों से भरा हुआ है तथापि इच्छित सुख सहज में नहीं मिलता है, बड़ा कष्ट सहना पड़ता है।
ऐसा ज्ञान व श्रद्धान होने पर भी कि ये इंद्रिय विषयों के सुख ग्रहण करने योग्य नहीं है, यह अविरति पुरुष अप्रत्याख्यान आदि कषायों को न दबा सकने के कारण उनके जोर से व्याकुल होता हुआ विषयभोगों को नहीं त्यागता है । त्यागना चाहता है परन्तु त्याग नहीं कर सकता है। इसीलिए यह विचारता है कि मैं किससे पूछू व किसका आश्रय लूं व क्या उपाय करूं जिससे
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सत्यभाभदा
मेरे मन में वैराग्य पैदा हो जावे। सम्यग्दष्टि ऐसा नित्य विचार करता रहता है तथा जिसे आत्मा पर दृढ़ विश्वास हो गया है व जिसके स्वरूप का दर्शन सम्यक्त होते समय हो चुका है वह इस आत्मा का ही अनुभव समय-समय करता रहता है और इसी भेदविज्ञान के अभ्याससे उसके काय कर्म धीरे-धीरे दुबल होते चले जाते हैं। इसीलिए वैराग्य की भावना परम कार्यकारी है। तत्वभावना से ही आत्मा का कार्य बनता है ।
मूल झलोकानुसार मालिनी छन्द विषय सुख असारा दुःख भयप्रद अपारा। दुर्गति दुखवाता संत निवित बिचारा ।। हैं अपिर विचारू खेद ! नहि भोग त्या।
शरण काफी लूँ कौन शुभ यल लागू ॥१५॥ उत्थानिका-आगे भावना करने वाला विचारता है कि थी जिनेन्द्र के चरण मेरे हृदय में सदा जमे रहे यह ही एक उपाय है
मोहध्यान्त मनेकदोषजनक मे भरिसुतुं वोपकापुरकीर्णायिन कोलिताविव हृदि स्यताविवेन्द्रार्चितौ ॥ आश्लिष्टाविय बिबिताधिव सदा पादौ निखाताविव ! स्थेयास्तां लिखिताविवाघदहनौ बद्धाविवाहस्तव ।।१६।।
अन्वयार्थ (अहम ) है अहंन्त देव (मे) मेरे (हृदि) हृदय में (अनेकदोषजनक) अनेक रागादि दोषों को पंदा करने वाले (मोहटवातं) ऐसे मोहरूपी अंधेरे को (भत्सित) हटाने के लिए (दीपको) दोपक के समान (इन्द्र।चितो) इन्द्रों के द्वारा पूजने योग्य तथा (अघदनो) पापों के जलाने वाले (तव) आपके
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५२ ]
तत्त्वभावना
..----- -- (पादौ) दोनों चरण (सदा) हमेशा (स्थेयास्तां) ठहरा जायें (उत्कीणों इच) मानों दिल में अंकित हो जावें (कीलितो इव) या मानो कील के समान गड़ जायें (स्यती इव) या मानो सी जावें (अश्लिष्टी इव) या मानों चस्पा हो जावें (बिबितौ इव) या मानों छाया की तरह जम जावं (निखाती इव) या मानों अड़ हुए के समान हो जावें (लिखितो इव) या मानों लिख दिए जावें (बद्धौ इव) या मानों बांध दिए जावें अर्थात् मैं कभी आप के चरणों को न भूलूं ।
भावार्थ--यहां आचार्य ने भक्तिभाव को भले प्रकार दिखलाया है । यह कहना कि आपके चरण मेरे हृदय में जमकर बैठ जावे कि मानों दिल उनके साथ एकमेक हो जावें इस बात के बताने का एक अलंकार मात्र है कि आपका वास्तविक भात्मिक स्वरूप मेरे मन में जम जावे अर्थात् मेरा मन आपके ज्ञानानंदमई शांत स्वभाव में रत हो जावे, इसका भी भाव यही है कि मेरे मनसे सब अनात्मीक भाव हट जावें और एक आत्मीक शुद्ध भाव प्रगट हो जाये । इसको स्वात्मानुभव कहते हैं। वास्तव में यही दीपक है जिससे अनादिकाल का मोह का अंधेरा दूर होता है । इसी ज्ञानाग्नि के तेज से अनेक पापों के ढेर जल जाते हैं।
वास्तवमें जो आत्माको जानते हैं वेही अहंत परमात्माको जानते हैं । जो अरहंत परमात्माको पहचानते हैं वे ही आत्माको जानते हैं। क्योंकि निश्चयनय से आश्मा और परमात्मा का स्वभाव एक समान है। अत्यन्त गाढ़ भक्ति भी द्वैत से भाव में ले जाने के लिए निमित्त कारण है । यह भी इस श्लोक का आशय झलकता है कि जहां तक निर्विकल्प समाधि या शुद्धोपयोग की ऊंची अवस्था प्राप्त न हो वहां तक श्रीअहंत की भक्ति, भावोंको मोक्षमार्ग में लगाए रखने के लिए निमित्त है इसलिए भक्ति करते
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तस्वभावना
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रहना चाहिए। अहंद्भक्ति को साधुजन भी नित्य करते हैं । उनके नित्य छः आवश्यक कर्मों में स्तुति और वन्दना कर्म हैं । मृहस्थ जब प्रत्यक्ष भक्ति श्रीजिनेन्द्र की प्रतिमाओं के निमित्तसे अधिक तर करते हैं तथा परोक्ष भक्ति कम करते हैं तब साधुजन परोक्ष ! भक्ति अधिक करते हैं। प्रत्यक्ष भक्ति जब जिन मंदिर का समागम होता है तब करते हैं। भावों को जोपयोग से छुड़ाकर शुभोपयोग में लगाने के लिए अर्हतभक्ति बड़ा प्रबल उपाय है । गृहस्थों को नित्य अहंत भक्ति करके अपने-२ भावों को उज्ज्वल करना योग्य है । यद्यपि अरहंत वीतराग हैं, हमारी भक्ति किए। जाने से प्रसन्न नहीं होते हैं तथापि उनके गुणों के स्मरण से व उनके शांति स्वरूप के दर्शन से हमारे भाव शांत हो जाते हैं इस- | लिए भगवद्भक्ति निमित्त कारण है। हमारे कल्याण के लिए } ऐसा मानने में कोई हानि नहीं है। अहंभक्ति क्षणमात्र में बड़े बड़े पापों को काट देती है और महान् पुण्य को बांध देती है। ज्ञान सहित अहंभक्ति मोक्षमार्ग है । यह १६ कारण भावना में एक उत्तम भावना है।
श्री पद्मनंदि मुनि सबोध चन्द्रोदय में कहते हैंसंविशुद्धपरमात्मभावना संविशुद्धपक्कारणं भवेत् । सेतरेतरकृते सुवर्णतो लोहतश्च विक्रतो तदाधिते ॥२०॥
भावार्थ-शुद्ध परमात्मा की भावना शुद्ध पद की कारण हो जाती है तथा अशुद्ध आत्मा की भावना अशुद्ध भाव के लिए कारण है 1 सोते से सोने की चीज व लोहे से लोहे की चीज बनती है । अतएव श्रीजिनेन्द्र परमात्माके गुणोंका चिन्तवन सदा ही करते रहना चाहिए, क्योंकि यह चितवन पोतरागभाव में पहुंचाने वाला परम मित्र है।
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तरखभावना
मूलश्लोकानुसार मालिनी छन्द
तव चरणजिनेन पाप नाशक बताए । हृदय धरूं अपने मोह तम सब भगाए || दीपक सम रक्खूं कील डालूं बिठाऊं । पूजित इन्त्रों में सीमजा मार्क ||
उत्थानिका – आगे कहते हैं कि परका संयोग न रहना ही सुखकर है
संयोगेन दुरंत हमभुवा दुःखं न कि प्रापितो । येन त्वं भवकानने भूतिज राव्या प्रजाध्यासिते ॥ संगस्तेन न जायते तत्र यथा स्वप्नेऽपि दुष्टात्मना । किचित्कर्म तथा कुरुष्व हृदये कृत्वा मनो निश्चलम् ॥ १७ ॥
अन्वयार्थ - ( मूतिजराव्याघ्रवजाध्यासिते) मरण और जन्म रूपी बाघों के समूह से भरे हुए ( भवकानने) इस संसार वन में ( दुरंत रकल्मषभुवा) तीव्र पानको पैदा करने वाले ( येन ) जिसके ( संयोगेन ) संयोग से ( त्वं) तुमने (किं दुखं) क्या २ दुःख (न) नहीं ( प्रापितः ) पाया है (तेन) उस (दुरात्मना ) पापी के साथ ( तव संगः) तेरा संग ( यथा) जैसे ( स्वप्नेऽपि ) स्वप्न में भी (न जायते) नहीं हो (तथा) तेसे (किंचित् कर्म ) कोई काम (निश्चलं ) स्थिर ( मन ) मन को (कृत्या) करके (हृदये) हृदय के भीतर ( कुरुष्व ) कर ।
भावार्थ - यहां भी आचार्य ने संकेत किया है कि मोह की गाँठ जो तेरे दिलके भीतर पड़ी है उसको काट डाल । वास्तव में मोह बड़ा पापी व दुष्ट है । इसी की संगति में यह प्राणी रहकर संसार के स्त्री, पुत्र, मित्र, धनादि परिग्रहको अपना माना करता
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सामानना
है तब किसी से राग, किसी से द्वेष करता है, इस मोह राग-द्वेष के कारण तीन पाप का बंध करता हुआ संसार वन में भ्रमता है, जिस बन में बुढ़ापा होना और मरना ये दो बड़े बाघ हैं जो इसको पकड़कर दुःखी करते व सताते हैं इसके सिवाय अनेक शारीरिक और मानसिक क्लेश प्राप्त होते हैं इस संसार के भीतर चार गतियां हैं, जहां हो जाता है वहां ही आकुलतामें पड़ जाता है । देवगति में भी इंद्रिय भोगों की आकुलता रहती है व इष्ट का वियोग होता रहता है व अन्य की अधिक संपत्तिको देख कर दिल में जलन पैदा होती है। बारबार इस संसार में मरता है और कष्ट उठाता है। श्रीगुरु कहते हैं- इस मोह के वश में पड़ा हुआ तुझे अनेतकाल संसार वन में चकार देते हुए और भटकते हुए बीत गया। तू जन्म मरण करना हो रहा और भयानक दुःखों को पाताही रहा, अब कुछ पुण्यके उदयसे यह मानव जन्म पाया है तथा सत्संगति से उस जैनधर्म के रहस्य को जाना है जो जीवों को संसार वन से निकालकर मुक्ति के अचल धाम में विराजमान कर देता है। इसलिए अब प्रमाद को छोड़कर ऐसा कोई उद्यम करना उचित है जिससे इस मोह शत्रुसे पल्ला छूटे और संसार का भ्रमण मिटे और परम निराकुल पद प्राप्त हो । उपाय यही है कि मन को निश्चल किया जाये, मिथ्यादर्शन के विष को उगला जावे, सम्यग्दर्शन रूपी परम अमृत को प्राप्त किया जावे, भेद विज्ञान के प्रताप से आत्मानुभव को जागृत किया जावे, आत्मीक आनंद में विलास किया जावे, यह आनंद भोग ही ऐसा अपूर्व शास्त्र है जो मोहको खंड-२ कर देता है। इसी ही अमोघ शस्त्र से मोह-शत्रुका नाश हो जाता है और यह आत्मा मोह से छूटकर शीघ्र ही अहंत परमात्मा होकर अनंत सुख में मग्न हो जाता है, फिर पारीर रहित हो सिद्ध होकर
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तत्त्वभावना
निराकुल भाव का अनंतकाल के लिए अधिकारी हो जाता है। जैसा श्री ज्ञानार्णव में शभचन्द्र आचार्य कहते हैं कि इस तरह विचारकर आत्मानुभव पाना चाहिए
। तावन्मां पीड़यत्येव महाबाहो भवोद्भवः। || यावज्ज्ञानसुधाम्भोधौ नाचगाहः प्रवर्तते ।।११
भावार्थ-जब तका ज्ञानरूपी समुद्र में मेरा अवगाह नहीं हुआ है तब तक ही संसार से उत्पन्न हुआ महादाह मुझं पीड़ित करता है
तत्सरूपाहितस्यान्तस्तद्गुणग्रामरंजितः। योजयत्यात्मनात्मानं तस्मिस्तद्रूपसिद्धये ॥३५।। अनन्यशरणीध य स तस्मिल्लीयते तथा । घ्यातघ्यानोमयाभावे ध्येयेनश्यं यथा ब्रजेत् ।।३७॥ सोऽयं समरसीमावस्तदेकोकरणं स्मृतम् ।
अपृथकत्वेन यत्रात्मा लीयते परमात्मनि ॥३८।। भावार्थ-जो उस शुद्धात्मा के स्वरूप में मन लगाकर उसीके गुणों में रंजायमान हो जाता है वह अपने से ही अपने मात्माको अपने में अपने आत्माके स्वभाव की सिद्धिके लिए जोड़ देता है । वह अन्य वस्तु का आश्रय छोड़कर उस आत्मा में ऐसा लीन हो जाता है कि ध्याता व ध्यान का भेद मिटकर ध्येय पदार्थ से एकतान हो जाता है। यही वह समरसी भाव है, यही एकीकरण है जहाँ मात्मा परमात्मा में एकी भाव से लय हो जाता है। यही आत्मानुभव संसारवन से निकालने वाला मित्र है।
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तत्वभावना
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मालिनी छन्द मरण जरा हिंसा पूरितं भव बनोमें। क्या दुःख न उठाए मोहक संगती । करके मन निश्चल यत्न ऐसा उचित कर । जो संग न आये स्वप्न में भी कलुषकर ॥१७॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि यद्यपि यह मानव देह महान अपवित्र है तथापि इससे अपना आत्मकल्याण कर लेना उचित है ।
दुर्गंधेन मलीमसेन ager स्वर्गापवर्गश्रियः । साध्यते सुखकारणा यदि तथा संपाते का क्षति: 1 निर्माल्येन विगर्हितेन सुखदं रत्नं यदि प्राप्यते । लाभः केन न मन्यते यत तवा लोकस्थिति जानता || १८ ||
अन्वयार्थ - ( यदि ) यदि ( दुर्गंधेन ) इस दुर्गंध से भरे हुए तथा ( मलीमसेन ) मलीन ( वपुषा ) शरीर से ( सुखकारिणाः) सुख को करने वाली (स्वर्गापवर्ग श्रियः ) स्वर्ग और मोक्ष की संपत्तियां ( साध्यते ) प्राप्त की जाती हैं ( तदा) तब ( का ) क्या ( क्षतिः) हानि ( संपद्यते ) होती है । (यदि ) यदि ( विगर्हितेन ) निंदनीय ( निर्माल्येन ) निर्माल्य के द्वारा (सुखदं रत्नं ) सुखदाई रत्न ( प्राप्यते ) मिल जावे ( तदा ) तब ( लोकस्थिति) जगतकी मर्यादा को ( जानता ) जाननेवाले ( केन) क्रिस पुरुषसे (लाभ:) लाभ ( न मन्यते ) न माना जाएगा ।
भावार्थ - यहां आचार्य बतलाते हैं कि यह शरीर परम अपवित्र दुर्गंधमय है- हांड़, चाम, मांस, रुधिर आदि का बना हुआ है। निरन्तर अपने करोड़ों रोमोंसे और मुख्य नव द्वारोंसे मैलको ही निकालता है, पवित्र जल चंदनादि पदार्थभी जिसकी
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संगति में आकर मलीन हो जाते हैं, तथा यह ऐसा कच्चा है कि जैसे कच्ची मिट्टी का घड़ा । जराभी रोग शोक आदि क्लेशोंकी ठोकर लगती है कि यह शरीर खंडित हो जाता है। इस शरीर में रात दिन बाधाएं रहती हैं, कभी भूख कभी प्यास, कभी आलस्य सताता है, कभी चिंता की आग में जला करता है । शरीराधीन इंद्रियोंके भोगकी चाह महान जलन पैदा करती है । इष्ट पदार्थोंका वियोग परम आकुलित कर देता है। इस शरीर का मोह जोवको नरक निगोद की दुर्गति में पटके देनेवाला है । सथापि जो कोई बुद्धिमान प्राणी है वह ऐसे शरीर से मोह नहीं करते किन्तु इसको स्थिर रखते हुए इसके द्वारा परम सुख दाई मोक्षपद या साताकारी स्वर्गपद प्राप्तकर लेते हैं। क्योंकि बिना मानवदेह के उच्च स्वर्गपदोंका व मुक्तिपदका लाभ नहींहो सकता है। इसमें वे अपनी कुछ हानि नहीं मानते हैं; क्योंकि यह देह तो बहुत कष्टप्रद है व शीघ्र मरणके आधीन है, इसका मोह तो उल्टी तीव्र हानि करता है तब यही उचित है कि इसको चाकर की तरह अपने बघा में रक्खा जावे और इसको ध्यान स्वाध्याय आदि तप साधनमें लगा दिया जावे। तब आत्मज्ञान के बलसे यहां भी कष्ट नहीं और फल ऐसा मिले कि जिसकी जरूरत थी व जिसके बिना संसार में महादुःखी था, यदि किसी के पास कोई निर्थक वस्तु ऐसी हो जिसका रखना निंदनीय हो व जिससे कोई मतलब न निकलता हो तब यदि कोई कहे कि यह वस्तु तू दे दे और बदले में सुखदायी अमोलक रत्न तुले ले तो बुद्धिमान मानव जरा भी संकोच व देर न करेगा और बढ़ा ही लाभ मानकर उस रत्न को ले लेगा ।
प्रयोजन कहने का यह है कि बुद्धिमान प्राणी को उचित है
तत्त्वभावना
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तत्त्वभावना
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कि इन्द्रियों के विषय भोगों में इस शरीरको रमाकर अपना बुया न करें। यह शरीर तो काने साठे (गन्ने) के समान है जिसको खाने से मजा नहीं आता है परन्तु यदि उसे बो दिया जावे तो मीठे-२ साठोंको नैदा करता है । इसी तरह इस शरीरके भोगने में शांति नहीं मिलती है किन्तु यदि इसे तप संयम ध्यान में लगा दिया जावे तो मोक्षके अपूर्ण सुखोंको व स्पति साताकारी सुखों को पंदा करा देता है । इसलिए शरीर से मोह छोड़कर आत्महित करना ही श्रेय है। श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैं
अजिनपरलगूढ़ पंजरं कीकसानाम् । कुथितकुणपगन्धैः पूरितं मढ़ गाढम् । यमबदन निषण्णं रोगभोगोन्द्रगेहं।
कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याग्छरीम् ।।१३ भावार्थ-हे मूढ़ प्राणी ! इस संसारमें यह मनुष्योंका शरीर चर्मके पदेशे ढका हुआ हाड़ोंका पिंजरा है, बिगड़ी हुई पीप की दुर्गंध से खूब भरा हुआ है तथा रोगरूपी सो का घर है और काल के मुख में बैठा हुआ है, तब ऐसे शरीर से किस तरह प्रेम किया जावे। श्री पद्मनंदि मुनि शरीराष्टक में कहते हैं
भवतु भवतु यादक तादृगेतद्वपुर्मे । हृदि गुरुवचनं चेदास्त तत्तत्ववशि । त्वरितमसमसारानंदकंदायमाना।
भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मीः ॥७॥ भावार्थ-यद्यपि यह शरीर ऐसा अपवित्र क्षणिक है सो ऐसा ही रहो परन्तु यदि परम गुरुका वचन जो तत्त्व को दिखलानेवाला है मेरे मन में रहे तो उसके प्रभाव से अर्थात् उस उपदेश
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६. ]
तत्त्वभावना
पर चलने से मुझे इसी शरीर' द्वारा अनुपम और अविनाशी आनन्द से भरिपूर मोक्षलक्ष्मी शीघ्र ही प्राप्त हो जावे।
इसलिए इस नरतन से धर्म पालकर स्वात्म लाम कर लेना ही उचित है।
मूलश्लोकानुसार छन्द गीता यदि अशुचि शरीरं साधता सौख्यकारी। दिव शिवपद अनुपम हानि क्या तब विचारो॥ निदित Fनुवन्तु होलो रात साचे!
बुधजन तब यामें लाभ ही लाभ भावे ||१|| उत्थानिका - आगे कहते हैं कि बद्धिमानों को उचित है कि सर्व संकटों को दूर करने वाले जनधर्म का पालन करें।
मत्यत्पत्तिवियोगसंगमभयच्याध्याधिशोकावयः । सुर्थते जिनशासनेन सहसा संसारविच्छेदिना ।। सूर्येणेव समस्तलोचनपथप्रध्वंसबखोदया !
हन्यते तिमिरोस्करा: सुखहरा नक्षत्रविज्ञपिणा ॥६॥ अन्वयार्थ--(नक्षत्रविक्षेपिणा सूर्येणेव जैसे नक्षत्रोंको छिपाने वाले सूर्य के द्वारा (समस्तलोचनपथप्रध्वंसबद्धोदयाः) सबकी आंखों में देखने की शक्ति को रोकने वाले (सुखहराः) और सुख को हरने वाले (तिमिरोत्करा:) अधिकार के समूह (हन्यते) नाशकर दिए जाते हैं बसेही (संसारविच्छेदिना) संसारको नाशकरने वाले (जिनशासनेन ) जिनशासन या जैनधर्म के द्वारा (मृत्यूत्पत्तिवियोगसंगमभयव्याध्याधिषोकादयः) मरण, जन्म, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, भय, रोग, मनका क्लेश, शोक बादि (सहसा) इकदम (सूचंते) दूरकर दिए जाते हैं।
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तत्वभावना
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मावार्थ- इस श्लोक में आचार्य ने जैनधमंकी यथार्थ महिमा बताई है और उसको उपमा सूर्य से दी है। सूर्य के सामने जैसे और नक्षत्रों का तेज छिप जाता है वैसे जैनधर्मके स्थाद्वाद नयगभित अनेकांत उपदेश के सामने एकांत तत्व को पोखने वाले मतोंका तेज हो जाती है। जैसे सूर्य के अन से पहली रात्रिका अंधकार जिसके कारण के आंखोंके रहते हुए भी प्राणी देख नहीं सकते हैं व जो देखनेके सुखके रोकनेवाला है सो एकदम दूर हो जाता है । उसी तरह जिनशासनके सेवन से जन्ममरणादि दुःखोंसे परिपूर्ण संसारका ही नाश हो जाता है, संसार का कारण रागद्वेष मोह है । जिनशासन वीतराग विज्ञान है । अथवा बभेद रत्नत्रयमई है, अथवा शुद्ध आत्मा का ध्यान या शुद्धात्मानुभव है । जिस समय यह स्वानुभब जगता है तुर्त मनका क्लेश व शोकादि भावों को हटा देता है। इष्ट वियोग व अनिष्ट संयोग की चिन्ता को मिटा देता है । ध्याता को निर्भय बना देता है। स्वानुभव से ही पापों का नाश होता है । यह स्वानुभव ही उच्च श्रेणी पर पहुंचा हुआ शुक्लध्यान कहलाता है जिसके प्रतापसे घातिया कोका नाश होकर यह जीव अहंत हो जाता है, फिर शेष चार अघातिया कर्मोका भी क्षयकर सिद्ध परमात्मा हो जाता है। अब इसका न जन्म होता है न मरण होता है। यह जीव सिद्धपदमें निश्चलता से अनंतकाल स्थित रहता है और अपने आत्मीक आनंदका विलास करता है । जिस जैनधर्म के सेवनसे यहां भी सुख होता है और परलोकमें भी सुख होता है उसकी ओर श्रद्धाभाव रखकर उसका माचरण करना निरंतर उचित है, जो इस मानवजन्मको पाकर जिनशासनरूपी जहाज पर चढ़ जाते हैं वे अवश्य निःशंक होकर संसार-समुद्रको
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तय करते को बने हैं। एक बुद्धिभाग प्राणी जैनधर्म से प्रेम करना उचित है, यह आत्मस्वातंत्र्य का पाठ सिखाता है और अहिंसा के अद्भुत भाव को जगाता है। यह जगत के प्राणियों के दुःख मिटाने को दयाभाव जगाता है। यह अन्याय पथ से बिलकुल हटा देता है। यह जीवको समदर्शी व बीतरागी बना देता है। यह सांसारिक सुख-दुःखोंके भीतर भी समताभाव रखने को युक्ति बता देता है । यह अपने निश्चय दृष्टिरूपी शस्त्र से राग-द्वेष के कुमावों को विध्वंश कर डालता है । यह निरंतर ज्ञानरसको पिलाता है, तृष्णाकीं दाहको शमन कराता है और जीवको निर्भय बनाकर साहसी और निरा कुल कर देता है। इस जैनधर्मकी महिमा अपार है, वचन अगोचर है ।
तत्त्वभावना
श्री पद्मनंदि मुनि धर्मोदेशामृत में इस रत्नत्रय धर्म की महिमा इस तरह गाते हैं
भय भुजंग नागदमनी दुःखमहादावशमनजलवृष्टिः । मुक्तिसुखामृतसरसी जयति दुर्गाावित्रयो सम्यक् ॥ ८ ॥
भावार्थ - यह सम्यक दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रयमयी जैनधर्म संसाररूपी सर्प के हटाने को नाम दमनी औषधि है, दुःखोंकी महान आग को बुझानेके लिए जलकी वृष्टि है तथा मोक्षसुख रूपी अमृतका सरोवर है सो जयवन्त रहो । मूल श्लोकानुसार मालिनि छन्द
जनम मरण ब्याधि आधि भय शोक आदि ।
सहज नशत जासे जंन शासन
अनादी ॥
अन्धेरा । मेरा ॥ १६ ॥
भानु जिम नाश करता दुःखकर जग जनदृष्टि विराधक तेज नक्षत्र
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उत्थानिका --- आगे कहते हैं कि जिसका लक्ष्य शुद्धात्मा की तरफ है वही शुद्धात्मभाव को पाता है
तस्वभावना
मन्दाक्रांता छन्द
चित्रारंभप्रचयनपरा सर्वदा
लोकयात्रा ।
यस्य स्थान्ते स्फुरदि न सुनेर्मुष्णतो लोकयात्राम् । कृत्यात्मानं स्थिरतरमसावात्मतत्व प्रचारे । क्षिप्त्वाशेषं कलिलनिचयं ब्रह्मस प्रयाति ॥२०॥
अम्वयार्थ - (यस्य) जिस ( मुनेः ) सुनि (स्वान्ते ) अंतःकरण में (चित्रारंभचयनपरा ) नाना प्रकार हिंसादि आरंभ में लगने बाली (लोकयात्राम मुष्णती) व मोक्षकी यात्राको रोकने वाली ( लोकयात्रा ) लौकिक प्रवृत्ति ( सर्वदा) कभी ही (न स्फुरति ) नहीं प्रकट होती है ( असौ ) वही साधु (आत्मतत्त्व प्रचारे) आत्मीकतत्व के मनन में (स्थिरतरं ) अतिदृढ़ (आत्मानं ) अपने आत्मा को ( कृत्वा) करके (अशेषं ) सर्व ( कलिलनिचयं ) कर्मों के मैल के ढेरको (क्षिप्त्या) दूर फेंककर ( ब्रह्मसय ) ब्रह्मलोक या सिद्धलोक को ( प्रधाति) चला जाता है ।
भावार्थ - यहाँ आचार्य ने बताया है कि सिद्धि उसीकी हो सकती है जो उसके लिए भले प्रकार पुरुषार्थं करता है। मुनिगण ही मोक्षपद पानेके अधिकारी हैं। गृहस्थी आरम्भ परिग्रह के मलसे मलीन रहते हुए गजस्नानवत् आचरण करते हैं, यदि उन्होंने कुछ ध्यानादि करके पाप धोया भी तो दूसरे समय आरंभों में उलझकर फिर पापोंका बंध कर लिया, इसलिए बेही सच्चे साधु मोक्षको पा सकते हैं जिनके अंतरंग में संसार के सब प्रकारके आरंभ से ऐसी उदासीनता हो गई है कि वे कभी किसी
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तत्त्वभावना
असि मसि कृषि मादि कर्मका व रसोई पानी बनवाने आदिका रंचमात्र भी विचार नहीं करते हैं । वे जानते हैं कि ये संसारके व्यवहार राग-द्वेषको बढ़ानेवाले, चितामें फंसानेवाले और स्वा. नुभव रूप मोक्ष की यात्रा मार्ग से हटाने वाले हैं, इसलिए वे राज्यपाट गृहनगर आदिको छोड़कर अत्यंत दूर एकांत निर्जन वनों में निवास करते हैं, अपने मनमें रात-दिन मुक्ती सुन्दरीके मिलने की उत्कंठामें लगे रहते हैं, वे साधुजन अपने ही आत्माके निश्चय स्वरूप का विचार करते हैं और उसी आत्मानुभव में थिरता पाने का उद्यम करते हैं । जितना-२ आत्मानुभव बढ़ता जाता है और वीतरागताकी वृद्धि होती जाती है, उतना उतना ही कोका अधिक क्षय होता जाता है और बंधका अभाव होता जाता है । आत्मसमाधिरूपी नौकापर चढ़े हुए साधु आत्मानन्द को पाते हुए बड़े सुखसे इस संसारको विशाल यात्राको उल्लंघन करके मोक्षमें पहुंच जाते हैं।
प्रयोजन कहने का यह कि जो ब्रह्मानन्दके स्वाद के चाहनेवाले हैं उनकी सर्व आरंभ परिग्रह से विरक्त होकर साध के चारित्रको पालते हुए आत्मध्यानका अभ्यास बढ़ाना जरूरी है। जिन साधुओंकी दृष्टि सदा आत्मानुभवकी तरफ लगी रहती है वे ही साधु शीघ्र मुक्तिको पहुंच जाते हैं।
जैसा श्री पद्मनंदि मुनि ने सोधचंद्रोदय में कहा है कि आत्मध्यान ही मुख्य हैआत्मबोधशुचितोर्ममभुतम् स्नानमन कुचतोत्तमं बुधाः । यत्र यात्मपरतीर्थकोटिमिः भाषयस्यपि मलं तवंतरम् ।।२०
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तस्वमार
भावार्थ हे बद्धिमानों! आत्मज्ञानरूपी पवित्र तीर्थ एक आश्चर्यकारी तीर्थ है, इसमें बराबर भले प्रकार स्नान करो। जो कर्ममल अन्तरङ्ग में है व जिसको अन्य कुरोडों तीर्थ धो नहीं सकते उस मेलको यह आत्मज्ञान रूपी तीर्थ धो देता है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जिस मुनिके मममें लोक व्यवहार सारा शिव पथ हारा घोर आरम्म कारा। महिं होत सुसाधु आत्म तत्वे बिहारी । कर क्षय मल सर्व ब्रह्म पद लेत मारी॥२०॥ उस्थानिका-आगे कहते हैं कि कामधिकार बड़ा प्रबल है, इसने सर्व जगत को वश कर लिया है।
नो वा म विचक्षणा न मुनयो न ज्ञानिनो नाधमाः। नो शूरा न विभोरवो न पशवो न स्वागणी मांडजाः । स्यज्यते समर्वासनेष सकला लोफनयध्यापिना। बुरिंग मनोमवेन नयता हत्वांगिनो वश्यता ।।२१।।
अन्वयार्ष-- (समवतिना इव)समवर्ती जो यमराज या मरण उसके समान (लोकत्रयव्यापिना) तीन लोक व्यापी (दुरिण) महान कठिनता से दूर करने योग्य तथा (अंगिनः)शरीरधारियों को (हत्वा) मार करके (वश्यता न यता) अपने वश करने वाले (मनोभवेन) कामदेव के द्वारा (नो वृद्धाः) न तो वृद्ध (न विचक्षणाः) न चतुर (न मुनयः) न साधुजन (न शानिनः) न ज्ञानी लोग(न अधमाः) न नीच पुरुष (नो शूराः) न वीर मानव (न विभीरवः)न डरपोक जन(न पशवः)न पशुगण (न स्वगिण:)
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तत्त्यभावना
न स्वर्ग के देवता (न अण्डजा:) न पक्षीगण (सकलाः) ये सर्व ही (न त्या) हों छोटे लाते हैं।
(नोट--यहां एक न ऊपर से लगाना उचित है।)
भावार्थ-जैसे मरण के आधीन सर्व शरीरधारी प्राणी हैं वैसे कामदेव के आधीन सर्व प्राणी हो रहे हैं । मरण जसे तोन लोक के प्राणियों को सताता है वैसे कामदेव भो प्रायः सब प्राणियों को सताता है जैसे मरण को निवारा नहीं जा सकता वैसे कामदेव को निकारना कठिन है। जैसे मरण को बुद्धिवान, मुर्ख, धनवान, निधन, साधु, संत, वोर, कायर, पशु, पक्षी, देव, नारकी आदि किसी भी शरीरधारी को नहीं छोड़ता है वैसे हो कामदेव ने प्रायः सब शरीरधारियों को सता रक्खा है। मैथुन संज्ञा अर्थात् काम को चाह एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में है। यहां तक आचार्यने कामदेव की प्रबलता इसीलिए दिखाई है कि यह कामभाव परिणामों को बहुत रागी व मोही बना देता व इसके वश में बड़े-२ साधु व वीर पुरुष भी आकर कायर व दोन हो जाते हैं । यह काम इस जीव का महान शत्रु है । इस जन्म में यह काम प्राणी को अन्धा बनाकर धर्म कर्म से भ्रष्ट कर देता है तथा धर्म अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों से हटा देता है और परलोक में दुर्गति में पटक देता है। जहां से भ्रमण करते-२ मानवजन्म पाना बहुत दुष्कर हो जाता है। जिन स्त्री पुरुषों ने कामभाव को जीता है वे ही साम्यभाव में भले प्रकार रम सकते हैं, वे ही सच्चे सुख व शांतिको प्राप्त कर सकते हैं। कामभाव से बचने के लिए हरएक बुद्धिमान प्राणो को सदा ही यत्न करना योग्य है। ब्रह्मभाव और काम भाव में वैर है । ब्रह्मभाव जब निराकुलताका कारण है तब कामभाव तीव्र आकुलता
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तरवभावना
[६७ का कारण है । तत्वभावना का महान घातक यह कामदेव है। श्री पधनंदि मुनि ब्रह्मचर्य रक्षा में ऐसा कहते हैं :
चेतो भ्रांतिकरो नरस्य मदिरा प्रीतियथा स्त्री तथा । तत्संगेन फुतो मनेर्वतविधिः स्तोकोऽपि संभाव्यते ॥ तस्मात्संसृतिपातमीसमतिभिः प्राप्तस्तपोभूमिकाम् । कर्तव्यो प्रतिभिः समस्तयुवतित्यागे प्रयत्नो महान् ।।
भावार्थ-जैसे मदिरा मनुष्य के चित्तमें भ्रांति पैदाकर देती है वैसे ही स्त्री की प्रीति मनको बावला बना देती है। ऐसी स्त्री को संगति में किस तरह थोड़ा भी मुनिका पत संभव हो सकता है ? इसलिए जो संसार सागर में डूबने से भयवान हैं और तप की भूमि में प्राप्त हो चुके हैं ऐसे प्रतियों को उचित है कि सर्व स्त्रियों के त्याग में महान उद्यम रखें । मन की शुद्धि काम भाव के त्याग से ही होती है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द यम सम दुर्वारं काम कृमिचाविकारं । जगत जनोंको है पोड़ता हन अपारं ॥ पशु देव सु वीरं वृद्ध मुनि शानघारं।
प्राणो सब मोहे कामको कर निवारं ॥२१॥ उस्थानिका--आगे कहते हैं कि इस कामभाव को वैराग्य व आत्मध्यान से जीतना उचित है।
शश्वदुःसहदुःखवानचतुरो वैरी मनोन रयम् । ध्यानेनैवनियम्यते न तपसा संगेन न शानिनाम् । बेहात्मव्यतिरेकबोधमनितं स्वामाविक निश्चलं ।
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६८ ]
तस्वभावना वैराग्यं परमं विहाय शमिना निर्वाणवानक्षमम् ॥२२॥
अन्ययार्ष-(अयम) यह (मनोभूः) कामभाव (शश्वत्) सदा हो (दुःसहदुःखदानचतुरः) असहनीय दुःख देने में चतुर (वैरी) शत्रु है । इसको (ध्यानेन एव) आत्मध्यान से ही (नियम्यते) वश किया जा सकता है । (न तपसा) न तो तप करने से (न ज्ञानिनाम संगेन) न ज्ञानियों की संगति से यह बस होता है अथवा (मिनां) शांत चित्तवालोंको (निर्वाणदानक्षम) मुक्ति में समर्पओ (दहावयासककोजानित दह और आत्माके भिन्न-२ ज्ञानसे उत्पन(निश्चलं )निश्चल(स्वाभाविक) व स्वाभाविक (परमं) उत्कृष्ट (वैराग्यं) वैराग्य है (विहाय) उसको छोड़कर और कोई उपाय नहीं है।
मावाथ यहां पर आचार्य ने कामभाव मिटाने के लिए आत्मध्यान को ही मुख्य कारण बताया है और उस आत्मध्यान को हो उत्तम वैराग्य कहा है। यह बात बिलकुल ठीक है कि जहां वैराग्य होता है वहीं राग मिटता है यदि वैराग्य न हो और नाना प्रकार के तप किए जावें तथा विद्वान पंडितों को संगति में रहकर ज्ञान की चर्चा सुनी जाये तब भी कामका विकार मनसे नहीं हटता है । इसलिए स्वाभाविक वैराग्य' की प्राप्ति करनी उचित है। शरीर और आत्मा इन दोनों का सम्बन्ध दूध और पानों की तरह एकमेक हो रहा है । जिसने जिनवाणीक अभ्यास से भलेप्रकार समझ लिया है कि आत्मा का स्वभाव भिन्न है और शरीर का स्वभाव भिन्न है उसीन आत्माके सच्चे स्वरूप का पता पाया है । आत्मा स्वतन्त्र एक द्रव्य है-गुणपर्यायमय है, चेतना, सुखचरित्र (वीतरागता) वीर्य सम्यक्त आदि इसके विशेष गुण हैं । तथा इन गुणों में परिणमन होना सो पर्याय या
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अवस्थाएं हैं। आत्मा असल में शुद्ध गुण व शुद्ध पर्यायों का धनी है । यह अमूर्तीक है। इसमें न क्रोधादि विकार रूप भावकर्म हैं, न ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप द्रव्यकर्म है, न शरीरादि नोकर्म हैं। संसार संबंधी भाव कि में सुखी हूं या दुःखी हूं यह भी मोह का विकार है । सांसारिक सुख तृप्तिकारक नहीं है, पराधीन है, जब कि आत्मीक सख स्वाधीन व परम संतोषकारक है । ऐसा भेद विज्ञान जिस किसीके चित्त में हो जाता है और जो इस भेद विज्ञान के बल से आत्माको सर्व अन्य द्रव्यों से व सवं प्रकार अशुद्ध भावों से भिन्न अनुभव करता है उसको अभ्यासके बल से आरमीक आनन्द का बढ़िया स्वाद आने लगता है । तब उसकी बुद्धि से इन्द्रिय सुख की रुचि हट जाती है । बस यही वह बीज है जिससे कामभावको जीता जा सकता है। जिसको बारबार मात्मज्ञान के अभ्यास से चित्त की निश्चलता हो जाती है और दृढ़ उदासीनता संसारके कामोंसे हो जाती है व निजसुख के भोगनेकी तीव्र रुचि बढ़ जाती है, उसके दिल से कामभाव बिलकुल निकल जाता है । आत्मज्ञान सहित जो वैराग्य है वही कर्मोकी निर्जरा करता है। इस आत्मज्ञान सहित वैराग्य के लिए उपवास करना, रस त्यागना आदि तप, तथा ज्ञानियोंकी संगति में बैठकर शास्त्रका विचार करना निमित्त है, जो आत्मध्यानकी खोज इन निमित्तों को मिलाकर नहीं करता है उसके मनमें कामभाव का वैरी ब्रह्मज्ञान नहीं पैदा होता है । इसीलिए आचार्य ने दिखाया है कि बात्मध्यान और वैराग्य के बिना, मात्र तप व मात्र ज्ञानियों को संगति करना कामदेव को नाश नहीं कर सकते - L.
तत्वभावना
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७० ]
मुख्य आत्मानुभव है, यही औषधि है जिससे वैराग्य आजाता है और कामकाजाताहैए जो सच्चे हितके वांछक हैं उनको वैराग्य सहित आत्मध्यान का अभ्यास सदा करना चाहिए। ध्यानके सम्बन्ध में विशेष कथन पुस्तक अन्त में दिया गया है वहांसे पाठक ध्यानकी रीतियों को समझें। यहां यह मतलब है कि कामभावको आत्माकी उन्नति का परम वैरी समझकर उसके नाश करने के उपाय में लगे रहें तथा उसके आक्रमण से बचने के लिए सदा सावधार रहे। यह बात अच्छी तरह समझ लें कि कामकी उत्पत्ति मनमें होती है । जिसके मन में ब्रह्मभावका स्वाद बाजाता है वही मन कामभाव के स्वादको बुरा जानने लगता है । जैसे किसी मनुष्य ने अपने ग्रामके खारे कुएं का पानी पिया है और वह उसे ही मोठा समझ रहा है । एक दिन वह दूसरे ग्राम में जाता है और वहां उसे मीठे कुएंका मीठा पानी कोई पिलाता है, तब उसका भाव एकदम फिर जाता है । वह जब इस मोठे पाना के स्वाद का मुकाबला अपने कुएं के खारे पानी के स्वादसे करता है तब इसको यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि असली मौठा पानी तो वह है जो आज पिया है । अब तक जो मैंने अपने ग्राम के कुएंके पानीको मीठा समझा था सो मेरी भूल थी। इसी तरह जब आत्मध्यान से आत्मानन्द का स्वाद आने लगता है तब विषय सुख विरस है, सच्चा सुख नहीं है यह बुद्धि जमती है। इसलिए आत्मध्यानका ही उपाय करना परम श्रेयस्कर है। श्री पद्मनंदि मुनि ने सद्द्बोधचंद्रोदय में कहा है कि आत्मध्यान ही परम कल्याणकारी है
बोधरूपमखिलैरुपाधिभिः वर्जितं किमपि यसदेव नः । नान्यवल्पमपि तत्वमीशम् मोक्ष हेतुरितियोगनिश्चयः ||२५
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मावार्ष-जो आत्मतत्व सर्व रागादि उपाधियों से रहित है सपा ज्ञानमय है वही तश्व इमको इष्ट है। उसके समान और कोई भी अल्प भी तत्व मोक्ष का कारण नहीं है। यही योग का निश्चय या सार है ! अर्थात् मात्मतत्व के अनुभव से ही मुक्ति हो सकती है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द दुःसह दुखकारी, काम रिपु कर निवारी। कर आतम ध्यानः चित्त वैराग्य धारो॥ या विनबुध संङ्ग, औ तप नहि नशा।
लख आसम भिन्न, देह से मुक्त पावे ॥२२॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि जो अविवेकी हैं वे सदा संसारचक्र में भ्रमण करते रहते हैं
कः कालो मम कोऽधुना अवमहं वत्तें कथ सांप्रतम् । कि कर्मात हितं परत मम कि कि मे निजं कि परम् । इस्थं सर्वविचारणाविरहिता दूरीकुतात्मश्यिाः । जन्मांमोधिविवर्तपातनपराः कुर्वन्ति सर्वाः क्रियाः ॥२३॥
अन्वयार्थ(मम) मेरा (कः) कौन सा (कालः) काल है (अधुना) अब (कः) कौन सा (भवम्) जन्म है (सांप्रतम्) वर्तमान में (अहं) मैं (कथं) किस तरह (बतें, वर्ताव करूं (अत्र) इस जन्म में (मम) मेस (किं कर्म) कौनसा कार्य (हितं) हितकारी है (परत्र)पर जन्ममें (किं)कोनसा कर्म हितकारी है। (मे) मेरा (निज) अपना(किं) क्या है (परम्) पर (कि)क्या है (इत्थं)इस प्रकारकी (सर्वविचारणाविरहिता)सर्वविवेक बुद्धिको न करते हुए (दूरीकृतात्मक्रिया:)तथा आत्माका आचार दूर ही
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रखते
हुए जगत के जन (जन्म भोधिविवर्तपातनपरा : ) संसार समुद्र के भँवर में पटकने वाले (सर्वाः क्रियाः) सर्व आचरणोंकों ( कुर्वन्ति ) करते रहते हैं ।
तस्वभावना
भावार्थ - यहां पर आचार्य ने दिखलाया है कि विवेकी पुरुष वयों को नीचे को उत्तको विचारते रहना चाहिए
(१) मेरा कौन-सा काल है ?
उत्तर- मेरा काल बालक है, युवा है या वृद्ध है, अथवा यह समय कैसा है । सुभिक्ष है या दुर्भिक्ष है। रोगाक्रांता है या निरोग है | अन्यायी राज्य है या न्यायवान राज्य है, चौथा काल है या पांचमा दुखमा काल है ।
(२) मेरा अब कौन-सा जन्म है ?
उत्तर -- मैं इस समय मानव हूँ, देव हूं या नारकी हूं राजा हूं या रंक हूं ।
(३) मैं अब किस तरह बर्ताव करूं ?
उत्तर- इसका उत्तर विचार करते हुए अपना ध्येय बना लेना चाहिए कि मैं क्या इस समय मुनिव्रत पाल सकता हूं या क्षुल्लक, ऐलक व ब्रह्मचारी श्रावक हो सकता हूं, या में गृहस्य में रहते हुए धर्म साध सकता हूं, या में गृहस्थ में रहते हुए कोनसी प्रतिमा के व्रत पाल सकता हूं, या मैं आजीविका के लिए क्या उपाय कर सकता हूं अथवा मैं परोपकार किस तरह कर सकता हूं ।
( ४ ) इस जन्म में मेरा हितकारी कर्म क्या है ? उ०- मैं इस जन्म में मुर्ति होकर अमुक-२ शास्त्र लिख सकता
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हूँ व अमुक देश, जिले में जाकर धर्म का प्रचार कर सकता हूँ अथवा मैं गृहस्थ में रहकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों को साध सकता हूं। और धन से मुका-२ परोपकार कर सकता हूँ।
(५) परलोक में मेरा हित क्या है ? उ.-मैं यदि परलोक में साताकारी सम्बन्ध पाऊँ, जहाँ मैं सम्यग्दर्शन सहित तत्वविचार कर सकू, तीर्थकर केवली का दर्शन कर सक, उनकी दिव्यध्वनि को सुन सकू, मुनिराजों के दर्शन करके सत्संगति से लाभ उठा सक, ढाईद्वीप के व तेरहद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन कर सकें, तो बहुत उत्तम है जिससे मैं परम्परा से मोक्ष धाम का स्वामी हो सकें ।
(६) मेरा अपना क्या है ? उ०—मेरा अपना, मेरा आत्मा है; सिवाय अपने आत्मा के कोई अपना नहीं है। आत्मा में जो ज्ञानदर्शन, सुख, वीर्यादि गुण हैं वे ही मेरी सम्पति है । मेरा द्रव्य अखण्ड गुणों का समूह मेरा आत्मा है। मेरा क्षेत्र असंख्यात प्रदेशी मेरा आत्मा है। मेरा काल मेरे ही गुणों का समय-२ शुद्ध परिणमन है। मेस भाव मेस शुद्ध ज्ञानानंदमय स्वभाव है। सिवाय इसके कोई अपना नहीं है।
७) मेरे से अन्य क्या है ? उ०—मेरे स्वभाव से व मेरी सत्ता से भिन्न सर्व ही अन्य आत्माएं हैं, सर्व ही अण व स्व रूप पुदगल दृश्य हैं 1 धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाश तथा काल द्रव्य हैं, मेरी सत्ता में जो मोह के निमित्त से रागादि भाव होते हैं ये भी मेरे नहीं हैं न किसी प्रकार का कर्म व नोकर्म का संयोग मेरा अपना है, वे सब पर हैं।
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तस्वभावना
जो विवेकी इन प्रश्नों को बिलकुल विचार नहीं करते हैं के आत्मोन्नति से सर्वथा दूर रहते हैं। वे वह कुछ भी आचरण नहीं पालते हैं । जिससे आत्मा को सुख शांति प्राप्त हो । वे रातदिन संसार के मोह में फंसे रहते हैं और विषय कषाय सम्बन्धी को न्याय व अन्याय रू काया को करते हुए अनेक प्रकार के कर्म बांध संसार सागर में गोते लगाते रहते हैं। ऊपर लिखित विवेक जिनमें होता है वास्तव में वे ही मानव हैं। जिनमें यह विचार नहीं है वे पशुतुल्य नितान्त अज्ञानी तथा मूर्ख हैं, मानव जन्म को पाकर जो विषयों में खो देते हैं वे महा अज्ञानी हैं। श्री ज्ञानार्गव में शुभचन्द्र जी कहते हैं
अत्यन्तबुर्लभेष्वेषु वैवाल्लम्धेष्यपि क्वचित् । प्रमावत्प्रच्यवन्तेऽत्र केचित् कामार्थलालसाः ॥ सुप्राप्यं न पुनः पुंसां बोधिवरत्नं भवार्णवे ।
हस्ताद मुष्टं यथा रत्न महामूल्यं महार्णवे ।।१२।। भावार्थ-मानव जन्म, उत्तम कुल, दीर्घ आयु, इन्द्रियों की पूर्णता, बुद्धि को प्रबलता, साताकारो सम्बन्ध ये सब अत्यन्त दुर्लभ हैं । पुण्य योग से इनको पाकर भी जो कोई प्रमाद में फंस जाते हैं व द्रव्य के और कामभोगों के लालसावान हो जाते हैं, वे रत्नत्रयमार्ग से भ्रष्ट रहते हैं । इस संसाररूपी समुद्र में रत्नत्रय का मिलना मानवों को सुगमता से नहीं होता है। यदि कदाचित् अबसर मा जावे तो रत्नत्रय धर्म को प्राप्त करके रक्षित रखना चाहिए । यदि सम्हाल न की तो जैसे महासमुद्र में हाथसे गिरे हुए रत्न का मिलना फिर कठिन है उसी तरह फिर रत्न पयका मिलना दुर्लभ है।
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सस्वभावना
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द कैसा है कालं कौन है जन्म मेरा, किस विध वर्तुं मैं क्या सुहित अन्न मेरा। परलोके हित क्या, क्या ज़ अपमा पराया,
ऐसे चिन्ते विन, भव उदधि निज जुमाया । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि साघु मार्ग ही मुक्ति का कारण है
शार्दूलविक्रीडित छन्द येषां काननमालयं शशधरो वीपस्तमश्छेचकः।
श्यं भोरगुल नतीमा सिस्नरम् ॥ संतोषा मृतपानपुष्टवपुषो निध्य कर्माणि से। धन्या यांति निवासमस्तविपदं दीनदेरापं परैः॥२४॥ अन्वयार्थ -- येषां) जिन महात्माओं का (आलयं) घर (काननं) जंगल है, (तमश्छेदकः) अंधकार को नाशने वाला (दोपः) दीपक (शशधरः) चन्द्रमा है, (उत्तम भोजन) उत्तम भोजन (भैक्ष्यं) भिक्षा द्वारा हाथ में रक्खा हुआ भोजन लेना है, (माय्या) सोनेका पलंग (वसुमती) भूमि है, (तु) तथा (अम्बर) कपड़ा (दिश:) दिशाएँ हैं (ते) वे (संतोषामृतपानपुष्टवपुषः) संतोषरूपी अमृत के पानसे अपने शरीर को पुष्ट करने वाले (धन्याः) धन्य साधु (कर्माणि) कर्मों को (निषूय) धोकर (परैः दीन:) दूसरे दोन पुरुषों से (दुराप)न प्राप्त करने योग्य (अस्तविपदं) सर्व आपत्तियों से रहित निराकुल (निवास) मोक्षस्थान को (यांति) प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ-पहां आचार्य ने दिखलाया है कि निम्रन्थ लिंगधारी साधु महात्मा ही मोक्ष के अधिकारी हैं।
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तस्वभावना
जिन महात्माओंने धन धान्यसे भरे हुए घरको छोड़कर जंगलको ही अपना घर बना लिया है, तेलबत्ती से बने हुए दीपकको छोड़कर चंद्रमाहीसे दीपकका कामलेना शुरू किया है, नानाप्रकार मनोज्ञ मिठाई पकवान भोजन छोड़कर भिक्षा द्वारा प्राप्त नीरस सरस भोजनको लेना ही अपना कर्तव्य समझा है, जिन्होंने पलंग गद्दे आदि मुलायम बिछोनों को छोड़कर भूमि को ही अपनी निरारंभी व निराकुल शय्या माना है, जिन महान पुरुषोंने सर्व प्रकार के रुई आदि के वस्त्रों को त्यागकर दशदिशाओं को हो अपना स्वाभाविक वस्त्र जाना है ऐसे वस्त्र त्यागी व परिग्रह रहित निर्जन बनवासी साधु ही सदा सन्तोष रूपी अमृतसे तप्त रहते हैं। वे साताकारी सामाग्री के संयोग में हर्ष नहीं मानते हैं व असाताकारी पदार्थों के सम्बन्ध में शोक नहीं करते हैं, निरंतर आत्मानंदरूपी अमृतको पीते हुए तप्त रहते हैं । वे ही साधु अपने वीतराग भाव से कर्माको नाश करके अविनाशी मोक्षपद को पालते हैं। जहां कोई न चिता है न शरीर है, न कोई व्याधि है न कोई आकुलता है, न कुछ काम करना है । जहाँ निरंतर आत्मानंदका विलास रहता है ऐसे अपूर्व पदको वे नहीं पा सकते है जो कायर हैं व दीन हैं। जो घरसे ममता नहीं छोड़ सकते, जो रसीले भोजन पानके करने वाले हैं। जो मुलायम गद्दों पर सोते है व जो अनेक प्रकार वस्त्रों से अपने शरीर को ढकते हैं, तथा जो असाता पड़ने पर क्रोधी व साता मिलनेपर राजी हो जाते ऐसे नाम मात्रके साधु कभी भी मुक्तिपद को नहीं पासकते हैं।
श्री पद्मनंदि मुनि यत्याचार धर्म में लिखते है
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तत्त्वभावना
[७७
परिग्रहयतां शिवं यदि तदानलः शीतलो। सीनियसुखं तविह कालकूटः सुधा ।। स्थिरो यदि तनुस्तदा स्थिरतर तडिच्चाम्बर ।
भनेता रमणीयता यदि तइन्द्रजालेऽपि च ॥६॥ भावार्थ-यदि परिग्रह धारी साधुओं को मोक्ष होता हुआ माना जावे तो अग्नि को ठंडा मानना पड़ेगा । इन्द्रियों का सुख हो जावे तो विष को भी अमृत मानना होगा। शरीर यदि स्थिर माना जावे तो आकाश में बिजली को स्थिर मानना होगा, और यदि संसार में रमणीकता मानी जादे मो इन्द्रजाल के खेल में रमणीकता मानना होगा।
मतलब यह है कि परिग्रह त्यागी, इन्द्रियसुख से विरागी, शरीर को अनित्य मानने वाला संसार को रमणीक न देखने वाला ही साधु महात्मा मोक्ष का अधिकारी है।
मूल श्लोकानुसार त्रिभंगी छन्द जिनका बन डेरा चंद्र उजेरा दीपक मेरा तम नाशे भिक्षा है भोजन अंबर विश गण 5 शयनास नपरका ॥ जो संतोषामृत पीवत सुखकृत कर्मन घोषत सुखभासे। सो यति शिव पावे विपत नशावे दोन न पावे लघुता से ॥२४
उत्पानिका—आगे कहते हैं कि जो पर पदाथों पर स्नेह करते हैं वे आत्महित से गिर जाते हैं
माता मे मम गेहनी मम गहं मे बांधवा मेंऽगजाः। तातो मे मम संपदो मम सुखं मे सज्जना में अनाः॥ इत्थं घोरममत्वतामसवशम्पस्तावबोधस्थितः। शर्माधान विधानतः स्वहिततः प्राथी समीस्त्रस्यते ॥२५॥
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तत्यभावना
अन्वयार्थ-(मे माता) यह मेरो माता है (मम गैहिनो)यह मेरी स्त्री है (मम गृह) यह मेरा घर है (मे बांधवाः) ये मेरे बंधुजन हैं (मे अंगजाः) ये मेरे पुत्र हैं (मे तातः) यह मेरे पिता हैं (मम संपदः) यह मेरा धन है (मम सुखं) यह मेरा है (मे सज्जनाः) ये मेरे हितैषीजन हैं (मे जनाः) ये मेरे परिवार के लोग हैं (इत्थं) इस तरह के (घोरममत्वतामसव शव्यस्तावबोधस्थितिः) भयानक ममतारूप अंधकार से जिसका ज्ञान अस्त हो रहा है ऐसा (प्राणी) प्राणी (शर्माधान विधानतः) सच्चे सुखको प्राप्त कराने वाले (स्वहिततः) अपने हितकारी कार्य से (सनीस्त्रस्यते) दूर भागता जाता है।
भावार्थ-यहां पर आचार्य ने बाहरी पदार्थों से ममता करने का कटक फल दिखलाया है। जैसे मदिराके पीने से बुद्धि बिगड़ जाती है, बेहोशी आ जाती है। अपनी सुधि नहीं रहती है उसी तरह मोह के कारण यह प्राणो अपनी आत्मा के हित को भूल जाता है । यह जब कभी जरा विचार करता है तो समझ लेता है कि जब शरीर ही अपना नहीं है तब शरीर के साथी माता, पिता, स्त्री, बंध, पुत्र, मित्र, परिवार, घन, गह आदि चेतन व अचेतन पदार्थ अपने कैसे होंगे ? परन्तु कुछ ही देर पीछे फिर ऐसा मोहित हो जाता है कि रात दिन इसी खयाल में फंसा रहता है कि ये मेरे पुत्र हैं, यह स्त्री है, यह धन है, ये बंधुजन हैं, इनको मैं पालने वाला है, उन सबको मेरी आशा माननी चाहिए अथवा ये सब बने रहें और मेरा काम चलता रहे । ये सब मेरे इंद्रिय सुखके भोगमें सहकारी हैं, यह धन सदा बना रहे, इसी से मेरा जीवन सफल है। प्रातःकाल से संध्या होती है, संध्या
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तावभावना। [७९ । संध्या होती है, संध्यासे सवेरा होता है । इस मोही प्राणीको
इन्हीं पर पदार्थोका ही विचार रहता है । उनके रोगाक्रांत होनेपर
उनकी दवाईमें, उनके वियोग होनेपर शोक करने में इस तरह । अपना मन उन्हींक याने साए रखता है। ए समय भर लिये
भी सच्चे ज्ञानको नहीं विचारता है कि ये सर्व सम्बंघ क्षणभंगुर शरीरके हैं। इनसे मेरा सच्चा हित न होगा तथा यह पन और इंद्रियों के भोग्य पदार्थ मुझे कभी भी तृप्ति नहीं देते हैं। जितना मैं इनका संग्रह करता हूं उतना ही अधिक मैं प्यासा व तृष्णावान व चिंतातुर बना रहता है। यह जीव रात दिन मोहके प्रपंचसे नहीं छूटता। यह मितना अधिक मोह बढ़ाता है उतना अधिक अपने
सच्चे हितकारी कार्यसे दूर होता चला जाता है, हाय हाय करते । हुए एक दिन मर जाता है और आत व रौद्रध्यान के कारण दुर्ग| लिमें चला जाता है। आचार्य कहते हैं कि मच्चा सुख तो आत्मामें
है। यह अज्ञानी मोही जीव इसी आत्माकी विभूतिसे शून्य रहता. । हुआ योर संकटों में पड़ जाता है । तात्पर्य यह है कि पर पदार्थाका मोह करना मूढ़ता है | ज्ञानीको उनसे मोह न करके अपना लक्ष्य आत्मोन्नतिमें रखना उचित है। .. • अनित्यपंचाशत् में श्री पद्मन दे मुनि कहते हैं
अभाबु इसन्निभा तनरिच श्रीरन्द्रजालोपमा ! दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः कतार्थपुन्नादयः । सौख्यं वैषयिक मदैव तरलं मत्तांगनामांगवत् । तस्मादेतदुपालवासिविषये झोकेन किं किं मुदा ॥४|| भावार्थ-यह शरीर पानी के बुझबु देके समान क्षणभङ्गुर है, यह
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८०]
तत्वभावना
.............. .... ........... यह लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान मिटने वालो है, यह स्त्री-पुत्रादिक कठिन बायु से चलाए हुए मेघों के समान जाने वाले हैं, इन्द्रिय विषयों का सुख पत्त स्त्री के नेत्र के समान 'चंचल है इसलिए उन नाशवंत पदार्थों के मिलने में हर्ष क्या व जानेमें शोक क्या? अर्थात् ज्ञानी इनके संबंध में राग व वियोगमें शोक नहीं करते हैं।
मूलश्लोकानुसार छन्द मालती मा मेरो पहिणी मेरो मम घर मेरे बांधव मे पुवा। मेरा बाप सम्पदा मेरी, मेरा सुख' सज्जनजन मित्रा॥ या विधि धोर मोह ममतावश मद रही है शान सुनेत्रा । सुखकारी मिज हितसे प्राणी, दूर रहत है कार्यविचित्रा ॥२५
उस्थामिका--आगे कहते हैं कि पर पदार्थों के वियोग होने पर शोक न करना चाहिए
विण्यासौ सहचारितापरिगतावाजन्मनायो स्पिरो । यत्रावार्यश्यों परस्पर मिमो विश्लिष्यसों गांगिनी ॥ खेवस्तव मनीषिणा मन कथं बाह्ये विमुक्ते सति । जात्यातीह विमुच्यतामनुदिनं विश्लेषशोक व्यथा ॥२६॥
अन्वयार्थ - (यत्र) जहां (यो) ये जो (अंगागिनी) दोनों शरीर तथा शरीरधारी जीव हैं (विख्याती) सो बड़े मशहूर हैं (सहचारिता परिगतो अनादिकालसे साथ-२ भाते चले आरहे हैं (माजन्मनायो स्थिरी) जन्म से लेकर मरण पर्यन्त दोनों स्थिर रहते हैं (इमो) इन दोनोंको (परस्परं) एक दूसरेसे (अवार्थरयो) विरह करना बड़ा ही कठिन है। तौमी (विश्लिष्यत:) इन दोनों का परस्पर वियोग हो जाता है (तत्र)वहां (बाह्य)बाहरी वस्तु स्त्री पुत्रादिके (विमुक्ते सति)छूट जाने पर (मनीषिणा)बुद्धिमान
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तत्वभावना
षको (ननु कथं श्वेदः) क्यों शोक करना चाहिए ? इस जगत में (इति) ऐसा(ज्ञात्वा)जानकर(अनुदिनं प्रतिदिन (विश्लेषशोकव्यथा)बाहरी वस्तुओंके वियोगके शोकके कष्टको (विमुच्यताम्) छोड़ देना ही उचित है।
भावार्थ-यहां पर आचार्य ने स्त्री पुत्रादिके मोहके नाशका व उनके शोकके नाशका उपाय बताया है कि बुद्धिमान प्राणीको यह विचारना उचित है कि यह पारीर जिसका इस अशुन संसारी जीवके साथ अनादिकालका सम्बन्ध है वह भी एक भवमें जन्मसे लेकर मरण पर्यन्त रहता है, यद्यपि यह फिर कर्मों के उदयसे प्राप्तहो जाता है तो भी फिर मरण होनेपर छूट जाता है। हम जो चाहें कि इस शरीरका सम्बन्ध न हो तो हमारे मन की बात नहीं है । कर्मोके उदयसे बारबार इनका सम्बन्ध होता ही रहता है और छूटता ही रहता है । जब कर्मों का बंध बिलकुल नहीं रहता है सब तो सदा के लिए शरीरका सम्बन्ध छूट जाता है। कहने का मतलब यह है कि वह शरीर जिसके साय यह जीव परस्पर दूध पानोकी तरह मिला हुआ है, एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध किए है, वे भी जब छूट जाते हैं तब स्त्री, पुत्र, मित्रादि व घर धन राज्य आदि जो बिलकुल बाहरी पदार्थ हैं उनका सम्बन्ध क्यों नहीं छूटेगा ? जो वस्तु अपनी नहीं है उसके चले जाने का क्या खेद ? इसलिए बद्धिमानों को कभीभी अपने किसी माता-पिता, भाई-बन्ध, पुत्र व मित्र के वियोग पर या धन के चले जाने पर शोक नहीं करना चाहिए । इनका सम्बन्ध जो कुछ है भी बह शरीर के साथ है जब यह शरीर हो छुटेगा तब इनके छूटने का क्या विचार ? इसलिए पर पदार्थोंके संयोग में हर्ष व वियोग में शोक न करना ही बुद्धिमानी है।
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१२ ।
तत्त्वभावना श्री पद्मनंनि मुनि अनित्यपंचाशत् में कहते हैं
तडिदिन चलमेतल पुत्रदारादिसर्व । किमिति तमिधाते विद्यते बुद्धिमभिः । स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवामलस्य । व्यभिचरति कदाचित् सर्वभावेषु ननं ॥२६॥
भावार्थ-ये पुत्र स्त्री आदि सर्व पदार्थ बिजलीके चमत्कार के समान चंचल हैं। इनमें से किसीके नाश होनेपर बुद्धिमानोंको शोक क्यों करना चाहिए, अर्थात् शोक कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि निश्चयसे सर्व जगत के पदायोका यह स्वभाव है कि उनमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य होता रहता है । जैसे अग्नि में उष्णता कभी नहीं जाती वैसे उत्पत्ति, नाश व स्थितपना कभी नहीं मिटता। हरएक पदार्थ मूलपने से स्थिर रहता है परन्तु अवस्थाओं की अपेक्षा नाश होता है और जन्मता है । पुरानी अवस्था मिटती व नई अवस्था पैदा होती है। जगत में सब अवस्शायें ही दिखलाई पड़ती हैं इनका अवश्य नाश होगा इसलिए वस्तुस्वभावमें शोक करना मूर्खता है । जो किसीका मरण हुआ है उसका अर्थ यह है कि उसका जन्म भी हुमा है तथा जिसमें मरण व जन्म हुआ है वह वस्तु स्थिर भी है। जैसे कोई मानव मरकर कुत्ता जन्मा । तब मानव जन्मका नाश हुआ, कुत्ते के जन्मका उत्पाद हुआ परन्तु वह जीव वही है, जो मानवमें था वही कुत्ते में है। ऐसा स्वभाव जानकर ज्ञानीको सदा समताभाव रखना चाहिए।
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तत्स्वभावना। [८३
मोकानुसार राद । विरकाल कुसङ्कति बिनकी ओष शरीर प्रसिद्ध जगतमें । साथ रहें नित विरह न हावै तदपि छुरत है दोउ जगतमें । तो फिर पुत्र धनादि बाह्य ये छुटत होत किम खेद जगतमें। बुद्धिमान इम जान सदा ही शोक की नहिं कोय जगतमें ॥२६॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पेट की चिंता बड़ी दुःखलाई है यह चिन्ता धर्म, यश, सुखका नाश करती है
तियचस्तृणपर्णलब्धधृतयः सृष्टाः स्थलीशायिनः ।
चितानन्तरलब्धभोगविभवा देवाः समं भोगिभिः || __ मत्यांना विधिना विरुद्धमनसा वृत्तिः कृता सा पुनः।
कष्टं धर्मयशामुखानि सहसा या मूदते चिंतिता ॥२७॥ । अन्वयार्थ-( विरुहमनसा ) विपरीत मनवाले (विधिना) कमरूपी ब्रह्माने (तियंच:) पशुओंको (तृणपर्णलब्धधृतयः ) तिनके और पत्तोंको खाकर संतोष रखनेवाले व (स्थलीशायिनः) नमीनपर शयन करनेवाले तथा (मोगिभिः सह) भोगभूमियों के साथर (देवाः) बोको ( चिंतानन्तरलब्धमोगविभवाः ) चिंता करते ही भोगोंको भोगनेवाले व ऐश्वर्यवान ( सृष्टाः ) रचे ( पुनः) फिर ( मानां) कर्मभूमिके मनुष्योंकी (सा वृत्तिः) ऐसी आजीविकाकी पद्धति (कना) करदी (या चिंतिता) किनिसकी चिंता (सहसा) शोध ही (धर्मपिनःसुखानि ) धर्म, यश तथा सुखोंको ( मृदते ) नाश कर देती है। (कष्टं) यह बड़े दुःखकी बात है।
भावार्थ-महापर आचार्यने दिखलाया है कि हम मनुष्योंको अपने पेट पालने के लिये भी बहुत कष्ट सहना पड़ता है। पशुओंके तो ऐसा कमका उदय है मिससे अधिकांश पशु स्वयं पैदा
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तत्त्वभावना
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पशुओंके तो ऐसा कर्मका उदय है जिससे अधिकांश पशु स्वयं पंदा होने वाले घास पत्तों को खाकर रह जाते हैं व जमीनपर सो जाते हैं । देवोंके ऐसा पुण्य का उदय है कि भूख उनको इतनी कम लगती है कि यदि एक सागर वर्षों की आयु हो तो १००० वर्ष पीछे भूख की वेदना होती है । भूख की चिता होते ही उनके इस जाति के परमाणु कण्ठ में होते हैं जिनसे अमृतसा भीतर झड़ जाता है और देवोंको भूख मिट जाती है । इसीसे उनके मानसिक आहार है ! वे कभी ग्रास ले करके कोई भी अन्न या अन्य पदार्थ नहीं खाते । भोगभूमिके मानवोंके यहां भोजनांग वस्त्रांग भाजनांग आदि दस जातिके पृथ्वी कायधारी कल्पवृक्ष होते हैं। उनसे चिता करतेही इच्छित पदार्थ मिल जाते हैं। उनके भोजन बहुत अल्प होता है । दीर्घकायी होने पर भी आंवला प्रमाण अमृतमयी भोजन करके तृप्त हो जाते हैं । परन्तु मानव समाज को कर्मभूमिमें जन्म लेकर असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, सिल्प, विद्या इन छ: प्रकारके साधनोंको करके पहले तो धन कमाना पड़ता है फिर पांचों इन्द्रियोंके भोगोंके लिए सामग्री इकट्ठी करनी पड़ती है। इन कार्यों में अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मानव ऐसे फंस जाते हैं कि नीति व अनोतिको भूल जाते हैं, हिंसा, असत्य चोरी आदि पापोंसे धन इकट्ठा करते हैं, बड़े कष्ट से निर्वाह करते हैं, खानपान में संतोष न रखकर अभक्ष्य व कामोद्दीपक व मादक पदार्थ खाने लगते हैं । मनकी चंचलता बढ़ जाने से वेश्यासक्त व परस्त्री गामी हो जाते हैं तथा इन्द्रियों के भोगोंमें व धनके संचयमें ऐसे लवलीन हो जाते हैं कि उनको धर्म की परवाह नहीं रहती है, वे धर्मसाधन को मानो नाश हो कर डालते हैं । अन्याय व अनुचित व्यवहार से जब दूसरे मानवोंको
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तत्त्वंभावना
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सताते हैं तब उनका यश भी जाता रहता है और सच्चे आत्मीक सुखकी तो उनको गंध भी नहीं आती है। वे यदि आत्मोक तत्व पर लक्ष्य देते तो इस नरभव में सच्चे सुखको पा सकते थे परन्तु वे अन्धे होकर इस रत्नको जो अपने ही पास है गमा बैठते हैं । उनको रात-दिन भोगों को व पैसे कमाने की चिन्ता सताया करती है। कहीं खर्च अधिक कर डाला व आमद कम हुई तो कर्जदार होकर घोर चिताको दाहमें जलते रहकर शीघ्र प्राणरहित हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि उनके ऐसा विपरीत कार्य का उदय है कि जिससे वे महादःखी रहते हैं। प्रयोजन कहने का यह है कि ऐसे कष्टमय जीवनको पार करके इस कर्म भूमिके मनुष्य सम्बन्धी भोगोंमें लिप्त होना मुर्खता है । इस शरीरमें जहां भोगोपभोग के लिए इतने कष्ट होते हैं वहां इस तनसे सयंम का पालन हो सकता है जिसकी न पशु न भोग भूमियां और न देव पालन कर सकते हैं। इसलिए बुद्धिमान मानवोंको उचित है कि संतोषपूर्वक व न्यायपूर्वक जीवन बितावे और वैराग्य पाने पर साधु हो जावे और अपने सच्चे सुख को पाते हुए कर्मोंके नाशका उद्यम करे जिससे कभी न कभी मुक्ति के स्वामी होजावे । मनुष्य-जन्मको सफल करना यही बुद्धिमानी है। श्री अमितगति, सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
जन्मक्षेत्रे पवित्रे क्षणचिचपले दोषसर्वोतरन् । बेहेम्याधादिसिन्धु प्रपतनजलधौ पापपानीयकुंभे ॥ कुर्वाणो बन्धुरि दिविधमलमते यासि रे जोव ! नाशं । संचिन्त्येवं शरोरे कुरु हत ममतो धर्मकर्माणि नित्यम् ।४०५
मावार्थ-इस पवित्र जन्म के क्षेत्र में आकर तू अति चंचल दोषरूपी साँसे भरे हुए रोगादि रूपी समुद्र में गिरनेवाले, पाप
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तत्वभावना
रूपी पानी से पूर्ण घड़े के समान तथा नाना प्रकार मलसे भरे हुए इस देह में अपनेपने की बुद्धि करके हे आत्मान् ! तनाशको प्राप्त होगा, ऐसा विचार करके इस शरीर से ममता टाल दे और धर्म के कार्यों को कर 1
मूल श्लोषानुसार छन्द मालती कर्म विधाता ने पशुओं को घासपात भोगी थलशायी। देव और भू भोग नरों को चिता करसे भोग कराई। मत्यलोकके मानव पापी, वृत्ति जिन्होंने बुखप्रद पाई। धर्म कोति अर सुख विघटावे, यह काहे विपरीत
रचाई ॥२७॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि.अज्ञानी जो वको शांतसुख ... की इच्छा नहीं होता।
मालिनीवृत्त भासि विविजयोषा यासि पातालमंग। भ्रमसि धरणिपृष्ठं लिप्स्यसे स्वान्तलक्ष्मीम् । अभिलषसि विशुद्ध व्यापिनों कोसिकान्तां ।
प्रशममुखसुखाधिमाहसे स्वं न जातु ॥२१॥ अन्वयार्थ- अग) हे मन! तू कभी तो (दिविजयोषा) देवोंकी स्त्रियों को(भजसि) भोगना चाहता है (पातालं यासि) कभी तू पाताल में चला जाता है (धरणिपृष्ठं भ्रमसि) कभी पृथ्वी के ऊपर घूमता है (स्वान्तलक्ष्मीम्) कभी मनके अनुकूल धनको (लिप्स्यसे) प्राप्त करना चाहता है, कभी (विशुद्धां) अति उज्ज्वल (व्यापिनी) जगतमें फैलनेवाली (कोतिकांता) कीतिरूपी स्त्रोको अभिलसि) चाहता है परन्तु (लं) तू (जातु) कभी भी (प्रशममुखसुखाब्धि) शांतिमय सुख समुद्र में (न गाहसे) नहाना नहीं चाहता है।
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तत्त्वभावनां
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भावार्थ - यहां आचार्य ने दिखाया है कि इन्द्रियों के भोगों के करने से सुख मिलेगा इस भ्रम बुद्धिमें उलझा हुआ यह मन नाना प्रकारकी कल्पनाएं किया करता है। कभी तो चाहता है कि स्वर्ग में जाकर पंदा हू और वहां बहुत सुन्दर देवियों के साथ कीड़ा करूं, कभी भवनवासी के भवनों का स्वालकर लेता है जो पाताललोक में रहते हैं— उनके समान घूमना व सुखी रहना चाहता है, कभी पृथ्वी में अनेक देश, नगर, ग्राम पर्वत, नदी, बाजार, गली बादि की संर करना चाहता है । अथवा मह् भन ऐसा मूर्ख है कि यह मनसे ही देवियोंको भोग लेता है, मनसे ही पाताल में घूम आता है, मनसे ही सर्व पृथ्वी की संर कर लेता है, तथा यह चाहता है कि मनके अनुकूल लक्ष्मी प्राप्त हो तथा जगतमें मेरा ऐसा यश फैले कि मैं प्रसिद्ध हो जाऊँ। इस प्रकार की कल्पनाओं को करता रहता है। इन कल्पनाओं के कारण अपनी इच्छाओं को बहुत बढ़ा लेता है । तब उनकी पूर्ति के लिए आकुलता करता है, मनको रात-दिन चिन्ता में ही फंस जाना पड़ता है। जिन पदार्थों को चाहता है और वे प्राप्त नहीं हैं, उनके लिए तो मिलानेका उद्यम करते हुए चिंतित रहता है, जो पदार्थ हैं उनके बने रहने की चिंता करता है, जो पदार्थ थे और उनका किसी कारण से वियोग हो गया, उनके फिर मिलने की आशा से चिंता करता है ।
इसपर निरन्तर अशांतिके दाह में जला करता है और वह सुखशांतिका समुद्र जो अपने ही पास है, जो अपने ही आत्माका स्वभाव है उसकी तरफ निगाह उठाकर भी नहीं देखता है । यदि एक दफे भी उस अनुपम आत्मिक सुख का स्वाद ले ले तो फिर इसकी सारी आकुलता मिटाने का साधन इसको मिल
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तत्त्वभावना
जावे । आचार्य ने इस मनकी मूर्खता को इसीलिए जताया है कि हमें मनके कहने में न चलकर सुख शांतिका उपाय अवश्य करना चाहिए । इंद्रियों के पोछे पढ़ना बाकुलता को बढ़ाने ही बाला है। सुभाषितरत्न संदोहमें श्री अमितगति महाराज कहते
सोल्यं यदन विजितेन्द्रियशत्रु वर्षः । प्राप्नोति पापरहितं विगतांतरायम् ।। स्वस्थं तदात्मकमनात्माधिया विलभ्यं ।
किं तदुरन्तविषयानलतप्तचित्तः ।।६४|| मावार्थ-जो इन्द्रियरुपी मानों के नामोतिलाई वह इस जगत में जैसा पापरहित व विघ्नरहित, निराकुल व मात्मीक सुख पा लेता है जिसको वह मानव नहीं पा सकता जो अज्ञानी है व आत्माको नहीं पहचानता है । वैसे सुख को क्या महान इंद्रियोंकी इच्छारूपी आगमें जलता हुआ है मन जिसका ऐसा प्राणी कभी पा सकता है ? अर्थात् कभी नहीं पा सकता है, इसलिए शांतिके प्राप्त करनेका ही यत्न करना बुद्धिमानी है।
मूल श्लोकानुसार मालिनि छन्द रे मन तू भोगे देवपत्ती कमी तो। जावे पातालं देखता भूमितल को। निर्मल कोतिको प्रचुर धन नित्य चाहे।
पर शम सुख सागर में कभी नाब गाहे ॥२८॥ उत्थानिका-मागे कहते हैं कि यह मन कभी जिनवाणी का सेवन नहीं करता है
मोक्तुं भोगिनितंबिनीसुखमरिचतां पनीपत्स्यसे । प्राप्तुं राज्यमनन्यलम्यविभवं क्षोणी चतोकस्यसे ।।
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लप्तु मन्मथमंथराः सुरवधूकिं चनोस्कनसे । रे प्रान्त्या झमृतोपमं जिनवचस्त्वं नापनोपद्यसे ॥२६॥
अन्वयार्थ- (रे) रे मन (त्वं) न कभी तो (अधः) पाताल में जाकर (भोगिनितंबिनीसुखं) नागकुमारी देवियों के सुख को (भोक्तंभोगने के लिए(चिता)चिता (पनीपत्स्यसे) करता रहता है, कभी (अनन्यलभ्यविभवं) दूसरेके पास प्राप्त न हो सके ऐसी विभूति वाले (राज्य) चक्रवर्ती के राज्यको (प्राप्त प्राप्त करनेके लिए (क्षोणी) इस पृथ्वी पर (चनीकस्यसे) आनेकी इच्छा किया करता है तथा कभी (मन्मथमंथरा:) कामसे उन्मत्त ऐसो (सुरवधूः) स्वर्गवासी देवों की देवांगनाओं को (लुप्त) पाने के लिए (नाक) स्वर्ग में (चनीस्कद्यसे) जानेको उत्कंठा किया करता है (भ्रान्त्या) इस भ्रम में पड़कर (हि) असलमें (हमतोपमं)अमृत के समान सुखदाई (जिनवचः) जिनवचन को (नापनीपद्यसे) नहीं प्राप्त करता है अर्थात् जिनवाणी के आनंदके लेनेसे दूर-२ भागता है यही खेद है।
भावार्थ-यहां आचार्य फिर मन को उल्हना देते हैं कि तू बड़ा मूर्ख है जो रातदिन इंद्रियोंके विषयों में लम्पटी रहता है और यहीं चाहता है कि मैं भवनवासी देवों में पैदा होकर नाय. कुमारी स्त्रियों का भोग करूं व स्वर्ग में जाकर स्वर्ग की महा मनोहर स्त्रियोंके साथ काम चेष्टा करूं व नरलोकमें चक्रवर्तीके समान विभूति पाकर छियानवे हजार स्त्रियोंका एकसाथ अपनी विक्रिया के बलसे भोग करूं । खूब पांचों इन्द्रियों के विषयों को भोग इस चिंता में रहता हाव चाह की दाह में जलता हा कभी भी सूखी नहीं होता है। एक तो चाह करने मात्र से इन्द्रियों के सुख मिलते नहीं। यदि मिल भी जाते हैं तो उनके भोगोंसे तृप्ति होती नहीं और अधिक भोगने की चाह बढ़ जाती
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तत्वभावना। नहीं | यदि मिल भी जाते हैं तो उनके भोगोंसे तृप्ति होती नहीं और अधिक भोगनेकी चाइ बढ़ जाती है। तू आज्ञानी होरहा है, ऐसा समझता है कि इंद्रियों के भोग ही सरल है । तुने कभी अपना ध्यान मिनेन्द्र भगवानकी अमृतमई वाणीके सुननेकी तरफ नहीं। दिया । यह भगवानकी वाणी हमको सच्चा मार्ग बताती है । यह । हमारा यह भ्रम मिटाती ई कि संसारके विषयभोगोंमें मुख है। यह आत्माके भीतर भरे हुए मुखसमुद्रका दर्शन कराती है और उसीमें गोता लगानेकी व उसीके शांत जलको पीनेकी प्रेरणा करती। है। जिन्होंने अनेकांतमयी श्री मिनवाणीको समझा है चे सम्यग्दृष्टी होकर सदा सखी होजाते हैं। मेदज्ञानकी वह दवा ज्ञानियोको मिक जाती है जिसके प्रतापसे इनकी आत्माको उन्नति करनेका मार्ग मिलता है । इसलिये कहते हैं कि-हे मन ! तू पावलापना । छोड़ और एकाग्र होकर जिनवाणीका अभ्यास कर । यह सूर्यके । समान पदार्थोंको यथार्थ दिखानेवाली है और सर्व दुःखोंसे छुड़ाने । वाली है। यह संसारके रोगको शमन करके आत्माको स्वाधीन बनानेवाली है। श्रीपद्मनंदि मुनि सरस्वतीको स्तुतिमें कहते हैंविधायमानः प्रथम त्वदाश्रयम् ।
श्रयन्ति तन्माक्षपदं महर्षयः ॥ प्रदीपमाश्रित्य मई तमस्तते ।।
यप्सितुं वस्तु लभेत मानवः ॥ भावार्थ-महान् मुनिजन पहले तेरा ही आश्रय लेते हैं फिर मोक्षपदमें जाते हैं जैसे अन्धेरे घरमें दीपकके सहारेसे ही मानः । वको इच्छित वस्तु मिल सकती है। वास्तवमें परम परमाणकार जिनवाणीका अभ्यास ही परमोपकारी है ।
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तस्वभावमा
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द रे मन तू चाहे नागिनी सुक्ख भोगें। स्वर्गों में जाकर देवनारी सु भो ॥ होकर वकों में राज्य सुख सार होगा ... :
भ्रम में भला जिन वचन अमृप्त न जोधे ॥२६॥ उत्थानिका-फिर भी कहते हैं कि हे मन ! तू संसार वनमें भ्रमण मन कर
भीमे मन्मथलुब्धके बहुविश्वव्याध्याधिदीर्घद्रुमे । रौद्रारंभहषोकपाशिकगणे भज्जद्वतद्विषि ? ॥ मा त्वं चित्तकुरंग ! जन्मगहने जातुभ्रमी ईश्वर । प्राप्तुं ब्रह्मपदं दुरापमपरर्यद्यस्ति वांछा तव ॥३०॥
अन्वयार्थ--(ईश्वरचित्तरंग)हे समर्थ मनरूप हिरण(यदि)। (तव वांछा) तेरी इच्छा (अपरैः। दूसरोंसे (दुरापम् ) कठि-1 वत्ता से प्राप्त होने योग्य ऐसे (ब्रह्मपदं), आत्मीक मोक पदको (प्राप्तु) पाने की हो तो तू (मन्मथलुब्ध के कामदेवरूपी पारधी से बासित (बहुविधव्याधि दीर्घद्रमे) नाना प्रकार रोग व मानसिक कष्टों के बड़े-२ वृक्षोंसे भरे हुए (रौद्रारंभहषीकपाशिकगणे) तथा भयानक आरंभ कराने वाले इद्रियरूपी भीलगणोंसे पूरित तथा (ऐतिषि) मनरूपी हिरण के शत्रुओंसे युक्त भयानक । (जन्मगर्ने संसारूपी वनमे (वत ) व्यर्थ ही (स्व) तू (जातु मा भ्रमी) कभी न भ्रमण कर। . भावार्थ-आचार्य फिर भी अपने मनको समझाते हैं किहै मन ! तू बड़ा बावला है, तू विश्रांति नहीं भजता, तू चाहता हैं कि मुझे शांत भात्मानंदरूपी जल मिल जावे जिससे तेरी अनादि की तृष्णारूपी प्यास बुझ । परन्तु तू उस संसाररूपी वन का
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१२]
तत्त्वभावना
मोह नहीं छोड़ता है जहां शांत स्वरूपी जलका नाम तक नहीं है, जहां भयानक इंद्रियोंकी चाह को दाह सदा सताती है ब जहाँ कामदेवरूपी शिकारी सदा बाण मारके तेरा नाश करता है तथा जहां बड़े-२ वृक्ष तो हैं परंतु वे सर्व दुःखदाई है-रोगरूपी कांटों से भरे हुए व मानसिक कष्टरूपी कटीले पत्तोंसे छाए हुए हैं, जो इस मनरूपी हिरणके महान शत्रुओंसे ध्याप्त है। जो बन महा भयानक है जहां तू अपनी प्यास बुझानेको इंद्रियरूपी भीलोंकी पल्लियों में जाता है परन्तु वहांसे शांतरस को न पाकर उल्टा और अधिक प्यासा हो जाता है। इससे यह उचित है कि तू इस संसाररूपी वनका मोह छोड़ और इस वनके बाहर जो आत्मारूपी उपवन आत्मानंदरूपी जलसे भरे हुए स्वात्मानुभव रूपी सरोवर सहित है उनकी तरफ जा । तब ही तुझे सुख मिलेगा। वास्तव में यह मन बड़ा चंचल है। सामायिक की प्राप्ति तब ही हो सकती है जब मन संसारसे उदास होकर आत्मीक सुख का अभिलाषी होवे । श्रीअमितगति आचार्य सुभाषितरत्न संदोह में चित्त को इस तरह समझाते हैं--
त्यजत युवतिसौख्यं शांतिसौख्यं श्रयध्वं । विरमत भवमार्गान्मुक्तिमार्गे रमवम् ॥ जहत विषयसंग ज्ञानसंग कुरुवं ।
अमितगति निवासं येन नित्यं लभध्वं ॥१९॥ भावार्थ-तू स्त्रियों के सुखको छोड़ शांतमई सुखका आश्रय लै, संसारके मागसे विरक्त हो व मोक्षमार्गमें रमण कर, इंद्रियों के विषयों के संग को छोड़ तथा ज्ञान की संगति कर जिससे अविनाशी मोक्षधाम का निवास प्राप्त हो जावे ।
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तत्त्वभावना
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भूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द मन हिरण न भ्रम तू भीम संसार वन है। जह काम शिकारी अधि तरु व्याधि धन है। जहें इन्द्रिय दुष्टं भील पोड़ा करत हैं । यवि दुर्गम शिवपदको चाह तेरे बसत है ॥३०॥ उत्पानिया-आधी जिजीन्द्र से प्रार्थना करते हैं कि मुझे उत्तम-२ गुणों की प्राप्ति होवे
हरिणी वृत्ति व्यसननिहतिज्ञानोद्यक्तिर्गुणोज्ज्वलसंगतिः । करणविजितिर्जन्मन्नस्सिः कषायनिराकृतिः ।। जिनमतरतिः संगत्यक्तिस्सपश्चरणाध्वनि ।
तरितुमनसो जन्मांमोधि भवंतु जिनेन्द्र ! मे ॥३१॥ अन्वयार्य-(जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र भगवान ! (जन्मांभोधि) संसार समुद्रको (तरितुमनसः) तिरनेकी मनशा रखने वाले (मे) मेरेको (तपश्चरणध्वनि) तपके साधन के मार्ग में (व्यसननिहतिः) धूत रमण आदि सातों व्यसनों का नाश (ज्ञानाधुक्तिः) शान को सन्नति (गुणज्ज्वल संगतिः) निर्मल गुण वालोंकी संगति (करणविजितः) इंद्रियोंकी विजय (जन्म त्रस्सि:)संसारसे भय (कषायनिराकृतिः) क्रोधादि कषायोंका त्याग इतनी बातें (भवंतु) प्राप्त होवें।
भावार्थ-यहां पर आचार्य कहते हैं कि जो भव्य जीव संसारसमुद्र से पार होना चाहता है उसको उन दोषों को दूर करने की व उन गुणों को प्राप्त करनेकी भावना करनी चाहिए जिनके कारण सुखसे भवसागर पार कर लिया जावे। पहली बात
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तत्वभावना
यह है कि इस मन को छूत रण, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यासक्ति परस्त्रो रमन, शिकार और चोरी व ऐसेहो और भी ध्यसनों का सामाना न पड़े। जिन बरी आदतों में पड़ने से हमारा इह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं वे सब आदतें व्यवसना के भीतर शामिल हैं । हरएक मानव को जो अपना हित करना चाहता है यह आवश्यक है कि खेतके कंकड़ पत्थरको तरह व्यसनों को दूर फेंक देवे । जिनका मन किसी व्यसन में उलझा होता है उनके मन में आत्मज्ञान नहीं बस सकता है औय : आत्मज्ञान के बिना अपना हित नहीं हो सकता है। इसलिए दूसरी बात यह चाहता है कि ज्ञान को उन्नति हो। शान के पीछे चरित्र बढ़ाना चाहिए। इसलिए तीसरी बात यह चाही गई है कि पवित्र गुणधारी व्यक्तियों की संगति रहे क्योंकि सच्चारित्रवान पुरुषों के आचरण का बड़ा भारी असर बद्धिपर पड़ता है। फिर चारित्र जो वीतराग भाव है उसके कारण जो मुख्य उपाय हैं उनकी भावना की जाती है इसलिए चौथी बात यह है कि इन्द्रियों का विजय हो। वास्तव में जिते न्द्रिय मानव हो संतोष व शांतभावको पा सकता है। बिना इंद्रियों को अपने अधीन किये न श्रावक न मुनि कोई भी अपने अपने योग्य आचरण को नहीं पाल सकते हैं । पाँचवी बात यह वाही गई है कि संसार से भय हो–क्योंकि जिसको यह भय होगा कि मेरा आत्मा इस जन्म मरण रूपी भयभीत संसारबन में न भटके वही मोक्ष होनेका चारित्र पालेगा। छठीबात यह है कि कषायोंको दूर किया जावे 1 क्योंकि क्रोध, मान, माया लीभ कषायों के अधीन ही प्राणी आकुलता के फंदे में फंस जाता है तथा जितना-२ कषायों का दमन होता है उतना वीतराग भाव प्रगट होता रहता है । कषायोंके विजय से ही जिनमत जो बीत राग विज्ञानमय है व स्वानुभवरूप है उसमें प्रीति होतो है।
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तत्त्वभावमा
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इसलिए सातमी बात यह चाही गई है । मुक्तिका उपाय मुनि का चारित्र है इसलिए आठमी बात चाहो गई है कि परिग्रहका त्याग करूं । मुनि होकर १: प्रकार तप करना चाहि । क्योंकि तप के बिना कर्मों की निजरा नहीं हो सकती है। इसमें भी मुख्य तप ध्यान है, ध्यान ही से केवल ज्ञान होता है, ध्यान ही से निर्वाण होतात त्र्यानाही हा वेडा मारसमुहाने पर करके शिवद्वीप में पहुंचा देता है। इसलिए तप करने के साधन रूप आठ बातों को भावना भाई गई है । वास्तव में जो तपस्वी इन आठ गुणोंसे अलंकृत होता है वही सिद्ध होकर सम्यक्त' आदि आठ गुणों से विभूषित हो जाता है। ध्यान ही से मुक्ति की सिद्धि होती है। उस ध्यान के लिए श्रीशुभ चन्द्राचार्य ज्ञानाणंवमें कहते हैं
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पहाम् ।
निर्ममत्वं यदि प्राप्तस्तवा ध्यातासि नान्यथा ||२३॥ भावार्थ-जब काम भोगों से विरक्त होकर शरीर में भी अभिलाषाको छोड़ा जाता है तब ममता रहितपना प्राप्त होता है तब ही ध्यानी हो सकता है अन्यथा नहीं।
__मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द व्यसन रहे दूरं ज्ञान उन्नति सुसंगति । करण विजय भव भय क्रोध मानादि निकृति ।। जिनमत रुचि संग त्याग श्री जिनज होये।
भवसागर तरना हेतु सप मोहि होवे ॥३१॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि संसार वन में वास करना दुःखदायक है---
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तत्त्वभावना
चित्रयाघातवृक्षे विषयसुखतणास्वावनासक्तचित्ताः । निस्विशरारमन्तो जनहरिणगणाः सर्वतः संचरद्धिः॥ खाद्यते यत्र सद्यो भवमरणजराश्वापदे मरूपः । तनावस्पांक्य कुर्मो भवगहनवने युःखावाग्नितप्ते ॥३२॥
अन्वयार्य-(चित्रव्याघातवृक्षे) नानाप्रकारकी आपत्तिरूपी वृक्षोंसे भरे हुए (दुःखदावाग्नितप्ते) दुःखरूपी दावानलसे तप्तायमान (भवगहनवने) इस संसार रूपी भयानक जगल में (आरमन्तः) घूमने वाले (विषयसुखतृष्णास्वादनासक्तचिताः) विषयोंके सुखरूपी तुष्णाके स्वाद में चित्त को लगानेवाले (जनहरिणगणाः) प्राणरूपी हिरणों के समूह (यत्र) जहां (सर्वतः) सर्व तरफ (निस्त्रिशः)निर्दयी (संचरद्भिः) घूमनेवाले (भीमरूपैः भवमरणजराश्वापदैः) भयानक जन्म जरा मरणरूपी हिंसक जीवों के द्वारा (सद्य) निरंतर (स्वायते) भक्षण किए जाते हैं, (तत्र) वहाँ (क्व अवस्था कुर्मः) हम फिस जगह रहें ।
भावार्थ-जैसे कोई ऐसा सघन जंगल हो जहाँ बड़े टेढ़े-२ वृक्षों के समूहहों व दादाग्नि लगी हुई हो और चारों तरफ सिंह व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी घूमते हो और जहां तिनके को चरने वाले हिरण निरंतर हिंसक प्राणियों के द्वारा खाये जाते हों ऐसे वन में कोई रहना चाहे तो कैसे रह सकता है ? जो रहे वही आपसियोंमें फैसे, इसी तरह यह संसार भयानक है जहां करोड़ों आपत्तियाँ भरी हुई हैं तथा जहाँ निरंतर दुखोंकी आग जला करती हैं व जहां प्राणी तित्य जन्मते हैं, बूढ़े होते हैं तथा मर जाते हैं, ये प्राणी इद्रिन्योंके विषयों के सुख में मग्न हो जाते हैं,
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बेखबर रहते हैं वश शीघ्र ही कालके गाल में चबाए जाते हैं, ऐसे संसार वनमें सुखशांति कैसे मिल सकती है ? बुद्धिमान प्राणोको तो इससे निकलना ही ठीक है। सुभाषित रत्नसंदोह में श्री अमितमति महाराज कहते हैंमस्युष्याघ्रमयंकराननगतं भीतं जराज्याधतस्त्रोतव्याधिदुरम्सदुःखातरुमत्संसारकान्तारगम् । कः शक्नोति शरीरिणम् विभुवने पातुं नितान्तातुर स्यकत्वा आतिजरातिक्षतिकरं जनेन्द्रधर्मामृतम् ।।३१७ भावार्य-जो प्राणी तीव्र रोगोंके अपार दुःखों में भरे हुए संसार वन में हो व बढ़ापा रूपी शिकारी से भयभीत रहता हो व भयभीत रूपी बाघ के भयंकर मुख में प्राप्त हो उस महान् याकुलता में फंसे हुए प्राणोको तीन भुवनमें जन्मजरा मरणको नाश करने वाले जिनधर्म के सिवाय और कोई बचाने को समर्थ नहीं है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द भव बम भयकारी दुःख अग्नि प्रधारी । विपति तह मराई तण विषय स्वावकारी। जम मृग बहु धमें जन्म अरु मृत्यु दुःख में।।
हिंसक पशु खायें हो कयं शांति सुख में ।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि बुद्धिमानों को संसार में लिप्त न होकर आत्मकार्य कर लेना चाहिए।
भुजंगप्रयात छंद न वैद्या न पुत्रा न विप्रा न शका। नकांता न माता न भत्या न भूपाः ।
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यमालिंगितुं रक्षितुं संति शक्ता । विचित्येति कार्यं निजं कार्यमायैः ॥ ३३ ॥ अन्वयार्थ - ( यमालिगिओ राज जो काम सि किए हुए प्राणीको (न वैद्या: न वैद्य ( न पुत्रा : ) न पुत्र ( न विप्राः ) न ब्राह्मण ( न शकाः) न इन्द्र ( न कान्ता ) न स्त्री (न माता) न माता ( न भृत्याः ) न नौकर ( न भूपाः) न राजागण ( रक्षितुं बचाने के लिए ( शक्ताः संति) समर्थ हैं (इति) ऐसा ( विचित्य ) विचार कर (आय) सज्जन पुरुषों को ( निजं कार्य ) अपना आत्मकल्याण ( कार्य ) करना योग्य है ।
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भावार्थ - यहाँ पर बाचार्य यह संकेत करते हैं कि यह मानव जन्म बहुत अल्पकाल रहने वाला है। निरंतर यहां मरण का भय है, यह नियम नहीं कि कब मरना होगा, और जब यकायक मरण आ जायेगा तब कोई वैद्य हकीम किसी दवा से बचा नहीं सकता, न तब अपने कुटुम्बी जन स्त्री, पुत्र, माता, बहन आदि रोक सकते हैं, न नौकर-चाकर, सिपाही व राजा आदि मरण को भगा सकते हैं। और तो क्या, बड़े-२ इन्द्रादि देव भी मरण से न आपको बचा सकते हैं, न दूसरों को बचा सकते है न किसो और पूज्यनीय देव में शक्ति है कि किसीको मरणसे रोक सकें । जब ऐसा नाजुक मामला है तब साधु व सज्जन पुरुषों को अपना जीवन बहुत अमूल्य समझकर इसका सदुपयोग करना चाहिए । आत्मोप्रति करना ही इस नरजन्म का कर्तव्य है । इसलिए इस कार्य में ढील न करनी चाहिए। ढोल करने से ही पीछे पछताना पड़ेगा जो बुद्धिमान इस नरजन्म को संसार के मोह में फंसकर खो देते हैं उनको पीछे बहुत पछताना पड़ता है। नरजन्म की सफलता करना ही बुद्धिमानी है । सुभाषित रत्नसंदोह में श्रो अभिगति पहाराज न हते हैं
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तीवनासप्रवायि प्रभवमतिजराश्वापदवासपाते। दुको अप्रत्ते भारतको विरो ।। भ्राम्यन्नप्रापि नत्वं कथमपि शमतः कर्मणोदुष्कृतस्य । नो चेद्धर्म करोषि स्थिरपरमधिया बंचितस्त्वं तवात्मन् ।४२४
भावार्थ-यह संसार वन महा भयानक है जहाँ तीव्र दुःखी को देनेवाले जन्म जरा मरणरूपी हिंसक जोवों के समूह विचर रहे हैं, व जहां दुःखों के कारणोंका ही जाल है, ऐसे वन में घूमते ' हुए पाप कर्मोंके कम होने से बहुत ही कठिनता से नरजन्म पाया है ऐसी स्थिति में हैं आत्मन ! यदि तू स्थिर वृद्धि करके धर्मका। साधन न करेगा तो तू बास्तव में यहाँ ठगा गया है, ऐसा माना जाएगा।
मूल इलोकानुसार भुजंगप्रयात छन्द अवे मर्ण आवे न कोई बचाये। न माता न कांता सुत इन्द्र आवे || न वैद्या न विप्रा न राजा न चाकर।
यही जान बुधजन निजातम करमकर ॥३३ उस्थानिका-आगे कहते हैं कि शरीर को क्षणभंगुर जानकर मोह का त्याग करना चाहिए।
विविनरुपायः सदा पाल्यमानः । स्वकीयो न देहः समं यत्न याति ।। कथं बाह्यभ्र सानि विसानि तन ।
प्रबुद्धयेति कृत्यो न फुवापि मोहः ॥३४॥ अन्वयार्थ—(यन)जिस संसार में (विचित्र:)नाना प्रकार के
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( उपाय:) उपायों से ( सदा ) नित्य ( पाल्यपान ) पालन किया हुआ (स्वकीय:) अपना ही (देह :) शरीर ( समं ) साथ ( न याति ) नहीं जाता है ( तत्र ) वहां ( कथं ) किस तरह ( बाह्यभूतानि ) बाहर ही बाहर रहने वाली (वित्तानि) धन आदि सम्पत्तियां साथ जा सकती हैं (इति) ऐसा ( प्रबुध्य ) समझकर ( कुत्रापि ) किसी भी पदार्थ में व कहीं भी (माहः ) मोहभाव ( न कृत्यः ) न करना चाहिए ।
भावार्थ - यहां आचार्य फिर भी समझते हैं कि हे भव्य जीव ! तू क्यों परपदार्थ के मोह में पागल हो रहा है। स्त्री, पुत्र मित्र, माता-पिता राजा, प्रजा, नौकर चाकर ये चेतन पदार्थ तथा घर, वस्त्र, वासन आदि अचेतन पदार्थ ये सब मात्र इस शरीर से सम्बन्ध रखते हैं। जब शरीर ही इस जीव से भिन्न है तब ये पदार्थ अपने कैसे हो सकते हैं। जगतके सर्वही पदार्थों की सत्ता मेरी आत्मा की सत्ता से भिन्न है । यह भेद विज्ञान एक ज्ञानीके हृदय में रहना योग्य है । हरएक द्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्र काल भाव को अपेक्षा मस्तिरूप है तथा पर पदार्थों के द्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है। आत्मा में आत्मा का द्रव्य जो अनंत गुणोंका समुदायरूप अखंड पिंड है सो तो उसका अपना द्रव्य है । जितने असंख्यात प्रदेशों के लिए हुए यह मात्मा है वह आत्मा का क्षेत्र है, इस आत्मा की जो अवस्थाविशेष या पर्यायें हैं सो उसका काल है, आत्मा के जो शुद्ध गुण हैं वह इसका भाव है। जबकि आत्मा के सिवाय अन्य सब आत्माओं के व अन्य पदार्थों के कोई द्रव्यक्षेत्र काल भाव इस आत्मा में नहीं है । इसलिए उन सबका इस आत्मा में नास्तित्व या अभाव है । इस तरह स्याद्वाद नय के द्वारा जो अपने आत्मा में एक हो समय में अस्तित्व नास्तित्व को व भावाभाव को समझ लेता है वही मात्र एक अपने स्वभाव को अपना मानता है और सब
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को अपने से भिन्न पर जानता है। जब कोई पर वस्तु अपने आत्मा की नहीं है तब परवस्तु से मोह करना वास्तव में नादानी है। सुभाषित रत्नसंदोह में यही आचार्य कहते हैंन संसारे किचित् स्थिरमिह निजं वास्ति सकले । विमुष्याच्यं रत्नत्रितयमनधं मुक्तिजनकम् । अहो मोहार्तानां तदपि विरतिर्नास्ति भक्तस्वतो माशांपायादिखमनसारं सौख्यकुशलम् ॥ ३४० ॥ भावार्थ -- इस सम्पूर्ण संसार में न कोई वस्तु स्थिर है न अपनी है सिवाय पूज्यनीय निर्मल शक्ति के उत्पन्न करने वाले रत्नत्रय धर्म के । बड़े खेद की बात है कि मोह से दुःखी जीवों की विरक्ति तब भी संसार से नहीं होती है तब फिर जो मोक्ष के उपाय से विरुद्ध मन वाले हैं उनकी सच्चा सुख नहीं मिल
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सकता ।
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मूलश्लोकानुसार भुजंगप्रयात छन्द यतन बहु कराए सदा पालने को । सुनिज बेह भी साथ नहि चालनेको । धनाविक बहिर्वस्तु किम साथ होवे । सुधी जानकर कौन से मोह बोवे ||३४
स्थानिका- आगे कहते हैं कि ज्ञानी की दृष्ट व अनिष्ट पदार्थों में समताभाव रखना चाहिए ।
मंदाक्रान्ता वृत्त
शिष्टे दुष्टे सर्वास विपिने काँधने लोष्ठवर्गे 1 सौख्ये दुःखे शुनि नरवरे संगने यो वियोगे । शश्वद्धोरो भवति सदृशो द्वेषरागध्यपोढः । प्रौढा स्त्रोव प्रथितमहसस्तस्य सिद्धिः करस्थाः ।। ३५ ।।
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अन्वयार्थ - (यः) जो कोई (शिष्टे दुष्टे ) सज्जन में या दुर्जन में ( सदसि विपिने) सभा में या वन में ( काँचने लोष्ठवर्गे) सुवर्ण में या कंकड़-पत्थर में (सौख्ये दुःखे ) सुख में व दुःख में ( शुनि नरबरे) कुत्ते में व श्रेष्ठ मनुष्य में (संगमे वियोगे ) इष्ट के संयोगमें या वियोग में ( सदशः ) समानभाव रखता हुआ ( शश्वत् ) सदाही ( धीर: ) धीर तथा ( द्वेषरागव्यपो ) राग-द्वेष रहित वीतरागी (भवति) रहता है ( तस्य ) उस ( प्रथित महसः ) प्रसिद्ध तेजस्वी के पास ( सिद्धि:) मुक्ति (प्रौढ़ा स्त्री इव) युक्ती स्त्री के समान ( करस्था) हाथ में ही आ जाती है
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भावार्थ - यहाँ आचार्य कहते हैं कि जैसे वीरधीर तेजस्वी पुरुष को युवती स्नो शीघ्र कर लेती है उसके निकट भाजाती उसी प्रकार मुक्तिरूपी स्त्री उस महान तेजस्वी पुरुष को शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है जो समताभाव के अभ्यास करने वाले हैं, जिन्होंने ऐसा वैराग्य अपने भीतर बढ़ा लिया है कि यदि कोई सज्जन मिलें तो उनसे राग नहीं करते दुजन कष्ट देवें तो उनसे द्वेष नहीं करते । यदि कभी मानवों की सभा में जाने का काम पड़ गया तो उससे प्रसन्न नहीं होते और यदि जंगल में अकेले रहना हुआ तो कुछ खेद नहीं मानते हैं। जिनके आगे कोई रत्न सुवर्णों के ढेर कर दे तो उससे लोभ नहीं करते और यदि कंकड़ पत्थर रख दे तो उससे द्वेष नहीं करते । यदि साताकारी पदार्थों का सम्बन्ध मिले तो हम सुखी हुए ऐसी कल्पना नहीं करते और यदि असाताकारी सम्बन्ध प्राप्त हो तो हम दुःखी हुए ऐसी मान्यता नहीं करते, यदि सामने कुत्ता आकर बैठ जावे तो उससे वृणा नहीं करते और यदि कोई चक्रवर्ती राजा आ जाये तो उससे मोह नहीं करते । उनको यदि सुहावने शिष्यवर्गादि का सम्बन्ध हो तो राग नहीं करते और यदि असुहावने चेतन-अचे
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तन पदार्थों का सम्बन्ध हो तो द्वेष नहीं करते। ऐसे साधु महात्मा जो जगत को एक मात्र कर्मों का नाटक समझते हैं, जिनकी दृष्टि निश्चयनय रूप रहती है, जो जगतके नानाप्रकार जीवके भषों में व अवस्थाविशेषों में भी शुद्ध द्रव्य को उसके अपने असली स्वरूप में देखते हैं, उनके सामने कोई छोटा या बड़ा जीव है ही नहीं। सब ही जीव शुद्ध सिद्ध समान दिख रहे हैं। वहां राग और द्वेष किसके साथ हो । जितने अजीब पदार्थ हैं वे अलग दिखते हैं उनसे कोई रागद्वेष का सम्बन्ध नहीं । इस तरह शुद्ध निश्चय नय के आलम्बन से जो साधु ब ज्ञानो महात्मा निरन्तर विचारते रहते हैं उनका संसाररूपो स्त्रीसे राग घटता जाता है
और मुक्तिरूपी परम मनोहर अनुपम स्त्री से राग बढ़ता जाता है वह मक्तिरूपी स्त्री जब जान लेती है कि मेरा उपासक बड़ा धोर वीर है, उपसर्गोके पड़ने पर भी आत्मध्यानसे व मेरी आशक्ति से हटता नहीं है तब ही वह स्वयं आकर इसको अपना लेती है और यह पुरुषार्थी साहसी वीर सदा के लिए मुक्ति धाम में जाकर आनंदामृत वा भोग किया करता है।
श्री पद्मनंद मुनि सबोध चंद्रोदय में कहते हैंकर्मभिन्नमनिशंस्वतोखिलम पश्यतो विशवबोधवक्षषा। सत्कृतेपि परमार्थविनो योगिनो न सुख दुःख कल्पना ।२०।
भावार्थ-जो निश्चयनयके जाननेवाले योगी हैं वे निर्मल ज्ञानदृष्टि से अपने आत्मा से सर्व कर्मों को भिन्न देखते हैं तव उनके भीतर कर्मोंके निमित्त से जो सुख दुःख होता भी है उसमें यह भाव नहीं करते कि मैं सुखी हुआ या मैं दुःखी हुआ । वे निरन्तर समताभाव का अभ्यास करते हैं--
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मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द रखते समभावं सज्जनों दुर्जनों में । कंचन कंकड़ में, राजग्रह वा वनों में । सुख दुख पशु नरमें, संगमें वा विरहमें । युवति सम स्यसिद्धी होत वश वीरमरमें ॥३५
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि वीतरागी साधु ही मोक्ष के अधिकारी होते हैं
शार्दूलविक्रीडित छन्द अभ्यस्ताक्षकषायवरिविजया विध्वस्तलोकक्रियाः। बाह्याभ्यंतरसंगमांशधिमुखाः कृतात्मवश्यं मनः ॥ ये श्रेष्ठं भवभोगदेहविषयं बराग्यमध्यासते।। ते गच्छन्ति शिषालयं विकलिला बुद्धया समाधि धाः।३६
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अन्वयार्थ-(ये) जो(अभ्यस्ताक्षकषायवैरिविजयाः)इन्द्रिय विषय और कषाय वैरियों के जीतने का अभ्यास करने वाले हैं, (विध्वस्तलोकक्रियाः) जिन्होंने लौकिक क्रियाकांड आरंभादिक सब त्याग दिया है (बाह्याभ्यन्तरसंगमांगविमुखाः) जो बाहरी और भीतरी परिग्रहके अंश मात्र से भी वैरागी है और जो(मना आत्मवश्यं कृत्वा)मनको अपने आधीन करके (भवभोगदेहविषयं संसार, भोग व शरीर सम्बन्धी(श्रेष्ठ)उत्तम (वैराग्यं वैराग्यको (अध्यासते) प्राप्त हुए हैं (ते बुधाः) वे ज्ञानी साधु (समाधि) समाधि या आत्मीक तन्मयता को बुद्धवा)अनुभव करके (षिक
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लिला:) सर्व कर्म रहित होकर (शिवालयं) मोक्षधाम को (गच्छन्ति) जाते हैं।
भावार्थ-इस श्लोक जाचार्य ने बता दिया है कि मोक्षका उपाय अभेदरत्नत्रय समाधि या स्वात्मानुभव है या शुक्लध्यान है । अबतक शुक्लध्यानकी अग्नि नहीं जलती है तबतक न मोहका नाश होता है और न घातिया कर्मों का नाश होता है और न यह अधातिया कोसे छूटकर सिद्धपद पा सकता है । उस शुक्लघ्यान की सिद्धि उसी महात्माको हो सकती है जो शरीरके खंड-२ किये जाने पर भी ममता न लावे व वेदना से त्रसित न हो। जिसकी ममता बिलकुल शरीरसे हट गई हो जो सर्दी माँ डांस मच्छरको बाधाएं सह सके । इसलिए ये साधुको वह सबकुछ वस्त्र त्याग देना पड़ता है जो उसने स्वाभाविक शरीरको अवस्थाको ढाने के लिए धारण कर रक्खें थे। यहां पर आचार्यने मुक्ति के योग्य जो पात्र हो सकते हैं उन साधुओंका वर्णन किया है। पहली जरूरी बाततो यह बताई है किउन्होंने इंद्रियोंको इच्छाओंको जीतनेका व क्रोधादि कषायोंके दमनका भलेप्रकार अभ्यास कर लिया हो, क्योंकि ये इंद्रियही प्राणीको कुमागमें डाल देती हैं व कर्मोका बंधकषायों से ही होता है । जिस सम्यग्दृष्टिीने आत्माके वीतराग विज्ञानमय स्वभावका निश्चय कर लिया है वही आत्मीक सुखके मुकाबले में इन्द्रिय सुखको तुच्छ जानता है, इसलिए वही इंद्रियोंका जीतने वाला हो सकता है जिसने अपने आत्मा का स्वभाव वीतराग है ऐसा समझ लिया है, वही कषायोंके जीतनेका पुरुषार्थ करेगा। दूसरी बात साध में यह जरूरी है कि उसने सब लोकव्यवहार छोड़ दिए हों, अनेक प्रकार व्यापारके आरम्भ करके पंसा कमाना मकान मठ बनवाना, खेती कराना,शरीर रक्षार्थ सामान जोड़ना,
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रसोई बनाना-बनवाना, ब्याह शादीके व जीवनमरणके विकल्पों में पड़ना ग्रहस्थोंके रोग, शोक आदि कष्ट मिटानेको यंत्र मंत्रादि करना आदि कार्यों को आत्मोन्नति में विघ्न कारक व मनको आकूलित रखने के कारण छोड़ दिये हों। तथा आरंभ के कारणभूत जो दश प्रकारके बाहरी परिग्रह हैं उनका भो जिसने त्याग किया हो । अर्थात जिसके स्वामित्वमें न खेतहों, न मकान हो, न चाँदो हो न सोना हो, न गोवंश हो न अन्नादि हो, न दासी हो न दास हो, न कपड़े हों न बर्तन हो तथा जिसने मोह जनित सर्व परिणतियों से भी ममता छोड़ दी हो अर्थात १४ प्रकार का अंतरग परिग्रह भी न रखता हो। अर्थात जिसने मिथ्याल, क्रोध गाना लोग, शग, री, रसि, शोकभय जुगुप्सा, स्त्रीवेद पुंवेद, नपुंसकवेद इन १४ बातों से ममता हटा ली हो। तथा जिसने अपना मन अपने अधीन किया हो, जिसका मन चंचल न हो ऐसा वश में हो कि जब साधु चाहें तब उसे ध्यान व स्वाध्याय में लगाया जा सके तथा मन में यह वैराग्य हो कि संसार असार है मोक्ष ही सार है। इंद्रियों के भोग क्षण भंगुर व अतुप्तिकारक है व आत्मा सुख ही सच्चा भोग है, शरीर नाशवंत व मलीन है, आत्मा अविनाशी व पवित्र है। ऐसे ही साधु जब स्वात्मानुभव का अभ्यास करते २ शुक्न ध्यान पर पहुंचते हैं तब कर्मों का संहार कर मुक्त हो जाते हैं । श्री पद्मनंदि मुनि यत्याचार धर्म में कहते हैं
आचारो दशधर्मसंयमतपो मूलोसराख्या गुणाः । मिथ्यामो हमदोन्झनं शमवमध्यानाप्रमादस्थितिः ।। वैराग्यं समयोपबृंहणगुणा रत्नत्रयं निर्मल। पर्यन्ते च समाधिरक्षयपवानंदाय धर्मों यतेः ॥३८॥
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-------- भावार्य--अविनाशी मोक्षपदकी प्राप्तिके लिए यतिका धर्म यह है कि बह चारित्रवाले, दशलाक्षणी धर्मके अभ्याससे संयमी रहे, तपस्वी हो २८ मूलगुण व उत्तम गुणपाले, मिथ्यात्व मोह व मदको त्यागे, समभाव रक्खे इंद्रिय दमन करे, ध्यान करे, प्रमादी न हो, वैराग्य धारण करे, सिद्धान्तशास्त्र का ज्ञान व दाता रहे, निर्मल रत्नत्रय पाले, अन्त में समाधि भावसे मरण करे ! वास्तव में सच्चे ध्यानी साधु ही मोक्षके पात्र होते हैं
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जिसने अक्षकषाय शव जीते, व्यवहार लौकिक तजा। बाह्याभ्यंतरसंग सर्व छोड़ा, मनको स्ववशमें भजा ॥ मवतन भोग विराग अंध विषयान सा किया। ते सज्जन सब कर्ममेल हरके शिवधाम वासा लिया ॥३६॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि शरीर और आत्मा का भेद ज्ञान ही लाभकारी हैं
संघतस्य न साधनं न गरयो नो लोकपूजा परा। नो योग्यस्तुणकाष्ठशलधरणोपृष्ठः कुतः संस्तरः॥ कर्तात्मैव विबुध्यतायममलस्तस्यात्मतत्त्वस्थिरो । जानानी जलदुग्धयोरिव भिवां देहात्मनोः सर्वदा ॥३७॥
अन्वयार्थ-(तस्य) उस आत्मध्यान या आत्मशुद्धि का (साधनं) उपाय (न संघः)न तो मुनि आयिका श्रावक श्राविका
का संघ है (म गुरवः) न गुरु आचार्य हैं (नो परा लोकपूजा) न ___ लोकों से बड़ी पूजा पाना है (नो योग्यः तृणकाष्ठ शैलधरणीपृष्ठः
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तत्त्वभावना कृत: संस्तरः) न योग्य तृण काठ पाषाण व भूमितलका बनाया हुआ संथरा है किन्तु (तस्य) उस आत्मध्यान का (कर्ता) करने वाला (अयम्) यह (अमलः) निर्मल व (आत्मतत्वस्थिरः) आत्मतत्व में स्थिर (आत्मा एव)आत्मा ही है। जो (जलदुग्धयोः इब) जल और दूध के समान (देहात्मनो भिदा) शरीर और आत्मा के भेदको (सर्वदा) सदा (जानानः) जानने वाला है (विबुध्यत) ऐसा समझो।
भावार्थ-यहां आचार्य बतलाते हैं कि भेद विज्ञानसे ही आत्मध्यान को सिद्धि होती है। जो आत्मा ऐसा भले प्रकार समझ गया है कि जैसे दूध और पानीका सम्बंध है ऐसेही आत्मा और कार्मण तंजस त्र औदारिकादि शरीरोंका सम्बन्ध हैं जिसेदूध से पानी अलग है वैसे आत्मासे पुद्गलमयी शरीरादि अलग हैं। जो परको पर, जानकर पर से ममत्व छोड़ देता है और निर्मल आत्माके शुद्ध चैतन्यमई सिद्ध भगवानके समान जानकर उसी आत्मीक तत्वमें अपने उपयोगको स्थिर कर देता है वह आत्मा आत्मध्यान करके आत्माको सिद्धिकर सकता है। जिस किसीके ऐसा आताध्यान तो हो नहीं और वह मुनियों के संघमें घूमा करे या आचार्यों की पाद पूजा व भक्ति किया करे व संसारी जीवोंमें अपनी विद्याका चमत्कार दिखाकर प्रतिष्ठाको पाया करे व कभी तिनके का कभी काप्ठ का कभी पाषाणका व कभी भूमितल का ही आसन बिछाकर निश्चल बैठा करे तो ये सब कार्य उसके आत्मध्यानके साधक नहीं है। इसलिए जो स्वहित करना चाहते हैं उनको उचित है कि इन सब कारणोंको मात्र बाहरी निमित्त कारण जाने, इनके सहारेसे जो सामायिकका अभ्यास करते हुए आस्मध्यानमें लयता प्राप्त करते हैं वे ही सच्चे समाधि भावको
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पाते हैं व उनका ही साधन मोक्षका साधन है। बिना शुद्ध निश्चयनयका आलम्बन पाए परसे विराग नहीं होता है परसे विराग बिना स्वात्माराम में विश्राम नहीं होता । यद्यपि आत्मा अमूर्तीक है तथापि उसको निर्मल जल के समान अपने शरीररूपी घट में देखना चाहिए और जैसे गंगा नदी में गोता लगाया जाता है वैसे अपने आत्मा के जल सदश निर्मल स्वभाव में अपने मनको डुबाना चाहिए। ॐ या सोऽहं मंत्र का आश्रय लेकर बारबार मनको आत्मारूपी नदी में डुबाने से मन का चंचलपना मिटता है और वीतरागताका भाव बढ़ता जाता है। आत्मध्यान ही परमोपकारी जहाज है। इसी पर चढ़के भव्य जीव संसार पार हो जाते हैं । अतएव ज्ञानी को आत्मध्यान का ही अभ्यास करना चाहिए । श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैं---
तस्वभावना
विरज्यकामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम
निर्मम यदि प्राप्तस्तदा व्यातासि नान्यथा ॥२३॥ भवक्लेशविनाशाय पिब ज्ञानसुधारसम् ।
कुरु जन्माब्धिमत्येतुं ध्यानपोतावलम्बनम् ॥१२॥
भावार्थ- कामभोगोंसे वैराग्य प्राप्त करके व शरीरकी भी वांछाको छोड़कर यदि तू ममता रहित हो जायगा तब ही तू ध्यान करने वाला होगा अन्य प्रकारसे नहीं । इसलिए संसार के क्लेशोंको नाश करने के लिए आत्मज्ञानरूपी अमृतके रसका पान कर तथा ध्यारूपी जहाज पर चढ़कर संसारसमुद्रसे पार हो जा । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
नहि होवे मुनिसंग साधन कभी नहि लोक पूजा कधी । नहि गुरु भक्ति न संस्तरं तृणमयी नहिं काठधरणी कधी ॥
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जिन जाना निज आत्मतत्वनिर्मल निजमें भये तत्परं । जैसे दूध अलग अलग जल सदा तिम देह आतमपरं ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि आत्मज्ञानी ही मोक्ष जा सकते हैं
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विगलितविषयः स्वं प्रस्थितं चुध्यते यः । पथिकमिव शरीरे नित्यमात्मानमात्मा ॥ विषमभवपयोधि लीलया संघयित्वा । पशुपदमिव सद्यो यात्यसौ मोक्षलक्ष्मीम् ॥३८॥
अन्यथार्थ - (यः) जो ( विगलितविषय:) इंद्रियों के विषयोंकी इच्छाओं का दमन करनेवाला (आत्मा) आत्मा (शरीरे शरीर में (पथिक व ) यात्री के समान (प्रस्थित) प्रस्थान करते हुए (स्वं आत्मानं ) अपने आत्माको ( नित्यम्) अविनाशी ( बुध्यते ) समझता है (असी) वही ( विषमभवपयोधि ) इस भयानक संसाररूपी समुद्रको (पशुपदं इब ) गायके खुरके समान (लोलया ) लीला मात्र में (लंघमित्रा ) पाय करके ( सद्यः ) शीघ्रही (मोक्षलक्ष्मीम् ) मोक्षरूपी लक्ष्मीको (याति) प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ - यहाँ पर भी आचार्यने आत्मज्ञानी को ही मोक्षका अधिकारी बताया है। पहले तो पदार्थों में किंचित् भी राग नहीं रखता है, वही आत्मा आत्मध्यान के प्रतापसे बढ़ा चला जाता है उसके लिए यह संसार समुद्र जो महा भयानक व विशाल है वह गायके खुरके समान हो जाता है वह उसको बहुत शीघ्र पार कर लेता है और मुक्तिद्वीपमें जाकर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ।
श्री पद्मनंद मुनि सद्बोधचन्द्रोदय में कहते हैं
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तस्परः परमयोगसपवाम् पानमन न पुनर्वहिर्गतः। नापरेण चलितः पथेप्सितः स्थानलानविभयो विमाच्यते ।१०
भावार्थ-जो आत्मध्यान में लीन हैं वही उत्तम योग की संपदा का पात्र होता है। जो आत्मध्यान से बाहर हैं बह योगी नहीं ले सकता है । जो कोई आत्मध्यान के सिवाय अन्य मागसे चलता है वह अपने इच्छित मोक्ष स्थान के लाभ को नहीं प्राप्त कर सकता है । अतएव आत्मध्यान ही को उत्तम कार्य मानना अ इसीका अभ्यास करना हितकर है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द ओ विषय विकारं त्याग निज आत्म जाने । पथिक सम विहारी देह में नित्य माने ॥ विषम भव समुन्नं तुर्त हो पार करता।
पशुपद यत् क्षण में मुक्तितिय आप धरता ॥३॥ उस्थानिका-आगे कहते हैं कि जो संसारिक सुखसे विमख होता है वहीं आत्मसुख को पाता है :
बाह्यं सौख्यं विषयलनिसं मुंचते यो दुरन्तं । स्थेयं स्वल्यं निरुपममसौ सौख्यमाप्नोति पूतम् ॥ योऽन्यजन्यं श्रुतिविरतये कर्णयुग्मं विधत्ते।
तस्यच्छम्नो भवति नियतः कर्णमध्येऽपि घोषः ॥३६॥ अन्वयार्य--(यः) जो कोई (दुरन्त) दुःखदाई (बाह्य) बाहरी (विषयजनितं) इन्द्रिय जनित (सौख्यं) सुखको (मंचते) स्याग देता है (असो) वही (स्वस्थ )अपने आत्मामें स्थित(स्थेयं ) अविनाशी व(निरुपमम् )उपमारहित व (पूतम्)पवित्र (सोख्यम) सुखको (आयोति) पा लेता है (यः)जो कोई (अन्यः जन्यं श्रुतिः
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तत्त्वभावना
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विरतये) दूसरोंसे कहे हुए शब्दों को सुननेसे विरक्त होने के लिए ( कर्णयुग्म ) अपने दोनों कान ( विधत्ते) ढक लेता है ( तस्य) उसके ( कर्णमध्येऽपि ) कानों के मध्य ही ( छन्नः ) गुप्त (घोषः) शब्दों का उच्चारण ( नियतः ) सदा (भवति) होता रहता है ।
भावार्थं - यहाँ आचार्य कहते हैं कि विषयसुखका व आत्मसुखका विरोध है, जिसको इन्द्रियोंके विषयोंके भोगों की लालसा है का लक्ष्य नही रहेगा, उसको कभी भो आत्मसुखका लाभ नहीं हो सकता है तथा जिसको आत्मसुखका स्वाद आ जाता है। वही विषयोंके स्वादको विधके समान जानता है। जिसकी वृत्ति विषयसुखमें विरक्त हो जाती है वही आत्मीक सुखको पालेता है, विषयों का सुख सुखसा दिखता है यह अंत में दुःखों का कारण है । जब कि आत्मसुख स्वाधीन तथा बाहरी पदार्थों के आधीन हैं। जब कि है और उपमा रहित है जिसकी मिसाल नहीं दी जा सकती है। इसपर आचार्य दृष्टान्त देते हैं कि जो जगतके लोगोंके शब्दों को सुनता रहेगा वह अंतरंगके छिपे हुए घोषको नहीं सुन सकता है परन्तु जो अपने दोनों कानोंको ढक लेवे ताकि बाहरी शब्द न सुनाई पड़े उसको अपने कानके भीतर छिपा हुआ शब्द सदा ही सुन पड़ता है। कहनेका प्रयोजन यह है कि जो बाहर से विरक्त होता है वही भीतरकी संपदाको पाता है इसलिए हमें संसारिक सुखसे विराग भजकर निजात्मिक सुखमें रुचि बढ़ाकर उसी के लिए आत्मा में ध्यान लगाना चाहिए और सामायिक के द्वारा समताभाव को बढ़ाना चाहिए। जिस किसीने अमृत फल का मीठे फल स्वादिष्ट मालूम तुच्छ स्वाद नहीं पाया है उसी को
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पड़ते हैं, अमृत फल खानेवाले को वे फल स्वादिष्ट नहीं भासते हैं | आत्मीक सुखका स्वाद हो परम विलक्षण है। इंद्रिय सुखका लाभ प्राणीको महान अज्ञानी बना देता है। अमितगति महाबाज सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
तत्यभावना
लोकाचितोऽपि कुलजोपि बहुश्रुतोपि, धर्मस्थितापि विरतोपि शमान्बितपि ।
अक्षार्थपन्नगविषाकुलितो मनुष्यस्तन्नास्ति कर्म कुरते न यवन नियम् ॥१००॥
भावार्थ- कोई मानव लोगोंसे पूज्यनीय हो, अत्यन्त कुलीन हो, बहुत शास्त्रका पारगामी हो, धर्ममें चलने वाला हो, विरक्त हो व शांतभाव सहितभी हो। यदि उसके इन्द्रिय विषयरूपी सर्प का विष चढ़ जावे तो वह आकुलित होकर ऐसा बावला हो जाता है कि वह कौनसा निन्दनीय कार्य है जिसे वह नहीं कर डालता है । वास्तव में इन्द्रिय सुखमें आशक्ति मानवको धर्मभाव से गिराने वाली है ।
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मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
विषय सुख विकारं दुःखमय छोड़ता जो । निरूपम थिरपावन आत्मसुख वेदता सो ॥
जो दोनों कर्ण सूबता पर न सुनता । से निज कर्णोंमें, घोष प्रच्छन्न सुनता ॥ ३६ ॥
उत्पानिका -- आगे कहते हैं कि पर संपत्तिको अपना मानना अज्ञान है
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तस्वभावना
शार्दूलविक्रीडित छन्द संयोगेन विचित्रवुःखकरणे दक्षेण संपादितामात्मीयों सकलत्रपुनसुहवं यो मन्यते संपदम् । नानापायसमृद्धिवर्द्धनपशम लोमानि! लक्ष्मीमेष निराकृतामितगतित्विा निजां तुष्यति ॥४०॥
अन्वयार्थ-(यः)जो कोई {विचित्रदुःखकरणे दाण) नाना प्रकार के दुःख उत्पन्न करने में प्रवीण ऐसे (संयोगेन) शरीर व कर्म के संयोग से (संपदादिताम्) प्राप्त हुई (सकलत्रपुत्रसहृदं) स्त्रो, पुत्र, मित्र आदि सहित (संपदम) सम्पत्तिको (जात्मीयां) अपनी ही (मन्यते) मानने लगता है (मन्ये) मैं समझता हूं कि (एष:) यह (निराकृतामितगतिः) विशेष ज्ञान रहित या मिथ्या ज्ञानी (नानापायसमृद्धिवद्ध नपरी) प्राणी तरह-तरह की आपत्तियों को बढ़ाने वाली (ऋणोपाजितां) कर्ज से प्राप्त होने वाली (लक्ष्मीम्) लक्ष्मीको (निजाँ) अपनी लक्ष्मी (ज्ञात्वा) जानकर (तुष्यति) सुखी हो रहा है।
भावार्थ-यहाँ आचार्य ने बताया है वह मानव महा मूर्ख है जो कर्म संयोग से प्राप्त पदार्थों को अपना मान लेता है। इस जीवके साथ कोका संयोग नाना प्रकार दुःखोंको उत्पन्न कराने वाला है, कर्मों के उदय से ही रोग, शोक, वियोग होता है। कोंके उदयसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ का विकार होता है। कर्मोके निमित्त से शरीर की प्राप्ति होती है, शरीर में इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियोंसे इच्छापूर्वक विषय ग्रहण करता है । विषयों को पाकर राग करता है उनके चले जाने पर शोक करता है। पुण्यके उदयसे जब इसको मनोज्ञ स्त्री, सुन्दर पुत्र व साताकारी मित्र प्राप्त होते हैं तब उनमें राग करता है, जब यह नहीं रहते
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तस्वभावना
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व उनपर कोई भापत्ति आती है तो इसे बड़ा खेद होता है । सांसारिक पदार्थोका सम्बन्ध व रक्षण आदिकी विधि करते हुए महान संकटों को सहना पड़ता है। जो कोई मर्ख कर्मों के उदयसे प्राप्त चेतन व अचेतन सम्पदा को अपनी मानता है वह मानो कर्ज लाकर पर की लक्ष्मी को अपनी मानता है। जो कर्ज लेकर व्याज सहित धन चुकाता नहीं है वह अन्त में राजदण्ड आदि पाता है । बुद्धिमान कर्ज के मन में कभी ममता नहीं करते हैं। वह उसको परका ही मानते हैं व सोन हो उसको दे डालना चाहते हैं इसी तरह कर्मोके उदयसे प्राप्त पदार्थोंको ज्ञानी जीव अपना कभी नहीं मानते हैं- कमोके छूटने पर छूट जाने वाल हैं । ज्ञानी अपनी आत्मीक शानदर्शन सुख वीर्यमई सम्पत्ति के सिवाय और किसी को अपनो नहीं मानता है। तत्वज्ञानी को यही भाव अपने मन में रखकर आत्मतत्वका मनन करना चाहिए । शानी ऐसा विचारते हैं जैसा स्वामी अमितगतिजी ने सभाषितरत्नसंदोह में कहा है
किमिहपरमसौख्यं निःस्पृहस्वं यदेतरिकमथ परमदुःखं सस्पृहरवं यवेतत् ।
ति मनसि विधाय त्यक्तसंगाः सवा ये,
विधति जिनधर्म ते नराः पुण्यवन्तः॥१४॥ भावार्थ-जो मनुष्य ऐसा मनमें निश्चय करके कि इच्छा रहितपना हो परम सुख है तथा इच्छा सहितपना हो महान दुःख है परिग्रहों को छोड़कर जिनधर्म को धार करके सेवते हैं यह ही पुण्यात्मा हैं।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द नाना दुख करकर्मसंग बराते, पाई सकल संपदा । बनितापुत्रसुमित राजलक्ष्मी, ष नाश करती सदा।
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इनको अपनी मानता नर कुधी मोही महा पातको।।
सो ऋणसे धन पाय मग्न रहता नहि लाज है बासको ।४० . उत्थानिका--आगे कहते हैं कि ज्ञानी जीव किसी पदार्थ से रागद्वेष नहीं करते हैं
यत्पश्यामि कलेवरं बहुविधव्यापारजल्पोजतम् । तन्मे किंचिवचेतनं नकुरुते मित्रस्य वा विद्विवः ।। आत्मा यः सुखयुःखफर्मजनको नासौ मया पश्यते । कस्याहं बत सर्वसंगविकलस्तुष्यामि एष्यामि ॥४१॥
अन्बया- (पित्रस्य) मित्र के (धा नितिषः वा शत्र के (यत) जिसके (कलेवर) शरीरको (बहुविधव्यापारजल्पोचतम) नाना प्रकार आरंभ करने में व बात करने में लगा हुआ(पश्यामि) देखता हूँ(तत्) वह शरीर (अचेतन) चेतनता रहित जड़ है (मे) मेरा (किंचित्) कुछ (न कुरुते)नहीं कर सकता है (यः आत्मा) उनका जो मात्मा (सुखदुःखजनकः) सुख तथा दुःखका स्वरूप कर्मोको उत्पन्न करनेवाला है (असो)वह(मया)मेरेसे (च दृश्यते) देखा नहीं जाता है तथा (अह)मैं (सर्वसंगविकल:)सर्व कर्मादि पर वस्तु के संग से रहित शुद्ध हूं तब (कस्य)किसपर (तुण्यामि) प्रसन्न होऊँ (रुष्यामि च) तथा शेष करू (बत) यह विचारने की बात है।
मावार्थ-यहां पर आचार्य ने रागद्वेष मिटाने की एक रीति समझाई है । यह ससारी प्राणी उन मित्रोंसे प्रेम करता है जो अपने वचनों से हमारे हितकी बातें करते हैं व अपने आचरणसे हमारी तरफ अपना हित दिखलाते हैं तथा उनको शत्र समझ
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द्वेष करता है जो हमारे अहित की बातें करते हैं तथा अपने व्यवहारसे हमारी कुछ हानि करते हैं। सामायिक करते हुए प्राणी मनसे रागदेष हटाने के लिए आचार्य कहते हैं कि हे भाई! तू किस पर राग व किस पर द्वेष करेगा जरा तुझे विचारता चाहिए। यदि तू मित्रके शरीरसे राग व शके शरीरसे द्वेष करे तो यह तेरी मुर्खताही होगी क्योंकि शरीर विचारा जड़ अचेतन है वह न किसीका बिगाड़ करता है न सुधार करता है। शरीय के सिवाय उनका आरमा है उसको यदि तु सुख तथा दुःखका देते वाला माने तो वह बारमा बिलकुल नहीं दिखता, उसका भाव यह हो गया है कि इन्द्रियोंके भोगोंसे आत्माको सुख-शांति नहीं होती है । किन्तु उल्टा रागद्वेषकी मात्राएं बढ़कर मोक्षमार्ग में विघ्न आता है। उसकी लालसा खाने-पीने देखने आदिसे हट गई हो । तथा आत्मसुखका अनुभव होने लग गया हो और यह सच्चा ज्ञान हो कि जैसे कोई यात्री अपनी यात्रामें भिन्न-२ स्थानोंसे विधाम करता हुआ जाता है वैसे यह आत्मा भी एक यात्री है जिसकी यात्राका ध्येय मोक्ष द्वीप है सो जबतक मोक्ष न पहुंचे यह भिन्न-२ शरीरमें वास करता हुआ यात्रा करता रहता है तथा यह अविनाशी है। शरीरके बिगड़ते हुए आत्मा नहीं बिगड़ता है । यह अनादिसे अनंतकाल तक अपनी सत्ता रखने वाला है । इस तरह जिसका लक्ष्य शरीररूपी ठहरनेके स्थान पर नहीं रहता है किन्तु मुक्तिद्वीपमें पहुंचना है यह लक्ष्य रहता है तथा जिस किसी शरीरमें कुछ काल के लिए ठहरता है उसे मात्र एक धर्मशाला जानता है उस शरीरमें व उसके संबंधी घेतन व अचेतन न जाने तबतक उस पर राग व द्वेष किस तरह किया जा सकता है। तथा मेरा स्वभाव भी रागद्वेष करने का नहीं है । मैं सर्प संगसे रहित हूँ। न मेरे में कोई भानावरणादि
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द्रश्य कम है न हरीरादि नोकम हैं न रागवेषादि भाव कम हैं। मैं निश्चयसे सबसे निराला सिद्ध के समान ज्ञातादृष्टा अधिनाशी पदार्थ हूँ। इसलिए मुझे उचित है कि समताभावमें रमण कर आत्मीक सुखका अनुभव करूं । जगत में न मेरा कोई शत्रु है न मेरा मित्र है । इसी तरह श्रीपूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक में कहा है
मामपश्यग्मयं लोको म मे शर्म व प्रियः। ___ मां प्रपश्यन्नयं लोको न में शत्रुन व प्रियः ॥२६॥ । भावार्थ-मेरे को न देखता हया यह लोक न मेरा शय है न मेरा मित्र है अर्थात् चम की आँखों से मेरे आत्माको कोई देख नहीं सकता है इसलिए मेरे मात्माका न कोई शत्र है न मित्र है तथा मेरेको अर्थात् मेरे आत्माको देखनेवाला लोक है वह भी मेरा शत्रु व मित्र नहीं हो सकता क्योंकि वीतरागी आत्मा ही आत्माको देख सकता है । इसलिए न मेरा कोई मित्र है न
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श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी ज्ञानार्णव में कहा है :
अदृष्ट मत्स्वरूपोऽयं जनो मारिन मे प्रियः। साक्षात् सुवष्ट रूपोपि जनो नारिः सुहन्म मे॥३३॥ भाषार्थ-जिस मानव ने मेरे आत्माके स्वराजको देखा ही नहीं है वह न मेरा शत्र है न मित्र है व जिसमे प्रत्यक्ष मेरे
आत्मा को देख लिया है वह महान मानव भी न मेरा शत्रु हो | सकता है न मित्र ।
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निश्चय नय के द्वारा देखते हुए मात्र मित्र की कल्पना द्दी
मिट जाती है
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दुःख
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द या जग में सिकार मित्र मेरा या जो करे । वेहूं बेह अचेतनं तिन्होंको, सो देह मम क्या करे । सुखदुःखकारी आत्मा यदि कहो, सो दृष्टि पड़ता नहीं । में निश्चय परमात्मा असंगी, रुष तोष करता नहीं ||४१|| उत्थानिका— आगे कहते हैं कि मेरा कोई नाश कर नहीं सकता मैं किससे राग व द्वेष करूँ ।
stधावद्धधिया शरीरकमिदं यन्माश्यते शत्रणा । सार्धं तेन विवेतनेन मम नो काप्यस्ति संबंधता || संबंधो मम येन शश्वदचलो नात्मा स विश्वस्ते । न क्वापीति विधीयते मतिमता विद्वेषरागोवयः ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थ - ( त्रोधाबद्धाधिया) क्रोध से युक्त बुद्धिवाले ( शत्रुणा ) शत्रु से (यत्) जो ( इदं) यह (शरीरकम् ) शरीर (नाश्यते) नाश किया जाता है ( तेनविचेतनेन सार्धं ) उस अचेतन शरीर के साथ ( मन ) मेरा (कापि ) कुछ भी ( सम्बन्धता) सम्बन्ध (नोअस्ति ) नहीं है (येन ) जिसके साथ ( मम शश्वत् अचल: संबंध: ) मेरा हमेशा निश्चल सम्बन्ध है ( स ) वह ( बात्माः ) आत्मा (न विध्वस्यते) नहीं नाश किया जा सकता है (इति) ऐसा समझकर ( मतिमता ) बुद्धिमान पुरुष के द्वारा (क्वापि ) किसी में भी (विद्वेषरागोदयः) रागद्वेष का प्रकाश (न विधोयते) नहीं किया जाता है |
भावार्थ - यहाँ आचार्य ने शत्रुभाव को मिटानेकी और एक रीति बताई है। जो कोई किसीका शत्रु बनकर उनको नाथ
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तस्वभावना
करता है वह मानव उस क्रोधरूपी पिशाच के वश होकर बावला बन जाता है । यह उन्मत्त पुरुषके समान है जिसने गाड़ नशा पी लिया हो। बावलेको चेष्टाका बुरा मानना मूर्खता है। तिस पर भी उस क्रोधी मानवने यदि मेरे इस शरीरको नाश किया तो मेरा क्या बिगड़ा । शरीर तो स्वयं जड़ है, नाशवंत है मेरा और उसका क्या सम्बन्ध ? यह तो मात्र मेरे रहने का घर है घरके जलनेसे व नष्ट होनेसे घर वाला नष्ट नहीं हो सकता। मैं चेतन अमूर्तिक अविनाशी हूँ मेरा सम्बन्ध अपने इस स्वरूपसे ऐसा निश्चल है कि वह कभी छूट नहीं सकता 1 इस मेरे आत्मा को नाश करनेकी किसीकी ताकत नहीं है । जब मेरे आत्माका कोई बिगाड़ या सुधार करही नहीं सकता है तब मैं किस मानव में राग करूं व किस मानवसे द्वेष करूं? यदि मैं राग-द्वेष करता हूँ तो मैं मूर्ख व बावला हूँ। इसलिए न मुझे किसीसे राग करना चाहिए न द्वेष । मुझे पूर्ण समताभाव में हो रमण करके सुखी रहना चाहिए। निश्चयनय से यहां भी साधकको अपने आत्मा को शुद्ध अविनाशी चेतन धातुमय अमूर्तिक अनुभव कर लेना चाहिए। मेरा कोई शत्र है व कोई मेरा मित्र है इस कल्पना को बिलकुल मिटा देना चाहिए।
परमार्थविंशति में श्री पाबंदि मुनि कहते हैंफेनाप्यस्ति न कार्यमाश्रितवता मित्रेण चान्येन वा । प्रेमांगेपि न मेस्ति संप्रति सुखी तिष्ठाम्यहं केवलः।
संयोगेन पवन काष्ठमभवस्संसारचके चिरं। - निविष्णः खल तेन तेन नितरामेकाकिता रोचते ।।४।।
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तस्वभावना
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मावा-मेरा कोई सम्बन्ध न किसी आश्रय करने वाले इस सेवक से है न किसी मित्रसे है। मेरा प्रेम इस शरीर पर भी नहीं है। मैं अब केवल अकेला ही सुखी हूं इस संसार में अनादि से इस शरीरादि के संग से बहुत कष्ट पाए इसलिए मैं अब इनसे उदास हो गया हूं, मुझे सदा एक अपना निराला रूप ही रुपता है। वास्तवमें ज्ञानीके ऐसा ज्ञानभाव सदा रहता है।
मूलश्लोकानुसार शार्दुलविक्रीडित छन्द क्रोधोधी अविशनने सन यही मम नाराकर दुख दिया। सो जड़ हूं मैं चेतना गुणमई, सम्बंध मुझसे चु यथा । मेरा है सम्बन्ध निस्म निजस सो नाश होके नहीं। इम लख बुधजन रागद्वेष कोई, किचित् जु करता नहीं ॥४२
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि शरीरका मोह ही संकटोंका मूल है
एकत्रापि कलेवरे स्थितिधिया कर्माणि संकुर्वता। गर्यो दुःषपरंपरामपरता यवात्मना लभ्यते !! सा स्थापयता विनष्टममता विस्तारिणी संपवम् । कांशकणनपावरेण हरिणाम प्राप्यते कथ्यताम् ॥४३
अन्वयार्थ-(यत्र) जिस संसार से (एकत्रापि कलेवरे) इसी • एक शरीर में ही (स्थितिधिया) स्थिरतापने की बुद्धि करके (कर्माणि संकुर्वता) नाना प्रकार पाप कर्मों को करते हुए (बारमना) आत्माने (गुर्वी) बड़ी भारी (दुःखपरम्परानुपरता) दुखों की संतान को बढ़ाने वाली अवस्था (लभ्यते) प्राप्त कर ली है (तत्र) उसी संसारमें (विनष्टममता) ममतारहितपनेको या वीतरागभावको (स्थापयता) स्थापित करने वाले आत्मासे (का) कौनसी (विस्तारिणी) बड़ी भारी (सम्पदा) सम्पदा (नहीं प्राप्यते) न प्राप्त कर ली जा सकती है कि जिसको
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(शक्रेण नृपेश्वरेण हरिणा) इन्द्र चक्रवर्ती या नारायण नहीं प्राप्त कर सकते हैं । अर्थात अवश्य मुक्ति लक्ष्मीको प्राप्ति की जा सकती है।
भावार्थ-यहाँ पर जादा ने बत:।।।। है कि ममता हो दुःखोंको बढ़ानेवाली है व ममता का त्याग ही मुक्तिरूपीलक्ष्मी को प्राप्त करानेवाला है। इस संसारमें इस जीवने अनन्तकालसे भ्रमण करते हुए अनन्त शरीर पाये व छोड़े व हर एक शरीरमें रहकर व उसी में लिप्त होकर बहुत से कर्मों का बंधन किया। जिस कर्मबंध के कारण संसार में भ्रमण करता रहा । अब यह मानव जन्म पाया है। यदि फिर भी इस शरीर में व शरीर के इंद्रियों में ममता की जावेगी तो ऐसा कर्मों का बंध होगा जिससे इस जीवको नकनिगोद आदि गतियों में जाकर दुखोंकी परिपाटोको बढ़ा देना होगा, फिर मानव जन्मका मिलनाही दुष्कर हो जायगा और यदि यह मानव बुद्धिमान होकर इस क्षणभंगुस व अपवित्र शरीरपर ममत्व न करे और अपने आत्मा के स्वरूप को पहचान कर उसका ध्यान करे तो यदि शरीर उच्च स्थिति का हो व मोक्षपाने योग्य सामग्री हो तो उसी जन्मसे मोक्ष की अनुपम सम्पदाको पा सकता है और यदि शरीर मोक्षके पुरुषार्थ के योग्य न हो तब भी उत्तम संयोगोंके पाने का पात्र होता हुआ परम्परा मोक्ष का अधिकारी हो सकता है । मोक्ष की सम्पदा अनुपम है । वह आत्मीक है, पराधीन नहीं है। वह आत्मा का ही अनंत ज्ञान, सुख वीर्य आदि है। इस मुक्ति की सम्पत्ति को इन्द्र चक्रवर्ती व नारायण आदि भी नहीं पा सकते हैं। वास्तव में आत्मज्ञानी ही व आत्मध्यानी ही ऐसे सुख के अधिकारी हैं। जो शरीर के दास हैं वे ही संसार के दास हैं, वे ही अनंतकाल भ्रमण करने वाले हैं। इसलिए ज्ञानी जीवको इस क्षणिक शरीर
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में मोह न करके नित्य निरंजन निज आत्मा में ही प्रेम नढ़ाना सचित है। निश्चयपंचाशत् में पद्मनंदि मुनि कहते हैं
पुराविपरित्यक्ते मज्जत्यानंदसागरे मनसि। प्रतिभाति यत्तदेकं जयति पर चिन्मयं ज्योतिः ॥३॥
भावार्थ-जब मनका मोह शरीरादि से छूट जाता है और यह मन आनंदसागर में डूब जाता है तब मन में जो कुछ प्रतिभास होता है वही एक परम चैतन्यमय ज्योति है वह जयवंत. रहो।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो कोई इस एक बेहको हो, थिर मान अघको करे। सो सन्तान महान् दुःख लहिके चारों गतीमें फिरे ।। पर जो ममता टाल आप माही, आपी रती धारता । अनुपम शिव संपत अपारलहता इब्रादि नहिं पावता॥४३।।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिन बातोंसे शरीरका लाभ होता है उनसे आत्मा का बुरा होता है इससे उनसे बचना ही हितकर है
ये भाषः परिवधिता विवधते कायोपकारं पुनस्ते संसारपयोधिमजनपरा ओबापकारं सदा ।। जीवानुग्रहकारिणो विवधते कायापकारं पुननिश्वित्पति विमुच्यतेऽनघधिया कायोपकारि विधा ।।४४
अन्वयार्थ-(ये) जो (परिवधिता: भावाः) धारण किये हुए व बढ़ाए हुए रागादि भाव व स्त्री, पुत्र, मित्र राज्यधन सम्पदा
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आदि पदार्थ (कायोपकारं ) इस शरीरका मला ( विदधते ) करते हैं (पुनः) परंतु (ते) वे भाव या पदार्थ ( संसारपयोविमज्जनपरा:) संसारसमुद्र में डुबाने वाले हैं इसलिए (सदाजीवापकारं ) हमेशा बुरा करते हैं (क) तथा ( जीवानुप्रहारिणः ) जो वीतराग भाव या तप, व्रत, संयम आदि जीव के उपकार करने वाले हैं वे (कायापकारं ) शरीरका बुरा (दिदधते) करते अर्थात् शरीरको संयमी व संकुचित रहने वाला बताते हैं (इति) ऐसा ( निश्चित्य ) निश्चय करके ( अनधधिया) निर्मल बुद्धिवान मानवको (विधा) मन, वचन, काय तीनों प्रकारसे (कायोपकारि) शरीरको लाभ देने वाले और आत्माका बुरा करने वाले `पदार्थोंको या भावोंको (विमुच्यते ) छोड़ देना उचित है ।
तत्त्वभावना
भावार्थ - यहाँ पर आचार्यने बताया है कि शरीरका दासपना करोगे तो आत्माका बुरा होगा और जो आत्मा का हित करोगे तो शरीरका दासपना छूटेगा । वास्तवमें जो मानव स्त्री पुत्र धनादि सम्पदाओंमें मोही हो जाते हैं अथवा अपने आत्माके भीतर कर्मके उदयसे पैदा होने वाले रागादि भावोंमें तन्मय रहते हैं वे मोही जीव रातदिन अनादि सामग्री एकत्र करनेमें, रक्षण करने में व विषयभोगों में लगे रहते हैं। वे इन कामों से शरीर का रात-दिन चाकरीपन करते हैं, उसको बड़े आराम से रखते हैं । वे किचित् भी कष्ट सहकर अपने आत्माके हित की तरफ ध्यान नहीं देते, उनसे न जप होता न तप होता न व्रत 'पाले जाते न वे दर्शन पूजा स्वाध्याय करते न वे पात्रोंको दान देवेका कष्ट उठाते न वे सामायिक करते न संयम पालते न शुद्ध भोजन करते, वे हिंसादि पापों को स्वच्छन्द वृत्ति से करते हुए व तीव्र विषयवासना में लिप्त होते हुए ऐसे पापकमौको बांध लेते
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कि जिनसे इस आत्मा को दुर्गतिमें जाकर वोर संकट भुगतना पड़ता और उसको उद्धारका मार्ग मिलना कठिन हो जाता है तथा जो बुद्धिमान इस मानव देहको धर्मसाधनमें लगाते जप, तप, शील, संयम पालते ध्यान स्वाध्याय करते वे अपने आत्मा का सच्चा हित करते उसे सच्चे सुखका भोग कराते, उसी मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं । यद्यपि इसी तरह वर्तन करते हुए शरीरको काबमें रहना पड़ता तब शरीर अवश्य पहले की अपेक्षा कुछ सूखता। इतना ही नहीं ये सब कार्य जो मोक्षमार्ग के साधक है वे वास्तव में शरीर के नाशके ही सपाय हैं । इन साधनोंसे कुछ कालके पीछे शरीरका सम्बन्ध बिलकुल भी न रहेगा और यह शरीर ऐसा छूट जायगा कि फिर इसको यह मात्मा कभी नहीं ग्रहण करेगी। ऐसी व्यवस्था है तब ज्ञानीको यही करना उचित है कि शरीर जो पर पदार्थ है उसके पीछे अपना बुरा न कर डाले। उसे शरीरके मोह में नहीं पड़ना चाहिए और शरीर का सम्बन्धही न मिले ऐसाही उपाय करना चाहिए अर्थात् आत्मा के हित के लिए तप बादि आत्मध्यान को बड़े भाव से करना चाहिए यही आचार्य का भाव है। पूज्यपाद स्वामी ने भी इष्टोपदेश में कहा है :-- सज्जीवस्योपकाराय तदेहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय सोवस्थापकारकम् ॥१६॥ मावार्ष-जो बातें जीवको लाभको हैं उनसे शरीरका बुरा होता है तथा जिनसे देहका भला होता है उनसे जीव का उपकार होता है।
इसमें ज्ञानीकी यही विचारना चाहिए कि कोईका घर नष्ट हो परन्तु घरमें रहने वाला बच जाय तो वह काम करना अच्छा
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तत्त्वभावना
बोधयोगाका सम्बन बाहरी
है कि घर तो बच जाय व रहने वालेका नाशहो जाय यह काम करना अच्छा है ? वास्तवमें घरसे घरवाले का मूल्य बहुत ज्यादा है । घर तो फिर भी बन सकता है 1 र घानामा पर गया तो फिर जोना कठिन है। इसलिए शरीर के मोह में न पड़कर आत्महित हो करना श्रेष्ठ है 1 एकत्वाशोति में श्री पद्मनंदि मुनि कहते हैंबहिविषयसम्बन्धः सर्वः सर्वस्य सर्वदा ।
अतस्तद् भिन्नचैतन्यबोधयोगौतु दुर्लभौ ॥१॥ भावार्थ-बाहरी शरीर आदि पदार्थों का सम्बन्ध तो सर्व जीवोंके सदा ही होता रहता है वह तो सुलभ है। परन्तु बाहरी पदार्थोंसे भिन्न यात्माका ज्ञान व आत्मा का ध्यान कठिनता से मिलते हैं इसलिए इनका अभ्यास हितकारी है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो धन आदि पवार्थ भाव रागी, या वेह को हित करें। सो संसार समुद्र मांहि पटके निजको सदा दुख करें। हितकर्ता तप आदि भाव जियको सो देहको दुख करें। मिर्मलधो इम जान देह हितकर परिणाम बर्छन करें॥४४॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मात्मा की आराधना से ही आत्मा के पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है :
शालिनी छन्द आत्मा ज्ञानी परमममलं ज्ञानमासेव्यमानः । कायोज्ञानी वितरति पुन?रमज्ञानमेव ।। सर्ववेदं जगति विवितं दीयते विद्यमान । कश्चित्त्यामो न हि खकुसुमं चापि कस्यापि वसे ॥४५॥
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तत्त्वभावना
___ अन्वयार्थ--(आत्मा) आत्मा (ज्ञानी) ज्ञान स्वरूप है, (आसेव्यमानः) यदि इसकी सेवा को आवे तो यह (परमम्) उत्कृष्ठ, (अमल) निर्मल (ज्ञावं) ज्ञान को (वितरित) देता है (पुनः) जब कि (कायः) शरीरु (अज्ञानी) ज्ञान रहित हैं (घोरं मंज्ञानं एव) यदि इसकी सेवा की जावे घोर अज्ञान को ही देता है (जगति) इस जगत में (इद) यह बात (सर्वत्र) सर्व स्थानमें (विदित) प्रसिद्ध है कि (विद्धमानं दीयते) जिसके पास जो होता है वही दिया जाता है (कश्चित्) कोई भी (त्यागो) दानी (स्वकुसुमं) आकाश के फल को (क्वापि) कहीं भी (कस्यापि) किसी को भी (नहिंदत्ते) नहीं दे सकता है।
भावार्थ-यहाँपर आचार्य कहते हैं कि पूर्ण ज्ञान और पूर्णानन्दकी प्राप्ति करना चाहे उनको उचित है कि अपने आत्माका ही सेवन करें। क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप व वीतराग आनन्दमयी है । यदि आत्माका ध्यान किया जायगा तो आत्मा को अवश्य ही जो उसके पास गुण हैं वे स्वयं प्राप्त हो जायेंगे। • यदि कोई शरीर को सेवा करे, शरीर के मोह में रहकर उसकी सेवाचाकरीमें लगा रहे, उसके कारण जो राग, द्वेष, मोह होता है उसीको अपना स्वरूप मानता रहे, रातदिन अहंकार ममकार में लोन रहे तो उस अज्ञानी को आत्मीक गुणों को छोड़कर जड़ अचेतन रूप शरीर व कर्मबंध व कर्मोदय रूप रागद्वेष रस इनको सेवा करते रहने से अज्ञानका ही लाभ होगा, कभी भी शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति न होगी । क्योंकि जगत में यह नियम हैं कि जो किसोको सेवा सध्धे भावसे करता है उसको वह वही वस्तु दे सकता है जो उसके पास है। यदि कोई उससे ऐसी वस्तु मांगे जो उसके पास नहीं हैं तो, वह उसे कभी नहीं दे सकता है।
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१२८ ।
तस्वभावना
आकाशका फूल कभी होता नहीं, फूल तो किसो वृक्ष की शाखा में होता है। यदि कोई बड़ा भारी दाता है और उससे कोई याचक यह कहे कि तू मुझे आकाशका फूल दे तो वह कभी उसे हे नहीं सकता क्योंकि सपके पास आकर फूल है ही नहीं। तात्पर्य कहनेका यह है कि शरीर जड़ है इसकी पूजासै जड़-मूखं हो रहोगे। कभी सम्पग्ज्ञानी व केवलशानी नहीं हो सकते किंतु जब निज आत्मा का ध्यान करोगे तो अवश्य सम्यग्ज्ञान व सुख शांति की प्राप्ति होगी। इष्टोपदेश में श्री पूज्यपादस्वामीने भी ऐसा ही कहा है--
अशानोपास्तिरशानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः।
बवाति यस्तु यस्याति सुप्रसिद्धमिदं पयः॥२३॥ मानार्थ अज्ञानकी सेवासे अज्ञान होगा और शानी आत्मा को सेवासे ज्ञान होगा। यह प्रसिद्ध है कि जिसके पास जो है वही दूसरे को उसी में से कुछ दे सकता है। एकत्वाशीति में पद्मनंदि मुनि कहते हैं
अजमेक परं शांतं सर्वोपाधिषिजितम् । मात्मानमात्मना शाला तिष्ठेवात्मनि यःस्विरः ॥१६ स एवामतमार्गस्थः स एवामृतमश्नुते ।
स एवाहन जगम्नायः स एव प्रभुरीश्वरः ॥१६॥ भावार्थ-जो कोई स्थिर होकर आत्माके द्वारा अजन्मा, एक रूप, उत्कृष्ट, योतराग, सर्वरागादि उपाधिरहित अपने आत्माको
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तत्त्वभावना
[१२६,
जानकर अपने आत्मामै तिष्ठता है व आत्मानुभव करता है वही मोक्षमार्ग में चलने वाला है, वही आत्मानंदरूपी अमृत का भोग करता है, वही अहंत वही जगतका स्वामी व वही प्रभु व वही ईश्वर है।
मल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो निज आतम स्वच्छ ज्ञानमयको मजसा परम प्रेम से। पाता निर्मलज्ञान और सुखको लहसा शिर्ष नेम से। जो सेता मिजतन अवेतन महा लहता न ज्ञानं कधी। वाता देवे जो कि पास निज हो नम फूल दे नहि कधी ।४५॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि लोग सुख की तो इच्छा करते हैं परन्तु उपाय उल्टा करते हैं।
कांक्षन्तः सुखमात्मनोऽनवसितं हिंसा परैः कर्मभिः । बुखोद्रेकमपास्तसंगधिषणाः कुर्वन्ति धिक्कामिमः ।। बाधा किम विवर्धयन्ति विविधः कंडयनैः कुष्टिनः । सर्वांगावयबोपमनपरैः खजूंकषाकक्षिणः॥४६॥
अन्वयार्थ-(अनवसितं)निरन्तर (आत्मनः सुखं) अपने को सुख की(काँक्षन्तः)इच्छा करने वाले(अपास्तसंगधिषणा:)विवेक , बद्धि से रहित (कामिनः)कामी पुरुष|धिक )यह बड़े दुःख की बात है कि (हिंसापरैः कर्मभिः) हिंसामई क्रियाओं के द्वारा (दुःखोट्रेक) दुःखों के वेगको (कुर्वति) बढ़ा लेते हैं। जैसे (खर्जूकषाकाक्षिणाः) खुजाने की इच्छा करने वाले (कुष्टिन:) कोढ़ी लोग (विविधैः) नाना प्रकार (कंडूयनैः) खुजाने की वस्तुओं से (सर्वांगावयवोपमर्दनपरः) सारे अंग के भागों को मलने से (किं) किस (बाधां) कष्टको (न विवर्धयंति) नहीं बढ़ा लेते हैं ?
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१३० ]
अर्थात् अवस्य बढ़ा लेते हैं ।
भावार्थ -- यहां पर आचार्यने बताया है कि इन्द्रियोंके भोगों को भोगकर सुख की इच्छा करना मूर्खता है। जैसे कोड़ो लोग जिनको खाज खजाने की इच्छा इसलिए होती है कि आज मिट जावे, सारे अंग को खुजाते हैं इससे उनकी खाज मिटती नहीं उल्टी बढ़ भाती है वैसे इंद्रियों के भोगों से जो तृप्ति चाहते हैं उनके कभी तृप्ति व संतोष नहीं होता है, उल्टी तृष्णाकी ज्वाला और बढ़ जाती है । इन्द्रियोंके भोगों में लिप्त होने से उस जन्म में सुख नहीं मिलता, इतना ही नहीं उससे बागामी जीवन को भी नष्ट करता है क्योंकि इन्द्रिय भोग योग्य पदार्थों की इच्छा करके मह प्रचुर धन प्राप्त करना चाहता है या अनेक विषयोंकी सामप्रोको इकट्ठा करना चाहता है जिससे बहुत अधिक हिंसामई आरम्भ करता है, असत्य बोलता है व कर है । इस कारण ती पापोंको बांध लेता है उस पाप के उदय से परलोक में महान् दुःख की योनियों में पड़ जाता है व वहां भी पाप के उदयसे दुःखी हो जाता है व आपत्ति संकटों में पड़ जाता है । खाज खुजाने वाले को खाज जैसे मिटने के स्थान में बढ़ जातो है तैसे इन्द्रियभोगों को भोगकर तृप्ति चाहने वालों की तृष्णा की आग और अधिक बढ़ जाती है। ऐसा समझकर जो सुख की इच्छा हो तो आत्मोक सुख की खोज करनी चाहिए और उस सुख के लिए अपने आत्मा का ध्यान ही उपाय है इसको ग्रहण करना चाहिए ।
तत्वभावना
यमितगति महाराज ने सुभाषितरत्नसंदोह में कहा है कि सच्चा सुख वीतरागी महात्माओं को ही मिलता है
यदि भवति सौख्यं बोतकामस्पृहाणां ।
न तदमरविमनां नापि चक्रेश्वराणामें ॥
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तत्त्वभावना
[ १३१ इति मनसि निसान्तं प्रोसिमाधाय धर्म।
मजत अहित धंतान् कामसजून्दरमसान् ॥१०॥ भावार्थ--जा सुख इस लोक में उन महात्माकों को होता है जिनके कामभोगों की इच्छा नहीं रही है वह सुख न देवताओं को और न चक्रवर्ती राजाओं को हो सकता है। ऐसा जानकर मनमें गाढ़ प्रीतिको धारण कर धर्म की सेवा कर और कठिनता से छुटने वाले इन भोगों की इच्छारूपी शत्रुओं को त्याग दे।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो चाहें नित सौख्यको परकुयो हिंसामई कृति करें। करते बुद्धि विनाज मोग रत हो ये सुख कभी ना मरें। जो कोढ़ी मिज खाज टालन निमित अंगांग खुजलावता। साता पाता है नहीं वह कुधी बाधा अधिक पावता ॥४६॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं जो अपने मात्माको अपने मात्मामें स्थिर करता है वही अपने आपका मित्र है व जो ऐसा नहीं करता है वह अपने आत्मा का शत्रु हे
व्यापार परिमुच्य सर्वमपरं रत्नत्रयं निर्मलम् । फुर्वाणो मृशमात्मनः सुहृदसावात्मप्रवृत्तोऽन्यथा । बैरो दुःसहजन्मगुप्ति भवने जिप्त्वा सदा पातयस्थालोज्येति स सजन्मचकितः कार्यः स्थिरः कोविवः ।। अन्वयार्थ---जो (सर्व अपरं व्यापारं) सर्व दूसरे व्यापार को (परिमध्य) छोड़ करके (निसंलं)पवित्र (रत्नत्रय) रस्तत्रय धर्मको भृशं कुर्वाण:) भले प्रकार पालने वाला व (आत्मप्रवृत्तः) अपने मात्माका मित्र है ।(अन्यथा)जो ऐसा नहीं करता है वह (वैरी)
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१३२ ]
तत्त्वभावना
अपने आत्माका वैसे है । वह अपने आपको (सदा सदा (दःसहजन्मगुप्तिभवने) न सहने योग्य संसारके भयानक जेलखाने में (क्षिप्तवा) पटक कर (पातयति) अधोगतिमें पहुंचाता रहता है (इति) ऐसा(आलोच्य) विचार करके (जन्मचकितैः) संसार के जन्मसे भय रखने वाले (कोविदः)बुद्धिमानोंको(तत्र) इस संसार में (सः स्थिरः कार्यः) वही स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात् अपने आत्मामें स्थिर होने का उपाय करना चाहिए ।
भावार्थ-यहां आचार्य ने बताया है कि यह आत्मा अपने मात्मा का घातक तथा शत्र है, जो संसार के अनेक व्यापारों में तो उलझता है परन्तु अपने आत्मा के ध्यान को कभी नहीं आचरण करता है क्योंकि वह जीव नाना प्रकार पाप कर्मों को बांधकर अपने आत्मा को नरकनिगोद पशुगति आदि के महान कष्टों में डाल देता है। फिर उसको संसार में सुखी होने का मार्ग कठिनता से मिलता है और वह मोक्षमार्ग से दूर होता जाता है परन्तु जो कोई बुद्धिमान और सब शरीर सम्बन्धी व्यापारों को त्यागकर निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को भले प्रकार पालता हुआ अपने आत्मा के ध्यान में लयता पाता है वह अपने आत्मा का मित्र है। क्योंकि ध्यान के बल से वह कमों का नाश करता है आत्मा में सुख-शांति तथा बल को बढ़ाता है और मोक्ष मार्ग को तय करता जाता है, ऐसा जानकर जो कुछ भी बुद्धि रखते हैं उनका कर्तव्य है कि रागद्वेष भूलकर सर्व ही व्यापारों को छोड़कर ऐसा उपाय करें जिससे अपने आत्मा में स्थिरता पाये और फिर मुक्त हो जाये।
बुद्धिमानों को आत्मघाती होना बड़ा भारी पाप है। जो अपने आत्माको रक्षा करता है वही सच्चा आत्मा का मित्र है।
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तत्त्वभावना
सुभाषितरत्नसंदोह में स्वामी अमितगतिजी कहते हैंयश्चित्तं करोषि स्मरशरनिहतः कामिनीसंग सौख्यं । तवत्त्वं चेम्जिनेन्द्रप्रणिगदितमते मुक्तिमार्ने विवध्याः। कि कि सौख्यं न यासि प्रगतनवजरामृत्युःखप्रपंच। संचिन्त्येवं विधिस्त्वं स्थिरपरमधिया तन वित्तस्थिरत्वम् ।४०६
भावार्थ-जिस प्रकार तू कामदेव के वाणसे वींधा हुआ स्त्री भोग के सूख में अपना मन लगाता है उसी तरह यदि तू श्री जिनेन्द्र भगवान से कहे हुए मोक्ष के मार्ग में चित्त को जोड़ देतो तू जन्म जरा मरण के दुःखोंके प्रपंच से रहित क्या-क्या सुख को न प्राप्त करे ? ऐसा विचारकर अपनी बुद्धि को उत्तमपने स्थिर करके उसो धर्म में स्थिरता रखनी चाहिए।
मूल इलोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो सजके व्यापार अन्य जगके रत्नत्रयं निमलं ! सेवे धावं आत्मको रचि धरै सो मित्र आतमपरं ।। जो राचे संतार दुःख पार्वे हैं आत्म बैरी सदा । बुधजन भवभयधार कार्य निजमें थिरता धरें सर्वदा ॥४७॥
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि मढ़ पुरुष धनादि में मग्न होकर मरणादि संकटों का विचार नहीं करता है।
मदः संपदधिष्ठितो न विपदं संपत्तिविध्वंसिनी।
दुर्वारा जनमर्दनोमुपयतोमात्मात्मनः पश्यति ।। ... वृक्षव्याघ्रतरापानगव्याधादिभिः सकुलं ।। ___कक्ष वृक्षगतो हुताशनशिखा प्रप्लोषयन्तोमिन ॥४॥ .. अन्धयार्थ- (मढ़ः) मुर्ख (आत्मा) जीव (संपदधिष्ठितः) जो संपत्तिको रखने वाला है सो (आत्मनः)अपने ऊपर (जनमदनी)
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१३४ ]
तत्त्वभावना
मानवों को नाश करने वाली (संपत्तिविध्वंसिनी) तथा लक्ष्मी आदि का वियोग करने वाली (दुरा) कठिनता से निवारने योग्य (विपदं) विपदाको (उपयतीं) आते हुए (न पश्यति) नहीं देखता है जैसा(वृक्षगतः)वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ कोई मानव या पक्षी (वृक्षव्याघ्रतरपनगमगव्याधादिभिः) वृक्ष, बाघ, तरस, सर्प, मृग व शिकारी आदि से (संकुलं) भरे हुए (कक्ष) बन को (प्रप्लोषयन्ती )जलाने वाली (हुताशनशिखां) अग्नि की सिखाके (इव) समान नहीं देखता है। अर्थात जैसे वह मानव आग जलती तो देखता है परन्तु उठके भागता नहीं है ऐसा यह धनोन्मत्त पुरुष है।
भावार्थ- यहाँ पर आचार्य ने बताया है कि यह संसार रूपी वन महा भयानक है जिसमें मरण की आग जल रही है जो इस वनमें रहते हैं वे मरते रहते हैं । जब प्राणोको मरण आ जाता है उस समय सर्व संपत्ति धन दौलत स्त्री पुत्र मकान राज्य आदि छोड़ जाना पड़ता है। इस मरण की भापत्तिको कोई टाल नहीं सकता है । अज्ञानी लोग यह देखा करते हैं कि आज यह मरा कल वह भरा था, आज यह सब छोड़के चल दिया कल वह छोड़ के गया था । संसार में मरण किसोको छोड़ता नहीं, न बालकको न वृद्ध को न बुद्धिशाली को न मुर्ख को न राजा को न रंकको न इन्द्रको न धणेन्द्रको न चक्रवर्तीको ग तीर्थंकरको, तो भी लोग अपना ध्यान नहीं करते । जो मूर्स धनके मदमें उन्मत है, संपदा में लिप्त है वह ऐसा अन्धा हो जाता है कि विषय भोगों को भोगता ही रहता है और मरण पाने वाला है इस बातको अपने लिए नहीं विधारता है, वह मूर्ख अज्ञानसे मरकर संसारमें कष्ट पाता है। यहां पर आचार्यमै उस मुखें मानव या पनीका दृष्टांत दिमा है जो किसी भयानक वनक भीतर एक पक्ष पर कछारमा
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हो और उस वन में आग लग रही हो तथा भागसे जल जावे इस भयसे शेर, हिरण, सर्प आदि पशु भागे जा रहे हैं. अग्नि बढ़ते २ उस वृक्ष पर भी आने वाली है जिस पर वह बैठा है तथापि वह ऐसा बेखबर है कि लागको बढ़ती हुई देखकर आप उससे बचने का प्रयत्न नहीं करता है, भागता नहीं है । यही दशा अज्ञानी और मिथ्यादृष्टी जीव की है, तात्पर्य कहने का यह है कि संसार में परपदार्थ सम्बन्धको क्षणभंगुर जानकर व शरीरको कालके सुख में बैठा हुआ मानकर हमको सदा ही अपने आत्मोद्धार के प्रयत्नों में दत्तचित्त रहना चाहिए। श्री शुभचन्द्र आचार्य ने शानार्णव में कहा है
शरीरं शीर्मते नाशा गलत्यायुर्न पापधीः ।
मोहः स्फुरति नः श्रान् ।।२३। मानार्थ - शरीर तो गलता जाता है परन्तु आशा नहीं गलती है, आयु तो कम होती जाती है परन्तु पाप की बुद्धी नहीं जाती है मोह तो बढ़ता जाता है परन्तु आत्मा का हित नहीं होता है । शरीरधारी प्राणियों का चरित्र देखो कैसा आश्चर्यकारी है । यह मोह का महात्म्य है जिससे अपने नावाको सामने देखकर भी बावला हो रहा है।
तखभावना
भूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
मूरख संपत् लीन होय रहता भावी नहीं देखता ।
अग्मी लगी ।
घन नाशक मरणावि संकट बड़े आते नहीं पेला || बुक्षावी मृग बाघ नागपूरित बनमाहिं बैठा बुक देखता वन जले नहं बुद्धि मागन लगी ॥४७ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि परमात्मा पद की प्राप्ति नात्मवान से ही होती है
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तस्वभावना
आत्मात्माममशेषबाझविकलं ज्यालोकयमात्मना। दुष्प्रापां परमात्मतामनुपमामापवते निश्चितम् ।। आत्मानं घनरूढकोषकचयः किं घर्षयन्नात्मना । वन्हिस्वं प्रतिपद्यते न तरसा दारतेजोमयम् !!!
अन्वयार्थ -(आत्मा) आत्मा (आत्मानम्) अपने आत्माको (नशेषबाह्मविकलं) सर्व बाहरी पदार्थों से भिन्न(आत्मना)अपने आत्मा के द्वारा (व्यालोकयन्)अनुभव करता हुआ(निश्चितम्) निश्चय से (दुष्प्रापां) कठिनता से प्राप्त होने योग्य (अनुपमां). तथा उपमा रहित (परमात्मता) परमात्मा पद को (आपद्यते) प्राप्त कर लेता है (किं) क्या (धनरूढ़कोचकचय:) गाढ़ इटा हुआ बांसके वृक्षका समूह आत्मना)अपने में (आत्मानं) आपको (घर्षयन्) घिसते-२ (तरसा) शीघ्र ही (दुरितेजोमयं) न बुझाने योग्य तेजस्वी (वह्नित्व) अग्निपने को (न प्रतिपद्यते) नहीं प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ:-आचार्य कहते हैं कि आत्माको वार्मोके मेल से छुड़ाने का व इसके गुणों को प्रकाश कर इस परमात्मा पद में पहुंचाने का उपाय इस आत्माके पास ही है । यदि यह आत्मा सर्व पुद्गलादि द्रव्यों से सर्व कर्म बन्धनों से, सर्व रागादि भावों से भिन्न मैं शद्ध ज्ञाता दुष्टा आनन्दमयी. अविनाशी अमर्तीक एक द्रव्य ई ऐसा निश्चय करके अपने आपको अपने आप ही से विचार करे, विचारते-२ उसोमें लय हो आत्मानुभव करें तो अवश्य उसके कर्म वन्ध कट जावें और यह शुद्ध परमात्मा हो जावें । इसपर दृष्टांत देते हैं कि जसे वनमें बौसके वृक्ष के समूह स्वयं रगड़ते-२ अग्नि में बदल जाते हैं और ऐसो प्रचंडता को धारण करते हैं कि फिर कोई भी उसको बुझा नहीं सकता है।
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तस्वभावना
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इसलिए जो अपना आत्मकल्याण चाहते हैं उन्हें अपने आत्मा का ध्यान ही करना उचित है।
श्री पद्मनंदि मुनि सोधचन्द्रोदयमें कहते हैंबोधरूपमखिलरुपाधिभिः जितं किमपियत्तव नः । नाम्यवस्पमपि तत्त्वमीदृशम् मोक्षहेतुरितियोगनिश्चयः॥२५
हमारा आत्मतत्व ज्ञानरूप है, सर्व रागादि की उपाधि से रहित है। इसके सिवाय और कोई भी जरासा भो हमारा तत्व नहीं है। ऐसा जो ध्यान का निश्चय है वही मोक्ष का मार्ग है । असल में बात यही है कि मोक्ष अपना ही शुद्ध चैतन्यरूप है, जहां अपने आप को सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव किया वहीं मोक्ष का आनन्द आने लगता है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो आतम निज आत्म आप ध्याये परमाको दालता। सो निश्चय दुर्लभ अनुपम परम शुद्धारमा पावता॥ बनमें बांस समूह आप आपो घर्षण करें आपको। शटसे दुर्धर तेज धार अग्नी होवे करे तापको 1॥४६॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो शरीरके कार्य में मोही है वह आत्मकार्य नहीं कर सकता।
व्यासक्तो निजफायकार्यकरणे यः सर्वक्षा जायते । महात्मा स कदाचनापि कुरुते नात्मीयकार्योयमं ।। . दुरिण नरेश्वरेण महति स्वार्थे हटायोजिते। भोतारमा न कथंचनापि.तनुते कार्य स्वकोयं जनः ॥५०
अन्वयार्थ- (य:) जो कोई (सर्वदा) सदा निजकायकायंकरणे) अपने शरीर के कार्य के करने में (व्यासक्तः) लया हुआ (जायते) रहता है (स:) वह (मूढ़ात्मा)मूढ़ बुद्धि (कदाचनापि)
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१३८ ]
तस्वभावना
कभी भी (यात्मीयकार्योद्यम) अपने आत्माके कार्य का उद्यम (न कुरुते) नहीं करता है। (भीसात्मा जनः) भयभीत कायम जन (दुर्वारेण नरेश्वरेण) जिसकी आज्ञा उलंघन करना कठिन है ऐसे राजा द्वारा (हठात्) बलात्कारसे (महति स्वा) किसी महान अपने कार्य में (योजिसे) लगा दिये जाने पर (स्वकीयकार्य) अपने स्वयं के कार्यको (कथंचनापि) कुछ भी (न) नहीं (तनुते) करता है।
भावार्य-यहां पर सादाय बताते हैं कि जैसे को पूर्ख प्राणी किसी राजा के यहां नौकर हो वह राजा उसको किसी कामको पूरा करने की आज्ञा देवे । वह मूर्ख राजासे परता हा दिन-रात राजाके ही काममें लगा रहे, अपना निजका काम करने को समय हो न बचावे तब वह जगतमें मूर्खहो कहलाएगा क्योंकि उसने अपने हितका काम करने के लिए कुछ भी समय नहीं निकाला । इसी तरह जो मूर्ख शरीर में मति आशक्ति रखता हुआ इन्द्रियों का दास हो जाता है। यह निरंतर शरीर को पोषा करता है, आराम दिया करता है, शरीर के लिए धन कमाया करता है, रात-दिन शरीरको आराम देने में लग जाता है वह अपने यात्मीक हितको बिलकुल भूल जाता है। बुद्धिमान प्राणीको शरीरके मोहमें इतमा न पहना चाहिए कि वह अपनी मआत्मोक उप्पति को भूल जावे। यदि वह गृहस्थ है वह धन फमावे, इन्द्रियों को न्यायपूर्वक भोगों में लगाये परन्तु अपने आत्माके कल्याणके लिए धात्म-धर्म को अवश्य सेगम करता रहे। किसी भी दशा में अपने सम्चे धर्मको भूल जाना बड़ी भारी नादानी है। हरएक गृहस्थी को भी सामायिक व प्यान का बभ्यास करना चाहिए लिस्य कर्ममें सावधान रहना चाहिए।
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जत्नभावना
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धर्मका विस्मरण किसीभो समय न करना चाहिए। श्रीपधनंदि मुनि धर्मोपदेशामृतमें कहते हैं
विहायच्यामोहं धमसदनतन्वादिविषये। कुष्ठर तणं किमपि निजकार्य वतधा भयेनेदं जन्म प्रभवति सनत्वाविघटना। पुनः स्याम्नस्यादा किमपरवषोऽवगतः ।।५।।
भावार्थ-हे बुद्धिमानो । धन, गृह, शरीरादि के सम्बन्ध में ममताको छोड़कर शीघ्र ही अपने भात्महितके कार्य को करो जिससे यह संसार न बढ़ने पावे क्योंकि फिरसे यह उत्तम मनुष्य जन्म आदि की प्राप्ति हो वा न हो पर्ष की बातों के बनाने से क्या लाभ होगा।
प्रयोजन यह है कि कैसी भी अवस्थामें हो, धर्म साधन को सदा ध्यानमें रखना चाहिए ।
___ मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडति छन्द जो निज देह मयी कुभोग रत हो निज वेहको पालता । सो म्रख निज आस्मकार्य हित को कुछ भी नहीं साधता ।। जो बाकर भयभीत हो नित रहे निज स्वामि कारज करे। सो निज हितको मुलनास सहसा निज जन्म पूरा करे ४०
उस्थानिका--आगे कहते हैं कि धनादि पदाथों में लीनता मोक्ष के साधनों में बाधक है--
लक्ष्मीकोतिफलाकलापललनासोभाग्यमाग्योबास्त्वषी समारह सकला तासि |
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तस्वभावना
जन्मांमधिकिमज्जिकर्मजनकः कि साध्यते कांक्षितं । यत्कृत्वा परिमुध्यते न सुधियस्तवावरं कुर्वते ॥५१॥
पार्थ - ( इह ) इस संसार में (लक्ष्मीकीतिकला कलापसलनासौभाग्यभाग्योदयाः) धन, यश, कलाओं का समूह, स्त्री, सौभाग्य, भाग्य का उदय आदि ( एते सकलाः ) ये सब पदार्थ (आत्मना ) आत्मा द्वारा ( स्फुटं त्यज्यन्ते ) प्रत्यक्ष छोड़ दिये जाते हैं ( अजितैः) इन पदार्थों को उत्पन्न करने से (जन्मांभोधि:निमज्जिकर्मजनकैः ) संसार समुद्र में ड़वाने वाले कमौका बंध होता है इसलिए इन पदार्थों से (सतां ) सज्जन पुरुषों का ( कि ) क्या (कांक्षित) चाहा हआ मोक्ष पुरुषार्थं ( साध्यते ) साधन किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं साधन होता है । (यत्कृत्वा परिमुध्यते) जिस वस्तु व कामको पैदा करके फिर छोड़ना पड़े ( तत्र ) उस काम में या पदार्थ में (सुधियः) बुद्धिमान लोग (आदर्श) आदर ( न कुर्वते) नहीं करते हैं ।
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भावार्थ - यहाँ पर आचार्यने बताया है कि लक्ष्मी, धन, पुत्र, राज्यपाट, संसारिक यश, कला, चतुराई, स्त्री आदि सर्व पदार्थ मात्र इस देह के साथ हैं। आत्माका और इनका साथ कभी नहीं हो सकता है। एक दिन आत्माको छोड़ना ही पड़ता है। फिर इनके पैदा करने में इकट्ठा करने में, प्रबंध करनेमें, बहुत राग-द्वेष मोह व बहुत पाप का संचय करना पडता है उस पापसे इस आत्माको संसार समुद्र में बना पड़ता है, दुर्गंतिके अनेक कष्टों को सहना पड़ता है तथा जो बुद्धिमानों के लिए इष्ट है अर्थात् मोक्ष व स्वाधीन बास्मोक सुख है वह और दूर होता चला जाता है। इन स्त्री पुत्र धनादि के भीतर मोह करने से आत्मध्यान व वैराग्य नहीं प्राप्त होता जो मोक्षका साधक है।
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प्रयोजन कहने का यह है कि धनादि पदार्थों का मोह करना बया है, इनको संचय करना भी वृधा है क्योंकि एक तो ये कभी आत्माके साथ-२ जाते नहीं स्वयं छूट जाते हैं, दूसरे इनके मोह में आत्माका उद्धार नहीं होता है, आत्मा पवित्र नहीं हो सकता है। इसलिए ज्ञानी को इसमें राग हो न करना चाहिए। इसको उत्पन्न करने का भी मोह छोड़ देना चाहिए और आत्मकार्य में लगा देना चाहिए। जिस वस्तुको बड़े परिश्रम से कष्ट सह करके एकत्र किया जावे और उसे फिर छोड़ना ही पड़े उस वस्तु की प्राप्ति के लिए बुद्धिमान लोग कभी भी चाह नहीं करते हैं। इसलिए हमको धनादि की चाह को छोड़कर स्वहित ही कर्तव्य है । ऐसा हो भाव श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश के भीतर. बताया है
तत्स्वभावता
त्यागाय श्रेयसे वितमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं सवंकेन स्नास्यामिति बिलंपति ।। १६ ।। आरंसे
तापकान्प्राप्तवतुप्तिप्रतिपादकान् ।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधी || १७॥ भावार्थ -- कोई निर्धन मनुष्य यह विचार करता है कि धन कमाकर दान करूंगा इसलिए धन को इकट्टा करूं वह ऐसा ही
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मूर्ख हैं जो यह विचारे कि मैं अपने शरीरको कीचड़से लिप्तकर फिर स्नान कर लूंगा इसलिए कीचड़ से लीपने लगे । जिस पाप को छुड़ाना ही पड़े उस पाप को लगाना ही अच्छा नहीं है । यदि धन कमाने से पाप संचय होता है तो जो मुक्ति चाहता है उसे इस जंजाल में नहीं पड़ना चाहिए। ये इंद्रियोंके भोग आरंभ में संताप करने वाले हैं। अर्थात् इनके प्राप्त करने के लिए
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बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं और जब ये मिल जाते हैं तब इनके भोगों से तृप्ति कभी नहीं होती है फिर ये इतना मोह बढ़ा देते हैं कि इनका छूटना कष्टप्रद हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान मानव इन भोगोंकी इच्छा नहीं करता है । यदि गृहस्थ में पुण्योदयसे मिल जाते हैं तो उनमें आसक्त नहीं होता है। उनसे मोह करके अपने आत्मकार्य को नहीं मुलाता है ।
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तस्वभावना
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
लक्ष्मीकोर्तिकला समूह ललमा सौभाग्य आदिक सभी । 'छुट जाते इस जीव से इक दिन अब बेधकारी सभी । भवदधि ड्रअम हेतु मुक्तिपथ रिपु नहिं चाह धाऐं सुधी । जो हो तजने योग्य लाभ उसका करते नहीं जो सुधो ॥ ५१ ॥ उत्पानिका -- आगे कहते हैं कि बुद्धिमान लोग कभी भी अनर्थ कार्य नहीं करते हैं-
हेयाम विचारनास्ति न वतो न भेयसामाममो । न यं न कर्मपर्वत भिवा नाप्यात्मतत्वस्थितिः ॥ तत्कार्यं न वाचनापि सुधियः स्वार्थोद्यताः कुर्वते । शीलं जातु ननुत्सवो न शिखिनं विधापयंते बुधाः ॥१५२ ।। अन्वयार्थ -- ( यतः ) जिस कार्यके करने से (हेयादेय विचारणा न अस्ति ) ग्रहण करने योग्य व त्याग करने योग्य क्या है ऐसा विचार नहीं पैदा होवे ( न श्रेयसामागम : ) न मोक्ष आदि जो कल्याणकारक है उसका लाभ होवे ( न वैराग्यं ) न संसार देह भोगों से वैराग्य पैदा होवे (न कर्मपर्वतभिदा ) न कर्मरूनी पर्वतों का चूरा किया जासके ( नापि आत्मतत्व स्थितिः ) और न आत्मीक तत्व में स्थिति हो अर्थात् आत्मध्यान हो (तत्कार्यं ) उस कार्यको ( स्वार्थोद्यताः) अपने आत्मा के प्रयोजन में उद्यमो ( सुधियः ) बुद्धि
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मान लोग ( कदाचनापि ) कभी भी नहीं (कुर्वते ) करते हैं जैसे (शीतं नुनुत्सवः ) शीतको दूर करने की इजा करते वाले (सा) बुद्धिमान लोग (जातु ) कभी भी (शिखिनं ) अग्निको (न विध्या पते) नहीं बुझाते हैं ।
तस्वभावका
भावामं - यहां पर माचार्य ने बताया है कि बुद्धिमान मानव वे ही हैं जो विचार के साथ इस संसार में काम करते हैं, हरएक मानव को अपना लक्ष्यविन्दु बना लेना चाहिए और जो लक्ष्य हो उसीके साधन की जो क्रियायें हों उनको मन वचन काय से करना चाहिए। जिसको शीत लग रही है और वह शीत से बचना चाहते हैं तो वह अग्नि को कभी नहीं बुझावेगा क्योंकि अग्नि उसके हित में साधक है। इसी तरह जो बुद्धिमान लोग अपने आत्माको उन्नति करना चाहते हैं वे ऐसे हो साधनों को करेंगे जिनसे तत्वों का जान होकर यह विवेक हो जाने कि क्या तो त्यागने योग्य हैं व क्या ग्रहण करने योग्य है तथा जिस चारित्र से मोक्षका लाभ होगा उसी चारित्र को पालेंगे व जिस तरह मन में संसार देह भोगों से वैराग्य रहे वह उद्यम करेंगे जिस ध्यान से कर्म पर्वतों का चूरा हो वैसाही ध्यान करेंगे, जिस तरह आत्मा का अनुभव हो जाये ऐसा लप साधेंगे। कभी भी ऐसे प्रपंचोंमें न फसेंगे कि जिनमें फसने से तत्वज्ञान न हो, वैराग्य म हो, कर्मका नाश न हो व मोक्ष की प्राप्ति न हो।
पुत्र,
प्रयोजन कहने का यह है कि मानवोंको स्त्री' मित्रादि धन परिग्रह में ममता बुद्धि रखकर अपना अहित न करना चाहिए सर्व पर पदार्थोंको अपने से भिन्न जानकर उनसे मोह निवारण कर आत्महितके लिए स्वाध्याय ध्यान सत्संगति आदि में लगे रहना चाहिए। गृहस्थ में रहे तो जल में कमल के समान भिन्न
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रहे । यदि साधु हो तो रात दिन वैराग्य में भीजा रहकर ध्यान की शक्ति बढ़ाये । गृहस्थ में कभी भी ऐसे मिथ्यात्व अज्ञान, अन्याय आदि के कार्य न करे जिनसे विषयों में अन्धा होकर इस नरजन्म के अमूल्य समयको यों ही खो दे और पीछे पछताना पड़े । मानवजन्म का समय बड़ा ही अमूल्य है । जो आत्महित में दक्ष हैं वे हो सच्चे धर्मात्मा गृहस्थ व साधु हैं
सत्त्यभावना
श्री पद्मनंदि मुनिने धर्मोपदेशामृत में कहा है कि आत्मध्यान करना ही श्रेष्ठ है ।
आत्मामूर्तिविवजितोपि वपुवि स्थित्वापि दुर्लक्षतां । प्राप्तोपि स्फुरति स्फटं यदहमित्युल्लेखत: संततं ॥ तरिक मुह्यत शासनावपिगुरोर्भ्रान्तिः समुत्सृज्यतामंतः पश्यत निश्चयेन ममसा तं तन्मुखाक्षत्रजाः ||६५ ||
भावार्थ- आत्मा अमूर्तीक है तो भी शरीर में मौजूद है, यद्यपि दिखाई नहीं पड़ता है तथापि 'में' इस शब्द से निरन्तर प्रगट है तब क्यों तुम मोहित होते हो, गुरु के उपदेश से भ्रम को छोड़ो और मन के द्वारा निश्चय करके उसी आत्मा की तरफ अपने इन्द्रियसमूह को तन्मयी करके उसी का ही अनुभव करो !
वास्तव में आत्मध्यान ही आत्माके कल्याण का भाग है इस लिए उसीका ही यत्न करना एक बुद्धिमान प्राणी के लिए हितकारी है ।
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सस्वभावना
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मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो बुध मातम काय उद्यममती सो कार्य करते नहीं।' जासे कुत्य अकृत्य बोध नहि हो मिज मोक्ष होषे नहीं। नहि होये वैराग्य कर्म क्षय ना ध्यानात्म हो नहीं। ओजन बाधा शीत दालनमती सो अग्नि शमता नहीं ॥५२
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ध्याता मानक को उचित है कि क्रोधादि भावों को दूर रखें।
डामक्रोधविषावमत्सरमवद्वेषप्रमावादिभिः। . शुद्धध्यानविद्धिकारिमनसः स्यैर्य यतः क्षिप्यते। काठिन्यं परितापवानबरहमनो हुताशेरिक। स्माज्या ध्यान विधायिपिस्तत इमे कामावयों दूरतः ॥५३॥ .
अन्वयार्ष-(यत:) पयोंकि कामक्रोधावपादमत्सरमवद्वयप्रमादादिभिः) कामभाव, क्रोधभाव, शोक, ईर्षा, गर्व, द्वेष व प्रमाव आदि अशुद्ध भावों के द्वारा(शुद्धध्यानदिवद्धिकारिमनसा) शुद्ध ज्यानको बढ़ाने वाले मन की(स्थर्य)स्थिरता(परितापदानचतुर हुताशेः हेम्नः काठिन्यं इव) तीव्र गर्म करने वाली अग्नि के द्वारा सुवर्ण की कठिनता के समान (क्षिप्यते नष्ट हो जाती है (ततः)इसलिए(ध्यानविधायिभिः)ध्यान करने वालों के द्वारा (इमे कामादयः) ये काम क्रोधादि भाव (दूरतः) दूर से ही (त्याज्या:) छोड़ने योग्य है। . . . . : भाषा--जैसे सोना कठिन होता है परन्तु यदि उसको अग्नि की ज्वालाओं का ताप लग जाये तो पतला होकर बहने योग्य हो जाता है, सोने की कठिनता नष्ट हो जाती है, इसी तरह जो मानव आत्मध्यान करता चाहते हैं और वीतरागभावों को मन में बढ़ाना चाहते हैं उनके मन की घिरता, काम, क्रोध,
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तस्वभावना
मान, माया, लोभ, भय, प्रमाद आदि भावोंके आक्रमण से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए जो ध्यानका अभ्यास करना चाहें उनको इन भावोंसे दूर रहना चाहिए तथा उन निमित्तोंसे बचना चाहिए जिनके द्वारा मन, धाम क्रोधादि भावोंमें फंस जावे। इसीलिए उनको आरम्भ परिग्रह काम करना पाहिए। हशा के प्रपंचजालों से अलग रहना चाहिए । लौकिकजनों की संगति से बचना चाहिए । स्त्रियों के संसर्ग से दूर रहना चाहिए । वनों में व एकांत स्थानों में बैठना, मास्त्र स्वाध्याय करना व ध्यान करना चाहिए, अल्पाहारी होना चाहिए । मिष्ट हितकारी वचन बोलने चाहिए । स्वाध्याय व ज्ञान के विचार में नित्य बनरक्त होना चाहिए । जिन-जिन कारयों से मनमें चंचलता हो जाये व कमायका अंग उठ जाये उन सब निमित्तों से परे रहकर व बिलकुल मन को निश्चित करके आत्मध्यान का कन्यास करना चाहिए।
श्री शुभद्राचार्य ज्ञानार्णध में कहते हैं कि कोतरागी को हो बामध्यान की सिद्धि होती है
रागादिपंकविलेषारप्रसम्मै चित्तवारिलि। परिस्फरति निःशेषं मुनेस्तुकबम्बकम् ॥१७॥ स कोपि परमानम्बो धोतरागस्य जायते।
येन लोकनयश्वर्यमप्यचिन्त्यं तपाय ॥१८| भावार्थ-रागद्वेषादि कोचड़ के हट जाने से मुनि के निर्मल मनरूपी जलमें सम्पूर्ण वस्तु का सर्वस्व प्रकट होता है अर्थात् मात्मा का ध्यान प्रकाशमान होता है। बोसरागी को हो ऐसा कोई परमानंद प्राप्त होता है जिसके सामने तीन लोक का भी अनित्य ऐश्वयं तृण के समान मालूम होता है।
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तत्त्वभावना
मूल श्लोकानुसार शार्बल विक्रीडित छन्द काम क्रोध विषाद मोह मद से द्वेष प्रमादावि से । जो मन निर्मल ध्यान बीध रत हो थिरता न होवे तिसे ॥ जैसे सुबरण अग्नि ताप वश हो काठिभ्य तज देत है। इस लख ध्यानी काम आदि सबको अति दूर कर देता है । ५३ उस्थानिका -- आगे कहते हैं कि ध्यानीजन मुक्तिके लिए हो ध्यान करते हैं
यादृश्येन्द्रियगोचरोरुगहने लोलं धरिष्णुं चिरं । दुर्वारं हृदमोदरे स्थिरतरं कृत्वा मन मर्कटम् ॥ ध्यानं ध्यायति मुक्तये भवतले निर्मुक्तभोगस्पृहो । नोपायेन विना कृता हि विधयः सिद्धि लभते भुवं ॥ ५४॥
अन्वयार्थ - (निर्मुक्तभोगस्पृहः ) जिस महात्मा ने भोगों की इच्छाको त्याग दिया है वही ( दुर्वार) इस कठिनता से वश में आने योग्य (लोसं ) लोलुपी या चंचल ( मनोमर्केटम् ) मन रूपी बन्दर को (इन्द्रियगोचरोरुगहने) जो पांचों इन्द्रियों के भोगरूपी महान वन में (चिरं ) अनादिकाल से (वरिष्णु) कीड़ा कर रहा है ( ध्यावरय) वहां से हटाकर (हृदयोदरे) हृदय के भीतर (स्थिरतरं कृत्वा) पूर्ण स्थिर करके (अवत: मुक्तये ) संसार के फैलाव से छूट जाने के लिए (ध्यानं ध्यायति) ध्यान का अभ्यास करता है । (हि) यह निश्चय है कि ( उपाये बिना ) उपाय के बिना ( विधयः कृताः ) जो रीतियां की जायें तो वे (ध्रुवम् ) खातरी से ( सिद्धि) सफलता को ( न लभते ) नहीं पाती हैं ।
भावार्थ- संसार बाठ कर्मों के बंधन से ही चल रहा है, इस लिए इन कमका नाश होना ही संसारका नारा है और मोक्षका
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सस्वभावना
लाभ है । कर्मीका नाश बोतराम भाव से होता है क्योंकि उनका बन्धन रागद्वेषादि भावों से हुआ करता है। वीतराग भावों की प्राप्ति तब ही होती है जब आत्मा का ध्यान किया जाता है। आत्मा का ध्यान उसी समय होता है जब मनरूपी बन्दर को वैराग्यके खूटेसे बाँध दिया जावे । यह मन अनादिकाल से पांचों इन्द्रियों के भोगों की इच्छामें उलझा हुआ रहता है और महा चंचल तथा लोलुपी हो रहा है । इस मन को बारह भावना के चिन्तवन से इन्द्रियों की तरफ से हटाकर स्थिर किया जाता है सब ही ध्यान हो सकता है । इसलिए
कह रहे उचित है कि सम्याज्ञान व वैराग्य के द्वारा मनकी दशा को ठीक करे। पुरुषार्थ के बिना किसी भी कार्यको सिद्धी नहीं हो सकती है। लौकिक कार्य के लिए जैसा दीर्घदर्शीपने के साय विचार करके परिश्रम करने की जरूरत है ऐसे ही पारमाथिक कार्यों के लिए विचारपूर्वक परिश्रम करने की जरूरत है। मनके मारने से ही कार्य को सिद्धी हो सकती है। .
सुभाषिस रत्नसंदोह में स्वयं अमितगति महाराज कहते हैं-. मो शक्य यन्निषेधु त्रिभुवनभवनप्रांगणे वर्तमान : सर्वे नश्यन्ति दोषा भवमयजसका राधतो यस्य पुंसाम् ॥ जीवाजीवावितत्यप्रकट निपुणेः जनवाक्य निवेश्य । .. तस्वे चेतो विवध्याः स्वपशंखप्रदं स्वं तदा त्वं प्रयासि।४०६
भावार्थ-जो तीन लोक के बीच में मारा-मारा फिरता है उस मन का रोकना बड़ा कठिन है तथापि इसके रुक जाने से मनुष्यों के सर्व ही संसार में भयको देने बाले दोष नष्ट हो जाते' हैं। इसलिए तुम मन को जीव अजीव आदि तत्वोंके प्रगट करने में निपुण ऐसे जैन वचन में लगाकर तत्व के विचार में इसे जमा
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तरबभावना
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दो तमसुम आरमीक सुखको देनेवाले अपने आत्मा के स्वभाव को प्राप्त कर लेवे।
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मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो इन्द्रिय बन गहन मध्य रमता घिरफाल लोलुपमहा । चूर्जन मन कपि थाभ आप वशकर फर ध्यान आतम महा ।। इच्छा सजकर मोग होय निस्पह भषजाल काटो महा । विन पुरुषार्य प्रधान काज कोई नहि सिद्ध होता महा ॥५४॥॥
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि योगी को एक आत्मतत्वका हो ध्यान करना चाहिए
चंद्राग्रहतारकासमतयो यस्य व्यापायेऽखिलाः । जायते भुवनप्रकाशकुशला वांवप्रतानोपमाः ।। यविज्ञानमयप्रकाशविशवं यध्यायते योगिमिः।
तत्तत्वं परिचितनीयममलं बेहस्थितं 'निश्चलं ॥५५॥ - अम्बयार्थ-(यस्थ) जिस तत्वके (व्यपाये) अभाव में भवनप्रकाशकुशलाः) लोक को प्रकाश करने में कुशल ऐसे (अखिलाः) सर्व (चंद्रार्कग्रंडतारकाप्रमतयः) चंद्रमा, सूर्य, ग्रह तारे आदिक (ध्यांतप्रतानोपमाः)अंधेरे के समूह के समान(जायते)हो जाते हैं (यतविज्ञानमयप्रकाशविशद)जो ज्ञानमई प्रकाशको बहुत निर्मल रखने वाला है व (यत् योगिभिः ध्यायते) जो योगियों के द्वारा याया जाता है (नत्) उस (अमल) निर्मल (निश्चलं) व निश्चल (तत्व) आत्मतत्व को (देहस्थित) अपने ही शरीर में विराजमान (परिचिंतनो घम् ) ध्याना चाहिए। . भावार्ष-यहाँ पर आचार्य ने आत्मा की तरफ ध्यान खिंचाया है। वह आत्मा जिसका ज्ञान हमको प्राप्त करना
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दिमनः
चाहिए और ज्ञान प्राप्त करके जिसको हमें ध्याना चाहिए यह मातमराम कहीं दूर नहीं है आपही हैं अपने शरीरभरमें संपूर्णपमें व्यापक या फैला हुआ है । जैसे घड़े में जल भरा होता है ऐसे ही अपने शरीररूप घट में सर्व स्थान में फैला हुआ है। वह पूर्ण ज्ञान मय है--उसका ज्ञान ऐसा निर्मल है कि उसमें सर्व ही जानने योग्य पदार्थ दर्पण के समान झलकते हैं, इस आत्मा की जब तक संबंध शरीरसे रहता है तबतक ही हम अपनी आँखों से चंद्रमा, सूर्य ग्रह, तारे आदि पदाथों को देख सकते हैं। यद्यपि लोके में प्रकाशमान हैं और जगतके बाहरी पदार्थोकी झलकति है तथापि यदि हमारे भीतर आत्मतत्व न हो तो हम उनको देख नहीं सकते तब तो वे हमारे लिए मामो अंधकार के समूह ही हैं। जिस आत्मा के होते हुए हम बाहर भीतर सब कुछ देख सकते हैं व जान सकते हैं तया यहीं वह आत्मतत्व है जिसका योगीगण ध्यान करते हैं। तीर्थकर भी इसोका हो अनुभव करते हैं। वही यात्मतत्व हमारी देहं में हैं वह बिलकुल निर्मल है, मौके मध्य पड़ा है तो भी स्वभाव से उनसे भिन्न है। यह ऐसा निश्चय है कि कभी भी अपने स्वभाव को स्थगिता नही है ऐसे ही आत्म तत्व का चिन्तयन हरएक गृहस्प या भुमि को करना उचित है । यहां पर आचाय ने बता दिया है कि जिस तत्व पर पहुंचना है. बं जिस तत्व का ध्यान करना है वह तत्व आप ही हैं, वह सत्वं विलकुल हमको प्रगट है । यदि वह शरीरमें न होवे तो इंद्रियाँ कुछ जान नहीं सकती हैं। वह तत्व ज्ञानस्वरूप है सो भी अच्छी तरह प्रमट है । यह निर्मल जल के समान परमशांत, परम पवित्र व परम आनन्दमई है, इस तरह जो ज्ञानके चिह्नसे उसे पकड़ेगा उसे अवश्य वह तत्व मिल जाएगा । बड़े-२ साधजनों को वही तत्व प्यारा है, हमें भी उसे ही ध्यानी चाहिए। श्री पद्मनदि
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सत्त्वभावना
मुनि सीध चंद्रोदय में कहते हैं
यः कषायपवीरमितो बोधवहिरमलोल्लसदशः। किन मोहातमिर विसयन भासः पिचाप
भावार्थ-जो क्रोधादि कषायों की हवासे स्पषित नहीं होता है, जो ज्ञानरूपी अग्नि को धारने वाला है, जो निर्मलपने उगोत मान है ऐसा चैतन्यरूपी दीपक जगतमें प्रकाशमान है तो क्या वह मोहरूपी अंधेरेको नहीं बंटन करेगा? वास्तव में यह दीपक मैं आत्मा ही हूँ। वही मुनि एकरवाशीति में कहते हैं
संयोगेनं पश यातं मतस्तत्सकलं परम् ।
तत्परिरमागयोगेम मुक्तीहमिति मे मतिः ॥२७॥ भावार्थ-जो कुछ शरीरादि का संयोग मेरे साथ चला आ रहा है वह सब मझसे पर है-भिन्न है। जब मैं उमसे मोह त्याग देता हूँ मैं मानो मुक्तस्प ही हूं ऐसी मेरो बुद्धि है। इस तरह के आत्मतत्वको ध्याना परम सुखका कारण है।
भूल इलोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द शशि सूरजग्रह तारकादि ये सब लोग प्रकाशी रहें। पर आतमविन सन समह जैसे कुछ भी न कोमस लहें। जो विज्ञानमई सुनिर्मल महा यतिजन जिसे ध्यावते । वह निश्चल है आरमतत्व बुधजन निज देह में पावते ॥५५॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अज्ञानी मन मरण बानेवाला है इसको नहीं देखता हुमा अधर्म में फंसा रहता है--
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तत्वभावना
भज्यतेत्य शरीरमंदिर शिवं सत्यतिपेन्द्र भामावित्युच्छ्वासमिषेण मानसबहिमिर्गत्य किं ।। पश्यंस्त्वं न निरीमसेऽतिचकितं तस्याति चेतनो ।
नामरचेष्टितानि कुरुले निर्धर्मकर्मोघमम् ॥५६।। ...अन्वयार्थ-(मानस) हे मन ! (मृत्यूद्विपेन्द्रः) मरण रूपी हाथी (एत्य) आकर (क्षणात्) क्षणभर में (इदं शरीरमंदिरम्) इस शरीररूपी घरको (भज्येत) तोड़ डालेगा (इति) ऐसा जानकर (त्व) तू (उच्छ्वास मिषेण) श्वासोच्छवास के बहाने (बहिः) वोहर (निर्गत्य निर्गत्य) आ-आकर (धति चकितं) अति भयभीड़पने से (पश्मन) देखता हुभा (वै) बड़े खेदकी बात है (तस्य आगति) उस मरण के आने की (चेतना) चेतना को (न निरीक्षसे) नहीं देखता है अर्थात मरण आने वाला है ऐसी बुद्धि अपने भीतर नहीं जमाता है (थेन) यही कारण है जिससे तू (अमरचेष्टानि)अपने को अजर अमर मानके भयंवहार करता हुभा (निधर्मकर्मोद्यमम्)धर्म रहित कर्मोका उद्यम(कुरुषे)करता रहता है।
भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने संसारी जीवके मनकी मुर्खता को बताया है कि यह मन मरणसे दिनरात डरता रहता है इसके डरके दृष्टांतको आचार्यने अलंकार देकर बताया है-कि प्राणी के जो श्वांस चला करता है सो यह श्वास नहीं है किन्तु मन बाहर आकर बार-बार डरते हुए देखता है कि कहीं मरणरूपी हाथी आ तो नहीं गया । जैसे किसीको कोई कह दे कि तुझे मारने को कोई शत्रु आनेवाला है तो वह उस शत्रु से बचने का उपाय तो न करें, बार-बार घरके बाहर आकर देखा करे कि कहीं शत्रु आ तो नहीं गया।
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तस्वभावना
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ऐसी मूखंता यह मत कर रहा है कि बारबार शंका किया करता है कि कहीं मरण न आ जावे परन्तु इस बातमें अपना मन नहीं जमाता है कि मरण तो एक दिन जरूर आवेगा ही मुझको सावधान हो जाना चाहिए और ऐसा उद्यम करना चाहिए जिस से मेरे आत्माका कल्याण हो, मैं मरकर दुर्गतिमें न जाऊँ । यह ऐसी मखंता करता हैं कि फिरभी अपने को अजर अमर समझता है और मनचाहा अधर्म कार्य करता रहता है. यही बड़े म्बेद की बात है। प्रयोजन यह है कि हे भव्य जीव ! मरणरूपी हाथी किस समय इस शरीररूपी घरको तोड़ डाले इसका कोई समय नियत नहीं है । वह जब अचानक आ जाता है उस समय कुछ उपाय नहीं बन सकता। इसलिए मरणके आने के पहले हो तुझे अपना आत्महित कर लेना चाहिा और वह उत्तम कार्य एक आत्मध्यान है। उसकी तरफ पूर्ण. लक्ष्य देना चाहिए, यह तात्पर्य है।
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंद्रोहमें कहते हैं-- मृत्यव्याघ्रभयंकराननगतं भीतं जराव्यात--- स्तोत्रव्याधिदुरन्तदुःखसरुमत्संसारकांतारगम् ॥ क-शन्कोति शरीरिण विभवने पातुं नितान्तातुरं । स्थकरवा जातिजरामतिक्षतिकरं जैनेन्द्रधर्मामृतम् ॥३१७॥
भावार्थ--यह शरीरधारी प्राणी ऐसे भयानक संसाररूपो वनमें पड़ा हुआ है जहां तीन रोग व दुःसह दुःखमई वृक्ष भरे हैं व जहां बुढ़ापारूपी शिकारी है जिससे वह डरता रहता है व जहाँ मरणरूपी सिंह है और यह प्राणी उसके भयंकर मुख के बीचमें आ गया है । अब इस महान् व्याकुल प्राणी को तीन भुवन में ऐसा कौन है जो बचा सके ? यदि कोई है तो जन्मजरा मरण
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स्वभावना
को क्षयकारी श्री जिनेन्द्रका धर्मरूपी अमृत है, इसके बिना कोई बचा नहीं सकता है । वास्तव में वही मानव बुद्धिमान है जो इस मानव देह को अत्यन्त दुर्लभ व छूटने वाला मानकर इसको आत्म धर्म में लगाकर सफल करते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
क्षण में माशे वर शरीर तेरा है मृत्यु हाथो बड़ा । मय से वासे बार बार लेके क्यों है तु बाहर खड़ा ॥
या नहि करता कि होय भरमा मानें ममर मैं हूँ । रे मन ! मूर्ख पापकर्म उद्यम करता तुझे क्या कहूँ ॥५६॥ उत्पातिनका- आगे कहते हैं कि जो परिग्रहवान हैं वे सदा आरम्भ के विकल्प किया करते हैं और जंनधर्म में प्रोति नहीं करते ।
शिखरिणी वृत्तम् करिष्यामी व कुतमिदमिदं कृत्यमधुना । करामीति वेय मयसि संकलं कालमफलम् ॥ सवा रागद्वेषचयनपरं स्वार्थविमुखं ।
न लेने शुचिता मंचसि रंमसेनिर्वृतिकरे ||२७||
अन्वयार्थ --- ( इदं ) यह ( करिष्यामि) मैं करूंगा (वा) अथवा
( इथं कृतं) यह मैंने किया था ( अधुना इदं कृत्यं करोमि ) या अब 新 यह काम करता हूँ (इति) इस तरह (व्यग्रं) घबड़ाया हुआ ( सदा ) हमेशा ( रागद्वेषप्रचयनपरं ) रागद्वेष के करने में लगा हुआ (स्वार्थं विमुख ) अपने आत्मा के हित में विमुख होता हुआ तू
( सकलं कालं ) अपने सम्पूर्ण जीवके समय को (अफलं) निष्फल
( नयसि) गमा रहा है परन्तु (शुचितस्ये) पवित्र तत्व को बताने
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तत्त्वभावना
बाल द (निर्वतिकरे) मोक्षको प्राप्त कराने वाले (जैने बर्चास) जिन वचन में (न रमसे) रमण नहीं करता हैं।
भावार्थ-- यहां पर आचार्य इस मूर्ख मनको समझाते हैं कि तू ऐसा शरीर स्त्री, धन, पुत्र, कुटुम्ब आदि के मोह में पड़ा हुआ हैं कि रात-दिन तेरे यही विचार रहा करता है कि मैंने यह काम ती कर लिया है और यह काम मैं इस समय कर रही है। ऐसा पैसा काम मुझे भविष्य में करना है, मह तेरी विचारोंकी श्रृंखला तेरी जिन्दगी भर चलती रहती है। जैसे विचार करता है कि अब इतना धन कमा लिया है, अब वह धन कमा रहा हूं, अभो इतना धन कमाना है । एक पुत्रको विवाह कर चुका हूं दूसरेका विवाह करना है। एक पुत्रको व्यापार में लगा चुका हूँ दूसरेको व्यापार में लगाना है। पुत्रके पुत्रका अर्थात् पोते का मुंह देखना है। पोता होवे तो शीघ्र बड़ा करके उसका विवाह करके उसकी बधू को भी देखना है। उसने मेरा बड़ा बिगाड़ किया है उसे इसका बदला पहुंचाना है। मेरी स्त्री बाईत वस्त्राभूषण पाहती है इसके लिए गहना बनवाना है। आज अमुकं व्यापारी का दिवाला निकल गया । रकम डुब गई क्या करूं। उस पर किसी तरह मुकद्दमा चलाना है । इस तरह करोड़ों कामोंकोतू विचार करता है । सवेरे से शाम होती है, शाम से सबेरा होता है, तू तो संसारी काम धंधोंकी ही चितामें फंसा रहता है, कभी उन कामों की डोरी नहीं टूटती। उधर मरण निकट आ जाता है, तू बावला अपने आत्मा के हित के लिए कुछ भी समय नहीं निकालता है-ममता मोहमें और रागद्वेष में फंसा हुआ सारा जीवन बिताकर इस अमूल्य नरजन्म को खो देता है। परमोपकारो जैनधर्म में रुचि नहीं लगाता है ने जिनवाणी को पड़ता है जिससे.
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सरदभावना
सच्चे आत्मतत्व का ज्ञान होथे और इस मोक्षमार्ग को प्राप्तकर सके । अतएव आचार्य कहते हैं कि द्धिमान प्राणी को उचित है कि गृहस्थ के जंजाल में चावला न होवे और जिनवाणीको शरण लेकर अपना सच्चा हित कर डाले।
वास्तव में जो इंद्रियों के विषयों में उलझ जाता है उसका जन्म यों ही चला जाता है। सुभाषितरत्नसंदोह में स्वामी अमित गति जी कहते हैं--
एकैकमक्षाविषयं मजतास
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1. गमाते, यति हामिमाम् ! . , . ::. : पंचाक्षगौचररतस्य झिमस्ति याच्य. . .. मक्षार्थमिश्यमलधीरधियस्त्यजन्ति ।।८।।
भावार्थ-एक एक इंद्रियों के वश में रहने वाले जीवों को यदि यमराज के घर का अतिथि होना पड़ता है तब जो जीव पांचों इंद्रियों के विषय में रत होता है उसके लिए क्या कहा जावे ऐसा जानकर निर्मल और धीर बुद्धि रखने वाले पुरुष इंद्रिय विषयों को छोड़ देते हैं।
मूल श्लोकानुसार शिखरिणी छन्द करूँगा यह कारज अर कर चुका कार्य यह मैं । अभी यह करता हूं रत नित प्रोति मोह तन्मय ॥ गमावे सब जीवन विफल कर निज हित न देखे। शिवंकर जिन बच में ध्यान कुछ भी न देखे ॥५७।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि धर्मही प्राणीका रक्षक हैकुर्वाणोऽपि निरंतरामनुदिनं बाधां विरुद्धकियां । धर्मारोपितमानसर्न रुचिभिर्यापाग्रते कश्चन ।।
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तवंभावना
_ [ १५७ धर्मापोधियः परस्परमिमे निम्नति निष्कारणम् । यत्तधर्ममपास्य नास्ति भुवने रक्षाकरं देहिनां ॥५॥
अन्वयार्थ--(कश्चन) कोई मानव (अनुदिनं) प्रतिदिन (निरंतर) बहुतमी (दायां) बाधा कारक (विरुद्धक्रियां) विरुद्ध क्रिया को (कुर्वाण: अपि) करता रहता है तो भी.. (धर्मारोपित मानसः रुचिभिः) धर्म में मन को जमाये रखने वाले रुचिवान प्राणियोंके द्वारा (न) नहीं (व्यापाद्यते) पीड़ित किया जाता है, (धर्मापोढधियः) धर्म में जिनकी बुद्धि नहीं है ऐसे मानव (परस्परम्) परस्पर. (निष्कारणम्) बिना कारण (निघ्नंति) घात करते रहते हैं (यत् तत् धर्मम्) ऐसा धर्म है उसको (अपास्य) छोड़कर (भवने) इस जगत में (देहिना) शरीर धारियों की (रक्षाकरं) रक्षा करने वाला और (नास्ति) नहीं है।
भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने धर्म की महिमा बताई है कि जिनके चित्तमें धर्मभाव है, जो दयालु है व क्षमावान है वे किसी को पोड़ा नहीं देते। यदि कोई उनको बाधा देता है व उनके विरुद्ध क्रिया करता है तो भी उस पर क्षमा भाव रखके उनको कष्ट नहीं देते । वीतरागी जैन साधुओंमें धर्म भाव पूर्ण रोति से भरा रहता है इसलिए वे किसी को सताते नहीं है कोई उपसर्ग करे तौभी क्रोध नहीं लाते हैं। यह महिमा उनक भीतर शांत भावरूपी धर्मही की है परन्तु जिनके हृदय में दया, क्षमा, शांति आदि धर्म नहीं होते हैं व बिना कारण ही एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं व कष्ट देते रहते हैं व प्राण तक लेते रहते हैं। वास्तवमें तीन लोकमें जीवोंकी रक्षा करने वाला एक धमही है । धर्म जिसके मन में है वह प्राणियों का रक्षक है। धर्म जिसके मन नहीं वह प्राणियों का हिंसक है। यदि कष्ट दूंगा तो इसको
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तत्वभावना
वैसा ही कष्ट होगा जैसा मेरेको होता है यह भाव जिनके दिल में होता है वे ही धर्मात्मा हैं। धर्म जिसमें नहीं है वह वास्तवमें मनुष्य ही नहीं है। स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं
हरतिजननदुःखं मुक्सिसौख्यं विद्यते । रपति शुमति पापति धुनीते ॥ अवतिसकलजन्तून् कर्मशम्निहन्ति । प्रशमयति ममोर्यस्य बुधा धर्ममाहः १७०८॥ भावार्ष-जो संसार के दुःखोंको हरता है, मुक्तिके सुख को देता है, सच्ची बुद्धि बनाता है, पाप की बुद्धिको मिटाता है, सर्व 'प्राणियों की रक्षा करता है, तन तथा मनको शांत रखता है उसे ही बुद्धिमानों ने धर्म कहा है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो करता दिन रात कार्य उल्टे वाधा करे सर्ववा। जो धर्मी कधिवान आवंचित हो वाको न मारे कथा।। आपसमें कारण बिना हि हिंसक ओ धर्म पावे नहीं। प्राणोरक्षक धर्म बिन जगत में को और भावे नहीं ॥५॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिस परिग्रह को एक दिन छोड़ना पडेगा उसको तु अपने आप ही क्यों नहीं छोड़ता है
नामारंभपरायणेनरवरराषज्यं यस्त्पज्यते । दुःप्राप्योऽपि परिप्रहस्तणमिव प्राणप्रयाणे पुनः ।। आवावेव विमुंच दुःखजनक तं त्वं विधा दूरतश्वेतो मस्करिमोरकम्यतिकरं हास्यास्पद मा कृपाः ॥५६
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तस्वभावना
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www. मामा सहकारमान लान (निरवरैः) बड़े-२ मनुष्योंके द्वारा (आव) एकत्र करके (दु:प्राप्यः अपि)कठिनतासे प्राप्त करने योग्य ऐसाभी (यः परिग्रहः) जो परिग्रह (प्रागामागे) प्राणोंने वियोग हों पर तग इव) सिनके के समान (स्यज्यते) छोड़ देना पड़ता है (पुनः) परन्तु (त्व) तू (दुःखजनकंत) दुःखोंको उत्पन्न करने वाले उस परिग्रह को (मादी एव) पहले ही (दूरतः) दूरसे (त्रिधा) मन, वचन, काय तीनोंसे (विमुंच) छोड़ दे (चेतः मस्करिमोदकस्यतिकर) तु अपने चित्तको भिष्टामें पड़े हुए लाइको उठाकर फिर फेंककर (हास्यास्पद) मा कथा:) हंसी का स्थान मत बम ।
भावार्थ- यहां पर आघायं कहते हैं कि राज्य लक्ष्मी आदि परिग्रह बड़ी-२ मिहनतोंसे एकत्रित किये जाते हैं। ऐसीभी वस्तुएँ संग्रह की जाती हैं जो हरएकको मिलना दुर्लभ हैं। परंतु करोड़ों की संपत्ति क्यों न हो व कैसी भी कठिनता से क्यों न एकत्र की गई हो वह सब परिग्रह बिलकुल छोड़ देना पड़ता है जब मरण का समय आ जाता है। जैसे हाथ से तिनका गिर पड़े ऐसे ही सब छूट जाता है । जब परिग्रह बात्मा के साथ जाने वाला नहीं है तब ज्ञानवान प्राणीको उचित है कि पहले वह परिग्रह स्वयं छूटे, ज्ञानीको स्वयं मोह त्यागकर छोड़ देना चाहिए और यदि परिग्रह नहीं हो तो नया परिग्रह एकत्र करने की लालसा न करनी चाहिए। परिग्रहको ग्रहण कर फिर छोइना,वास्तव में हँसी का स्थान है । जैसे एक फकीरको किसीने बहुतसे लड्डू दिये उसमें से एक लड्डू विष्टा में गिर पड़ा, उस लोभी ने उसे उठा लिया तब किसी ने कहा कि ऐसे अशुद्ध लड्डू को तुमने क्यों उठाया ? तब यह कहने लगा कि मैंने उक्रा लिया है परन्तु घर
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तस्वभावना
जाकर इसे छोड़ दूंगा। तब उसने बड़ी हँसी उड़ाई कि अरे जिसको फेंकना ही है उसको उठाने की क्या जरूरत थी ? इसी दृष्टांतसे आचार्य ने समझाया है कि यह परिग्रह त्यागने योग्य है, इसे ग्रहण करना बुद्धिमानो नहीं है-'यह आत्मकार्य में बाधक है वास्तव में चेतन अचेतन परिग्रह का मोह आत्माको करोड़ों संकल्प विकल्पों में पटक देने वाला है। इससे जो निर्विकल्प समाधि को चाहते हैं और आत्मीक आनंद के भोगने के इच्छुक हे उनको यह परिग्रह त्यागना ही श्रेयस्कर हैं। श्री शुभचन्द्र आचार्य ने ज्ञानार्णव में कहा है
लामो विषयमा मलको नाममा रुध्यते वनिताब्याधर्नरः संमेरभिद्रुतः ॥१८॥
भावार्थ—यह मानव परिग्रहों से पीड़ित होता हुआ इंद्रियों के विषयरूपी साँसे काटा जाता है, काम बाणोंसे भेदा जाता है तथा स्त्रीरूपी शिकारीसे पकड़ लिया जाता है। ....
मः संगपंकनिर्मग्नोऽप्यपवर्गाय घेष्टते। समूढः पुष्पनाराविमिन्यात विशाचलम् ॥१६॥
भावार्य-जो मूर्ख परिग्रहको कीचड़ में डूबा हा भी मोक्ष के लिए चेष्टा करता है यह मानों फूलों के बाणोंसे सुमेरु पर्वत को तोड़ना चाहता है।
अणुमात्रावपि प्रधान्मोहग्रंथिईडोमवेत् । . विसर्पति ततस्तृष्णा यस्या विश्वं न शान्तये ॥२०॥ . .
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तस्वभावना
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भावार्थ- जरासे भी परिग्रह से मोहकी गांठ दृढ़ हो जाती है । इससे तृष्णा की बुद्धि ऐसी होती है कि उनकी शांति के लिए सर्व जगत भी समर्थ नहीं होता।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द नाना उद्यम बांध-बांध दुष्कर संचय परिग्रह किया। आवा अब कहिं मरण बल नहिं चला तृणवत् सुत्याग जुलिया। दुःखकारी तिहजान बुधजन तिसे पहले हि त्यागनकरी। मूरख मलगति मोहक तु गहके क्यों स्माग लज्जाहरो ॥५९lt
उत्पानिका-आगे कहते हैं कि जो मानव भाई, पुत्र, मित्रादि में मोह करता है वह क्या शोक करके कष्ट पाता है।
स्वाभिप्रायवशारिभिन्नगतयो ये भ्रातधुनावयः। सांस्त्वं मीलयितुं करोषि सततं चित्त प्रयास व्या ।। गच्छन्तः परिमाणको वश विशः कल्पान्सवातेरिताः । शक्यंते म कदाचनापि पुरुषैरेफन कतुं ध्रुवम् ॥६॥
अन्वयार्थ-(भ्रातपुत्रादयः) जो भाई व पुत्र आदि कुटुम्बी (स्वभिप्रायवशात्) अपने-अपने आशयरूप भावोंके द्वारा कर्म बांधकर (विभिन्नगतयः) भिन्न-२ गतिको चले गए हैं तान) उनसे (मीलयितुं) मिलने के लिए(चित्त) रे मन(त्व) तू(सत्ततं) निरन्तर (प्रयास) प्रयत्न(वृथा) बेमतलब (करोषि) करता है (कल्पांतवातेरिताः)कल्पकाल की पवनकी प्रेरणासे(परिमाणवः) जो परमाणु (दश दिशः) दस दिशाओं में (गच्छन्तः) चले गए हैं उनको(एकत्र कर्तुं) इकट्ठा करना (ध्रुव)निश्चय से (कदाचनापि कभी भी (पुरुषः) पुरुषों के द्वारा (न शक्यन्ते) नहीं शक्य हो सकता है।
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तत्त्वभावना
भावार्य-यहां आचार्य अज्ञानी जीव की बेष्टा बताते हैं कि यह जीव स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई बादिकों को अपना मान लेता है। जब उममे किसीका मरण हो जाता है तब उनके मिलने के लिए शोक किया करता है । वे कभी फिर उसो शरीरमें माकर मिल नहीं सकते, क्योंकि उनमें से हरएक का जीव अपने-अपने शुभ या अशुभ भावोंके अनुसार जैसा आयु कर्म बांध चुका था उस ही गति में चला गया है । किसीने देवआयु बांधी थी तो वह देव हो गया, किसीने नरक आयु बांधी थो वह नारकी हो गया, किसीने पशु बायु बांधी थी सो पशु हो गया, किसीने मनुष्य बायु बांधी थी सो फिर कोई अन्य प्रकार का मनुष्य हो गया। उनके धीरों को उनके कूटम्बी अपने सामने दग्ध हो कर चुके हैं। इस लिए अपने मरे हुए पुवादि का सोच करना कि वे किसी तरह मिल जावें, महान बावलापना है । यह ऐसा ही असंभव है जैसे उन परमाणुओंको फिर इकट्ठा करना असम्भव है जो कल्पकाल की पवन की प्रेरणासे दस दिशाओं में उड़ गए हैं। किसी मानव को शक्ति नहीं है कि उनको संचय कर सके । इसी तरह किसी मानव की शक्ति नहीं है कि मरे हुओंको जिला सके व उनसे मिल सके । इससे हमें व्यर्थ की चिता छोड़कर अपने निज कार्य में तत्पर रहना चाहिए।
श्री पद्मनंदि स्वामी ने अनित्य पंचाशत् में बहुत अच्छा
एकद्रुमे निशि वसति यथा शकुंताः । प्रातः प्रयोति सहसा सकलासु विक्षु ॥ स्थित्वाकुले बत तथाप्यकुलानि मृत्वा । लोकाः अति विदुषा खलु शोच्यते॥१६॥
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तस्वभावना
भावार्थ-जैसे एक वृक्षरात्रिको बना करोटा लो सवेरा होते ही सर्व दिशाओं में यकायक भाग जाते हैं। इसी तरह प्राणी एक कुल में आयुपर्यंत ठहरकर फिर मरकर अपने-२ कर्मानुसार अन्य कुलोंमें आश्रयकर लेते हैं विद्वान किस किसका सोच करे ? सोच करता था है।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द भाई पुत्र कलन मित्र आदि निज भाव अनुसार थे। गतिको बांधत जात मिल गतिको मिलते न को काल थे। सिनका सोच वृथा न बुद्ध करते परमाणु मिलना कठिन । जो भागे बसविशा पवन सेतो कल्पांत के अशुभ विन ॥६॥
उत्पानिका-आगे कहते हैं कि भोगोपभोग पदार्थोकी इसका करना वृथा है क्योंकि उनसे तृत्ति नहीं होती है।
भोज भोजमपाकृता हुण्य ये भोगस्त्वयानेकधा । तांस्त्वं कांक्षसि कि पुनः पुनरहो तन्नाग्निनिक्षेपिणः।। प्तिस्तेषु कदाधिवस्ति तव नो तृष्णोदयं विभ्रतः। देशे चित्रमरी चिसंनयचिते बरली कुसो जायते ॥११॥
अन्वयार्थ-हदय हे मन (बया) तेरे द्वारा (ये अनेकधा भोगाः) जो अनेक प्रकार के भोग(भोज भोज)भोग-भोग करके (अपाकृता) छोड़े जा चुके हैं (अहो) अहो बड़े खेद की बात है कि(त्वं)तू(पुनः पुनः)बाराबार(तान् )उन ही की(कांक्षसि)इच्छा करता है वे भोग (तत्र अग्निनिक्षेपिणः) तेरी इच्छा में अग्ति डालने के समान है अर्थात तृष्णाको बढ़ाने वाले हैं (तृष्णोदयं विनतःतव) तृष्णा की बुद्धिको रखने वाला ऐसा तू जो है सो तेरी (तुप्तिः) तुप्ति(तेषु उन भोगोंके भीतर(कदाचित्)कभोभो
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( न अस्ति ) नहीं हो सकती है। जैसे (वित्रमरीचिसंचयथिते देशे ) कड़ी धूप से तप्लायमान स्थान में या आग में तपाए हुए स्थान में ( कुतः ) किस तरह ( वल्ली) वेल (जायते) जग सकती है ।
तत्त्वभावना
भावार्थ- यहाँ पर आचार्य ने भोगा सकता मानवकी भोगों की वांछाको धिक्कारा है । इस जीवने अनंतकाल हो गया। चारोंहो गति के भीतर भ्रमण करते हुए अनेक शरीर धारण करके उनमें अनेक प्रकार इंद्रियों के भोग भोगे और छोड़े, उनके अनतकाल भोग लेने से भी जब एक भी इंद्रिय तृप्त नहीं हुई तब अब भोगोंके भोगने से इन्द्रियां कैसे तृप्त होंगो ? वास्तव में जैसे अग्निमें इन्धन डालने से अग्नि बढ़ती चली जाती है वैसे इन्द्रियों के भोगोंके भोगने से तृष्णाकी आग और बढ़ती चली जाती है । तृष्णावान प्राणी कितना भी भोग करे परन्तु उसको इन भोगों से कभी भी तृप्ति नहीं हो सकी है जैसे अग्नि से या धूप से तपे हुए जलते स्थानमें कोई भी बेलका वृक्ष नहीं उग सकता है । इसलिए बुद्धिमानों को बारबार भोगोंको भोगकर छोड़े हुए भोगों की फिर इच्छा न करनी चाहिए। क्योंकि जो तृष्णारूपी रोग भोगोंके भोगनेरूप औषधि सेवन से मिट जावे तब तो भोग को चाहना मिलाना व भोगना उचित है, परन्तु भोगों के कारण तृष्णाका रोग और अधिक बढ़ जाये तब भोगोंकी दवाई मिच्या है यह समझकर इस दवाका राग छोड़ देना चाहिए। वह सच्ची दवा ढूढ़नी चाहिए जिससे तृष्णाका रोग मिट जावे । वह दवा एक शांत रसमय निजआत्माका ध्यान है जिससे स्वाधीन आनंद जितना मिलता जाता है उतना उतना ही विषय भोगोंका राज घटता जाता है स्वाधीन सुख के विलास से ही विषयभोग को वांछा मिट जाती है। अबएव इन्द्रिय सुख की आशा छोड़कर
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तस्वभावना
अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का उद्यम करना चाहिए । स्वामी अमितगति सुमाषितरत्नसंदोह में कहते हैंसौख्यं यदन विजितेन्द्रियशनवपः । प्राप्नोति पापरहितं विगतासरायम् ॥ स्वस्थं तवारमकमनात्मधिया पिलभ्यं । किं तबदुरन्तविषयानलतप्तवित्तः ॥१४॥ भावार्थ:-जिस महात्मा ने इन्द्रियरूपी शत्रु के घमंड को मर्दन कर दिया है वह जैसा पाप रहित तथा अपने मात्मामें ही स्थित अनात्मज्ञानी जीवों से न अनुभव करने योग्य आत्मीक सुख को पाता है वैसे सुख को वह मनुष्य कदापि नहीं पा सकता है जिसका चित्त भयानक विषयों की अग्नि से जलता रहता है ।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द रे मन ! तूने भोग भोग छोड़े इन्द्रिय विषय बहु तरह । क्यों तू चाहे बारबार उनको तृष्णाग्नि वृद्धि करें । जो तष्णातुर होय भोग करते तुप्ति न होवे कमो । अग्नि से जलते कुखत माही नहि बेल उगती कमी॥६१।।
उत्थानिका--भागे कहते हैं कि इस जीवको पर पदार्थ में अहंकार छोड़कर आत्मध्यान करना योग्य है ।
शूरोऽहं शुभधोरहं पटुरहं सर्वाधिक श्रोरहं । मान्योहं गुणवानहं विभुरहं पुंसामहं चानणीः।। इत्पात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी वं सर्वथा कल्पनाम्। शश्ववृध्याय तदात्मतत्वममलं नशेयसी श्रीर्यतः ।।२।।
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तत्त्वभावना
अन्वयार्थ-(मात्मन) हे आत्मा (अहं शूरः) मैं वीर हूँ (अहं शुभश्रीः) मैं शुभ बुद्धिधारी हूँ (अहं मान्यः) मैं माननीय हूं (अहं गुणवान्) मैं गुणवान् हूँ (अहं विभुः) मैं समर्थवान हूँ (अहं पुंसाम् अग्रणीः) तथा मैं पुरुषों में मुखिया हूँ (इति) इस तरह को (दुष्कृतकरी) पापको बांधनेवाली (कल्पनाम्) कल्पना को व मान्यताको (सर्वथा) सब तरह से (अपहाय) दूर करके (त्वं)तू (शश्वत्) निरन्तर(तत् अमल आत्मतत्वं) उस निर्मल. आत्मतत्वको (ध्याय)ध्यान कर (यतः) जिससे (नःश्रेयसीश्री.) मुक्तिरूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है।
मावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने बताया है कि आत्मध्यान के लिए आत्मा के यथार्थ जाम होने की बाद
जारी लोग शरीर, धन, कुटुम्ब, प्रतिष्ठा, बल, बुद्धि आदि पाकर ऐसा महकार कर लेते हैं कि मैं सुन्दर हूँ, मैं धनवान हूँ, मैं बहुकटुम्बी हूँ, मैं प्रतिष्ठावान हूँ, मैं बलवान हूं मैं धनवान हूँ यह उनका मानना बिलकुल मिथ्या है क्योंकि एक दिन वह आएगा जिस दिन ये सब परपदार्थ व परभाव जो कर्मों के निमित्त से हुए हैं छूट जाएंगे और यह जीव अपने बांधे पुण्य पापको लेकर चला जाएमा । ज्ञानो जीव अपना आत्मपना अपने आत्मामें ही रखते हैं वे निश्चय नयके द्वारा अपने आत्मा के असली स्वभाव पर निश्चय रखते हैं कि यह आत्मा सर्व रागादि विभावों से रहित है सर्व कर्म के बंधनों से रहित है। सर्व प्रकार के शरीरसे रहित है। आत्माका सम्बन्ध किसो चेतन व अचेतन पदार्थसे नहीं है । ये सब शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं जो मात्र इस आत्माका क्षणिक धर है इसलिए उन ज्ञानी जीवों की अह बुद्धि अपने ही शुद्ध स्वरूप पर रहती है । व्यवहार में काम करते हुए गृहस्थ ज्ञानी चाहे यह कह कि मैं राजा हूं, वंद्य हूँ, शूर हूँ, चतुर हूँ, समर्थ
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तत्वभावना
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हूँ परन्तु वह अपने भीतर जानते हैं कि यह मुझे व्यवहार के चलाने के लिए व्यवहार नय से ऐसा कहना पड़ता है परन्तु मैं इन स्वरूप असल में नहीं हूं। मैं तो वास्तव में सिद्ध भगवान के समान ज्ञाता दृष्टा आनंदमई पदार्थ हूँ। ऐसा श्रद्धान रखता हुआ ज्ञानी जीव सर्व ही व्यवहारिक कल्पना जालको जो पाप बंधकारक हैं छोड़ कर एक अपने आत्माको ही निश्चल मन करके ध्याता है । आत्माके ध्यानसे ही वीतरागता की अग्नि जलती है जोकमा इन्धनमोहलाती है कौर गारमाको हार्गो समान शुद्ध करती चली जाती है । इसलिए ज्ञानीको आश्मध्यान ही करना योग्य है जिससे मुक्ति की लक्ष्मी स्वयं आकर मिल जाये और संसारके चक्र का फिरन मिट जाये। एकत्वाशीति में श्री षद्मनंदि मुनि कहते हैंशुद्ध यथेष चैतन्यं तदेवाहं न संशयः।
या कल्पनया येतद्धीनमानन्दमंदिरम् ॥५२॥ भावार्थ-"जो कोई शुद्ध चैतन्यमयी पदार्थ हैं वही मैं हूं इसमें कोई संशय नहीं हैं ।" ये वचनरूप व विचाररूप कल्पना भी जिसमें नहीं है ऐसा मैं एक आनन्द का घर हूँ।
अहं चैतन्यमेवक नान्यत्किमपि जातुषित् । सं घोपि न केनापि दुइ पक्षो ममेदृशः ।।५४॥ भावार्थ-मैं एक चैतन्यमयी हूँ और कुछ अन्य रूप कभी नहीं होता हूँ। मेरा किसी भी पदार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है यह मेरा पक्ष परम मजबूत ऐसा ही है।
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तश्वमावना
इस तरह जो दृढ़ता से आत्मज्ञानी हैं वे ही आत्मध्यान करने को समर्थ हो सकते हैं
___ मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द मैं हूं शूर सुवुद्धि चतुर महा धमवान सबसे बड़ा। मैं गुणवान समर्थ मान्य जगमें मैं लोक में हूं बड़ा। हे आत्मन् ! यह कल्पना दुःखकरीतू सर्वथा चूर कर। नित निज पातमतत्व ध्याय निर्मल श्रीमोक्ष आवेस्वकर ॥६॥
उस्थामिका-आगे कहते हैं कि क्रोधादि कषायोंके त्याग बिना मोक्ष होना कठिन है।
मालिनी वृत्तम् धृतविविधकषायग्रंपलिंगव्यवस्थम् । यदि यतिनिकुबम्बं जायते कमरिक्तम् ।। भवति ननु तवानी सिंहपोसाविवार्य
शशकानसकर हस्तियर्थ प्रविष्टम् ।।६३॥ अन्वयार्थ (यदि)यदि(तविविधकषायग्रंथलिंगव्यवस्थम्) नाना प्रकार क्रोध मानादि कषायोंको, परिग्रह को तथा भेषको व्यवस्था को पकड़कर रहने वाले (यतिनिकुरुम्ब) साधुओं का
समूह (कमरिक्तम् ) कर्मों से खाली (जायते) हो जावे अर्थात ANA मुक्त हो जावे तो (नन में ऐसा मानता हूँ कि(तदानीं) तब तो
(सिंहपोताविदार्य शशकनलकरंध्र)सिंह के बच्चे के द्वारा विदापारण करने को अशक्य खरगोश की हड्डी के महीन छेद मे (हस्तियूथं) हाथियों का समुदाय (प्रविष्टम् भवति) प्रवेश कर जावे ।
भावार्थ-यहाँ पर आचार्यने दिखलाया है कि जो यथाजात मुनि भेष,परिग्रह रहितपना व कषायों की उपसमताको ध्यान में न
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तत्त्वभावता
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लेकर तथा मनमानी परिग्रह व मनमाने तरह-२ के भेषों को रख लें तथा क्रोध मान माया लोभादि कषायों को भी न छोड़ें और यह मान लें कि हम मुनि हैं, हम तो जरूर कर्मों से छूटकर मुक्त हो जावेंगे तो उनका यह मानना एक असंभव बात को सम्भव करनेकी इच्छा करना है। जैसे यह असंभव जि. अरमोर की हड्डी के भीतर ऐसा महीन कोई छेद हो जिसको सिंहका बच्चा भी नहीं फाड़ सके उस छेदके भीतर कोई मान ले कि हाथियों के समह घुसे चले जावेंगे तो यह मानना बिलकुल असंभव है उसी तरह यह मानना असंभव है कि अंतरंग व बहिरंग को परिग्रहको त्यागे बिना कोई मुक्तहो जायगा ! परिग्रह और क्रोधादि कषाय हो तो संसारके बढ़ाने वाले हैं बंधको नित्यप्रति कराने वाले हैं उनके रहते हुए मानना कि मैं मुक्त हो जाऊँगा बिलकुल उन्मत्तका भाव है। प्रयोजन कहने का यह है कि यदि मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहते हो तो सर्व परिग्रहकोध कषायादि भावोंको त्यागो । पूर्ण साम्यभाव रूपी चारित्रका आश्रय लो। तब ही वीतरागता झलकेगी, यही परिणति कमौकी निर्जरा कराने वाली है तथा मोक्षकी प्राप्ति कराने वाली है।
परिग्रह मोक्षमार्ग में बाधक है ऐसा श्री शुभचन्द्र आचार्य शानार्णव में कहते हैं
अपि सूर्यस्स्यजेधाम स्थिरत्वं वा सुराचलः । न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यारसंवतेन्द्रियः ॥२६॥ भावार्थ-यदि कदाचित् सूर्य तो अपना तेज छोड़ दें और सुमेरु पर्वत अपनी स्थिरता छोड़ दे तो भो अंतरंग-बहिरंग परि. ग्रह सहित मुनि कभी जितेन्द्रिय नहीं हो सकता है।
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तत्वभावना
न स्यात् ध्यातुं प्रवृत्तस्य चेतः स्वप्नेपि निश्चलं । मुनेः परिग्रहप्राहमिद्यमानमनेकधा ॥३६॥ भावार्थ- जिस मुनि का मन परिग्रहरूपी पिशाच से अनेक सेपी का ध्यान करते समय स्वप्न में भी निश्चल नहीं रह सकता है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द घर विविध कषाये ग्रंथ कर भेष नाना । यदि यति गण चाहें कर्म से छूट जाना । शशक हाड़ छिद्रं शिशु सिंह नहिं छेद पावे । किम हस्ती यूथं थामें प्रवेश पावे ॥ ६३॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो स्त्रियों के सुख को सुख जानते हैं उनकी समझ ठीक नहीं है ।
कष्टं वंचनकारिणीष्वपि सदा नारीषु तृष्णापराः । शर्माशां न कदाचनापि कुधियो मर्त्या विपर्याशया ॥ मुंचते मृगतृष्णिकास्विव मृगाः पानीयकांक्षां यतो । धिमतं मोहमनर्थदानकुशलं पुंसामवार्योदयम् ||६४॥
अन्वयार्थ - ( कष्टं ) यह बड़े दुःखको बात है कि ( विपर्याशया:) विरुद्ध अभिप्राय रखने वाले मिथ्यादृष्टि ( कुधिया : ) और मिथ्यात्व बुद्धिधारी ( मर्त्याः ) मनुष्य ( वचनकारिणी अपि नारीषु ) मानव के मनको फँसाने वालों स्त्रियों में भी (सदा तृष्णापराः ) सदा तृष्णाको रखते हुए ( कदाचनापि ) कभी भी ( शर्मा ) सुख की आशा को (न मुंचते) नहीं छोड़ते हैं (मृगाः भुगतृष्णिकासु पानोकांक्षा इव) जैसे हिरण मृग जलमें अर्थात् पानी जैसे
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तस्वभावना
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चमकने वाले रेत में पानी की इच्छा को कभी नहीं छोड़ते हैं (यतः) इसीलिए यह कहना पड़ता है कि (पुंसाम्) जीवों को (अनर्थदानकुशलं) संकटों के देने में कुशल (अवार्योदयम्) व जिसके प्रभाव को दूर करना कठिन है (तं मोह) ऐसे मोह को (धिक्) धिक्कार हो।
भावार्थ-यहाँ आचार्यने बताया है कि स्त्रियों की तरफ का मोह ऐसा भुलाने वाला है कि यह मोहित प्राणी मिध्यादर्शन और मिथ्याज्ञानसे वासित हो बारबार स्त्रियोंके फदेमें फंसता है और बारबार दुःख उठाता है अपनी अष्णा को बुझाने के स्थान में अधिक बढ़ा लेता है। फिर भी स्त्रियों के भीतर सुख को वांछा से मोह करता है । दुःख सह करके भी दुःखके कारणको बार-२ ग्रहण करता है इस मोही प्राणी का हाल ठोक इस हिरण के समान है जो रेतीके जंगल में प्याप्सा होकर पानीको न पाता हुआ दूरसे चमकती हुई रेतको पानोके भ्रम में फंसकर पीने को जाता है। वहां पानी न पाकर ग्यासको अधिक बढ़ा लेता है फिर भी नहीं समझता है वारबार रेती में जा-जाकर व कष्ट उठाउठाकर आकुलित होता है। आचार्य कहते हैं कि इस मोहके नशे को धिक्कार हो जिम के कारणसे यह प्राणी व्यर्थ महान कष्ट पाता है व जिस मोहको दूर करना भी बड़ा कठिन है। तात्पर्य यह है कि हे मन ! तू सावधान रह किसी भी तरह स्त्रियों के मोहमें न फंस नहीं तो महान आपत्तियों में फंस जायगा और निरन्तर तुष्णावान रहकर व्याकुल रहेगा। आत्मीक सुख का प्रेमी होना योग्य है जो स्वाधीन है, पराधीन सुख में लिप्त होकर संसारमें कष्ट पाना उचित नहीं है। स्त्री विषय का सुख सदा प्राणीको कष्टमें पटकने वाला है। जैसा सुभाषितरत्नसंदोह में श्री अमितगति आचार्य कहते हैं
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तत्त्वभावना
एकभने रिपुन्नगदुःखं जन्मशतेषु मनोमवदुःखम् । चाधियेति विधिपत्य महान्तः कामरिक्षणतः क्षपति ।५९४ संयमधर्मविपद्धशशेराः साधुमटा: शरवरिणमुग्रम् । ‘शीलतपःशितशास्त्रनिरातैर्दर्शनबोधवलाद्विधनन्ति ॥५६५ __ भावार्य शत्रु या मर्प एक जन्म में दुःख देते हैं। परन्तु काम देवके द्वारा सैकड़ों जन्मों में दुःख प्राप्त होता है इसलिए महान पुरुष बुद्धि द्वारा विचार करके इस कामरूपी शत्रु को क्षण में नाश कर देते हैं। जो वीर साधु संयम और धर्म के पालने में अपने शरीरको लगाने वाले हैं वे शोल व सपरूपी तीक्ष्ण बाणों को मारकर अपने सम्यग्दर्शन और सम्यमान के नल से इस भयानक कामरूपी वैरोका संहार कर डालते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द मिथ्याती अज्ञान भावधारी नारीन में फर रसी। पुन पुन लह भय कष्ट आश सुखको तजता नहीं दुर्भती ।। जिम भगतृष्णा बीच चाह जलको तजता नहीं मग कमी । धिक धिक् प्राणी कष्टकार मोहं जोता न जाता कमी ॥६४
उत्यानिका-आगे कहते हैं कि भव्य जीदोंको उचित है कि आत्माके बैरी जो विषय कषाय हैं उनको नाश करें।
पापानीकहसंकुले भववने दुःखादिमिर्दुर्गमे । मेरज्ञानवशः कषायविषयस्त्वं पोडितोऽनेकधा ।। रे तान् ज्ञानमुपेत्य पूसमधुना विध्वंसयाशेषतो। विद्वांसो न परित्यजति समये शतनहत्या स्फुट ।। अन्वयार्थ--(पापानोकहसंकुले) हिसादि पापरूपी वृक्षों से गावभरे हुए तथा (दुःखादिभिः दुर्गमे) दुःख शोक आदि कष्टोंसे
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तस्यभावन।
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कठिनता से बचने योग्य ऐसे ( भववनं ) संसाररूपी वन में (ये:कषायविषये ) जिन इंद्रियों के विषय और क्रोधादि कषायों के द्वारा (त्वं अज्ञानवश ) तू अज्ञान के फंदे में पड़ा हुआ ( अनेकधा ) अनेक तरह से (पीड़ित :) दुःखी किया गया है (रे) रे चतुर पुरुष तू (अधुना ) अब तो ( पूतं ) पवित्र ( ज्ञानं ) ज्ञानको (उपेत्य) पा कर (तान् ) इन विषय कषायको (अशेषतः ) सम्पूर्णपने ( विश्वंसय) नाश करें। (स्फुट ) यह बात साफ है कि (विद्वांसः) विद्वान पुरुष ( समये ) अवसर पाकर ( शत्रुन् ) शत्रुओं को ( अहत्वा ) बिना मारे ( न परित्यजति ) नहीं छोड़ते हैं ।
मावार्य - आचार्य कहते हैं कि इस संसार वनमें कषाय और विषय बड़े भारी लुटेरे हैं। अज्ञानी प्राणी इनके मोह में फँसकर
नमें घूमता फिरता है हिंसादि क्रूर कर्मोंको करता है फिर उन पापों के फलसे अनेक प्रकारके दुःखोंको उठाता है। इनके फंदसे बचना चाहिए। उपाय यह है कि इन शत्रुओं को इसने अज्ञान से मित्र मान लिया है सो अब यह उस अज्ञानको छोड़े और यह ठीक - २ समझे कि ये मित्र नहीं हैं किन्तु बड़े प्रबल शत्रु हैं । इनके मोह में पड़कर मैं दिनरात अपनी ज्ञानानन्दमई संपदा को लुटा रहा हूँ। जिस समय यह पवित्र ज्ञान हो जायगा कि मैं मोक्ष महलका रहने वाला त्रिलोकज्ञ, त्रिकालज्ञ, अविनाशी, परम वीतरागी, स्वाधीन आनन्दका भोगी परमात्मा हूं मेरा और इन पौद्गलिक रागादि भावोंका क्या सम्बन्ध है । ये कलुषता लिए हुए हैं में शान्त रूप हूँ - ये दुःखदाई हैं मैं सुखरूप हूँ - ये जड़ हैं व ज्ञान के निरोधक हैं मैं चेतन हूं-ये अनित्य हैं मैं अविनाशी हूँ- ये आकुलताकारी हैं में आकुलता रहित हूँ। जिस समय यह भेदविज्ञान उत्पन्न होगा और यह सम्यकदृष्टि होकर अपने आत्मसम्पदा को देखता हुआ वहां से ज्ञान वैराग्य शस्त्रों
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को उठायेगा और अपने आत्मानुभवरूपी वीर्यको सम्हारेगा तो यह इन शत्रुओं को अवश्य भगा देगा। आचार्य कहते हैं कि मनुष्य जन्म, उत्तम बुद्धि, जिनधर्म का समागम आदि सामग्री बहुत दुर्लभ है इन सबको पाकर यही अवसर है जो इस अनादि काल शत्रुओंका संहार किया जावे यदि इस अवसर को चूका जायगा तो फिर इनके नाशका अवसर मिलना कठिनहो जायगा । बुद्धिमानोंका कर्त्तव्य यही है कि जब मौका आ जाय और शत्रु अपने वश में आजावे तब उसको बिना मारे या बिना अधिकार में किए हुए न जाने दें। नहीं तो शत्रुसे सदा ही कष्ट मिलता रहेगा । इसलिए यही उचित है कि भेदविज्ञान के द्वारा आत्मध्यानका अभ्यास करके विषयकषायोंको जीता जावे ।
तस्वभावना
स्वामी अमितगतिजो सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं-यदि कथमपि नश्येद् भोगलेशेन तत्त्वं । पुनरपि तदवाप्तिर्दुःखतो देहिनां स्यात् ॥ इति हतविषयाशा धर्मकृत्ये यतध्वं । यति भवमृतिमुक्ते मुक्तिसोयेऽस्ति वांछा ॥११॥
भावार्थ -- यदि किसी भी तरह इस मनुष्य जन्म को अल्प भोगोंमें फँसकर नाश कर डाला जायगा तो फिर प्राणियों को बड़े कष्ट से इस मनुष्य जन्मका लाभ होगा इसलिए इस अपूर्व अवसर को पाकर इंद्रियोंके विषयों की आशा को छोड़कर धर्म कार्यों में यतन कर यदि तेरी यह इच्छा है कि तु जन्म मरण से रहित मुक्ति के सुख को पा ले ।
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तत्त्वगःश्णा
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द हिंसाविक तार कष्टकारी भववन महा दुर्गमं । इंद्रिय विषय कषाय दुःख देते तू मूर्ख सहतापरं ॥ अब तो निर्मल आत्मज्ञान लहिके इन सर्वका नाशकर । अवसर पा निज शत्रु मार देते छोड़े नही ज्ञानघर ।। ६५
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उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जितना परिश्रम यह संसारी प्राणी धनादिके लिए करता है उतना यदि मोक्षके लिए करें तो अनन्त सुख को पावे |
मालिनी वृत्तम्
असिमसिकृषिविद्या शिल्पवाणिज्योगः ।
तनुधनसुतहेतोः कर्म यावुक्करोषि ॥
संयमार्थं विधत्से ।
सकृदपि यदि ता सुखममलमनंतं किं तदा नाश्नुवेऽलम् ॥ ६६ ॥
अन्वयार्थ - ( असिमसिकृषिविद्या शिल्पवाणिज्ययोर्गः ) शास्त्रकर्म, लेखनकर्म, कृषिकर्म, विद्याकला, सुदर्शन कर्म व्यापार कर्म व शिल्प इन छः प्रकार आजीविका के साधनों के द्वारा (तनुधनसुतहेतोः) शरीर धन व पुत्रके लाभ के लिए ( यादृक् कर्म ) जिस तरहका परिश्रम (करोषि ) तू करता है (यदि ) यदि (संयमार्थ ) संयम के लिए ( सक्कदपि ) एक दफे भी ( तादृक् ) बैसा परिश्रम ( विधत्से) करे ( तदा) तो ( कि) क्या ( अमल ) निर्दोष ( अनंतसुखं) अनंत सुखको (न अश्नुषे) नहीं भोग सके ? (अ) अवश्य तु भोग सकेगा ।
भावार्थ -- आचार्य कहते हैं कि गृहस्थजन इस शरीरमें मोही होकर इस शरोरको रक्षा व धन व संतानकी प्राप्तिके लिए दिन
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तस्वभावना
रात उद्यम किया करते हैं कोई शस्त्रविद्या द्वारा सिपाही बन कर, कोई लिखने के काम से, कोई किसानी को, कोई कारीगरी को, कोई व्यापार को, कोई कला चतुराई को ऐसे नाना प्रकार के द्रश्य की प्राप्तिके उपायोंको करते हुए आकुल व्याकुल रहते हैं। द्रव्य के लिए देश-परदेश जाकर बहुत कष्ट उठाते हैं। तो भी उससे क्षणिक सुख प्राप्त होता है जिससे प्राणीको सन्तोष नहीं होता। तथा संसारका भ्रमण बढ़ता जाता है। इसलिए जो बुद्धिमान अविनाशी आत्मोक सुख प्राप्त करना चाहें उनको उचित है कि जितना परिश्रम वे लौकिक उन्नतिके लिए करते हैं उतनी मेहनत वे अनन्त सुख के लिए मोक्षमार्ग पर चलने के लिए व आत्मध्यान के लिए करें तो अवश्य उनको ऐसी तप्ति प्राप्त हो कि वे फिर कभी भी संसारमें दुःखी न हों। भवसागरसे पार ही हो जाये। इसलिए संसारके पदार्थों को नाशवंत समझकर उनसे मोह न करना चाहिए। सुभाषित रत्नसंदोह में अमितगति महाराज कहते हैंइमा रूपस्थानस्वजनतनयतव्ययनिता। सुता लक्ष्मोकीर्तिद्युतिरतिमतिप्रीतिपतयः ।। मवान्धस्त्रोनेमप्रकृतिचपलाः सर्वविना
महो कष्टं मयस्तरपि विषयान्सेवितुमनाः ।।३२४ा मावार्थ-सर्व प्राणियों के ये रूप, स्थान, स्वजन, पुत्र, सामान, स्त्री, कन्या, लक्ष्मी, कीर्ति, चमक, रति, बुद्धि, प्रीति, धैर्य आदि सब ही मद में अन्ध स्त्री के नेत्र के समान चंचल हैं तब भी यह बड़े कष्ट को बात है कि यह मानव इन इंद्रियों के विषयों के सेवने का मन किया करता है !
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तत्त्वभावना
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अर्थात स्वयं चंचल व अनिष्ट पदार्थों में लुभाने से दुःख ही प्राप्त होगा।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द असि मसि कृषि विद्या शिल्प वाणिज्य करके। वपु धन सुत अर्थे श्रम करे मोह करके । असश्रम इक पारं संयमार्थे करे तू ॥
शुचि सौख्य अनंतं भोग कर ही रहे तू ॥६६।। उत्थानिका-आगे कहते हैं जो संयम का साधन करते हैं वे अवश्य मोक्ष प्राप्त करते हैं।
सुख त पागनाता गगाना । भवति सपदि कर्ता सईलोकोपरिस्थः । विवशशिखरिमर्धाधिष्ठित्तस्येह पुंसः । स्वयमवनिरस्ताज्जायते नाखिला किं॥६॥ अन्वयार्ष-जो संयम पालन करता है वह (सपदि) शीघ्र (सर्वलोकोपरिस्थ:) सर्व लोक के ऊपर सिद्ध क्षेत्र में विराजमान होता हुआ (सुखजननपटूनां) आत्मीक आनन्द को पैदा करने में कुशल ऐसे पावनानां गुणानां)पवित्र गुणों का(कर्ता)करनेवाला अर्थात अपने अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि गुणों में परिणमन करने वाला (भवति).रहता है(इह)इस जगत में (त्रिदशशिखरिमूर्धाधिष्ठितस्य पुंसः) सुमेरु पर्वतके मस्तक पर बैठे हुए पुरुषके लिये (कि) क्या(अखिला अवनिः)यह सकल पृथ्वी (स्वयं)अपने आप ही (अधस्तात्) नीची (न जायते)नहीं हो जाती है ? अर्थात् अवश्य हो जाती है।
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तस्वभावना
भावार्य-यहां आचार्य ने दिखलाया है जो भनि संपम का भले प्रकार अभ्यास करते हैं वे शुक्लध्यान के प्रताप से सर्व कर्म बंधनों को नाश कर व शरीर से रहित होकर मात्र एक अपने आत्मीक सत्ताको स्पिर रखते हुए स्वभाव से ऊपर जाकर तीन लोक के ऊपर सिद्ध क्षेत्र में अनंतकाल के लिए ठहर जाते हैं । वहांपर सर्व आत्माके गुण पवित्र हो जाते हैं और सर्व गुण अपने स्वभाव में सदश परिणमन किया करते हैं। वहां न कोई ज्ञानमें बाधा होती है न वीतरागता में बाधा होती है न वीर्य में बाधा होती है। इसलिए यह आत्मा परम स्वतन्त्रता से अपनी सम्पूर्ण सम्पत्तिको भोग करता हुआ अपने भानन्द में तृप्त रहता है तथा त्रिलोक पूज्य हो जाता है। तीन लोक के प्राणी उसकी पूजा करते हैं उसीको परमात्मा, परब्रह्म व परमेश्वर मानते हैं। यहां
पर आचार्य ने दृष्टांत दिया है कि जो पुरुष परिश्रम करके पर्वत शिकी चोटी पर चढ़ जाता है वह स्वयं ही सर्व जगतके प्राणियों से
ऊँचा हो जाता है। उस पुरुष के लिए सारी पृथ्वी नीचे हो जाती है। यहां यह भी भाव है कि जैसे उद्यमी पुरुष सुमेरु पर्वत पर चढ़नेसे सर्वोच्च हो जाता है इसी तरह जो मोक्षमार्ग पर चढ़ता चला जाता है और गुणस्थानों के क्रम से उन्नति करता जाता है वह स्वयं ही अपने गुणों की वृद्धिके कारण औरों से ऊंचा होता है। इसी तरह अब वह चलते-२ मुक्त हो जाता है तब वह परमारमा होकर लोकान में विराजमान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान प्राणीको उचित है कि क्षणिक संसार की संपदा के लिए अपना नर जन्म न खो देखें किंतु इस देह में संयम पालन के लिए खूब परिश्रम करे तो यह श्रम ऐसा सफल होगा कि इसे परमात्मा बना देगा और अधिक क्या चाहिए।
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तस्वभाबना
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श्री पद्मनंदि मुनि यतिभावनाष्टक में कहते हैंलब्ध्वा जन्म कुले शुचौ वरवपुर्बुध्या भुतं पुण्यतो ! वैराग्यं च करोति यः शुचितपो लोके स एकः कृतो॥ तेनेवोज्झितगौरवेण यदि वा ध्यानामतं पोयते । प्रसादे कलशस्तवा मणिमयो हैमे समारोपितः ॥५॥
मावार्थ-पुण्य के उदयसे पवित्र कुलमें जन्म पाकर व उत्तम शरीर का लाभकर जो कोई शास्त्र को समझकर व वैराग्य को पाकर पवित्र तप करता है वही इस लोक में एक कृतार्थ पुरुष है यदि वह तपस्वी होकर मदको छोड़कर ध्यानरूपी अमृतका पान करता रहे तो मानो उसने सुवर्णमई महल के ऊपर मणिमई कलश चढ़ा दिया है। अर्थात् आत्मध्यानी ही सच्चे तपस्वी है बोर वे ही कर्मों को काटकर मोक्ष के अधिकारी होते हैं।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जो संयम पाले लोकके अग्न जाये । सुखकृत शुचि गुणका, परिणमन नित्य पावे ।। जो जन श्रम करके मेरू ऊपर सिधारे। सब हो पृथ्वीको आप हो निम्न डारे ॥६॥ जत्थानिका-आगे कहते हैं कि इस संसारचक्रमें सच्चा सुख नहीं मिल सकता।
मालिनी वृतम् विमकरकरजाले शैत्यमुष्णमिदोः । सुरशिखरिणि जातु प्राप्यते मंगमस्वम् ॥
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तत्त्वभावना
न पुनरिह कदाचिद्वोर संसारचक्रे । स्फुटमसुखनिधाने श्राम्यता शर्म पुंसा ||६|| अन्वयार्थ - यदि (दिनकरकरजाले) सूर्य की किरण समूह में कदाचित् (शैत्यम् ) ठंडकपना हो जावे तथा (इंदो ) चन्द्रमा के (उष्णत्वं ) गर्मी हो जावे व (जातु) कदाचित् (सुरशिखरिणि) सुमेरु पर्वत में ( जंगमत्वं ) जंगमपना या हलन चलनपना ( प्राप्यते ) प्राप्त हो जावे तो हो जावो (पुनः) परन्तु (कदाचित् ) कभी भी (असुखनिधाने) दुःखों की खान ( इह घोर संसारचक्रं ) इस भयानक संसार के चक्र में (भ्राम्यता ) भ्रमण करते हुए (पुंसा ) पुरुष को (कुटम् ) प (राम) सुख (न) नही प्राप्त हो
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सकता है |
भावार्थ - यहां पर आचार्य ने दिखलाया है कि मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा आत्मज्ञान रहित ही जीव चारों गतिमई संसार के चक्कर में नित्य भ्रमण किया करता है। अज्ञानी को संसार ही प्यारा है । वह संसारके भोगों का ही लोलुपी होता है। इसलिए वह गाढ़े कर्मों को बांधकर कभी दुःख कभी कुछ सांसारिक सुख उठाया करता है । उसको स्वप्नम भी आत्मीक सच्चे सुख का लाभ नहीं होता है। आचार्य ने यहां तक कह दिया है कि असंभव बातें यदि हो जायें अर्थात सूर्य की किरणें गरम होती हैं वे ठंडी हो जावें व चन्द्रमा में ठंडक होती है सो गरमी मिलने लगे तथा सुमेरु पर्वत सदा स्थिर रहता है सो कदाचित् चलने लग जाये परन्तु मिथ्यादृष्टि जीवको कभी भी आत्म सुख नहीं मिल सकता है । इसलिए हमें उचित है कि मिथ्यात्वरूपी विष को उगलने का उद्यम करें और सम्यग्दर्शन को प्राप्त करें । भेद विज्ञान को हासिल करें व आत्मा के विचार करने वाले हो जानें इसी ही उपाय से मुक्ति के अनन्त सुखका लाभ होता है । श्री पद्मनंदि मुनि परमार्थविशति में कहते हैं—
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तत्त्वभावना
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दुःखट्यालप्तमाकुले भवबने हिंसादिदोषमे । नित्यं दुर्गतिपल्लिपातिकुपये भ्राम्यति सर्वेगिनः॥
मध्ये सगरमाणितपाये गारधयानो जनो। यात्यानंवकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं पुरं ॥१०॥ भावार्थ-इन दुःखोंरूपी हाथियोंसे भरे हुए व हिंसादि पापों के पक्षों को रखने वाले तथा खोटी गतिरूपी भीलों को पल्लियों के खोटे मार्ग में नित्य पटकने वाले संसार वन में सर्व ही प्राणी भटका करते हैं। इस वन के बीच में जो चतुर पुरुष सुगुरु के दिखाए हुए मार्ग में चलना शुरू कर देता है वह परमानन्दमई उत्कृष्ट व स्थिर एक निर्वाणरूपी नगर में पहुंच जाता है।
__ मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द सूर्य किरण ठंडी उष्ण हो चन्द्र बिम्छ। यदि सुरगिरि थिर भी हो या अथिर और कम्धं ॥ पर कभी न पावे आत्म सुख मढ़ जीवा। दुःखमय भवयन में जो भटकता अतोवा ॥६८।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा का स्वभाव शुद्ध है इसका सम्बन्ध संसार वासनाओं से नहीं है।
शार्दूलविक्रीडितं कार्यः कर्मबिनिमितबहुविधः स्थूलाणुदो विभिः। नात्मा याति कदाचनापि विकृति संबध्यमानः स्फुटं । रक्तारक्तसितासितादिवसनरावेष्टयमानोsiप कि। रक्तारक्तसितासितागुणितामापद्यते विग्रहः ।।६।।
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अन्वयार्थ - ( कर्मविनिर्मितेः) कर्मों के उदव से रची हुई ( बहुविधेः ) नाना प्रकार की (स्थूलाणुदीर्घादिभिः) मोटी, पतली ऊँची, छोटी आदि ( कार्य ) देहों के द्वारा (स्फुटं संवध्यमानः ) प्रगटपने सम्बन्ध रखता हुआ ( आत्मा ) यह जीव ( कदाचनापि ) कभी भी ( विकृति न याति ) विकारी नहीं हो जाता है अर्थात अपने को नहीं त्यागता है (क) क्या (विग्रहः ) यह शरीर (रक्तारक्तसितासिता दिवसनेः ) लाल पीले, सफेद, काले वस्त्रों से (आवेष्ट्यमानोऽपि ) ढका हुआ भी ( रखतारक्त सितादिगुणिताम् ) लाल, पीले, सफेद, काले रंग पाने को ( आपद्यते ) प्राप्त हो जाता है
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तस्वभावना
भावार्थ- यहां आचार्य यह दिखलाते हैं कि निश्चयतय से अर्थात् वास्तव में यह आत्मा शुद्ध है। इसने अज्ञान से जो कर्म बांधे हैं उन कर्मोंके उदय से इसके साथ कार्मण, औदारिक और तेजस शरीरों का सम्बन्ध है। ये शरीर भी पुद्गल द्रव्य के रचे हुए हैं। इनमें मोह कर्म के उदय से रागद्वेष, मोह भाव होते हैं, तथा नाम कर्म के उदय से शरीर मोटा, पतला, लम्बा व छोटा होता है । शरीर के सम्बन्ध से आत्माको दुबला, मोटा, बलवान, निर्बल व क्रोधी, मानी, लोभी आदि के नाम से पुकारते हैं । असल में देखो तो आत्मा अपने स्वभावसे असंख्यात प्रदेशी ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय अविनाशी हैं। आत्मा पुद्गल के संबंध होने पर भी आत्मा ही रहता है कभी भी पुद्गलमई नहीं हो जाता है। यहां दृष्टांत देते हैं कि जैसे शरीर पर लाल, पीले, नीले, सफेद कैसे भी रंग के कपड़े पहनो वे कपड़े शरीर के ऊपर ही ऊपर हैं। शरीर लाल, पीला, काला, सफेद नहीं होता है ।इसी तरह कर्मों के नाना प्रकार के संयोग होने पर भी आत्मा
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तस्वभावना
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वास्तव में किसी भी कर्मकृत विकारों से विकारी नहीं हो जाता है । निश्चय से आत्मा शुद्ध स्वभाव में ही रहने वाला है। ऐसा विचारवान को विचारना चाहिए। ऐसा ही श्री पननंदि मुनि ने एकत्वाशीतिमें कहा है
कोधाविकर्मयोगेऽपि निर्विकारं परं महः । विकारकारिभिमधन धिकारि नमो मवेत ॥३५॥ नाम हि परं तस्मान्निश्चधात्तवनात्मकम् ।
जन्ममृत्यादि चारोषं वपुधर्म विबुर्युधाः ॥ भावार्थ-जैसे विकारी होनेवाले मेघोंसे आकाशका स्वभाव विकारी नहीं होता है वैसे क्रोधाविक कर्मों का संयोग होने पर भी उत्कृष्ट तेज वाला मात्मा भी क्रोधी मानी आदि रूप नहीं होला । इस आत्मा के स्वभाव से तो नाम भी भिन्न हैं क्योंकि चैतन्यप्रमुका कोई नाम नहीं है । जन्म-मरण रोग आदि ये सर्व स्वभाव शरीर के हैं ऐसा ज्ञानी लोग मानते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द मोटे सूक्ष्म वीर्घ देह बहुविध हैं कर्मने जो रचे। इनमें वसता आस्म हो न उनसा निजभाव आतम नचे ।। काला पोला लाल श्वेत कपड़ा जो देह को ढाकता। काला पोला लाल श्वेत तनको, कबहू न कर डालता ॥६६ उत्थानिका--आचार्य और भी आत्माका स्वरूप कहते हैंगौरो रूपधरो दृढः परिवढ़ः स्थलः कृशः कर्कशः। गोर्वाणो मनुजः पशु रकमः षंढः पुमानंगना || मिथ्या त्वं विषधासि कल्पनमिवं मूढो विबुध्यात्मनो । नित्यं ज्ञानमयस्वभावममलं सर्वव्यापायच्यतम् ॥७०॥
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भावना
अन्वयार्थ - - ( त्वं ) तू ( आत्मानः ) आत्मा के ( नित्यं ) अविनाशी ( अमलं) निर्मल ( सर्वव्यपाष्युत्तम् ) सर्व संसारिक दुःख जालों से रहित (ज्ञानमयस्वभावं ) ज्ञानमई स्वभाव को ( विबुध्य) जान करके भी ( मूढ़: ) मूर्ख होकर ( इदं ) इस ( मिथ्या ) झूठी (कल्पनम् ) कल्पनाको ( विदधासि ) किया करता है कि मैं (गौरः) गोरा हूँ (रूपधर: ) मैं सुन्दर हूँ (दृढः ) मैं मजबूत हूँ ( परिवृढ़ः ) मैं श्रीमान् हू' (स्थूलः ) मैं मोटा हू' (कुश : ) में दुर्बल हू (कर्कशः ) में कठोर हूँ ( गीर्वाणः ) में देव हूँ (मनुजः ) मैं मनुष्य हूं (पशु) मैं पशु हैं (नरकभूः) में नारको हू (षंढ: ) मैं नपुंसक हूँ ( पुमान् ) मैं पुरुष हूँ ( अंगना ) तथा में स्त्री हूँ ।
भावार्थ -- यहां याचार्यने दिखलाया है कि आत्माका स्वभाव अविनाशी है जब शरीरादि पदार्थ नाशवंत है, आत्मा ज्ञानमई है जब शरीरादि जड़ हैं, आत्मा निर्मल वीतराग है, जब क्रोधादि कर्म विकाररूप जड़ है, आत्मा सर्वं आकूलता व दुःखों से रहित परमानन्दमई है जब कि शरीरादि व क्रोधादि संबंध जीव को आकुलित व दुःखो करनेवाला है। इस तरह बात्मा व अनात्मा का सच्चा स्वरूप जानकर भो मोही जीव मिथ्यादृष्टि होता हुआ मिथ्या श्रद्धान के नशे में अपनेको ताना भेषरूप माना करता है । जो अवस्थाएं कर्मके निमित्तसे हुई हैं उनकोहो अपना माना करता है अपने आत्मा के असली स्वभाव से गिर जाता है । देव मनुष्य, नारको, पशु, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, गोरा, सुन्दर बलिस्ट मोटा, दुबला, कठोर आदि सब पुद्गल की अवस्थाएं हैं। जिस घर में आत्मा रहता है उस घर की अवस्थाएं हैं। तो भी मोहो जीव अपने को उस रूप मान लेता है उसे आत्मज्ञान का श्रद्धान नहीं है ।
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तात्पर्य कहने का यह है कि जो मानव आत्मोन्नति चाहता है उसका यह कर्तव्य है कि भेद विज्ञान के द्वारा अपने शुद्ध स्वरूप को अलग छांट ले और जो अनात्मा है उसको अलग कर दे। इसी प्रकार के विचार से स्वानुभव की प्राप्ति होती है। यही स्वानुभव का बीज है । पद्मनंदि मुनि एकत्वाशीति में कहते हैं
एकमेव हि चैतन्य शुनिश्चयतोऽपथा। नावकाशो विकल्पाना सत्राखंडकवस्तुनि ॥१५॥ भावार्थ---शुद्ध निश्चय से देखा जाये तो यह आत्मा एक ही चैतन्यरूप है तथा इस अखंड पदार्थ में अनेक दूसरे विकल्पों के उठाने की जगह ही नहीं है कि मैं देव हूं या नारकी हूँ। इत्यादि।
मल श्लोकानुसार शार्दलविक्रीडित छन्द गोरा सुन्दर वीर और धीमान हं थूल पतला कड़ा। हूं पशु नारक वेव और मानव नारी पुरुष षंढ पा ॥ मूरख मिथ्या कल्पना जु करता निज आत्म नहि वेदता। जो है नित्य पवित्र ज्ञानरूपी जहं कण्टको शून्यता ॥७॥
उत्पामिका-आगे कहते हैं कि मुमुक्ष जीव को नित्य ही परमात्मा का स्वरूप चिन्तवन करना चाहिएसरिंभकषायसंगरहितं खोपयोगोखतम् । तपं परमात्मनो विकलिलं बाह्यव्यपेक्षातिगं ।। तन्तिःश्रयसकारणाय हृदये कार्य सदा नापरम् । कृत्यं क्यापि चिकोर्षयो न सुधियः कुर्वन्ति तब्ध्वंसकं ॥७१
अन्वयार्थ (सर्वारम्भकषायसंगरहितम्) जो सर्व आरम्भ,
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क्रोधादि कषाय तथा परिग्रह से रहित है ( शुद्धोपयोगोद्यतम् ) जो शुद्ध ज्ञानदर्शनमई उपयोग से पूर्ण है ( विकलिलं ) जो सर्व कर्म मेल से रहित है ( वाह्यव्यपेक्षा तिमं ) जिसको किसी भी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा या गरज नहीं है (तत्) वही ( परमात्मनः) इस उत्कृष्ट आत्मा का (रूपं ) स्वभाव है। (तत्) इसी स्वरूप को ( निःश्रेयस कारणाय) मोक्ष प्राप्ति के लिए. (हृदये ) मन में (सदा ) हमेशा ( कार्य ) ध्याना चाहिए (न अपरां) इसके सिवाय अन्य किसी स्वभावको न ध्याना चाहिए। ( कृत्यं ) करने योग्य काम को ( चिकीर्षवः) पूरा करने की इच्छा करने वाले ( सुधियः) बुद्धिमान लोग (तट्वंसकं ) उद्देश्य के नाश करने वाले कार्यको (क्व अपि) कहीं भी व कभी भी (न कुर्वति) नहीं करते हैं ।
तत्व भावना
भावार्थ -- यहाँ पर आचार्य ने दिखाया है कि जो भव्य जीव अपने आत्माको स्वाधीन करना चाहते हैं उनका यह पवित्र कर्तव्य है कि वह अपने ही आत्मा को परमात्मा के समान जाने, श्रद्धा में लायें तथा अनुभव करें। आत्माका स्वभाव किसी शुभ व अशुभ आरंभ करने का नहीं है। जितने भी काम होते हैं वे इस जगत में मन, वचन कायके हिलने से होते हैं । आत्मा के जब मन वचन काय ही नहीं है तब उनके द्वारा वर्तन या आरंभ किस तरह हो सकते हैं। इस आत्मा में क्रोधादि कषाय की कलुषता भी नहीं है क्योंकि यह चारित्र मोहनीय कर्म का रस है, जैसे नीमका स्वाद कड़वा, ईख का स्वाद मीठा । यह बात्मा सर्व पर पदार्थों के संगसे शून्य है। इसके पास न किसी शरीर का परिग्रह है, न धनधान्य का है न क्षेत्र मकान है न रुपये पैसे का है न स्त्री पुत्रादि का है। यह आत्मा सर्व प्रकार के पौद्गलिक मैल से शून्य है यह अमूर्तीक है । इसके गुण इसके
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तस्वभावना
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भीतर स्वतंत्र हैं उनके विकास के लिए किसी बाहरी प्रकाश की व अन्य किसीकी सहायताकी जरूरत नहीं है। यह आत्मा पूर्णपने शुद्ध अनंत ज्ञान व अनंतदर्शन से भरा हुआ है। मैं ऐसा ही हूँ इस प्रकारका अनुभव सदा करना योग्य है । यह स्वात्मानुभव हो आत्माको परमात्मा पद में ले जाने वाला है। जो बुद्धिमान भेदविज्ञानी निपुण पुरुष हैं वे आत्मचितवन को छोड़कर और कोई रागद्वेषवर्धक चितवन नहीं करते हैं, क्योंकि पर की चित्ता बन्धन को करने वाली है, जो आत्मा को मुक्तिमार्ग में विघ्नकारक है। लौकिक में भी बुद्धिमान लोग अपना जो उद्देश्य स्थिर कर लेते हैं उसके अनुकूल ही कार्य करते हैं उसके विरुद्ध कार्य से सदा बचते रहते हैं।
श्री पद्मनंदि मनि निश्चय पंचाशत में कहते हैंअहमेवचित्स्वरूपश्चिद्रूपस्याश्रयो मम स एव । नान्यत्किमपि जड़त्वात् प्रीतिः सदशेषु कल्याणी ॥४२॥ स्वपर विभागावगमे जाते सम्यकपरे परित्यक्ते । सहजैकबोधरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं सिखः॥४२॥
भावार्य-मैं ही चैतन्य स्वरूप हूँ तथा मेरेको चैतन्य का ही आश्रय है मैं और किसी का आश्रय नहीं लेता हूँ क्योंकि मेरे सिवाय अन्य पदार्थ सब जड़ हैं तथा यह भी न्याय है कि समान स्वभाव वालों में ही प्रीति करनी योग्य है । जिस समय इस आत्मा को अपना और पर का स्वरूप अलग-२ भले प्रकार समझ में आ जाता है तब यह स्वयं सिद्ध आत्मा पर पदार्थ को छोड़कर अपने ही स्वाभाविक एक ज्ञान स्वभाव में लवलीन हो जाता है।
वास्तव में आत्मलीनता ही सच्ची सामायिक है
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तत्त्वभावना
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द परमात्मा है सर्व मैल दूरं नहिं बाह परकी करें। शुद्धपयोगमई कषाय रहितं नारंभ परिग्रह धरै ।। सो ही शिक्षके हेतु निता चित ध्यान नहीं और कुमा बुधजन निज उद्देश्य घातकारक करते नहीं कार्य कुछ ॥७१
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि शरीरसे प्रीति करना है सो आत्मा की उन्नति से बाहर रहना है।
यो जागति शरीरकार्यकरणे वृत्ति विधत्ते यतो। हेयादेविचारशन्य हृदयो नात्मक्रियायामसौ ॥ स्वार्थ लब्धमना बिभु चतु ततः शश्यच्छरीरादरम् ।। कार्यस्य प्रतिबंधके न यसते निष्पत्तिकामः सुधीः ।।७२।।
अन्वयार्थ-(यतः) क्योंकि (यः) जो कोई (शरीरकार्यकरणे) शरीरके कामके करनेमें (जागति) जाग रहा है (असो) यह (हेयादेयविचारशून्यहृदयः) त्यागने योग्य व करने योग्य के विचार से शून्य मन वाला होता हुआ (आत्मक्रियायाम् आत्मा के कार्य में (वत्ति न विधत्ते) अपना वर्तन नहीं रखता है। (ततः) इसीलिए (स्वार्थ लब्धुमना) अपने आत्मा के प्रयोजन को जो सिद्ध करना चाहता है उसको (शश्वत्) सदा ही (शरोरादरम्) शरीर का मोह (विमुंचतु) छोड़ देना चाहिए (निष्पत्तिकामः) अपनी इच्छाको पूर्ण करने वाला (सुधीः) बुद्धिमान पुरुष (कार्यस्य) अपने काम के (प्रतिबंधके) रोकने वाले कार्य में (न यतते) उद्यम नहीं करता है ।
भावार्थ-यहां आचार्य कहते हैं कि शारीर और आत्मा दो भिन्न २ पदार्थ हैं। जिसको शरीरका मोह है वह रातदिन शरीर
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की शोभा करने में उसको पुष्ट करने में य उसको आराम देने में अपना समय व बल नष्ट किया करता है उसको मात्मोन्नति की तरफ ध्यान नहीं रहता है । उसका हृदय विषयभोगों में ऐसा अन्धा हो जाता है कि उसको कर्तव्य अकर्तव्यका व त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्यका विवेक नहीं रहता है। इसलिए जो अपने आत्माकी उन्नति करना चाहे उसको उचित है कि वे शरीर का मोह छोड़े उसका मादर न करें उसको चाकर के समान रखकर उससे तपादि का साधन करे और अपना कार्य बना लें | जो बुद्धिमान पुरुष होते हैं वे सदा इस बातकी सम्हाल रखते हैं । कायें करना निश्वय किरा गया है उसकी सफलता का ही उद्योग करे तथा उस कार्यके विरोधी किसी उद्यम को न करें । जब यह निश्चय है कि शरीर का मोह मन को आत्मकार्य से हटाने वाला है तो विवेकी को आत्मा के काम बनाने का ही ध्यान रखना चाहिए और इसलिए आत्म मनन करके स्वानुभव प्राप्त करना चाहिए, बिना आत्मध्यान के कभी भी आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती है ।
तत्त्वभावना
जब तक शरीर सम्बन्धी मोह नहीं छूटता तब तक आत्महित नहीं हो सकता। श्री अमितगति आचार्य सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं
मवमदनकषायारातयो नोपशान्ता ।
न च विषय विमुक्ति अंन्मदुःखान्न भौतिः || न तनुमुखविरागो विद्यते यस्य जन्तो
मंगति जगति दीक्षा तस्य मुक्त्यै न मुक्त्यै ॥ १७॥
भावार्थ --- जिस मानव के घमंड व कामभाव व क्रोधादि शत्रु शांत नहीं हैं व जिसका मन विषयों से विरक्त नहीं हुआ है व
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तत्त्वभाबना
जिसको संसार के दुखोंसे भय नहीं है तथा जिसके चित्तमें शरीर के सुख से वैराग्य नहीं भया है उसकी दीक्षा भी इस जगत में भोगों के लिए है मुक्ति पाने के लिए नहीं है।
मल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो जागे निज तन विलासपथ में सो मुर्ख जाने नहीं। क्या हितकर क्या नाशकर सुकर्तव निजआत्म करता नहीं ।। जो चाहे परमात्म धाम अपना तन मोह करता नहीं। बुध निज कारण सिद्धकाज उल्टा कब ही ज चलता नहीं ।।७२
उत्थानिका--आगे कहते हैं कि बुद्धिमान को व्यर्थ कार्य न करना चाहिए।
भीतं मुंदति नांसको गतघणो भषो या मा ततः।
सौख्यं जातु न लभ्यतेऽभिलषितं त्वं माभिलाषोरिवं ।। .: प्रत्यागच्छति शोचितं न विगतं शोक वृथा मा कृथाः ।
प्रेक्षापूर्वविधायिनो विवधते कृत्य निरयं कथम् ॥७२॥
अन्वयार्य---(गतघृणः) दया रहित (अंतक:)यमराज (भोतं) जो मरणसे इरता है उसको (न मुंचति) छोड़ता नहीं है (ततः) इसलिए (वृथा) बेमतलब(मा भैषीः)डर न कर (अभिलाषितं) अपना चाहा हुआ (सौख्यं) सुख (जातु) कभी (न लभ्यते) नहीं प्राप्त होता है इसलिए (त्वं) तू (इदं) इस सुख की (मा अभिलाषी:) इच्छा न कर (विगतं) जो मर गया नष्ट हो गया (शोचित) उसका शोच करने पर (न प्रत्यागच्छति) लौट कर नहीं आता है इसलिए (वृथा) बेमतलब (शोक मा कृषा:) शोक न कर (प्रेक्षापूर्वविधायिनः) समझकर काम करने वाले विद्वान (निरर्थम्) बेमतलब (कृत्यं) काम (कपम् ) किस लिए (विदघते) करेंगे?
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तस्वभावमा
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भावार्थ-वहाँ आचार्यने बड़ी ही सुन्दर युक्तिसे यह समझा दिया है कि बुद्धिमान प्राणी को न तो भरनेसे डरना चाहिए, न मांगोंको इच्छा करनी चाहिए और न वियोग हुई वस्तु का शोक करना चाहिए। जगत के प्राणी इन्हीं भूलों में फंसे रहते हैं। यह बात जब निर्णय की हुई है कि जब आयुकर्म समाप्त हो जायगा तब इस शरीर को आत्मा अवश्य छोड़ जायगा तब सर भय करना कि कहीं मरण न हो बड़ी भारी मुर्खता है। व कायराना है। बुद्धिमान प्राणी कभी भी बेमतलब मौतसे डरता नहीं किन्तु वीर पुरुष की तरह जब मरण आवे तब मरने को तैयार रहता है। जब यह देखा जाता है कि संसारमें अधिकतर चाहे हुए इंद्रियोंके विषय नहीं प्राप्त होते हैं किन्तु जैसा न चाहो वैसा पदार्थ प्राप्त हो जाता है तब फिर वृथा पदार्थों के लिए तृषातुर व अभिलाषावान रहना अपने मनको क्लेषित रखना है । बुद्धिमान मनुष्य आमामी भोगों की तृष्णा से क्लेशित नहीं होता है जो पुण्यके उदयसे पदार्थ प्राप्त होता है उसी में सन्तोष कर लेता है। यह जब पक्का निश्चय है कि जो प्राणी मर गया वह फिर उसी शरीरमें आ नहीं सकता तब बुद्धिमान कभी भी अपने मरण प्राप्त माता, पिता, पुत्र, पुत्री, स्त्री, मित्र आदि का शोक नहीं करता है । शोक करने से परिणामों में क्लेश होता है वह क्लेश यहाँ भी दुःखी करता है व आगामी के लिए असातावेदनीय का बंध करा देता है । इत्यादि बातोंको विचारकर जो चतुर मानव हैं वे कभी भी निरर्थक काम नहीं करते हैं वे जिस काम को करते हैं उसका फल पहले ही विचार लेते हैं जिसका फल पहले ही विचार लेते हैं। जिसका फल होना निश्चय है उस हो काम को करते हैं।
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सज्जन पुरुष सदा उत्तम फलदायी कार्यों को ही करते हैं । जैसा अमितगति महाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैचित्ताल्हा विव्यसनविमुखः शोकता पापनोति । प्रशोत्पादि श्रवणसुभगं न्यायमार्गानुयायि ॥ तथ्यं पथ्यं व्यपगतमलं सार्थकं मुक्तबाधं । यो निर्दोषं रचयति वचस्तं बुधाः सन्तमाहुः || ४६१ ||
तत्त्यभावना
भावार्थ -- जो कोई बरी आदतों से अलग रहता हुआ ऐसा वचन कहता है जो चित्तको प्रसन्न करने वाला हो, शोक संताप को हटाने वाला हो, बुद्धि से उत्पन्न हुआ हो, कानों को प्रिय मालूम हो, न्यायमार्ग पर ले जाने वाला हो, सत्य हो, हजम होने योग्य हो, दोषरहित हो, अर्थसे भरा हो व बाधाकारक न. हो उसी को बुद्धिमानों ने सन्तपुरुष कहा है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द निर्दय यम भयमति जन्तु मारे इससे जु डरना वृथा । इच्छित सुखन प्राप्त होय कब ही अभिलाष करना वृथा ॥ मृतगत शोध किये न लौट आता है शोक करना बुथा । विद्वजन सुविचार फार्म निष्फल करते नहीं सर्वथा ॥७३॥
उत्थानिका- आगे आचार्य कहते हैं कि आत्मोक सुख के लिए प्रयत्न कर, संसारिक सुख के लिए वृथा क्यों इच्छा करता है ।
स्वस्थेऽकर्मणि शाश्वते विकलिले विद्वज्जन प्रार्थिते । संप्राप्य रहसात्मना स्थिरधिया त्वं विद्यमाने सति ॥ बाह्यं सोममवाप्तुमंतविरसं कि खिन्नसे नश्वरम् । रेसिले शिवमन्दिरे सति चरी मा मूढ भिक्षां भ्रमः ॥७४
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सहप्रभावला
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अन्वयार्थ - ( स्वस्थे) जो सुख अपने आत्मा में ही स्थित है। ( अकर्मणि ) जो कर्मोंके उदयसे प्राप्त नहीं होता अथवा जो कर्मों के नाशसे प्रगट होता है ( शाश्वते ) जो अविनाशी है ( विकलिले व जो मल रहित निर्मल है ( विद्वज्जनप्रार्थिते ) जिस सुखकी विद्वान लोग सदा इच्छा किया करते हैं तथा जो ( स्थिरधिया आत्मना ) स्थिरभाव करनेवाले आत्मा के द्वारा ( रहसा हंप्राप्ये) सहज ही में प्राप्त होने योग्य है ( विद्यमाने सति ) ऐसा सुख अपने पास होते हुए ( त्वं ) तू (अंतविरसं ) जो अंत में रस रहित है ( नश्वर ) व नाशवंत है ऐसे (बाह्य सौख्यम्) बाहरी इंद्रियजनित सुखको (अवाप्त) प्राप्त करने के लिए ( कि ) क्यों (खिद्यसे ) खेद उठाता है (रे मूढ़) रे मूर्ख ( शिवमंदिरे चरी सिद्धे सति ) महादेवजी के मंदिर में खाने को नैवेद्य मिलते हुए (भिक्षां मा भ्रमः) भिक्षा के लिए मत भ्रमण कर ।
भावार्थ - यहां पर आचार्य कैसा सुन्दर कहते हैं कि जो वस्तु अपने पास ही हो उसको न जानकर उस वस्तु के लिए बाहर ढूंढते हुए खेद उठाना नितान्त मूर्खता है। कोई साधु महादेव जीके मंदिर में रहता था वहीं जब उसको पेटभर खानेको मिष्टा न आदि मिल जावे तब उसको भिक्षा के लिए भ्रमण करना बुधाही कष्ट उठाना है। आत्मा का स्वभाव आनन्द है यह अविनाशी हैं । पापरहित है । कर्मों के नाश से प्रगट होता है । इसी आनन्द को सदा साधुजन चाहा करते हैं तथा यह आनन्द मात्र अपने उपयोग को अपने में स्थिर करनेसे ही अपनेको प्राप्त हो जाता है। जो अपने ही पास है व जिसके लिए किसी दूसरे पदार्थको जरूरत नहीं है व जो सदा ही तृप्तिकारक है, जो ऐसे सच्चे सुखको मूर्ख जन नहीं पहचानते हैं और उस सच्चे सुख के
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लाभ के लिए अपने आत्मा के भीतर प्रवेश नहीं करते हैं तथा बाहरी इंद्रियजनित नीरस और अतृप्तिकारी सुखकी प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हैं वे वृथा ही कष्ट उठाते हैं, क्यों कि यदि परिश्रम करने से कदाचित इच्छित बाहरी सुख प्राप्त भी हो जाये तोमी उससे तृप्ति नहीं होती तथा वह ठहरता नहीं है, वह शीघ्र नाश हो जाता है। जिस किसी को अपने स्थान में हो मनमोहन खाने को मिले और वह उसको तो न खावे किन्तु भीख माँगता फिरे उसे भीख में तो पूरा भोजन भी मिलना गाबाद रहे ये यह है कि ज्ञानी जीवको अपने ही भीतर भरे हुए सुख समुद्रकी खोजकर के उसमें ही स्नान करना चाहिए व उसीके जलको पीना चाहिए। उसी से ही तृप्ति होगी और वही सदा पीने में भी आयगा उसे जलका कभी वियोग नहीं होगा क्योंकि वह सुखसमुद्र अपने ही पास है और अपने को अपनेसे मिल जाता है। इसलिए इंद्रियोंके सुख की वांछा छोड़ आत्मिक सुख के लिए अपने आप में रहना ही हितकर है।
तस्यभावना
Ay
श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैंअतृप्तिजनकं मोहबाव रहे महेन्धनम् । असात सन्तते बजमक्ष सौख्यं जगुर्जिनाः ||१२|| अध्यात्मजं यत्यक्षं स्वसंवेद्यमनश्वरम् । आत्माधीनं निराबाधमनन्तं योगिना मतम् ||२३||
भावार्थ - जिनेन्द्रोंने कहा है कि जो सुख इंद्रियोंसे पैदा होता है वह तृप्त करनेवाला नहीं है तथा वह सुख मोहरूपी द्रावानल को लिए महा ईंधन के समान है तथा दुखों की परिपाटीका चीन है, जबकि अधामिक सुखों की कार से रहित
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हैं । मात्र अपने ही अनुभव गोचर है, अनाशी है, स्वाधीन है, बाधारहित है तथा अनन्त है, योगियोंके द्वारा माननीय है ।
लस्वभावता
वास्तव में आत्मीक सुख जब अमृत है तब इंद्रियसुख खारे पानी के समान है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडति छन्द
जो सुख अपने आत्म बीच बसता है मलरहित शाश्वता । थिरभावोंसे आपमें सु मिलता विद्वान नित चाहता ॥ फिर क्यों नीरस बाहरी क्षणिक सुख अर्थ जु कष्टं सहे । शिवमंदिर में भोज्य सहज मिलते भिक्षार्थं भ्रम दुख सहे ॥७४
उत्पानिका- आगे कहते हैं कि जो थिर सुख पाना तो चाहे पर उपाय उल्टा करे उसको वह सुख कैसे मिल सकता है ? मालिनी वृत्तम्
अभिलषति पवित्र स्थावरं शर्म लब्धुं । धनपरिजनलक्ष्मी यः स्थिरीकृत्य मूढः || जिगमिषति पयोवेरेव पारं दुरापं । प्रलयसमयवीच निश्चलीकृत्य शंके ।। ७५ ।
अन्वयार्थ - ( यः मूढः ) जो मूख ( धनपरिजनलक्ष्मी ) धन, बंधुजन व सम्पत्तिको ( स्थिरीकृत्य ) स्थिर रख करके (पवित्र) निर्मल ( स्थवरं ) अविनाशी ( शर्मं ) सुख (लघु) पानेकी ( अभिलपति ) इच्छा करता है ( शंके) मैं ऐसी आशंका करता हूँ कि (एषः) यह मूर्खजन (प्रलयसमयवीचि) प्रलयकालको उठने वाली तरंगों को ( निश्चली कृत्य ) निश्चल करके ( पयोधेः) समुद्रके (दुरापं पारं ) न पार होने योग्य पारको (जिगमिषति ) जाना चाहता है।
भावार्थ – आचार्य कहते हैं कि वह मानव महा मूर्ख है जो
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तत्त्वभावना
..-..-.. अविनाशी, पवित्र सुख तो चाहे परंतु उसके लिए अपने आत्मा में ध्यान करना छोड़कर घन परिवार परिग्रह को संचय करे और इन चंचल वस्तुओंको थिर रखना चाहे और यह भी चाहे कि थिर सुख मिल जाये । यह ऐसोही मूर्खताकी बात है कि जैसे कोई प्रलयकालको पवनसे उद्धत सगुनके उसकी न निश्चल रहा वालों तरंगों को स्थिर करके उसे पार करना चाहे। थिर पवित्र सुख कभी भी इंद्रियोंके भोगों से प्राप्त नहीं हो सकता इंद्रियभोग से जो कुछ सुख होगा वह मात्र क्षणिक होगा व तृप्तिकारी न होगा तथा मैला होगा। क्योंकि जिस धन परिवार व परिग्रह के आश्रय से यह इंद्रियसुख होता है वे सब पदार्थ चंचल है व नाशवंत हैं इसलिए इंद्रियसुख भी चंचल व नाशवंत है। तृप्तिकारी अविनाशी सुख तो मात्र अपने पारमा के स्वभावमें है, वह तब ही प्राप्त होगा जब जगतके पदार्थोसे मोह छोड़ के निज आत्मा का अनुभव किया जायगा । इंद्रियोंको भोगते हुए कभी भी थिर व पवित्र सुख नहीं मिल सकता है, वह तो आत्मसन्मुख होने ही पर मिलेगा। तात्पर्य यह है कि सच्चे सुखके लिए अपने आप में ही खोज करनी चाहिए। ऐसा ही श्री शुभचन्द्र मुनि श्री ज्ञानार्णव में कहा है
अपास्य करणग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिमिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिक मतम् ॥२४॥
भाषार्थ-इन्द्रियों के विषयों को रोककर जो सुख स्वयम् आत्मामें ही आत्माके ही द्वारा योगियों को प्राप्त होता है वही आत्मीक सुख है। इन्द्रियों का सुख तृष्णा के दुःखों को बढ़ाने वाला है जैसा वहीं कहा है
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अपि संकलिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं विसर्पति ॥३०॥ भावार्थ- जैसे- २ इच्छित भोग मिलते जाते हैं वैसे २ मनुष्यों के चित्त को जनस में फैलती जाती है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द शुचि थिर सुख पाऊँ चाह ऐसा करे है। धन सुत तिय पृथ्वी भोगमें मति घरे है ।। मानूं मूरख सो उदधिका पार चाहे । प्रलय समय लहर यिर करूँ बुद्धि गाहे ॥७५॥ उत्थानिका -- आगे कहते हैं कि बुद्धिमान पुरुष इन्द्रिय
विषयों से दूर रहते हैं ।
तत्त्वभावना
शार्दूलविक्रीडित छन्द
ये दुःखं वितरन्ति घोरमनिशं लोकद्वये पोषिताः । दुर्वारा विषयारयोः विकरुणाः सर्वांगशर्माश्रयाः ॥ प्रोच्यते शिवकांक्षिभिः कथममो जन्मावलीबद्वतो । दःखोकविवर्धनं न सुधियः कुर्वन्ति शर्मार्थिनः ॥१७६॥ अन्वयार्थ - ( ये ) जब ये ( दुर्वारा:) कठिनता से दूर होने योग्य (त्रिकरुणाः) और निर्दयी ( विषय रय:) इन्द्रिय विषयरूपी शत्र ( पोषिता: ) पूष्ट किये जाने पर ( लोकद्वये ) इस लोक व परलोक दोनों में (अनिशं) रातदिन ( घोरं दुखं) भयानक कष्टों को (निरंनि) विमारते हैं तब (शिवकांक्षिभिः) मोक्ष के आनन्द को चाहने वाले ( कथं । किस तरह (जन्मावलीबर्द्धिनः) संसार की परिपाटी को बढाने वाले अभी इन विषयरूपी शत्रुओं को (सर्वागशर्माश्रयः ) सर्व प्रकार शरीर को सुख
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तत्त्वभावना
देने वाले हैं ऐसा (प्रोच्यन्ते) कह सकते हैं। (शर्माथिनः) जो सुख के अर्थी हैं वे (सुधियः) बुद्धिमान प्राणी (दु:खोद्रेकविदधन) दु:ख के वेग को बढ़ाने वाले कार्य को (न कुर्वन्ति) नहीं करते हैं।
भावार्थ- आचार्य कहते हैं कि इंद्रियों के भोगोंकी चाहनाएँ इस जीव के लिए महान शत्रुता का काम करती हैं। ये चाहनाएं ऐसी प्रबल होती हैं कि इनको दूर करना कठिन होता है। तथा इनको जरा भी दया नहीं होती है, इनके कारण रात्रिदिन इस लोक में भी आकुलतान लोकादि के दुभत्र महने पड़ते हैं। व तीन कमं बांधकर परलोकमें दुर्गति के कष्ट भोगने पड़ते हैं। जो इनको पुष्ट करते हैं उनको अधिक-२ दु:ख देती हैं। ये विषयरूपी शत्र वास्तव में इस जीव की जन्म मरणरूपी परिपाटी को बढ़ाने वाले हैं तब मोक्षके आनन्द को चाहने वाले इन इंद्रियों के विषयों को किस तरह ऐसे कह सकते हैं कि ये सर्व प्राणियों को सुखके देने वाले हैं ?। इनको सुखदायी कहना नितान्त भूल है। जिनसे उभयलोक कष्ट मिले उनको कोई भी बुद्धिमान सुखदायी नहीं मान सकता है। इसीलिए जो सुख के अर्थी बुद्धिमान हैं वे कभी भी ऐसा काम नहीं करते जिससे उल्टा दु:ख बढ़ जावे । अर्थात् वे इन इंद्रिय विषयों को बिल्कुल मुंह नहीं लगाते हैं। किन्तु इनसे विरक्त हो आस्मसुख के लिए आत्मानुभव का ही प्रयत्ल करते हैं। सुभाषित रत्नसंदोहमें स्वामी अमितगति कहते हैं
आपातमावरमणीयमाप्तिहेतुं। किपाकपाकफलतुल्यमयो विपाके।। मो शाश्वतं प्रचुरवोषकरं विदित्वा । पंधेन्द्रियार्यसुखमर्षधियस्त्यति ॥९॥
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तस्वमानना
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भावार्ष-यों पांचों इंद्रियों के सुख भोगते समय तो सुन्दर भासते हैं परन्तु ये अतप्तिके ही बढ़ाने वाले हैं 1 जैसे इन्द्रायण का फल खाते समय मीठा होता है परन्तु उसका फल प्राणों का हरने वाला है। ये इन्द्रियसुख नित्य नहीं रहते तथा अनेक दोषोंको पैदा करने वाले हैं ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग इन इन्द्रियों के सखोंकी इच्छाको ही छोड़ देते हैं।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो नित दुस्सह दुःख लोकद्रय पोषण किये वेत हैं। निर्दय हैं वर्धार अरि विषय ये मनद्धि कर देस हैं। शिव सुख इच्छुक किस तरह से सहे सलिनुराम हे सुखसों बुधजन न कार्य करते जो कष्ट देते नये ॥७६॥
उत्यामिका--मागे कहते है कि निर्मल भावों का और मलीन भावों का पया क्या फल होता हैकुर्वाणः परिणाममेति विमलं स्वर्गापवर्गभियं । प्राणी कश्मलमप्रवुःखजमिका श्वधाविरोति यतः ।। गलानाः परिणाममाधमपरं मुंचंति सन्तस्ततः। कुवेन्सीह कुतः फवाधिवाहित हित्वा हितं धोधमाः ।।७७।।
अन्वयार्य-(यतः) क्योंकि (प्राणी)यह प्राणो (विमलं परिणाम) निर्मल भावको (कुर्वाणः) करता हुआ (स्वर्गापवर्गश्रियं) स्वर्ग व मोक्ष की लक्ष्मी को (एति) प्राप्त कर लेता है तथा (कमल) मलीन भावको करता हुआ (उग्रदुःखजनिकी) भयानक दुखोंको पैदा करने वाली (श्वभ्रादिरीति) नकं आदि की अवस्था को पाता है (सतः) इसलिए (सन्तः) सन्तजन (आय) पहले (परिणामं) भावको (मल्लाना:) ग्रहण करते हुए (अपर) दूसरे अशुभ भावों को (मुंबति) स्याग देते हैं (ह) इस लोक
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| ܘܘܕ
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में (घीधनाः) बुद्धिमान प्राणी (हित हित्वा) अपने हित को छोड़कर (कुतः) किस तरह (कदाचित्) कभी भी विहित) दुःखदाई काम को (कुर्वन्ति) करेंगे।
भावार्थ-यहां भाचार्य कहते हैं कि यह जीव अपने भावों से ही अपना कल्याण कर लेता है तथा भावोंसे ही अपना विगाड़ कर लेता है। जैसे भाव होते हैं वैसा कार्य होता है। शुद्ध भावों से कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष हो जाता है तथा शुभ भावोंसे पुण्यबंध होकर स्वर्गादिक शुभ गति प्राप्त होती है तथा अशुभ भावोंसे पाप बंधता है जिससे नरक आदिकी खोटी गति प्राप्त होती है ऐसा जानकर सन्त पुरुष सदा ही शुद्ध भावों में रहने का उद्यम करते हैं। जब शुद्ध भावों में परिणाम नहीं ठहरता है तब शुभ भावोंमें जम जाते हैं परन्तु वे अशुभ मलीन भावोंको कभी नहीं ग्रहण करते हैं। उनको तो दूरसे हो त्यागते हैं। बुद्धिमान मानव वे ही हैं जो अपने हित अहित का विचार करें। जिन कार्योंसे अपना बुरा होता जाने उनको तो छोड़ दें व जिनसे अपना भला होता जाने उनको साधन करें। तात्पर्य यह है कि सुख शांतिकी प्राप्ति अपने आत्मानुभव से ही होगी इसलिए विषयों की खोटी व्यासना को त्यागकर बुद्धिमान को सदा आत्म मननमें ही उद्योगो रहना योग्य है। सारसमुच्य में श्री कलभद्र मुनि कहते हैं
आस्मकार्य परित्यज्य परकार्येषु यो रतः। ममत्त्वरतचेतस्कः स्वहितं प्रेशमेष्यति ।।१५७।। स्वहितं तु भवेज्ज्ञानं चरित्रं दर्शनं तपा। तपः संरक्षण व सर्वविमितवष्यते ॥१५॥
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सत्व भावना
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यथा च जायते चेतः सम्यक्शुद्धि सुनिर्मलाम् । तथा ज्ञानविदा कार्य प्रयत्नेनापि भूरिया || १६१ ॥
भावार्थ- जो अपने आत्मा कामको छोड़कर शरीरादि पर के कार्य में लीन है वह ममता सहित चित्त वाला होकर अपने आत्महितका नाश कर डालता है। अपने आत्माका हित सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान व सम्यकचारित्रका साधन तथा तपका भले प्रकार रक्षण है ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है । जिस तरह यह मन भले प्रकार ऊँची शुद्धताको प्राप्त कर ले उसी तरह जानियों को बहुत प्रयत्न करके उद्यम करना चाहिए।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जो करता शुचि भाव प्राप्त करता शिव स्वर्ग लक्ष्मी सही । जो करता मलभाव सोहि लहता नरकादि सुखकर महो ॥ सज्जन निर्मल भाव नित्य ग्रहसे मल भावको त्यागते । बुधजन हितकर कार्य छोड़ कबहूं दुखकर नहीं साधते ॥७७ उत्थानिका – आगे इस परिणाम की महिमा को और भी बताते हैं
नरकगतिमशुद्धः सुंदर स्वर्गवासं । शिasanनषद्यं याति शुद्धकर्मा । स्फुटमिह परिणामश्चेतनः पोष्यमाणंरिति शिवपदकास्ते विधेया विशुद्धाः ॥७६॥
अन्वयार्थ - ( अशुद्ध : ) अशुद्ध ( परिणामः ) भावों से (नरकगति) नरकगति को (सुंदर) शुभ भावों से ( स्वर्गवासं ) स्वर्ग निवासको तथा (चेतनः पोष्यमाणैः शुद्धः ) चेतन को पुष्ट करने बाले शुद्ध भावों से ( अकर्मा) यह जीव कर्म रहित होकर
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(अनवद्य) निर्दोष (शिवपदम् ) मोक्षपदको (याति) प्राप्त करता है (इसि) ऐसा समझफर (शिवपदकामैः) जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं उनको (ते विशुद्धाः) उन विशुद्ध भावों को (विधेयाः) करना योग्य है।
मावार्थ-संसारो जीयोंके भाव तीन प्रकारके होते हैं एक शुद्ध, एक शुभ, एक अशुभ । जहां वीतरागभाव, समताभाव व शुद्ध आत्माकी तरफ सन्मुख भाव होता है वहां शुद्ध भाव होता है । यह भाव रागद्वेषके मैलसे शून्य हाता है इसलिए कमों की निर्जराका कारण है इसलिए वही वास्तबमें मोक्ष मार्ग है। यहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की एकता होती है । मोक्ष पुरुषार्थकी सिद्धिके लिए यही भाव ग्रहण करने योग्य है । अशुद्ध भाव वे कहलाते हैं जहां कषायों का उदय होकर कषायसहित भाव हों। कषायसहित भाव आत्मस्थ नहीं होते किन्तु परपदार्थ के सम्मुख होते हैं। इन्हीं मशुद्ध भावों के दो भेद हैं एक शुभ दूसरे अशुभ । जहाँ कषाय मंद होती है व भावोंमें प्रशमता, धर्मानुराग, भक्ति, सेवाधर्म, दयाभाव, परोपकार, सन्तोष, शील, सत्य वचनमें प्रेम, स्वार्थ त्याग आदि मंद कषायरूप भाव होते हैं उनको शुभ भाव कहते हैं। इन शुभ भावोंसे मुख्यतासे पुण्यकर्मों का बंध होता है। जहां कषाय तीव्र होती है वहाँ भावों में दुष्टभाव, अपकारके भाव, हिंसकभाव, असत्यपना, चोरीपना, कुशीलपना, असन्तोष, इन्द्रियविषय की लम्पटता, मायाचार, अति लोभ, व्यसनोंमें लीनता, परनिन्दा में प्रसन्नता, आदि भाव होते हैं उनको अशुभ भाव कहते हैं । इनसे पापकर्मों का हो बंध होता है। अशुभ मावोंके फलसे नरक व पशुगतिमें जाता है, शुभ भावोंसे मनुष्य व देवगतिमें जाता है। ये दोनों ही भाव जोवको संसारचक्रमें फंसाने वाले हैं, मोक्षके कारण नहीं
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तत्त्वभावना
[ २०३ है मात्र शुद्ध भाव ही मुक्ति के हेतु हैं । इसलिए आचार्यका उपदेश है कि मोक्षके इच्छुक प्राणीको उचित है कि शुद्ध भावों की प्राप्तिका उद्यम करे और इस हेतुसे वह अपने आत्माके अनुभव करनेका अभ्यास करे यह तात्पर्य है। श्री पद्मनंद मुनि निश्चय पंचाशत् में कहते हैं--
शुद्धामछुमशुद्धं ध्यायन्नाप्मोत्यशुद्धमेव स्वम् । जनयति हेम्नो हैमं लोहाल्लोहं नरः कटकम् ॥१८॥
मावार्थ ----शुद्ध भाव से शुद्ध आत्मा का लाभ होता है तथा अशुद्ध रूप ध्यान से अशुद्ध भाव का ही लाभ होता है । जैसे सुवर्ण से सोनेका कड़ा व लोहेसे लोहे का ही मनुष्य का सनाता है। यह सिद्ध है शुद्ध भाव ही आनंद का हेतु हैमूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडिल छन्द अशुभ कर नरकं स्वर्ग शुभ भाव लाये । शिवपद सुखकारी शुद्ध परिणाम पावै ।। आतम बलकारी प्रगट हैं शुद्ध भावा । इम लख शिवकामो नित कर शुद्धमाया ॥७॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि चारों ही गति दुःखरूप है इसलिए सुख के लिए मोक्षका प्रयत्न हितकर है ।
शार्दूलविक्रीडित छन्द श्वमाणां अविसह्यमंतरहितं दुअल्पमन्योभ्यम् । दाहच्छेदविभेदनादिजनितं दुःखं तिरश्चां परम् ॥ नणां रोपवियोगजन्ममरणं स्वर्गकसां मानसम् । विश्वं वीक्ष्य सवेति कष्टहलितं कार्या मतिर्मुक्तये ।।७६
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अन्वयार्थ -- ( श्वभ्राणां ) नरकगतिवासी प्राणियों को (अविसह्यम् ) न सहने योग्य (दुर्जन्यम्) वचनों से न कहने योग्य (अन्योन्यजम् ) परस्पर किया हबा (अंतरहितं) अनंत बार ( परं दुःखं ) उत्कृष्ट दुःख होता है ( तिरश्चा) पशु गति में रहने वाले प्राणियोंको (दाहृच्छेदविभेदना दिज नितम् ) अग्नि में डालने का छेदे जानेका, भेदे जानेका, भूख प्यास आदिके द्वारा होने वाला कष्ट होता है। (नृणां ) मानवों को (रोग वियोग जन्ममरणं ) रोग, वियोग तथा जन्म मरण आदिका दुःख रहा करता है वासी देवोंको (मानसं ) मन संबंधी बाधा रहती है (इति) इस प्रकार ( विश्वं ) इस गति को ( कष्टकलितं ) दु:खोंसे भरा हुआ (सदा ) हमेशा ( वीक्ष्य ) देखकर ( मुक्तये) मुक्त होने के लिए ( मतिः) अपनी बुद्धि (कार्या) करनी योग्य है ।
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तस्वभावना
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भावार्थ - इस श्लोक से आचार्य ने दिखला दिया है कि चारों ही गतियों में इस जीवको कहीं संतोष व सुख शांति नहीं मिलती है। सर्व ही में शारीरिक व मानसिक दुःख कर्म व अधिक पायें जाते हैं । हम यदि नरकगतिको लेवें तो जिनवाणी बताती है कि वहाँ के कष्ट अपार हैं। भूमि दुर्गंधमय हवा शरीर भेदने वाली, वृक्षोंके पत्ते तलवारकी धारके समान, पानी खारा, शरीर रोगों से भरा व भयानक, परस्पर एक दूसरेको करते हैं वहां के प्राणियों की कभी भूख प्यास मिटती नहीं । क्रोध की अग्नि में जलते रहते हैं, दीर्घकाल रो-रोकर बड़े भारो कष्टसे अपने दिन पूरे करते हैं। पशु गति के दुःख तो हमारी आँखों के सामने हो हैं । एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक, जलकायिक,
मारते, सताते व दुखी
कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक प्राणियोंके कष्टों का
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तत्त्वभापना
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पार नहीं है। मानवों के आरम्भ द्वारा उनको सदा ही कष्ट भिला हो करता है। दबके, कुटके जलके, उबलके, घरकों से, बुझाए जानेसे, रौदे जानेसे, कांटे, छोले जाने से आदि अनेक तरहसे ये कष्ट पाते हैं। द्वेन्द्रियादि कोड़े मकोड़े, चींटी, चोंटे मक्खो, पतंग, भुनगे आदि मानवोंके नाना प्रकारके मारम्भों के द्वारा दबके, छिलके, भिदके, जलके, गर्मी, सर्दी, वर्षा, भूख, प्यास आदिको बाधासे व सबल पशुओंसे नाशहोकर घोर त्रास उठाते हैं । पंचेन्द्रिय पशु पक्षी, मच्छादि मानवोंके द्वारा सताए जाने, मारे जाने, सबल पशुओंसे खाये जाने, अधिक बोझा लादे जाने, भूख, प्यास,गर्मी, सर्दी, आदिके दुखोंसे पीड़ित रहते हैं।
मानवों की अवस्था यह है कि बहुत से तो पेटभर अन्त नहीं पाते, अनेक रोगोंसे पीड़ित रहते हैं, पर्याप्त धनके विना आतुर रहते हैं, इष्टवियोग व अनिष्ट संयोगसे कष्ट पाते हैं। इच्छित पदार्थ के न मिलनेसे अधिक सम्पत्तिवान देखकर ईर्ष्या करते हैं, दूसरोंको हानि पहुंचाने के लिए अनेकषड़यंत्र रचते हैं, जब पकड़े जाते हैं कारावासके घोर दुःख सहते हैं । बहुतोंको पराधीन रहने का घोर कष्ट होता है, बड़े-२ संकटो के उठाने पर आजीविका लगती है । धन परिश्रमसे संचय हुआ जब किसी आकस्मात से जाता रहता है तो बड़ा भारी कष्ट होता है। अपने जीते जी प्रिय स्त्री, प्रियपुत्र, प्रिय मित्र मादिका मरण शोक सागर में पटक देता है। मानवों का शरीर तो पुराना पड़ता जाता है। इंद्रिये दुबली होती जाती हैं परन्तु पाँचों इंद्रियों के भोगों को तुष्णा दिनपर दिन बढ़तों जाती है । तृष्णाकी पूर्ति न कर सकते के कारण यह मानव महान आतुर रहता है । यकायक मरण आ जाता है । तब बड़े कष्ट से मरता है।
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तस्वभावता
चक्रवर्ती सम्राटभी जो इंद्रिय भोंगोंके दास होते हुए आत्मज्ञान रहित होते हैं। वे भी जिन्दगी भर चिन्ता और आकलता में ही काटते हैं अन्य साधारण मानवों की तो बात ही क्या है ? जिन-२ परपदार्थोके संयोगसे यह मानब सुख मानता है वे पदार्थ इसके आधीन नहीं रहते उनका परिणमन अन्य प्रकार हो जाता है व उनका यायक वियोग हो जाता है। बस यह मानव उनके वियोगसे महान दुखित होता है । देवगति में यद्यपि शारीरिक कष्ट नहीं है क्योंकि वहाँ शरीर वैक्रियक होता है जिसमें हाड़ चमड़ा, मांस, नहीं होता है उनको मानवों के समान खाने पीने की जरूरत नहीं होती। उन श्री मुख जगतो है तब कंठ में अमृत झड़ जाता है, तुर्त भूख मिट जाती है। रोग शरीर में नहीं होते, कोई खेती व व्यापार करना नहीं पड़ता। शरीर के लिए किसी वस्तु की चाह करनी नहीं पड़ती मनोरंजन करने वाली देवियों होती हैं जो अपने हाव भाव, विलास, गान आदि से मनको प्रसन्न करती रहती है । तथापि मानसिक कष्ट सब जगह से अधिक होता है जो आत्मज्ञानी देव हैं उनको छोड़कर जो अज्ञानी देव हैं वे एक दूसरेको अपने से अधिक सम्पत्ति वाला देखकर मनमें ईर्याभाव रखते हैं सदा जलते रहते हैं। भोगनेके लिए पदार्थ अनेक चाहते हैं उनके भोगने की काकुलतासे आतुर रहते हैं । देवो की आयु कम होती है देवकी आयु बड़ी होती है, बस जब कोई देवी मर जाती है तो उसके वियोगका दुःख सहते हैं, अपना शरीर छूटने लगता है तब बहुत विलाप करते हैं कि ये भोग छूटे जाते हैं क्या करें।
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इस कारण देवभी मानसिक कष्टसे पीड़ित हैं । जब चारों ही गति में दुख है तब सुख कहाँ है तो आचार्य कहते हैं कि सुख अपने आत्मा में है । जो अपने आत्माको समझते हैं और उसकी
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तस्वभावना
शुद्ध स्वाधीन अवस्था व मोक्षके प्रेमी होकर आत्मा के अनुभव में मग्न होते हैं उनको सच्चा सुख होता है। ऐसे महात्मा चाहे जिस गति में हों सुखी रहते हैं। परन्तु ये सब महात्मा संसारी नहीं रहते हैं, वे सब मोक्षमार्गी हो जाते हैं। उनका लक्ष्यबिंदु मोक्ष होता है। वे आत्मध्यान करते हुए शुद्ध भावों का लाभ पाते हैं जिससे कर्म करते जाते हैं और यहो शुद्ध भाव उन्नति करते करते मोक्ष के भाव में हो जाते हैं। इसलिए आचार्य का उपदेश है कि आत्मीक शुद्ध भावोंकी पहचान करो जिससे यहाँ भी सच्चा सुख पाओगे व आगामी भी सुखी होगे ।
AAJA
श्री अमितिगति महाराज सुभाषित रन्नसंदोह में कहते हैंत्यजतु युवति सौख्यं क्षान्तिसौदयं भयध्वं विरमत भवमार्गान्मुक्तिमार्गे रमध्वम् । जहित विषय संग ज्ञानसंगं कुरुध्वं अभितिगतिनिवासं येन नित्यं लभध्वम् ॥ १६ ॥
भावार्थ - स्त्रियोंके सुखको छोड़ो क्षमाभाव सहित शांतिमय सुखका आश्रय करो, संसारके भोगोंसे विरक्त हो मोक्षके मार्ग में रमण करो, इंद्रियोंके विषयोंका रस छोड़ो आत्मज्ञानकी संगति करो जिससे तुमनित्य अनंतज्ञान के नवमोक्षको प्राप्तकर सकोमूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
आपस में मे जीव नर्क सके दुःसह सहा मुख सहें,
गति में हो बाह विरे विशाल पोड़ित रहें ।
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तत्त्वभावना
नरगतिमें हो रोग इष्टविछुड़न सुरमन जनित दुखलहै, बुधचाहुंगनि वृखजान बुद्धि अपनी शिकहेतुकर अघ रहें ।
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जगतके क्षणभंगुर पदार्थों के लिए गरज करना लगा है।
सर्वे नश्यति पत्नतोपि रचितं कृत्वा श्रमं दुष्कर। कार्यरूपमिव क्षणेन सलिले सांसारिक सर्वथा ।। यत्सवापि विधीयते बत कुत्तो मूढ प्रवृत्तिस्त्वया ।
कृत्ये क्वापि हि केवल अम करे न व्याप्रियंते बूधाः ।।८०) अन्वयार्थ --(सलिल) पानीमें (रूप इव) मट्टीकी पुतलीके समान (दुष्करं) कठिन (श्रम) परिश्रम (कृरका) करके (यत्नतः अपि रचितं) यत्न से भी बनाया गया (सर्व) सब (सांसारिक कार्य) संसारका काम (क्षणेन) क्षणभर में (सर्वथा नश्यति) बिलकुल नाशहो जाता है । (यतः जब ऐसा है तत्र(मूढ़) हे मूर्ख (त्वया) तेरे द्वारा (तत्रापि) उसी संसारी कार्य में ही (वत) बड़े खेद की बात है (कुतः) क्यों (प्रवृत्तिः) प्रवृत्ति (विधीयते) को जाती है ? (बुधाः) बद्धिमान प्राणो (केवलनमकरे) खाली बेमतलब परिश्रम करानेवाले (कृत्ये) कार्य में (क्वापि) कभी भी (हि) निश्चय करके (न व्याप्रियन्ते) व्यापार नहीं करते हैं।
भावार्थ-जैसे मिट्टी की मूर्ति पानोंमें रखने से गल जाती है वैसे संसार के जितने काम हैं वे सब क्षणभंगुर हैं । जव अपना शरीरही एक दिन नष्ट होने वाला है तब अन्य बनी हुई वस्तुओं के रहने का क्या ठिकाना ? असल बात यह है कि जगतका यह नियम है कि मूल द्रव्य तो नष्ट नहीं होते न नये रंदा होते हैं परंतु
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तत्त्वभावना
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उन द्रव्यों की जो अवस्थाएं होती हैं वे उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं। अवस्थाएं कभी भी थिर नहीं रह सकती हैं। हम सबको अवस्थायें ही दीखती हैं तब ही यह रात-दिन जानने में आता है कि अमुफ मरा व अमुक पैदा हुमा, अमुक मकान बना व अमुक गिर पड़ा, अमुक वस्तु नई बनी व अमुक टूट गई। राज्यपाट, धन, धान्य, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सर्व ही पदार्थ नाश होने वाले हैं । करोड़ों की सम्पत्ति क्षणभर में नष्ट हो जाती है। बड़ा भारी कुटम्ब क्षणभर में कालके गाल में समा जाता है, यौवन देखते-२ विलय हो जाता है, बल जरा सी देर में जाता रहता है। संसार के सर्व ही कार्य घिर नदी रह सकते हैं । जब ऐसा है तब ज्ञानी इन अथिर कार्यों के लिए उधम नहीं करता है। वह इन्द्रपद व चक्रवर्तीपद भी नहीं चाहता है क्योंकि ये पद भी नाश होने वाले हैं। इसलिए वह तो ऐसे कार्यको सिद्ध करना चाहता है कि जो फिर कभी भी नष्ट न हो । वह एक कार्य अपने स्वाधीन व शुद्ध स्वभाव का लाभ है । जब यह आत्मा बन्ध रहित पवित्र हो जाता है फिर कभी मलीन नहीं हो सकता और तब यह अनन्तकाल के लिए सुखी हो भासा है । मूर्ख मनुष्य ही वह काम करता है जिसमें परिश्रम तो बहुत पड़े, पर फल कुछ न हो। बुद्धिमान बहुत विचारशील होते हैं, वे सफलता देनेवाले ही कार्यों का उद्यम करते हैं। इसलिए सुख के अर्थी जीव को आत्मानन्द के लाभ का ही यत्न करमा धचित है।
सुभाषित रत्नसंदोह में अमितगति महाराज कहते हैंएको मे शाश्वतारमा सुखमसुखभुजो ज्ञानष्टिस्वभावो। नाम्यत्किधिनिज में तनुघनकरणमातमार्यासुखादि ॥
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तत्त्वभावना
कर्मोद्भूतं समस्तं चपलमसुखदं तत्र मोहा मुधा मे। पर्यालोम्येति जीवः स्वहितमवितथं मुक्ति मार्ग श्रय त्वम् ।४१६
भावार्थ मेरा तो एक अपना ही आत्मा अविनाशी सुखमई,दुःखों का नाशक, ज्ञान दर्शन स्वभावधारी है। यह शरीर, धन, इन्द्रिय, भाई, स्त्री, संसारिक सखादि मेरे से अन्य पदार्थ कोई भी मेरा नहीं है क्योंकि यह सब कर्मों के द्वारा उत्पन्न हैं, चंचल हैं, क्लेशकारी हैं। इन सब क्षणिक पदार्थों में मोह करना वृधा है। ऐसा विचार कर हे जीव ! तू अपने हितकारी इस सच्चे मुक्ति के मार्ग का आश्रय ग्रहण कर |
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द संसारिक जो काम यत्न करके करता बहुत श्रम लिए । सो सब क्षण में नाश होत जैसे मस्पिड जल में दिए । फिर क्यों मर्ख प्रवृत्ति पर्थ अपनो करता क्षणिक कार्यको । बुधजत खुब विवार कार्य करले तजसे वृया कार्य को 1८०॥
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जो आत्माएं कषायों को तोब बाधा से आकुलित हैं वे संसार में हो आशक्त रहती हैं, उनको आत्मोक शांति की परवाह नहीं रहती है। चिनोपनवसंकुलामुरुमलां निःस्वस्थतां संस्सति । मुक्ति नित्यनिरंतरोन्नतसुखामापत्तिभिर्वजिताम् ॥ प्राणो कोपि कषायमोहितमति! तत्त्वतो बध्यते । मुक्त्वा मुक्तिमनुत्तमामपरया कि संसृतौ रज्यते ।।८१॥
अन्वयार्थ (चित्रोपद्रवसंकुलाम्)नाना प्रकारको आपत्तियों से भरे हुए (तरुमलां) महा मलीन(निःस्वस्थता)आत्मीक शांति से रहित महा आकुलतामय(संसति)इस संसारको तथा आपत्ति
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तरवभावमा
[ २११ भिर्वर्षिताम् ) सर्व आपत्तियों से रहित (नित्यनिरंतरोषतसुखां) व सदा ही बिना अन्तर के उच्च सुख को देने वाली (मुक्ति) मुक्ति को (कोपि कोई भी (कासमोहिताति: Aषाय से बद्धिको मढ़ बनाने वाला (प्राणी) मानव (तत्वतो) तत्वदृष्टि से या वास्तव में (नो बुध्यते) नहीं समझता है। आचार्य कहते हैं फिर वह (अनुत्तमाममुक्ति मुक्ता) ऐसी मुक्ति को जिसके समान जगत में कोई उत्तम पदार्थ नहीं है त्याग कर (अपरथा) उससे विरुद्ध (संस्मृती) संसार में (किं) क्यों (रज्यते) राग करता है।
भावार्थ यहां पर आचार्य ने बताया है कि जिसकी बुद्धि बिगड़ जाती है वह हितकारी पदार्थ को छोड़कर बाघाकारी पदार्थ को लेता फिरता है। यदि किसी मूर्ख को एक हाथ से अमृत व एक हाथ से सूखी रोटी दी जावे तो अमृतको छोड़कर उस रोटी को ही ले लेता है क्योंकि उसको यह विश्वास नहीं है कि अमत में क्या गुण है। इसी तरह अज्ञानी प्राणी को यदि श्री गुरु एक तरफ तो मोक्ष का स्वरूप बतावें, दूसरी तरफ संसार का स्वरूप बतावे और यह समझायें कि संसार जब जन्म, मरण, शोक, भय, रोग, वियोगादि उपद्रवों से रात-दिन भरा है तब मोक्ष इन सर्व आपत्तियों से बिलकुल दूर है । संसार जब मलीन व आकुलतामय है तब मोक्ष पूर्ण निराकुल व नित्य परमोत्तम सुख को देने वाला है तब भी वह मूर्ख अपनी अनादि कालीन आदत के अनुसार अनंतानुबंधी कषाय से अन्धा होता हुमा संसार ही में राग करता है। मोक्ष की तरफ बिलकुल भी अपनी रुचि नहीं पैदा करता है। यही कारण है जो अनेक जीव धर्मोपदेश को सुनते हुए भी नहीं भीजते हैं । रातदिन दूसरे प्राणियों का मरण देखते हुए भी अपने कल्याण का उपाय
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तस्वभावना
नहीं करते हैं। यह सब मोह का माहात्म्य है । तथापि जिसकी समझ में यह रहस्य आ गया है कि संसार त्यागने योग्य है व मोक्ष ग्रहण करने योग्य है उसको तो मिर पाल के नशीशत नहीं होना चाहिए और निरन्तर आत्मानुभव का उद्यम करके इस लोक तथा परलोक में सुखी रहना चाहिए।
स्वामी अमितगति ने ही सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैविचित्रवर्णाचितचित्रमुत्तमं यथा गत क्षो न जनो विलोकते। प्रर्दश्यमानं न तथा प्रपद्यते कुदृष्टिजीयो जिननाथशासनम् ।१४५
भावार्थ-जैसे अन्धा मनुष्य नाना प्रकार वर्णी से बने हुए सन्दर चित्र को नहीं देख पाता है, इसी तरह नाना प्रकार उत्तम तत्वों से भरे हुए जिनेन्द्र के मत को दिखलाए जानेपर भी मिथ्यादष्टि अज्ञानी जीव नहीं समझ पाता है, यह सर्व मोह का तीन वेग है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द है संसार मलीन क्लेशकारी नाना उपद्रव भरा। सर्व आपत्ति विहीन मोक्षशाश्वत् परमोच्च वर सुखकरा ॥ है जो मोह कपाय बुद्धिघारी नहिं बसता सत्य को। सर्वोत्तम सुख मोक्ष छोड़ रमता संसार निःसत्यको ॥१॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि बाहरी पदार्थों पर इच्छा रखने से पाप का संचय होता है।
रे दुःखोवयकारणं गुरुतरं वनंति पापं जनाः। कुर्वाणा बहुकांशया बहुविधा हिसापराः पक्रियाः॥ नीरोगत्वाचकोर्षमा विवधतो नापम्यभक्तीरमी। सर्वाङ्गीणमहो व्यथोक्यकरं किं यांति रोगोश्यं ॥२॥ अम्बयार्ष--(रे) अरे ! बड़े खेद की बात है कि (बना।)
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जग के प्राणी (बहुकक्षया) तीव्र विषय भोगों की इच्छा के वश होकर (बहुविधा ) नाना प्रकार की ( हिंसापरा:) हिंसा को बढ़ाने वाली ( षक्रिया : ) असि मसि, वाणिज्य शिल्प विद्या इन छः तरह की आजीविका सम्बन्धी क्रियाओं को (कुर्वाणाः) करते हुए (दुःखोदयकारणं) दुःखों की उत्पत्ति के कारण (गुरुतरं) ऐसे भारी (पाप) पाप कर्म को ( बधनंति) बाँधते रहते हैं (नीरोगत्वचिकीर्षया ) रोग रहित होने की इच्छा करके ( अमी) ये प्राणी ( अपथ्यभुक्तीः ) अपथ्य भोजनों को ( विदधतः ) करते हुए ( अहो ) अहो ! (किं ) क्या ( सर्वांगीणम् ) सर्व अंग में (व्योदयकरं ) कष्ट को पैदा करने वाले ( रोगोदयम् ) रोग की उत्पत्ति को ( न यांति ) नहीं प्राप्त होंगे ?
तरवभावना
भावार्थ - यहाँ पर आचार्य ने बतलाया है कि जो सच्चे सुख की वांछा रखते हैं उनको उसका सच्चा उपाय छोड़कर उससे विरुद्ध उपाय नहीं करना चाहिए । सच्चा सुख आत्मज्ञान व आत्मध्यान से होता है, वह ध्यान परिग्रह त्यागसे भले प्रकार हो सकता है। जो सच्चे सुख को चाहकर भी दुःखों को देनेवाले पापों को नाना प्रकार आरम्भ करते बाँधते रहते हैं उनको सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जो बबल बोता है उसको कांटे हो मिलेंगे, उसको नाम के फल कभी नहीं मिल सकते हैं। जो पापों का संचय करेगा उसको दुःख ही मिलेगा उसको सुख का लाभ कैसे हो सकता है । इसपर दृष्टान्त दिया है कि जैसे कोई मानव निरोग रहना चाहे परन्तु बदहजमी करनेवाले ऐसे भोजनों को खाया करे तो फल उल्टाही होगा अर्थात् रोग मिटाने की अपेक्षा रोग बढ़ जाएगा । रोग के बढ़ने से सारे अंग में भारी कष्टोंको भोगना पड़ेगा |
इसलिए बुद्धिमान प्राणीको सुविचार करके वही काम करना
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तत्त्वभावना
योग्य है जो उसके काम के सिद्ध करने में बाधक न हो । सुखके लिए धर्म का सेवन करना जरूरी है ।
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स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंअवति निखिललोकं यः पिसेवावृतात्मा । वहति दुरितराशि पावके वेन्धनौधम् ॥ वितरति शिवसौख्यं हन्ति संसारशत्रुं । विदधति शुभबुद्धया तं बुधा धर्ममत्र || ६६० |l
भावार्थ - बुद्धिमान लोग यहाँ उसी धर्म को शुभ बुद्धि से धारण करते हैं जो आदर किया हुआ सर्व लोगों को पिता के समान रक्षा करने वाला है, जो पापके ढेरको इस तरह जलाता है जिस तरह अग्नि ईन्धन के ढेर को जलाती है, जो संसाररूपी शशु को नाश करता है व जो मोक्ष के सुख को देता है । शत्रु
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
घर तृष्णा बहु करत कार्य हिंसक षट रूप उद्यम नये । बांधत पाप अधार दुःखकारी, नहिं बूझते सत्य थे । जो चाहे नीरोगता पर भखे, भोजन बहुत कष्ट कर पावे रोग महान वेह अपनी, पोड़े महा दोष कर ॥२॥
उत्पानिका - आगे कहते हैं कि कर्म शत्रुओं को नाश करने से ही मोक्ष सुख प्राप्त हो सकता है
रौद्रः कर्ममहारिभिभववने योगिन् ! विचित्रैश्वरम् । नायं नायमथापितस्त्वमसुखं येरुच्चकैर्दुःसहम् ॥ तान् रत्नत्रय भावनासिलतया न्यक्कृत्य निर्मूलतो ।
राज्यं सिद्धिमहापुरेऽमचसुखं मिष्कंटकं निविंश ॥ ८३ ॥
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तरबभावना
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अम्बार्थ (योग) हे योगों (भय) इस संसाररूपी वन में (यैः) जिन ( उच्चकैः) बड़े ( रौद्रः ) भयानक ( विचित्रैः ) नाना प्रकार के ( कर्म महारिभिः) कर्मरूपी तीव्र महा शत्रुओं के द्वारा ( चिरम् ) अनादि काल से (त्वम्) तूने (दुःसहम् ) असहनीय ( असुखं) दुःख को (अवापितः) पाया है (अयं न अयं न ) ऐसा कोई कष्ट बाकी रहा नहीं जो तूने न पाया हो । ( तान् ) उन कर्मरूपी शत्रुओं को (रत्नत्रय भावना सिलतथा ) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकतारूपी आत्मज्ञान की तलवार से ( निर्मूलतः ) जड़ मूल से ( न्यक्कृत्य ) नाश करके ( सिद्धिमहापुरे ) मोक्ष के महान नगर में जाकर ( अनघसुखं ) पाप रहित आनन्द से भरे हुए (निष्कंटक) तथा सर्वं बाधारहित (राज्यं ) राज्य को (निविंश)
प्राप्त कर ।
भावार्थ - यहाँ पर आचार्यने बताया है कि इस जीवके साथ में अनादिकाल से कर्मरूपी शत्रुओं का सम्बन्ध चला आता है । ये कर्म बड़े भयानक हैं व नाना प्रकार का कष्ट इस संसार वन में इस मोही जीव को दे रखा है, कभी निगोद में कभी नर्क में, कभी पृथ्वी आदि पर्याय में, कभी कीड़ों मकोड़ों में, कभी पशुपक्षियों में, कभी रोगी व दलिद्री मानवों में, कभी नीच देवों में जन्म करा - कराकर ऐसा कोई शारीरिक व मानसिक कष्ट बाकी नहीं रहा है जो न दिया हो। ये कर्मशत्रु बड़े निर्दयी हैं, जितना इनसे मोह किया जाता है व जितना इनका आदर किया जाता है उतना ही अधिक ये इस प्राणीको घोर दुःखों में पटक देते हैं, जबतक इनका नाश न होगा तबतक स्वाधीन आत्मीक स्वराज्य प्राप्त न होगा । इसलिए आचार्य कहते हैं कि श्रीजिनेन्द्र भगवान ने जिस अभेद रत्नत्रय को बनी हुई स्वानुभव रूपी खड़ग का पता बताया है उस खड़ग को एक मन होकर ग्रहण कर और
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तस्वभावना
उसीका बल पूर्वक अभ्यास कर। इसी तलवार से कर्मों का जड़ मूल से नाश हो जाता है। वे कर्म धीरे -२ सब भाग जाते हैं । वे इस यात्री को मोक्ष नगरके जाने में विघ्न करते थे सो हट जाते हैं और यह सुगमता से मोक्ष की अनुपम राजधानी में प्रवेश करके परमोच्च अनुपम आत्मोक आनन्द का निरंतर बेखटके भोग करता रहता है ।
स्वामी पद्मनंदि सद्द्बोध चंद्रोदय में कहते हैं कि ध्यानसे हो कर्मों का नाश होता है
योगतो ही लभते विबंधनम् योगतोपि किल सुच्यते नरः । योग विषमं गुरोगरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा ||२६|| भावार्थ - योग को अशुद्ध रखने से कर्मों का बंध होता है तथा शुद्ध योग से अवश्य यह नायक कर्मो से छूट जाता है। यद्यपि ध्यानका मार्ग कठिन है तथापि जो मोक्षका चाहने वाला है उसको गुरु के वचनों से इस सर्व ध्यान के मार्ग को समझ लेना चाहिए ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
हे योगी हैं कर्म शत्रु दुर्णम नाना तरह रूप घर भववम में दुःसह जु कष्ट तुझको दीने बड़े हैं प्रबल ॥ रत्नत्रयमय खड्ग वेग गहकर निर्मूल उन नाश कर । जो frosch राज्य मोक्षपुरका पाने सुखी होकर ।। ८३ ।। उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो कोई आत्मोति को लक्ष्य में लेकर तप करता है उसको अवश्य शुद्ध आत्माका लाभ होता है
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मंदाक्रांता वृत्त
यो बाह्यार्थे तपसि यतते माह्ममापद्यतेऽसी । यत्वात्मार्थे लघु सलमते पूतमात्मानमेव ॥
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तत्वभावना
न प्राप्यते वचन फलमाः कौनच रौप्यमाणेविज्ञायेत्थं कुशलमतयः कुर्वते स्वार्थमेव ॥४॥
अन्वयार्थ-(यः) जो कोई (बाह्यार्थ) बाहरी धन, राज्य, स्वर्ग आदि के हेतुसे (तपसि) तप करने में (यतते) उद्यम करता है (असो) बह (वाह्यम् ) बाहरीही पदार्थ को (मापद्यते) पाता है। (तु) परन्तु) (यः) जो (आत्मार्थ) आत्माको सिद्धि के लिए तप करता है (स:) वह (लघ) शीन (पूतम्) पवित्र (आत्मानं)
आत्मा को (एव) ही (लभते) पाता है। (कोद्रव रोप्यमाणे) कोदों यदि बोए जावें तो उनसे (क्वचन) कभी भी (कलमाः) चावल (न प्राप्यते) नहीं मिल सकते है इत्थं) ऐन : (विज्ञाप जानकर (कुशलमतयः)निपुण बुद्धि वाले (स्वार्थम्)अपने आत्मा के कार्य को (एव) हो (कुर्वते) कहते हैं।
भावार्थ-आचार्यने बताया है कि तप करने में अनेक गुण है, जो इस भाव से तप करते हैं कि हमें पुण्यबंध हो व उस पुण्य से हम बाहरी सम्पत्ति, राज्यधन, स्वर्ग आदि प्राप्त करें तो उनका भाव पवित्र व शुद्ध नहीं होता है। उनके भावों में शुभ भावमात्र होते हैं जिनसे वे पुण्य बांधकर बाहरी पदार्थ प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु अपना निर्मल अविनाशी मोक्षपद है वह उनको कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए जो कोई बुद्धिमान आत्मबुद्धि के हेतुको मनमें रखकर शुद्धोपयोगी प्राप्ति के लिए आत्मध्यानादि तप करते हैं उनको अवश्य शुद्ध आत्माका लाभ होता है, वे अवश्य मुक्त हो जाते हैं । जैसा बीज बोया जायगा वैसा फल होगा। शुभोपयोग से पुण्य बंध होता है तब शुद्धोपयोग से को का नाश होता है । यदि कोई कोदों बोवे और चाहे कि चावल पैदा हों तो कभी भी पावल नहीं मिल सकते-कोदों से कोदों
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ही पैदा होगा | चावल के चाहने वालेको चावल हो बोना उचित है। प्रयोजन यह है कि ज्ञानीको तुच्छ सुखके लिए तप ऐसे महान परिश्रमको न करके मात्र आत्माधीन पवित्र सुखके लिए व सदा काल के लिए बन्धनों से मुक्त होने ही के लिए तप करना योग्य है। श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में मोक्षप्राप्ति के लिए ज्ञानपूर्वक तप करने की शिक्षा देते हैं
तत्वभावमा
आत्मायत्तं विषयविरसं तस्वचिन्तायलीनं । मिर्ष्यापारं स्वहितनिरतं निर्वृतानन्दपूर्ण ॥ शाताखं शमयनतपोध्यान लब्धावकाशं ।
कृत्यात्मानं कलय सुमते दिव्यबोधाधिपत्यम् ॥ २८ ॥
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भावार्थ - हे सुबुद्धि ! अपने आत्माको स्वाधीन करके व इंद्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर तत्वकी चिता में लोन होकर, संसारिक व्यापारोंसे रहित होकर व आत्महित में तल्लीन होकर व निराकुल मानन्दमें पूर्ण होकर, ज्ञानके भीतर आरूढ़ होकर, शांतभाव, मनका दमन व तप तथा ध्यान में प्रवृत्ति करके तु केवलज्ञानका स्वामी बन । वास्तव में इच्छा रहित आत्मध्यान ही परमात्मा के पदके लाभका उपाय है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो बाहर धन आदि हेतु तपता सो बाह्यको पात्रता । जो निजआतम हेतु ध्यान करता शुचि आत्माको पावता | जो कोवोंको बोता नहि कभी वह सालिको पाता । ऐसा जान विशाल बुद्धिकारी निज कार्य उर लावता ॥ ८४॥
उत्पानिका — आगे कहते हैं कि अज्ञानी लोग धन मादि
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तस्वभावना
[ २१६ बाहरी पदार्थों को ही अपना समझते हैं---
कातासम्मशरीरजप्रमतयो ये सर्वपाप्यात्मनो। मिन्नाः कर्ममवाः समीरणमाला माषा बहि धिनः ॥ तैः संपत्तिमिहात्मनो गतधियो जानंति ये शर्मदा । स्वं संकल्पवशेन ये विवधते नाकोशलक्ष्मी स्फुटम् ॥५॥
अन्वयार्थ-(ये) जो (कांतासद्मशरीरजप्रभृतयः) ये स्त्री, मकान, पुत्र आदि पर्याय (सर्वथापि) सर्व प्रकारसे ही (आत्मनः भिन्नः) अपने आत्मासे भिन्न हैं (बहिर्भाविनः भावः) बाहर रहने वाले पदार्थ हैं (समीरणचलाः) तथा पवनके समान चंचल हैंटिकने वाले नहीं है (कर्मभवाः) सो सब कर्मोंके उदयसे होनेवाले हैं। (इह) इस जगत में (ये) जो (मतधियः) बुद्धि रहित प्राणी (तैः) इन ही पदार्थों से (आत्मन:) अपनेको (शर्मदो) सुख देने याली (संपत्ति) संपत्ति (जाति) जानते हैं (ते) वे (स्फुटम्) प्रगटपने (संकल्पवशेन) अपने मनके संकल्प से ही (स्वं) अपने पास (नाकीशलक्ष्मों) स्वर्गकी लक्ष्मीको मानो (विदधते) प्राप्त करते रहते हैं।
भावार्थ-यहाँ पर यह दिखलाया गया है कि जो मूर्ख क्षणभंगुर पदार्थोके सम्बन्ध होने पर उनको अपनी सम्पत्ति मान लेते हैं वे अंतमें पछताते हैं और शोकमें ग्रसित होते हैं, जगत में स्त्री पुत्र, मित्र, बन्धुजन आदि चेतन पदार्थ तथा धन, धान्य, राज्य, ग्रह आदि अचेतन पदार्थ जब किसीको मिलते हैं तब कुछ पुण्यकर्मका उदय होता है तब मिलते हैं और जगत के पुण्यकर्म का सम्बन्ध रहता है तब तकही उनका सम्बन्ध रहता है, पुण्यके क्षय होने पर उनका सम्बन्ध इतनी जल्दी छूट जाता है जैसे पवन
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बहते हुए निकल जाती है। न तो इन पदार्थोंके सदा साथ रहने का निश्चय है और न अपना हो उनके साथ सदा बने रहने का निश्चय । क्योंकि इन बाहरी पदार्थों का सम्बन्ध यदि है तो मात्र इस देह के साथ है, देह आयुकर्मके आधीन है नवश्य छूट जायगो तब चक्रवर्ती को भी सर्व सम्पत्ति यहीं छोड़ देनी पड़ती है । आत्मा अकेला अपने पुण्य तथा पापके बंधनको, लिए हुए दूसरी गतिमें चला जाता है । इन पदार्थोंको सुखदाई मानना भी भूल है । इनके लाभ करनेमें, इनकी रक्षा करनेमें. इनके वियोग होने पर इनके बिगड़ने पर प्राणीको खेद व दुःखही अधिक होता है, अभिप्राय यह है कि ज्ञानी जीव इनको अपने आत्माकी सुखदाई सम्पत्ति नहीं मानता है । वह ज्ञानदर्शन सुख बीर्य आदि आत्मोक गुणों को ही अपनी अटूट व अविनाशी सम्पदा मानता है, अज्ञानीका इन अनित्य पदार्थोंको अपना मानना ऐसी ही मूर्खता हैं जैसे कोई अपने मनमें ऐसा माना करे कि में तो स्वर्गका इंद्र हूँ व देव हूँ, मैं स्वर्ग में रमण कर रहा हूँ। जैसा यह संकल्प झूठा है मात्र एक ख्याल है, वैसे ही अनित्य पदार्थों को अपना मानना एक ख्याल है व भ्रम है। स्वामी पद्मनंदि अनित्य पंचा शत् में कहते हैं
हंति व्योमस मुष्टिनाव सरितं शुष्कां तरत्याकुलस्तुष्णार्तोथ मरीचिकाः विपत्ति व प्रायः प्रमतो भवन् ॥ प्रोतुंगाचल भूलिफागतमस्तु प्रेत् प्रवीशेप - यंत् संपत् सुतकामिनीप्रभूतिभिः कुर्यान्मवं मानवः ॥ ४३ ॥
तस्वभावना
भावार्थ - जो कोई मानव धन, पुत्र, स्त्री आदि अनिश्य पदार्थोंके होते हुए इनको अपना मानकर मद करता है वह मानरे
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आकाशको अपनी मुट्ठीसे मारता है, सूखी नदीमें तैरता है, प्यास से घबड़ाया हुआ मृग जल को पीना है ! ये सब स्त्री पुत्रादि दवाई इसी र नगर होने जाले हैं जैसे ने पर्वत की चोटी से भाई हुई हवा के झोंके से दीपक की लौ बुझ जाती है। इनको अपना मानना मूर्खपना है ।
___मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो वारा सुत गृह अनित्य वस्तु हैं भिन्न निज आत्मसे । रहते बाहर देह संग चंचल हो पुण्य परताप से ।। जो मूरख संपत्ति जान उनको सुखवाय सो दुख सहे। मानो माने देव लक्ष्मि धरता मन बोच सोचा करें 1८५॥
उत्यानिका-आगे कहते हैं कि जगतके पदार्थोंसे राग दुःखकारी है जब कि वैराग्य सुखकारी है
मन्दाक्रांता छन्द यद्रमतानां भवति मुवमे कर्म बंधायपुंसां । नीरागाणां कलिमलमुचे तति मोक्षाय वस्तु ।। यन्मृप्त्यर्थ अधिगुडघतं सन्निपाताकुलामां।
नीरोगाणां वितरति परां तखि पुष्टि प्रकष्टाम् ॥८६ अन्वयार्थ-(भवने) इस लोक में (यद् वस्तु) जो पदार्थ (रक्तानां) रागी पुरुषोंके लिए (कर्मबंधाय) कर्मोके बंधके लिए भवति) होता है (तत् हि) वह ही पदार्थ (नीरागाणां) वीतरागी पुरुषों के लिए (कलिमलमुचे मोक्षाय) कर्मरूपी मलको छुड़ाकर मोक्षके लिए होता है जैसे (यत् दधिगुडघृतं) जो दही गुड़ तथा धी (सन्निपाताकुलानां) सन्निपात से व्याकुल पुरुषों के लिए (मृत्यर्थं) मरणके लिए होता है (वत् हि बह ही (नीरोगापां)
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ता भावना
निरोगी पुरुष के (परां प्रकृष्टां पुष्टि) बहुत पुष्टि था शक्ति (वितरति) देता है।
भावार्थ-इस लोकमें आचार्य ने दिखलाया है कि परपदार्थ न बंधका कारण है न मोक्षका कारण है । असल में राग भाव या ममताभाव कर्मबंधका कारण है और ममतारहित वीतराग भाव कर्मोके ताशका कारण है। जिनके पास धन धान्य परिग्रह न हो परन्तु रागद्वेष या परिग्रह का ममताभाव बहुत अधिक हो तो उनके कौंका बंध हो जायगा तथा जिन ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीवों के पास धनादि परिग्रह हो पर जो अपने स्वाभाविक ज्ञान व वैराग्यके बलसे उसको अपनी वस्तु नहीं जानते हों किन्तु मात्र पुण्योदयसे प्राप्त परवस्तु मानते हों उनके चित्तमें मोहभाव नहीं होता है। इससे यह परिग्रह उनके लिए अधिक कर्मकी निर्जरा का कारण है। चारित्रमोह के उदय से उनके जो अल्प रागद्वेष होता है उससे नो कर्मबंध होता है वह इतना कम है कि वह संसारके भ्रमणका कारण नहीं होता है। जबकि मोहो अज्ञानी मिथ्यादृष्टी जीवके भावोंमें धनादि परिग्रह हो या न हो, जगतके पदार्थों से बड़ा भारी ममत्व होता है इसलिए वह बहुत अधिक बंध करता है । अज्ञानीका बंध संसारभ्रमणका कारण है। परंतु शानी का बन्ध मोक्षमें बाधक नहीं है। उस ज्ञानीके जितना-२ वीतरागभाव बढ़ता जाता है उतनी-२ अधिक निर्जरा होतो जाती है। समवशरणमें बहुत रत्नोंकी व सुवर्ण आदिकी रचना होती है वहीं श्री केवली भगवान विराजमान होते हैं। केवली भगवान पूर्ण वीतराग हैं उनके उस समवशरण की विभूति से रञ्चमात्रभी कर्मोंका बंध नहीं होता है। प्रयोजन कहनेका यह है कि रागी जोवके परिग्रह बन्धका कारण है तथा वीतरागी के यह निर्जरा का कारण है। जो सम्यग्दृष्टी गृहस्थ होते हैं वह
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तत्वभावना
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घनादि का संचय करते हैं उनके पिछले कर्मों की निर्जरा अधिक होती है क्योंकि दे भीतर जपले साथ मोह नही रखते हैं परन्तु जितने अंश रागभाव हैं उतने अंश बहुत थोड़ा कमबंध होता है । यहां पर दृष्टांत दिया है कि दही गुड़ और घी ऐसे पदार्थ हैं जिनको सन्निपात वाला खा लेवे तो उसका मरण हो जावे परन्तु यदि उनको निरोगी मानव खावे तो उसको बहुत अधिक बल प्राप्त हो । एक ही वस्तु फिसीको हानि का निमित्त व किसीको लाभका निमित्त होती है। इस तरह ज्ञानो को धनादि परिग्रह निर्जरा व मोक्षका कारण है जबकि अज्ञानोको वह आस्रव तथा कर्मबंध का कारण है।
तात्पर्य यह है कि हमको वीतरागी होनेका यत्न करना चाहिए। वह वीतराग भाव पदार्थों के सच्चे स्वरूप के ज्ञान से होता है। ज्ञानको महिमा स्वामी अमितगतिने सुभाषित रत्नसंदोह में इस तरह कही हैज्ञानं विमा नात्यहितान्नित्तिस्ततः प्रवत्तिनं हिते जनानां । ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लमतेप्यमीष्टम् ||१६॥
भावार्थ-ज्ञान के विना मानवोंका अहितसे बचना व हितमें प्रवर्तना असम्भव है । विना स्वात्महितमें प्रवृत्ति किए पूर्व कर्मों का नाश नहीं हो सकता है और बिना कोके नाशके कोई अपने इष्ट सच्चे मोक्षसुख को कभी भी नहीं पा सकता है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जग में जो जो वस्तु कमबंधन रागी जनोंको करें। सो सो वस्तु विरागमा धरके हर कर्म मुक्ती कर॥
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जो बधि गुड़ घी सन्निपात धरके तनको वियोगी करे I
सो ही रोगरहित पुरुष यदि म उत्थानिका --- आगे कहते हैं लोभ
अत्यन्त पुष्टी करे | ८६ | कषाय ज्ञानी मानवों को
भी संताप का कारण है
तस्वभावना
सम्यग्दर्शनबोध संयततपः शोलाविमाजोऽपि नो ।
विभ्राणस्य विश्विवरश्न नचितं दुष्प्रापपारं पयः । संतापं किमुवन्यतो न कुरुते मध्यस्थितो वाडवः । ८७ । अन्वयार्थ - ( भवभृतः ) संसार में रहने वाले प्राणी के ( सम्यग् - दर्शनबोधसंयमतपःशीलादिभाजः अपि ) जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान संयम, तप व शोल मादि गुणोंको रखने वाला भी है परन्तु यदि ( लोभानलं विनतः) उसके मनमें लोभको आग जल रही है तो उसके पास से ( संक्लेशो) संक्लेशभाव ( दो विनिवर्तते नहीं हटता है | ( विचित्ररत्ननिचितं ) नाना प्रकार रत्नों के समूह को व (दुष्प्रापपारं पयः ) जिसका पार करना कठिन है ऐसे जल को ( विवाणस्य ) धारण करने वाले ( उदन्वतः ) समुद्र के ( मध्य स्थितः ) बीचमें रहा हुआ ( वाडवः ) दावानल ( किं) क्या (संतापं ) संताप को या क्षोभ को ( न कुरुते ) नहीं करता है ?
मावार्थ- वहाँ पर यह बात दिखलाई है कि लोभकषाय महान आकुलता व संक्लेशभाव का कारण है । साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या यदि कोई सम्यग्दृष्टी व ज्ञानो संयमी साधु भी हों और उनके भीतर यदि कभी प्रतिष्ठा पाने का पूजा
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करने का रस सहित भोजन पाने का इत्यादि किसी प्रकार का
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लोभ हो जाये तो उसके परिणाम शांत व स्वस्थ न रहेंगे ।
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लक्ष्यभावना
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जब वह लोभको हटाकर संतोषी व शांत होगा तब ही उसका प्रन क्षोभरहित होगा । जैसे समुद्र में अगाध जल होता है व रत्न भी होते हैं परन्तु उसके मध्य में जो बड़वानल जलती है उससे समुद्र का जल सदा शोभित रहता है- निश्चल नहीं ठहर सकता । यहाँ यह बताया है कि सम्यग्दृष्टी होकर भी निश्चिन्त रहना चाहिए किंतु सर्व लाभ के मैलको हटाने के लिए परिग्रह का त्याग करके निर्लोभी हो जाना चाहिए । निर्लोभी ही आकु लता रहित आत्मध्यान कर सकते हैं इसलिए लोभ कषाय को जीतना आवश्यक है ।
स्वामी अमित तिजी ने सुभाषितरत्न संदोह में कहा हैचक्रेश केशव हलायुधभूषितोपि । संतोषमुक्तमनुजस्य न तृप्तिरस्ति ॥ तृप्ति बिना न सुखमित्यवगम्य सम्यग्लोभग्रहस्य वशिनो न भवंति धीराः ॥७॥
भावार्थ - चक्रवर्ती, नारायण आदिकी बहुत विभूति व मायुध आदिसे विभूषित होनेपर भी यदि किसी मानव में संतोष नहीं है तो उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है । जहाँ मनमें सृप्ति नहीं वहां कभी सुख नहीं प्राप्त हो सकता ऐसा जानकर धीर पुरुष कभी भी लोभ रूपी पिशाचके वशीभूत नहीं होते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द सम्यग्दर्शन ज्ञान संयममयो तप शील बारे सही । पर मनसे तृष्णा तजे नहिं कधी संश्लेश त्यागे नहीं ॥ लाना रस्न समूह धार उदधो जलका नहीं पार है। बडवानल विसमध्य मित्य जनता संताप कर्तार है || ६७॥
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उत्पानिका – आगे कहते हैं कि मोहांध पुरुष परके पदार्थको अपना ही समझ लेते हैं परन्तु निर्मोहीते मंदाक्रांता वृत्तम्
तत्त्वभावना
मोहांधानां स्फुरति हृदये बाह्यमात्मीयबुध्या । निर्मोहानां व्यपगतमलः शश्वदात्मैव नित्मः ॥ तवं यदि विविविषा ते स्वकीयं स्वकीर्य -- मोहं चित्त ! क्षपयसि तवा कि न दुष्टं क्षणेन ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थ - (मोहांधानां) मोह से अन्धे जीवों के ( हृदये) हृदय में (बाह्यम्) बाह्य स्त्री, पुत्र शरीरादि पदार्थ ( आरमीयबुद्धया) अपने आत्मापने की बुद्धिसे अर्थात् वह अपना ही है ऐसा ( स्फुरति ) झलकता है । ( निर्मोहानां) मोह रहित पुरुषों के हृदय में (व्यपगतमल: ) कर्ममेल से रहित (नित्यः) अविनाशी ( आत्मा एव ) आत्मा ही ( शश्वत् ) सदा अपनापने की बुद्धि से झलकता है । (चित्त) हे मन ! (यदि यत्) अगर जो इन दोनों के भेदको (ते विविदिषा) तू समझ गया है तब ( स्वकीयैः ) इन अपनों से अर्थात् इन स्त्री पुत्रा दिसे जिनको तूने अपना मान रक्खा है ( स्वकीयं ) अपनेपन का (दुष्ट) दुष्ट (मोहं) मोह ( कि न ) क्यों नहीं ( क्षणेन क्षपयसि ) क्षण मात्र में नाश कर देता है ।
(
( तदा )
तदभेदं )
भावार्थ - जहांतक संसारी जीवों के हृदय में मिथ्यात्व कर्मका उदय है कि जिससे उनके मिथ्याभाव रहता है वहाँ तक वे पर वस्तुको अपनी माना करते हैं। जो शरीर क्षणभंगुर हैं उसे अपना मान लेते हैं, फिर शरीर के सम्बन्धो संपूर्ण पदार्थों को अपना मान लेते हैं, उनकी बुद्धि बिल्कुल अंधी हो जाती हैं परन्तु जब मिथ्यात्व चला जाता है और सम्यग्दर्शन का प्रकाश हो जाता
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तत्त्वभावना
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है तब पदार्थों का सच्चा स्वरूप जैसा का तैसा झलक जाता है। तब यह ज्ञानी जीव मात्र एक अपने आत्मा के ही शुद्ध स्थमाव को अपना जानता है। रागादि भावोंको, आठको को व शरारादिका व अन्य बाहर। पदाथों को अपना कभी नहीं जानता है । वह देख करके निर्णय कर लेता है कि सर्व पदार्थ विलय होते जाते हैं। किसीका सम्बन्ध मेरे आत्मा के साथ नित्य नहीं रहता है। शरीर हो जब छूट जाता है तब दूसरे पदार्थ की क्या गिनती ? तब वह ज्ञानी अपने मनको समझाता है कि जब तु भले प्रकार जान गया है कि जगत का एक परमाणु मात्र भी अपना नहीं है तब फिर तू क्यों मूढ़ बनता है और क्यों नहीं अपनी भूलको छोड़ता है ! तूने जिन शरीरादि पदार्थोंको अपना मान रवखा है वे जब तेरे नहीं होते तब तेरा उनसे मोह करना वया है। तू मात्र अपने स्वामी आत्मा को ही अपना मान । वास्तव में जिनके यथार्थ निर्णय हो जाता है उनके दुर्बुद्धि नहीं पैदा होती है।
श्री अमितिगति सुभाषित रत्नसन्दोह में कहा है--- पथार्थ तत्वं कथितं जिनेश्वरैः सुखावहं सर्वशरीरिणां सवा । निधाय कर्णे विहितार्यनिश्चयो न भव्यजीवो वितनोति दुर्मतिम्
१५७॥ भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान ने सर्व शरीरधारी प्राणियों को सदा सुख देने वाले यथार्थ तत्व का कथन किया है । जो अपने कानों से सुनकर दिल में रखता है व ठीक-२ निश्चय कर लेता वह भव्यजीव फिर मिथ्याबुद्धि नहीं करता है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो मिथ्याती मोह अन्धमति हो पर वस्तु निज मानता । सम्यक्ती निजमारम नित्य निर्मल उसको गनिज जानता ।।
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रे मन ऐसा भेद ज्ञान करके निज आत्म में लीन हो । परसे अपना मोह सर्व हरले मल दुष्टसे छोन हो ॥८८॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि वीतरागी तपस्वी ही मोक्ष के अधिकारी हैं
सत्वभावना
मार्दूलविक्रीडित छन्द
स्वास्मारोपितशील संयम भरास्त्यवसान्य साहाय्यकाः । कायेनापि विलक्षमाणहृदयाः साहायकं कुर्वता ॥ तप्यते परदुष्करं गुरुतपस्तत्रापि ये निस्पृहा । जन्मारण्यमतीत्य भूरिमयवं गच्छति ते निर्वृतिम् ॥ ८६ ॥
अम्वयार्थ - ( स्वात्मारोपितशील संयमभराः ) जो शील व संयमके भारसे भरे हुए अपने आत्मा में हो लीन हैं ( त्यक्तान्यसाहाय्यकाः ) जिन्होंने परवस्तु के आलम्बन का त्याग किया है ( साहायकं कुर्वता कायेन अपि विलक्षमाणहृदया:) जिनका मन ध्यानके साधन में सहाय करने वाले इस शरोरसे भी उदास है ऐसे साधु ( पर दुष्करं गुरुतपः तप्यते ) बहुत भारी कठिन तपस्या तपते हैं (तत्र अपि ये निष्पृहा :) परन्तु उस तपमें भी जो वांछा नहीं रखते हैं अर्थात् जिनका लक्ष्य निज आत्मानुभव पर है (ते) वे (भूरिभयदं ) इस अत्यन्त भय देने वाले (जन्मारण्यं ) संसार नको (अतीत्य ) उल्लंघन करके (निर्वृतिम् ) मोक्षको (गच्छति ) चले जाते हैं ।
भावार्थ - यहां पर आचार्यने मोक्ष के अधिकारी तपस्वियों का स्वरूप बताया है कि जो शील व संग्रम पालते हुए भी अपने आत्माके स्वभाव में लीन होने को ही असली शील व संयम समझते हैं, तथा जिन्होंने अपने मनको ऐसा वश कर लिया है कि उस 'मनको दूसरोंकी मदद नहीं लेनो पड़ती है। वास्तव गुरुपदेशका
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सहारा भी छोड़कर जिनका मन स्वरूपमें तन्मय है। यद्यपि इस शरीरकी ही मददसे वे अपना आत्मसाधन करते हैं तथापि इससे अत्यन्त विरागी हैं- इसका सम्बंध मिटाना ही चाहते हैं। वास्तव में उनका सारा उद्यम इस शरीर के कारावाससे निकल कर स्वतंत्र होनेका है । शरीर को दुष्ट चाकरके समान कुछ थोडासा भोजनपान देकर जीवित रखते हैं। ऐसे साधु निर्जन वन, पर्वत, नदीतट, वृक्षतल आदि कठोर व दुर्गम स्थानों पर खड़े होकर या बैठकर एका मन हो हैं
तौभी उस तपमें प्रेम नहीं रखते हैं, तप करने को वह एक सोढ़ो मात्र जानते हैं, ध्यान अपने स्वाधीन सुखके लाभ में ही रखते हैं। ऐसे वीतरागी आत्मरसी साधु महात्मा ही कर्मों की निर्जरा करके भयानक संसार-वनसे निकल कर परमानन्दमई मोक्षमें पहुंच जाते हैं ।
वास्तव में आत्मानुभवी साधु ही सच्चे सुख के पात्र हैं । स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं-निवृत्तलोकव्यवहार वृत्तिः संतोषदानस्ल समस्तदोषः । यत्सौख्यमाप्नोति गतान्तरागं कि तस्य लेशोपि सरागविसः । २३७
भावार्थ - जिसने अपनी वृत्ति को सर्वलौकिक व्यवहार से हटा लिया है, जो अत्यन्त सन्तोषी है व सर्व दोषों से रहित है, वह जैसे बाधारहित सुखको पाता है ऐसे सुखके लेश अंश को भी सराग मत वाला नहीं पा सकता है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडति छन्द
पर आलम्बन छोड़ आत्स रमते मिज सोल संयम भरे। सम सहकारि शरीर मात्र से रागवार घड़े ।
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तस्वभावना पुष्कर गुरुतर तपश्चरण करते वोछा न सपकी करे। सो तपसी भयदाय भववन त शिवनारिको मा परें।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ऐसे तपसी जो पुण्य की बांछा भी नहीं रखते, बहुत दुर्लभ हैं--
पूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्यं शुभं निमितम् । विज्ञायेत्यशुभं निहतुमनसो ये पोषयंते तपः।। जायते शमसंयमैकनिषधयस्ते दुर्लमा योगिनो। ये स्वनोमयकर्मनाशनपरास्तेषां किमनोध्यते ॥१०॥
अन्वयार्म-(पूर्व अशुभं कर्म) पहले का बांधा हुमा पापन कर्म (दुःखं) दुःखको व (शुभं निर्मितम्) शुभ कर्म बांधा हुना (सौख्यं) सुखको (करोति) करता है (इति) ऐसा (विज्ञाय) जानकर ( जो अशुभ मिहंतुमनस. पापमान को नाश करने की मनसा करके (तपः पोषयंते) तप का साधन करते हैं (ते) वे (शमसंयमैकनिधयः) शांति व संयम के एक निधिरूप (योगिनः) योगी (दुलेभा जायन्ते) बहुत कठिनता से मिलते हैं (तु) परन्तु (ये) जो (मत्र) इस जगत में (उभयकर्मनाशनपराः) पुण्य पाप दोनों कर्मों के नाशमें उद्यमी हों (तेषां) उन साघुओंके सम्बन्ध में (अत्र) यहाँ (कि उच्यते) क्या कहा जावे? अर्थात् वे तो दुर्लभ ही हैं।
भावार्ष-इस कथन से आचार्य ने बताया है कि वास्तव में वही मोक्षमार्ग है जहां पर पुण्य तथा पाप दोनोंसे विरक्त हो मात्र शुद्ध आत्माकी ओर लक्ष्य रक्खा जावे ! निस्पृहपना ही एक साधु का लक्ष्य है । आत्मानन्दमें मगन रहना ही साधु का चिन्ह है । यद्यपि इस कालमें ऐसे विरले ही साधु मिलते हैं तथापि इसी रत्नमयमईभावको मोक्षमार्ग प्रदान करना चाहिए। पापक्रमों
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तत्यभावना
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के उदयसे जीव संसार में दुःख पाते हुए व पुण्य कर्मों के उदय से जीव सुख पाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। यदि यह सुख ध्रुव होता, तृप्तिकारी होता व आगामी पापबन्धकारी न होता तब तो इस सुखको भी त्यागने योग्य न मानता । परन्तु इस सुखको महात्मा पुरुषोंवे मृगजल के समान क्षोभकारी व तृष्णा वर्द्धक माना है। इस जगत में ऐसे साधु भी कम हैं धर्वापारों से बढ़ते हुए पुष्प के हेतु से तपस्या करते हैं । वे यद्यपि यथार्थ मोक्षमार्ग से पतित हैं तथापि जगत को अपकारी नहीं हैं। प्रशंशनीय तो वे ही महात्मा साधु हैं जो आत्मानंद के प्रेमी होकर आत्मा में ही रमण करते हैं। इसी भावको ग्रहण कर पाठकों को स्वात्मलाभ करके अपना हित कर्तव्य है ।
श्री पद्मनंदि मुनि ने एकत्व भावनादशक में कहा हैचैतन्यत्त्वसंधितिदुर्लभा संघ मोक्षदा । लब्ध्या कथं कथंचिचेच्चितनोया मुहुर्मुहुः ॥४॥ मोक्ष एव सुखं साक्षात् तच्च साध्यं मुमुक्षुभिः । संसारेव तु सन्नास्ति यदस्ति खलु तग्म तत् ॥५१
भावार्थ - अपने चेतन स्वभाव का अनुभव दुर्लभ है परन्तु वह भी मोक्ष को देने वाला है किसी भी तरह से उसको पाकरा बारबार उसका चिन्तवन करना चाहिए। मोक्षही साक्षात् सुख है, उसीका ही साधन मुमुक्षु पुरुषों को करना योग्य है। यह सुख संसार भाव में नहीं है, जो कुछ है वह वह सुख नहीं है जो आत्मीक मोक्ष का सुख होता है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
सूरव पाप करे खु दुःख बहु वे शुभ कर्म सुख देत हैं। ऐसा लख सम अघविनाश अयं तप मांहि चित बेत हैं ।
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ऐसे योगी संयमी चितसमी दुर्लभ तु इस काल हैं। अति दुर्लभ शुभ अशुभ हनन तपसो वे सत्य शिवसुख लहैं ॥। ६०
तस्वभावना
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि साधुजन सदा कर्मशत्रुओं के नाशमें उद्यमी रहते हैं
विच्छेद्यं यमुदीर्यं कर्म रमसा संसारविस्तारकम् ।
साधुनामुक यो गत्वा विजिगीषुणा बलवता वैरी हादन्यते । नाहत्वा गृहमागतः स्वयमलो संत्यज्यते कोविदः ॥ १ ॥
अन्वयार्थ -- ( साधूनां ) साधुओंके लिए ( यत्संसारविस्तारकं कर्म ) जो कर्म संसारका बढ़ाने वाला है ( रमसा उदीर्य) उसे शीघ्र उदय में लाकर (विच्छेद्यं ) छेदना उचित है तब फिर (स्वयं उदयागतं इवं ) अपने आप ही उदय में आए हुए इस कर्म को ( विच्छेदने ) नाश करने में (कः श्रमः ) क्या परिश्रम है या क्या कठिनता है । ( बलवता ) बलवान (विजिगीषुणा ) विजयको चाहते वाला पुरुष (गत्वा) जाकरके (य: वैरी ) जिस शत्रुको ( हठात् ) बलपूर्वक ( हन्यते) मारता है (असो) यह शत्रु (स्वयम् ) अपने आप ही (गृहम् ) घर में ( आगतः ) आ गया तब ( कोविदैः ) बुद्धिमान (अहृत्वा ) विना मारे (न संत्यज्यते) नहीं छोड़ते ।
भावार्थ - आत्मा के शत्रु कर्म हैं क्योंकि ये कर्म ही बंधन में डाले हुए आत्माको स्वाधीनताको हरण किए हुए हैं, चारों गतियों में अनेक शारीरिक व मानसिक कष्ट देने में कारणभूत ये कर्मरूपी शत्रु ही हैं, जो सम्यग्दृष्टी ज्ञानी महात्मा कमौको अपना घातक समझ लेते हैं वे अपनी स्वाधीनता पाने के लिए उद्यमी होकर
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तस्वभावना
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यह चित्तमें ठान लेते हैं कि किसी भो तरह इन कर्म-शत्रुओं का सर्वनाश करना चाहिए । इसलिए घर तम वन में जाते हैं और तपस्या करके कर्मों को, जो दीर्घकाल में नाश होते, उनको शीन उदयमें लाकर नाश करते रहते हैं। ऐसे साधुओंके सामने यदि कर्मशत्र स्वयं उदय में बार यह र सही माय बहुत अधिक उदयमें आकर उपसर्ग व परीषह द्वारा दुःख पैदा करके नाश होने लगे तो साधु उस समय बड़ा हर्ष मानते हैं व उनके नाश होने में कुछ भी अपना विगाड़ नहीं करते । प्रयोजन यह है कि जब साधुओं को तीन असातावेदनी कर्म की उदीरणा से घोर उपसर्ग पड़ जावे व घोर परीषह सहना पड़े तो वे साधु उस समय अपने आत्मध्यान में निश्चल रहकर उन आए हुए कर्मशत्रुओं को क्षय होने देते हैं। उस समय यदि साधु संक्लेश भाषधारी हो जावें तो नवीन असाता कर्म को बांध लेवें तब मानो उन्होंने शत्रु को नाश नहीं किया, उल्टा आप कर्मशत्रु के बन्धन में फंस गए। परन्तु सच्चे पुरुषार्थी साघु संकटों के समय उत्तम क्षमा की ढाल से अपने भावों को पवित्र व आत्मरमी रखते हैं इससे उन कोका बड़ी सुगमता से क्षयकर डालते है, बहुधा उपसर्ग पड़ने पर साधओं को तुतं केवलज्ञान हो जाता है । मभिप्राय यह है कि साधुओं को कर्मों का आक्रमण होनेपर उनको समताभावसे नाश कर डालना चाहिए, कभी भी आकुलित न होना चाहिए। उस वक्त यह हो वीरमाव धारना चाहिए कि जैसा कोई वीर योद्धा अपने मन में रखता है, किसी शत्रु को विजय करने के लिए उसको चढ़ाई करके जाना था। कारणवश वह शत्रु यदि स्वयं चढ़ करके आ गया तब वह वीरयोद्धा अपनी अकाट्य सेना द्वारा उस शत्रु का व उसके दल का नाश करने में कोई कमी नहीं करता किन्तु बिना अधिक परिश्रम के बड़ी सुगमता से उस शत्रु का नाश कर देता है।
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तस्यभावना
तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु जीवको उचित है कि सदा ही कर्म शत्रुओं को जीतने की ताक में रहे, उनके
में वास्तव में कषाय वैरी के नाशक ही साधु सच्चे गुरु हैं ।
न
स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैंम रागिणः क्वचन न रोषदूषिता, न मोहिनो भवभयभेदनोखताः गृहीतसन्मननचरित्रवृष्टयो, भवन्तु मे मनसि मुद्दे तपोधनाः । ६८४
मावार्थ- जो न कभी रागी होते हैं न क्रोध से दूषित होते हैं न मोही हैं तथा जो संसार के भय को भेदने के लिए उद्यमी हैं व जिन्होंने सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्र को धारण कर लिया है ऐसे तपस्वी मेरे मन में आनन्द के हेतु होवें ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
मदवर्द्धन सर्व कर्म निर्भर करन जो शोध मनसा घरे । ओ आपी से आ गया उदय में दिन अम यती क्षय करे ॥ बिजयी वीर विचारता कि जाकर निज शत्रु मर्दन करे । सो आपसे आगया स्वघर में बुध तुर्त ही क्षय करे ३६१||
उत्थानिका— आगे कहते हैं कि परिग्रह के स्याग बिना मोक्ष का लाभ नहीं हो सकता है
मालिनी वृत्तम्
व्रजति भृशमधस्तात् गृह्यमाणेऽर्थ जाते । संत्यज्यमाने ॥
गत भरमुपरिष्टात्तव हतकहृदय तद्येन पद्वत्तुलानं । हिहि दुरितहेतुं तेन संगं विद्यापि ॥ ६२ ॥
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तस्वभावना
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अन्वयार्थ-(हतकहृदय) हे शून्य हृदय ! (येन) क्योंकि (यद्वत्) जैसे (तुला) तराजू का पलड़ा (तद्वत्) तैसे (भृशम्) बहुत अधिक (अर्थजाते गृह्यमाणे)पदार्थों को ग्रहण करते हुए यह जीव(अधस्तात् ब्रजति) नीचे को अर्थात् नर्कनिगोद आदि गति को चला जाता है (तत्र संत्यज्यमाने) और जहां पदार्थों को त्याग दिया जाता है तब (गतभरम्) भार से हलका होकर (सपरिष्टात्) ऊपर को भर्थात् स्वर्ग या मोक्ष को चला जाता है (तेन) इसलिए (दुरितहेतुं) पापबन्ध का कारण (संग) परिग्रह को (त्रिधा अपि) मन, वचन, काय तीनोंसे (जहिहि) त्याग दे।
भावार्थ-यहाँपर आचार्य ने बताया है कि परिग्रहका भार इस जीव को नीच गति की तरफ ले जाने वाला है तथा परिग्रह के भार का त्याग ऊंची गति को ले जाने वाला है और इस पर तराजू का दृष्टान्त दिया है । जैसे तराजू के पलड़े पर जितना अधिक बोझा लादेगे वह अधिक-२ नीचेको जाएगा और जितना बोझा उसमें से निकाल लेंगे उतना ही वह पलड़ा ऊंचा होता जायगा वैसे ही जितनी अधिक मूर्छा होगी उतना ही इस जीव का पतन होगा व जितनी मुर्छा कम होगी उतनी हो इस जीव की उन्नति होगी। तत्वार्थसूत्र में कहा है-"ब ह्वारम्भपरिमहत्वं नारकस्यायुषः ।" बहुत आरम्भ व बहुत परिग्रह नरक आयु वन्ध का कारण है। "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" थोड़ा आरम्भ तथा थोड़ा परिग्नह मनुष्य आयुके नवका कारण है, जो परिग्रह का प्रमाण कर के श्रावक व्रत पालते हैं वे नियम से देवगति जाते हैं, जो परिग्रह को त्यागकर ममता को हटा लेते हैं व तप करते हैं उनके यदि कषायभाव या रागभाव बिलकुल न मिटा तब तो वे साधु स्वर्गों में १६ स्वर्ग तक व नौ प्रेवेयकों में या नव अनुदिश में व पांच अनुत्तर में चले जाते हैं। जितना-२
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तत्त्वभावना
मूर्च्छारूप रागभाव या परिग्रह कम होता जाता है उतने २ हो ऊंचे जाने लायक पुण्यकर्म बांध कर ऊंचे-२ विमान में देव, इन्द्र या अहमिन्द्र पैदा होते हैं। जिनके दिलकुल नष्ट हो जाता है वे उसी जन्म से अरहन्त परमात्मा होकर फिब सिद्ध परमात्मा होकर तीन लोक के ऊपर सिद्धक्षेत्र में विराजमान हो जाते हैं। सबसे अधिक मूर्छावान परिग्रही सबसे अंतिम सातवें नर्क में जाता है जबकि परिग्रह का पूर्ण त्यागी, पूर्ण दीतरागी सीधा मुक्तिमें चला जाता है, ऐसा जानकर आचार्य कहते हैं कि दे आत्मन् ! यदि तू सर्वोच्च पदको प्राप्त करना चाहता है और संसार की आकुलताओं से बचकर नित्य आत्मीक आनंद का स्वाद लेना चाहता है तो सबसे ममता छोड़कर एक निज शुभ स्वरूप का प्रेमी वन और उसीके मनोहर आत्म उपवन में रमण कर वृथा क्यों जगत के ममत्व में अपने को दीन हीन बना रहा है ।
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स्वामी अमितगति ने सुभाषितरत्नसंदोह में कहा है कि लोभ की बाग आत्मीक गुणों की घातक है
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लग्धग्धनञ्बलन बत्क्षणतोऽतिषद्ध । लामेन लोभवहनः समुपैति जन्तोः ॥ विद्यागमव्रत तपः शमसंयमादी
नमस्मीकरोति यमिनां स पुनः प्रवृद्धः || ६४॥
भावार्थ - जैसे अग्नि में ईन्धन डालने से आगे क्षणभर में अढ़ती जाती है वैसे ही लोभ को बाग प्राणी के भीतर लाभ के
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सत्त्वभावना
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होनेसे बढ़ जाती है । वह बढ़ी हुई लोभ की आग संयमी साधुओं के विद्या के नाम की, नल को. को, शांतभाव को तथा संयमादि को भस्म कर देती है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द पलड़ा भारी जात है अधोको बिन भार ऊपर रहे। जो कोई बहु संग मार रखता सो नीचगति ही लहे ।। तज परिग्रह जंजाल होय निस्पृह सो ऊर्च गति जात है। मन यच काय सम्हार सङ्ग तज दे अध बंध जो लास है।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि तप को पालते हुए उसे शद्ध रखना चाहिए, मलीन न करना चाहिए ।
सद्यो हन्ति दुरंतसंसृतिकरं यत्पूर्वकं पातकम् । सुद्धचर्ष विमलं विधाय मलिनं तत्सेवते यस्तपः ॥ शुद्धि याति काममापि गप्तधीमांसावबद्यार्जकम् । एकीकृस्य जलं मलाचिततनुः स्नातः कुतःशुध्यति ॥३॥
अन्वयार्थ-(यत्) जो (विमलं तपः) निर्मल तप (दुरन्तसंसृतिकर) दुःखमयी संसार को बढ़ाने वाले (पूर्वकम) पूर्व में किये हुये (पातक) पापको (सद्यः) शीघ्र ही (हन्ति) नाश कर सकता है (तत्) उस तपको (मलिन) मलीन व (अवद्यार्जकम्) पापको बांधने वाला ऐसा (विधाय) करके (यः) जो कोई (शुद्धयर्थं) कर्मों के मैल से शुद्ध होने के लिए (सेवते) सेवन करता है (असौ) वह (गतधीः) निर्बुद्धि (कदाचनापि) कभी भी (न शुद्धि याति) नहीं शुद्ध हो सकता है (मलाचिततनुः) मल से जिसका शरीर भरा हुआ है ऐसा पुरुष (जलं एकीकृत्य) बल को मेल से मिलाकर (स्नातः) स्नान करते हुए(कुतः) किस तरह (शुध्यति) मल रहित शुद्ध हो सकता है... । .
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भावार्थ - यहाँ पर आचार्य दिखलाते हैं कि शुद्ध वीतराग भावमयी निर्मल तप से ही कर्मों की निर्जरा हो सकती है । जो कोई तप तो करे परन्तु तप को भी अभिमान सहित करे व आगामी भोगों की इच्छारूप निदान सहित करे व इस श्रद्धान को न पाकर करे कि शुभ भाव से बंध होता है तथा शुद्ध भावों से निर्जरा होती है और शुभभाव से ही मोक्ष मान ले तो ऐसा तप उल्टा कर्मों को बांधने वाला है। यह तप मलीन है, शुभ या अशुभ भाव सहित है, ऐसा तप मिथ्यात्वसहित है यदि घोर कष्ट सहकर व महीनों उपवास करके ऐसे मिथ्या तप को बहुत तक साधन करे तो भी इस तप से बंध ही होगा, आत्मा अधिक मैला होगा। जिस हेतु से तप किया था कि मैं शुद्ध हो जाऊँ वह हेतु कभी भी पूरा नहीं होगा । परन्तु जो सम्यग्दर्शन सहित वीतरागभावों को बढ़ाता हुआ तप करेगा और शुद्धोपयोग में रमण करेगा उसके अवश्य पिछले कर्मों की बहुत निर्जरा होगी और नवीन कर्मों का बहुत संघर होगा । इसलिए शुद्धोपयोग भाव ही आत्मा को शुद्ध करने वाला है । यह विश्वास दृढ़ रख के इस भावको जगाने के ही लिए तप करना योग्य है, जो आदमी मैल से बिलकुल मेला हो रहा है उसके मैल धोने के लिए शुद्ध साफ पानी चाहिये । यदि कोई मैल से मिले हुए पानी से नहावे तो उसका मैल कभी भी शरीर से उतरेगा नहीं - और चढ़ता रहेगा । शुद्ध पानी से ही मसल मसलकर नहाने से शरीर शुद्ध होगा, इसी तरह शुद्ध ध्यानमयी तप के अभ्यास से ही मलीन - आत्मा शुद्ध होगा ।
तस्वभावना
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में निर्मल तप साधकों -की प्रशंसा करते हैं
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तत्वभावना
जीवाजोवावितस्वप्रगटनपटपो ध्वस्तफायदा । निसकोधयोधा मुदि मवितमदा हविद्यानवधा ।। ये सप्पन्तेऽनपेक्षं जिनमदिततपो मुक्तये मुक्ननसंगा। से मुक्ति मुक्तबाधाममितगतिगुणाः साधवो नो विशन्तु
Hot भावार्थ-
जोजोब अजीब कादि तपी के जानने में चतुर हैं, जिन्होंने कामदेव के भेदको विध्वंस कर डाला है, क्रोध रूपी योद्धा को क्षय कर दिया है, माठों मदों को चूर्ण कर दिया है, अज्ञान दूर करके दोष रहित हैं, ऐसे जो साघु सर्व परिग्रह रहित होकर बिना किसी वांछा के मात्र मुक्ति के लिए आनन्द मन से जिनेन्द्र भगवान का कहा हुआ तप तपते हैं व अमर्याद ज्ञानगुण के धारी साधु हमको बाधारहित मुक्ति दे । वास्तवमें कषायरहित ही तप सच्चा तप है ऐसे ही तपस्वी स्वयं मुक्त होते हैं और दूसरों को भवसागर से तारते हैं ।
मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द दखमय भवकर पूर्व पाप संचय जो शीत्र मर्वन करे। ऐसे निर्मल शुद्ध हेतु तप को मन मैल धरकर करे । सो निर्बुद्धि कुकर्म अर्जन करे नहि कर्म से शुद्ध हो । मलतनधारी नर मलोन जल से नहाकर नहीं शुद्ध हो ॥६३||
उत्थानिका--मागे कहते हैं भेदज्ञान द्वारा प्राप्त शुद्ध ध्यान से ही कर्मों का नाश होता है
लकवा बुर्लभमेवयोः सपदि ये देहात्मनोरंतरम्। अगवा बाबहुताशनेन मुनयः सीन कर्मधनम् ॥
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लोकालोक विलो किलो कनयना भूत्वा द्वि लोकाचिताः । पंथानं कथयति सिद्धिवसतेस्ते संतु नः सिद्धये ।। ६४ ।।
तत्वभावना
अन्वयार्थ - ( ये ) जो ( मुनयः ) मुनि (दुर्लभभेदयोः देहात्मनो ) कठिनता से भिन्न २ किए जाने योग्य शरीर और आत्मा के (अंतरम्) भेद को ( सपदिपा करके (शुद्धेन ) शुद्ध वीतरागतामई (ध्यानहुताशनेन ) आत्मध्यान की अग्नि से ( कर्मेधनम् ) कर्मों के ईन्धन को ( दग्ध्वा ) जला करके ( लोकालोक विलोकिलोकनयना ) लोक और अलोकको देखने वाले केवलज्ञान नेत्र के घारी हो जाते हैं तथा (द्विलोकाचिताः ) इस लोकके चक्र वर्ती आदि मानव व परलोक के इन्द्रादि देव आदि के द्वारा पूजे जाते हैं (भूत्वा ) ऐसे महान परमात्मा अरहंत होकर (सिद्धिवसते ) मोक्षरूपी वसती के ( पथानं ) मार्ग को ( कथयति ) बनाते हैं (ते) वे (नः) हम लोगों को (सिद्धये ) सिद्धि के लिए (संतु) होखें ।
भावार्थ - यहाँ पर आचार्य ने बताया है कि भेदविज्ञान की सबसे पहले प्राप्ति करनी उचित है। आत्मा और शरीरादि कर्म ये दोनों दूध पानी की तरह मिले हुए हैं और इनका संबंध भी अनादिकाल से प्रवाहरूप चला जाता है । कर्माण व तेजस शरीरों से तो यह जीव कोई क्षण भी अलग नहीं होता है, कर्मों के उदय के निमित्तसे ही अज्ञान और रागद्वेषादि भाव होते हैं, जो जिनवाणी के भले प्रकार अभ्यास के बल से अपने आत्माको बिलकुल शुद्ध परमात्मा के समान जाने और सर्व रागादि भावों को व परद्रव्यों को अपने आत्मा से भिन्न जाने तथा इस ज्ञानको बार-बार मनन कर पक्का ज्ञान प्राप्त कर ले तब उसकी बुद्धि परसे राग हटका है और अपने वामस्वरूप में रमणा की शक्ति
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तत्पभावना
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पैदा होतो है, तब इसके ध्यानका अभ्यास होता है। जितना मात्मध्यानका वीतरागतारूप अभ्यास बढ़ता जाता है उतना उतना कर्मका मैल कटता जाता है । आत्मध्यानके ही अभ्यास से धर्मध्यानकी पूर्णता व शुक्ल ध्यानकी जागृति महान मुनियोंके जो उसी शरीरसे मोक्ष जाने वाले हैं होती है। इसी शुक्लध्यान से घातियाको को नाशकर वे केवलज्ञानी महंत परमात्मा हो जाते हैं तब उनको सर्व ध्य अपने गुण व अनंत पर्याय सहित विना किसी क्रमके एक ही काल में झलक जाते हैं। उस समय उनको सब ही देव, मानव, साधु, संत नमस्कार करते व पूजन करते व उनका धर्मोपदेश पानकर तृप्त होते हैं। वे उस समय उसी रत्नत्रयमई मोक्षमार्गमाल हैं शिप वार पर परमात्मा सर्वज्ञ हुए हैं। आचार्य भावना भाते हैं कि हम भी एसे अरहंतोंके वचनों पर श्रद्धा लाकर व उन ही की तरह आत्मध्यानका अभ्यास कर शुद्ध हो जायें और मोक्षके अनुपम मानंद को प्राप्त कर लेवें। प्रयोजन यह है कि बिना किसी इच्छाके व मानरहित होकर जो शुद्ध आत्मध्यान करते हैं वे ही परमसुखी होते हैं। मलीन ध्यानसे कभी शुद्धि नहीं हो सकती है।
श्री पद्मनंदि मुनि परमार्थविंशति में कहते हैंयो जामाति स एव पश्यति सदा चिपतां न त्यजेत् । सोहं मापरमस्ति किंचिदपि मे तत्त्वं तदेतत्परम् ॥ यच्च म्यसवशेषकर्मममितं क्रोधादिकार्यादि था। अत्याशास्त्रशतानि संप्रति मनस्येतच्छतं वर्तते ।।५।।
भावार्ष-जो जानने वाला है वही देखने वाला है, वह सदा ही अपने चैतन्य स्वभावको नहीं त्यागता है। और वही मैं हूं कोई दूसरा नहीं हूँ। मेरे जीव तत्वको छोड़कर दूसरा कोई भी
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तत्त्भावना
तत्य मेरा कभी भी नहीं है। मेरे आत्मस्वरूपके सिवाय जो क्रोध आदि कार्य हैं वे सब कर्मों के द्वारा पैदा हुए हैं। सैकड़ों शास्त्रों को सुनकर मेरे मनमें यही तत्व विद्यमान है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द ओ दुलभ इस आत्मदेह अन्तर लहि शीघ्र ज्ञानी भये। वे मुमि निर्मल ध्यान अग्नि सेतो अघकाष्ट बालत भये ।। केवल नेत्र प्रकाश सर्व लखके बैलोक पूजित मये। शिवमारग उद्योतकार सिद्धो हम होय भावत भये ॥६४||
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मुनीश्वरों का चारित्र हो आश्चर्यकारी है जो कर्मोको नाश कर देता है
येषां ज्ञानकृशानुराज्ज्वलतरः सम्यक्त्ववातेरितो। विस्पष्टीकृतसर्वतस्वसमितिदग्छ विपापैसि ।। वसोत्तप्तिमनस्तमस्ततिहतेदेदीप्यते सर्वदा । नाश्चयं रचयंति चिनचरिताश्चारित्रिणः कस्य ते ॥॥
अन्वयार्थ-(येषां) जिनकी (ज्ञानकषानुः) सम्यम्ज्ञानरूपी अग्नि (उज्ज्वलतर:) अपने प्रकाशमें बढ़ी हुई (सम्यक्त्ववातेरितः)सम्यग्दर्शनरूपी हवासे धौंकी हुई (विपापंसि दाधे) कर्मरूपी ईंधनको जला देने पर (दत्तोत्तप्तिमनस्तमस्ततिहतेः) व मनको आकुलित करने वाले सर्व रागादिक अंधकारको दूर कर देने पर विस्पष्टीकृतसर्वतत्वसमितिः) सर्व पदार्थों के व तत्वोंके समूहको एकही काल स्पष्ट प्रकाश करती हुई अर्थात् केवलज्ञान रूप होती हुई (सर्वदा) सदा ही (देदीप्यते) जलती रहती है (ते चित्रचरिता:) ऐसे विचित्र आवरण के (चारित्रिणः) आचरण करने वाले साघुगण (कस्य) किसके भीतर (आश्चर्य) माश्चर्य
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तसमानः
को (न रचयंति) नहीं पैदा करते हैं ? अर्थात् उनका चारित्र माश्चर्यकारी ही है।
भावार्थ-यहाँ फिर आचार्य ने सम्यग्ज्ञानमई आत्मज्ञानको महिमा दिखलाई है और दिखलाया है कि ज्ञान की सेवा करना ही चारित्र है। यह सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि सम्यग्दृष्टी महात्मा के भीतर प्रगट होती है, वह सम्यग्दृष्टी अपनी सम्यग्दर्शनरूपी हवा से उसे नित्य बढ़ाता रहता है । अर्थात् आत्मश्रद्धा पूर्वक आत्मज्ञानका ध्यान करता है । तब जितना-२ आत्मध्यान बढ़ता है उतना-२ ही कर्मकाष्ठ अधिक-२ बलता है, रागादि अन्धकार अधिक-२ दूर होता है, और ज्ञानकी आग बढ़ती हुई चली जाती है। जब यह आत्मध्यान की अग्नि चार घातियाकर्मों को जला देती है और सारे ही अंतरंग रागद्वेष के अंधेरेको मिटा देती है तब यह ज्ञानकी अग्नि अन्तित सीमाको पहुँचकर महा विशाल केवलज्ञानरूप हो जाती है । उस समय सर्वही द्रव्य अपने गुण व पर्यायोंके साथ एक ही काल झलक जाते हैं फिर केवलज्ञानरूपी अग्नि कभी बुझती नहीं है-सदा ही जलती रहती है। जिन्होंने ऐसे आत्मध्यानरूपी चारित्रको आचरणकर ऐसी अपूर्व ज्ञानअग्निको प्रकाश कर डाला है उन साधुओं का ऐसा विचित्र ध्यानका परिश्रमरूप चारित्र वास्तव में साधारण मानवों के मनमें आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है। तात्पर्य यह है कि मुमुक्ष जीवको निर्मल भेदज्ञान द्वारा आत्मज्ञानरूपी अग्निको निरन्तर जला कर उसीको सेवाकर अपने को शुद्ध कर लेना चाहिए। पद्मनंद मुनिने परमार्थविशति में आत्मध्यानका व आत्मतत्व में एकान होने की भावना भाई है--
देव तत्प्रतिमां गरुं मुनिजनं शास्त्रावि मन्य महे । सर्व भक्तिपरा वयं व्यवहतौ मार्ग स्थिता निश्चमात् ॥
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अस्माकं पुनरेक्ताश्चयणतो व्यक्ती मवच्चिद्गुण - स्फारी समतिप्रबंध महसामात्मैव तत्वं परम् ॥१३॥
तवाना
भाषार्थ – जब हम व्यवहार मार्गमे चलते हैं तब हम श्री जिनेन्द्रदेव, उनकी प्रतिमा, जिन गुरु व साधुजन तथा शास्त्रादि सबकी भक्ति करते हैं परन्तु हम जब निश्चय भाग में जाते हैं तब प्रगट चैतन्य गुण से झलकती हुईं भेदविज्ञान की ज्योति जल जाती है उस समय हम एकभाव में लय हो जाते हैं तब हमको उत्कृष्ट तत्व एक आत्मा ही अनुभव में आता है । अर्थात् जहां शुद्ध आत्मा के सिवाय अन्य कुछ तुम न बने वहीं आत्मध्यान है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जिनके भीतर ज्ञान अग्नि बढ़ती सम्यक्तकी पवन से । ईंधन कर्म जलाय शेष मन सब कर दूर निज रमन से ॥ उनके केवलज्ञान रूप होकर निस आप जलती रहे। तिन मुमि पालनहार आत्मचर्या आश्चर्य करती रहे ॥६५॥
उत्थानिका – आगे कहते हैं कि जब तक किंचित् भी स्नेहका लगाव रहेगा तब तक कमका नाश न होगा । इसलिए ध्यानी को वीतरागी होना चाहिए
यावकमेतसि बाह्यवस्तुविषयः स्नेहः स्थिरो वर्तते । तावन्नश्यति दुःखदान कुशलः कर्मप्रपंत्रः कथम् ॥ आद्वत्वे वसुधातलस्य सजटाः शुष्यंति किं पावपाः । मज्जत्तापनिपातरोधनपराः शाखोपशाखान्विताः ॥ १६ ॥
अन्वयार्थ -- ( यावत्) जबतक (चेतसि ) चित्तमें (बाह्यवस्तुविषयः ) बाहरी पदार्थ संबंधी (स्नेहः ) राग (स्थिर: ) थिररूप से
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तस्वभावला
[२४५
(वर्तते) पाया जाता है (तावत्) तबतक (दुःखदानकुशलः) दुख । देने में कुशल ऐसा जो (कर्मप्रपंचः) कर्मों का जाल सो (कथ) किस तरह (नाति नाश हो सकता है ? विसघातलस्य) जमीन के तलेके (आद्रे मीलेपनें के होते हुए(भृज्जतापनिरोघनपरा:) अत्यन्त सूर्य के आताप को रोकनेवाले (शाखोपशाखान्विताः) शाखा तथा उपशाखा से पूर्ण (सजटा:) तथा जटावाले (पादपाः) वृक्ष (किंशुष्यंति) कैसे सूख सकते हैं ? अर्थात् नहीं सूख सकते हैं।
भावार्थ-कर्मरूपी वृक्ष अनेक दु:ख रूपी कांटोंसे भरा हुआ है इसकी पुष्टि रागरूपी जलसे होती रहती है । जहाँ तक राग का जल सिंचन होता रहता है वहांतक यह कर्मरूपी वृक्ष बढ़ता जाता है । यदि कोई चाहे कि इस कमरूपी वृक्ष की बाढ़ न हो किन्तु यह सूखकर गिरपड़े तो उपाय यही है कि इसमें रायरूपी -- जल का सिंचन बन्द किया जाये तब यह शीघ्र ही गिर जावेगा। एक वन में अनेक वृक्षों के समूह हैं जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएं हैं व जिन पर जटाएं हैं ये वृक्ष बराबर बढ़ते रहते हैं, जब तक इनकी जड़ों में जमीन की तरी मिलती रहती है। जब जमीन की तरी का पोषण नहीं मिलता है तब वे बड़े-२ वक्षभी सूखकर गिर जाते हैं।
वास्तव में कर्मों के नाशका उपाय वीतराग विज्ञानमई जिन धर्म है । अविरत सम्पग्दष्टोको इस जिनधर्मका लाभ हो जाता है तब उसके कर्मवृक्ष की जड़ बिलकुल ढोली पड़ जाती है, अनंतानुबंधो कषायका उदय नहीं रहता है। ये ही कषाय कर्मकी जड़ को मजबूत करने वाली हैं। मात्र अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यामावरण व संज्वलम कपायका उदय संबन्धी राग है सो कर्मवृक्ष में
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२४६]
तस्वभावना
कुछ पुष्टि देता है परन्तु उसकी जड़ को मजबूत नहीं करता है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टी के भीतर का जो कर्मरूपी वृक्ष है वह एक न एक दिन बिलकुल सूख जायगा । बिसकी जड़ कमजोर हो गई है वह अधिक दिन नहीं चल सकता है। सम्यग्दृष्टी के भीतर पूर्ण वैराग्य इस तरह का होता है कि वह परमाणु मात्र भी परवस्तुको अपनी नहीं मानता है । उसके उदयप्राप्त कषायों के उदयसे जो कर्मबंध होता है उसको भी कर्मविकार जानता है। फिर आत्मानुभवके अभ्याससे जितना-२ राग घटता जाता है उतना-२ कर्मवृक्ष सूखता जाता है। जब वीतराग हो जाता है तब सर्व कमों से रहित शुद्ध हो जाता है। प्रयोजन कहने का यह है कि ज्ञानी को उचित है कि वीतरागभावके द्वारा आत्मध्यान का अभ्यास करे।।
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंमोगा नश्यन्ति कालात्स्वयमपि न गुणो जायते तत्र कोपि । सज्जीवतान् विमुच व्यसनमयकरानात्मना धर्मबुद्धया ।।
स्वातंव्यायेन याता विवधति मनसस्तापमत्यन्समुग्रं । तन्वन्त्येते न मुक्ताः स्वयमसमसुखं स्थात्मज नित्यमय॑म् ।४१३
भावार्थ-ये इंद्रियोंके भोग काल पाकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं इनके भीतर कोई भी सार गुण नहीं मिलता है इसलिए हे जीव ! तू इन आपत्ति व भयके करने वाले भोगों को आप ही अपनी धर्म में बुद्धि लगाकर छोड़ दे क्योंकि ये भोग स्वतंत्र रहते हुए मन में बड़े भारी संतापको पैदा करते हैं और यदि इनको छोड़ दिया जाय तो ये जीव स्वयं ही पूजने योग्य और नित्य ऐसे अपने आत्मीकसुख को भोगते हैं जिस सुख के समान कोई सुख नहीं है।
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तस्वभावना
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मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जब तक मनमें बाह्यवस्तु इच्छा थिररूप वर्तन करें। सब तक दुखकर कर्म जाल कैसे यह जीव चूरन करें ।। पृथ्वीतल में जलपना जु जब तक नहि वृक्ष हैं सूखते । सूरज ताप निरोध कर सुशाखा उपशाखा में लूंबते ॥ ६६ ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जोंके लिए तप को छोड़ देते हैं वे निन्दा के योग्य है
चको चक्रमपाकरोति तपसे यत्तन्न चित्रं सताम् । सूरीणां यदनश्वरीमनुपमां इसे तपः संपदम् ॥ तचित्रं परमं यत्र विषयं गृह्णाति हित्वा तपो । बत्तेऽसौ यदनेकखमबरे भीमे भवाम्मोनिधौ ॥ ६७॥ अम्बार्थ · - ( यत् ) जो (चक्री) चक्रवर्ती (तपसे) उस तपके लिए (यत्) जो (तपः ) तप (सूरीणां ) साधुओं को ( अनश्वरी ) अविनाशी (अनुपमां) और उपमा रहित ( संपदम् ) मोक्षलक्ष्मी को (दत्ते ) देता है (च) चक्रवर्ती के राज्य को ( अपाकरोति ) छोड़ देते हैं (तत्) सो ( सताम् ) सज्जनों के लिए (चित्तं ) आश्चर्यकारी (न) नहीं है । ( यत् ) जो ( अत्र ) इस संसार में (असो) कोई साधु ( तपः ) तप को (हित्वा) छोड़ कर (विषय) उस इंद्रिय के विषयभोग को (गृह्णाति ) ग्रहण करता है (यत्) जो विषयभोग (अवरेभोमे भवाम्भोनिधी ) इस महान भयानक संसार समुद्र में ( अनेक दुःखम् ) अनेक दुःखों को (दत्तं) देने वाला है (तत्) यह बात ( परमं चित्र ) बहुत ही आश्चर्यकारी है।
भावार्थ – यहाँ पर बाचार्य ने बताया है कि बुद्धिमान प्राणी
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४८]
को उच्च और उत्तम तथा नित्य पदार्थके लिए नीच व जघन्य व अनित्य पदार्थको अवश्य त्याग देना चाहिए। चक्रवर्ती राज्य करते हैं विषय भोगते हैं परन्तु उनको विषयभोगों से कभी तृप्ति नहीं होती है । विषयभोग सुख ही ऐसा है कि जो तृष्णा को शान्त करने के स्थान में और अधिक बढ़ा देता है। इसलिए वे चक्रवर्ती अपने शास्त्रज्ञान से इस बात को भले प्रकार निश्चय करते हैं कि अविनाशी व अनुपम सुख अपने आत्मा ही पास है और वह सुख आत्मध्यानसे ही हासिल हो सकता है, निराकुलता से उस आत्मध्यान को साधु महात्मा ही कर सकते हैं। इस अनुपम मोक्ष सुख के लिए तीर्थंकरादि बड़े-बड़े राजा राज्यपाट छोड़कर साधु हो गए और साधु होकर तप साध मोक्षको पहुंच गये। ऐसा जान चक्रवर्ती भी चक्रादि सम्पदा को छोड़कर तप धारण कर लेते हैं। आचार्य कहते हैं कि इसमें कोई आश्चर्यको बात नहीं है क्योंकि जो कोई वह काम करे जिसे सर्व बुद्धिमान लोग करते आ रहे हैं तथा जो परमोत्तम फल का कारण है तो इसमें सज्जनों को कोई अचम्भा नहीं दिखता है, यह तो उसने अपना कर्तव्य पालन किया। परन्तु आश्चर्य तो इस बात में है कि जो कोई उत्तम तप करने के लिए साधुपद की क्रियाओं को धारण करे और फिर उस साधुपद को क्षणभंगुर अतृप्तिकारी विषयभोगों के लिए छोड़ दे यह बड़े आश्चर्य की बात है । क्योंकि जिसे रत्न मिल रहे हों वह रत्न छोड़कर कांच के टुकड़ों को घटोर ले तो वह मूर्ख ही माना जायगा और उसका यह कृत्य विद्वान सज्जनों के दिल में आश्चर्यकारी ही होगा । प्रयोजन यह है कि जो इंद्रिय के विषय जीवको भयानक भव वन में घुमाते हैं। और घोरानुघोर कष्ट देते हैं उनही विषयों के पीछे अपने तप को छोड़ना उचित नहीं है। यह नितान्त पूर्बता है।
तरवधपणा
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[ २४६:
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं-पारसारसमुक्तास्तपः । विहाय ते हस्तगतामृतं स्फुटं पिबन्ति मूढाः सुख लिप्सया विषं ॥
१८६मा
तस्वभावना
भावार्थ- जो इन्द्रियों के विषयों के पीछे आकुल व्याकुल रहते हैं वे इस अपार संसार समुद्र से पार उतारने वाले तपकी साधन नहीं करते हैं वे मूर्ख मानो हाथ में आए हुए अमृत को छोड़कर सुख की इच्छा से विष को पीते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द श्री तप के काज चक्र छोड़े आश्चर्य कुछ है नहीं । अनुपम संपत् नित्य तप ज्जु देवे साधुजनों को सहो ॥ जो तप तज के विषय भोग करते आश्चर्य भारी रहा। इन लोगों से दुःख घोर सहते भववधि भयानक महा ||८|| उत्थानिका— आगे आचार्य कहते हैं कि आत्मा के सिवाय सर्व बाहरी पदार्थ त्यागने योग्य हैं
शिखरिणी छन्द
रामाः पापाविरामास्तनयपरिजना निर्मिता वनर्था । गावं व्याध्यादिपात्रं जितपथनजवा मूढ लक्ष्मीरशेषा ॥ कि रे बुटं त्वयाश्मन् भवगहनवते भ्राम्यता सौरूप हेतुन एवं स्वार्थनिष्ठो भवसि म सततं वाह्यमध्यस्य सवं ॥ ६८ ॥
अन्वयार्थ - ( मूढ़) रे मूर्ख ! ( रामाः ) स्त्रियें ( पापाविरामः ) पापों की खान हैं अर्थात पापों को उत्पन्न कराने वाली हैं ( तनय+ परिजनाः ) पुत्र व अन्य परिवार (बहु अनर्थाः निमिताः ) अनेका अनयों के कारण हैं ( गात्रं ) यह शरीर ( व्याध्यादिपात्र) रोग आदि कष्टों का ठिकाना है (अशेष लक्ष्मीः ) सम्पूर्ण लक्ष्मी
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२५०
........-.--...-....--."
तस्वभावना
(जितपवनजवा) पवन के वेग से अधिक चंचल है (रे आस्मन्) हे पात्मन् (त्वया) तूने (भवगहनवने भ्राम्यता) इस संसार के भयानक वन में भ्रमण करते हुए (सौख्यहेतुः) सुख का कारण (किं दृष्ट) क्या देखा है ? (येन)जिस कारण से (त्वं) तू (सर्व बाह्य)सर्व बाहरी पदार्थ को(अत्यस्य) भले प्रकार त्याग करके (सततं) सदा (स्वार्थनिष्ठः) अपने आत्मा में लीन (न भवसि) नहीं होता है। ____ भावार्थ-आचार्य ने दिखलाया है कि यह मोही जीव जिनः जिन सांसारिक पदार्थों को अपना माना करता है वे सब पदार्थ इस आत्मा के सच्चे हित में बाधक हैं । मात्मा का यथार्थ हित स्वात्मानुभव की प्राप्ति करके आत्मानन्द का विलास करना है और धोरे-२ कर्मबन्धनों से मुक्त होकर परमानन्द पाना है, इस वैराग्यमई कार्य में जितने भी राग के कारण हैं वे सब वाधक हैं स्त्रियों का सम्बन्ध वास्तव में गृहबंजाल का बीज है, मोह को पैदा कराने वाला है। पुत्र पुत्रियों की संतति का व उनके साथ अनेक आरम्भ परिग्रह की वृद्धि का कारण है अतएव अनेक हिंसादि पापों के निरन्तर कराने का निमित्त है, पुत्र व परिवार सर्व मोह के कारण हैं, उनके राग में फंसा हुआ प्राणी आत्महित से दूर हो जाता है। उनके निमित्त से बहुत से न करने योग्य कामोंको मोहो जीव क र डालता है । शरीर का सम्बन्धभी दुःख ही का हेतु है । क्षुधाता तो इसके नित्य के रोग हैं। ज्वर,खांसी स्वांस, फोड़ा, फुसी आदि अनेक रोग और इसके साथ लगे हुए हैं । जिस लक्ष्मी को पा करके ये प्राणो संतोष मानते हैं उसके बहने का बहुत कम भरोसा है । पुण्य के क्षय होते ही राज्य का भी नाश हो जाता है। क्षण मात्र में धनवान प्राणी निधन हो जाता है।
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[ २५ १
ऐसी दशा में कौन सा ऐसा पदार्थ इस जगत में है जो प्राणी को सुख का कारण हो ? वास्तव में क्षणभंगुर चेतन व अचेतन पदार्थों के साथ रहने का जब भरोसा नहीं है तब इनके निमित्त से सुखी होना मानना मात्र भ्रम है । इस संसार के भयानक वन में जिस २ शरीर का व बाहरी पदार्थ का आश्रय लिया जावे वे सब नाशवन्त प्रगट होते हैं तब उसे कैसे हो सकता है ? इसलिए आचार्य शिक्षा देते हैं कि हे आत्मन् ! तू अपनीभूल को छोड़ और अपना मोह सर्वे ही बाहरी पदार्थों से हटा, माच एक अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन हो जा, इसी से तेरा भला होगा ।
तस्थभावना
अमितगति महाराज सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैंश्रियोपाया प्रातः स्तणजलचरं जीवितमिदं । मनश्वितं स्त्रीणां भुजगकूटिलं कामजसुखम् ॥ क्षणव्वंसो कायः प्रकृतितरले यौवनद्यने । इति ज्ञात्वा सन्तः स्थिरतरधियः श्रेयसि रताः ॥३३२|| भाषार्थ - राज्यपादादि लक्ष्मी सब नाशवंत हैं, यह जीवन घास पर पड़े हुए बोस की बूंद के समान चंचल हैं, स्त्रियोंके मन की गति बड़ी विचित्र है । काम भोग का सुख साँप की चाल के समान बड़ा टेड़ा व सदा एक सा रहने वाला नहीं है, यह शरीय क्षण भर में नाशवन्त है तथा युवानी व धन स्वभावसे ही चंचल है ऐसा जानकर अति स्थिर बुद्धि के धारी संत पुरुष इन पदार्थों में रति न करके अपने आत्म कल्याण में लग जाते हैं । मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
महिला संग निवास पापकारी सुत बंधू आपसि कर है यह तन रोगावि कष्टकारी धन सर्व थिरता बिगर ।
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२५२ ]
रे मूरख मघवन महान भ्रमते क्या सौख्य कारण लखा । जिससे तू सब बाह्यवस्तु तज के निज स्वार्थ में नहीं धसा
उत्थानिका – आगे कहते हैं कि मात्र ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त नहीं होता रत्नत्रय की जरूरत है ।
तस्य भावना
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तत्रयमनघमृते ज्ञानमात्रेण मूढा । लंघिता जन्मदुर्ग निरुपमितसुखां ये यियासंति सिद्धि ॥ ते शिश्रवन्ति नूनं निजपुरमुध बाहुयुग्मेन ती । कल्पांतोद्भूतवातक्षुभितजलचरा सारकीर्णान्तरालम् ॥६६॥
अन्वयार्थ - ( ये मूढाः ) जो मुर्ख पुरुष ( अनधं ) निर्दोष ( सम्यकत्वज्ञानवृत्तत्रयम् ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यम्चारित्र इन तीन रत्नों के (ऋते ) बिना (ज्ञानमात्रेण) अकेले एक ज्ञान से ( जन्मदुर्ग ) संसार के किले को (लंघित्वा) लांघकर (निरुपमितन सुखां सिद्धि) अनुपम सुख को रखने वाली सिद्धि को ( यियासंति) पाना चाहते हैं (ते) वे ( नूनं ) मानो ( बाहुयुग्मेन) अपनी दोनों भुजाओं से ( कल्पांतोद्भूतवातक्षुभितजतचरासारकीर्णान्तरालम् उदधि) कल्पांतकाल को पवनसे उद्धृत तथा जलचरोंसे भरे हुए समुद्र को (ती) तर करके ( निजपुरम् ) अपने स्थान को ( शिश्रीषन्ति ) जाना चाहते हैं ।
भावार्थ -- यहां आचार्य ने दिखलाया है कि मोक्ष का उपाय रत्नत्रय की एकता है । मार्ग को जान लेने मात्र से ही कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। जो ऐसा मानते हैं कि हमने आत्माको पहचान लिया है अब हमें कुछभी चारित्र पालने की आवश्यकता नहीं है, हम चाहे पाप करें चाहे पुण्य करें हमें बंध नहीं होगा, वे ऐसे ही मूर्ख हैं जैसे वे लोग मूर्ख हैं जो यह चाहें कि हम अपनी
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तस्वभावना
[ २५३
भुजामों से उस समुद्र को पार करके चले जायेंगे जो कल्पकाल की घोर पवन से डावांडोल है व जहां अनेक मगरमच्छ आदि भयानक जंतु भरे हुए हैं। प्रयोजन कहने का यह है कि सम्यऔर तीनों की एकता की जरूरत है । लौकिक में भी हम देखते हैं कि यदि किसीको कोई व्यापार करना होता है तो वह पहले उसकी रीतियों को समझता है और उसपर विश्वास लाता है फिर जब उस विश्वास सहित ज्ञान के अनुसार उद्योग करता है तबही व्यापार करने का फल पा सकता है इसी तरह हमको जानना चाहिए कि आत्मध्यानही मोक्षमार्ग. है, इसी बात को मनन करने से जब मिथ्यात्व का परदा हट जाता है तब सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता है अर्थात् आत्मप्रीति स्वानुभवरून जागृत हो जाती हैं। उसी समय उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पाता है इतने से ही काम न चलेगा ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव को आत्मध्यान का अभ्यास करना होगा । मन को निराकुल करने के लिए श्रावक या मुनिका चरित्र पालना होगा जहां श्रद्धान ज्ञान सहित आत्मस्वरूप में रमणता होती है वहीं स्वानुभव या आरमध्यान पैदा होता है। यही ध्यान मोक्ष का मार्ग है, यही कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को शुद्ध करता है। इसलिए मात्र जानने से ही कार्य बनेगा इस बुद्धि को दूर कर श्रद्धान व ज्ञान सहित चारित्र को पालना चाहिए ।
अमितगति महाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैसदर्शनलामतपोवमाध्यश्चारित्रभाजः सफलाः समस्ताः । व्यर्थाश्चरित्रण बिना भवन्ति शास्वेह सन्तरधरिते यतते । २४२ कषायमुक्तं कथितं चरित्र कषायवद्धावपघातमेति । मा कषायः राममेति पुंसस्तवा चरित्र पुनरेति पूतम् ॥ २३३ ॥
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२५४ ]
तस्वभावना
भावार्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा तप व इन्द्रियदमन
I
जो जीव चारित्र को पालने वाले है ये सर्वं ही सफलता को पा लेते हैं क्योंकि चारित्र के बिना उन सबका होना व्यर्थ है ऐसा जानकर संत पुरुष चारित्रका यत्न करते हैं । चारित्र वही है जहां कषाय न हो । कषाय की वृद्धि से चारित्र का नाश हो जाता है । जब कषाय शांत होती है. तब हो आत्मा के पवित्र चारित्र होता है ।
जो मुखर इक ज्ञान मात्रसे ही भव दुर्ग लांघन चहे ! निर्मल दर्शनज्ञान दत्त विनगहि निजसुख प्रकाशन चहे ।। ते मानो युग बाहु सेहि तरकर निजयान जाना चहे । जो सागर कल्पांत वायु उद्धत जलचर महा भर रहे ।। ६२ ।। उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो साधु रत्नत्रय सहित तप करते हैं उन्ही का जीतव्य सफल है ।
शार्दूलविक्रीडतं
ये ज्ञात्वा भवमुक्तिकारणगणं बद्धया सदा शुद्धया । कृत्वा चेतसि मुक्तिकारणगणं वेधा विमुख्यापरम् ॥ जन्मारण्यनिसूदनक्षमभरं जनं तपः कुर्वते । तेषां जन्म च जोवितं च सफलं पुण्यात्मनां योगिनां ।। १०० अन्वयार्थ - ( ये ) जो मुनिगण ( सदा ) सदाही (शुद्धया - बुद्धया) निर्मल बुद्धि के द्वारा ( भवमुक्तिकारणगणं) संसार के कारणोंको और मोक्षके कारणों को ( ज्ञात्वा ) जान करके ( श्रेधा ) मन, वचन काय तीनोंसे (अपरं) इस जो संसार के कारण हैं उनको (विमुच्य ) त्याग करके ( चेतसि ) अपने चित्तमें (मुक्तिकारणगणं ) मोक्ष के कारण रत्नत्रयको (कृत्वा) धार करके ( जन्मारण्य निसूदनक्षम भरं )
·
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तत्त्वभावना
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संसाररूपी वन के नाश करने को समर्थं ऐसे (जैनं तपः ) जैन के तप को (कुर्वते) साधते हैं ( तेषां पुण्यात्मनां योगिनां ) उन्हीं पवित्र आत्मा योगियों का (च) ही (जन्म) जन्म-जन्म ( च जीवितं ) और जीवन ( सफलं ) सफल है ।
भावार्थ
अवाने
प योगियों की महिमा कही है, वास्तव में यथार्थ बात यही है कि बिना किसी माया, मिथ्या या निदान शल्य के एक मुमुक्षु को अपनी बुद्धि निर्मल करके शास्त्रका अभ्यास बोर गुरुका सेवन तथा स्वानुभव पूर्ण युक्ति के बलसे यह भले प्रकार निश्चय कर लेना चाहिए कि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र तो संसार के कारण हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र मुक्ति के कारण हैं। फिर उसे उचित है कि संसार के कारणों को मन, वचन, काय से भले प्रकार छोड़ दे और रुचिपूर्वक सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यग्वारित्रको ग्रहण करे । निश्चय से इन तीनों की एकतामें जो भाव पैदा होता है उसको स्वानुभव कहते हैं । इस स्वानुभव को करते हुए जो जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए बारह प्रकार के तपो को या मुख्यता से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को ध्याते हैं वे ही उन कर्मों को निर्जरा करने को समर्थ हो सकते हैं जो कर्म इस जीवको संसार के भयानक वन से भ्रमण करने वाले हैं, ऐसे ही पवित्र महात्मा योगी इस भवसागर को पार करके सिद्धवास को शीघ्र पा लेते हैं । ऐसे ही योगियों का जन्म भी सफल है तथा जीना भी सफल है। सच्चे धर्म को नौकर जिनको नहीं मिलती है वे भव समुद्र में भटक भटककर अपना जीवन पूरा करते हैं। रत्नत्रयमई जहाज का मिलना वास्तव में दुर्लभ है, जिनको मिल जाये उनको प्रमाद
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छोड़कर इसी पर चढ़ करके शिव महल में जा पहुंचना चाहिए। स्वामी अघुभाषित में कहते हैंविनिर्मलं पार्वणचंद्रकांतं यस्यास्ति चारित्रमसौ गुणज्ञः । मानी कुलीनो जगमोऽभिगम्यः कृतार्थजन्मा महनोय बुद्धिः । २३९
भावार्थ -- जिस पुरुष के अत्यन्त निर्मल पूर्णमासी के चंद्रमा के समान चारित्र होता है वही गुणवान है, वही माननीय है, वही कुलीन है वही जगत में वन्दनीय है, उसीका जन्म सफल है तथा वही महान बुद्धिका धारी है ।
तस्वभावना
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जो नित निर्मल बुद्धिधार समझ संसार शिव हेतु को। छोड़ मथ के हेतु तोन सेती चित राखि शिव हेतु को ।। साधे जैन तपं ज् नाशकर्त्ता संसार बन भर्म को । शुचि योगो जीतव्य जन्म अपना करते सफल धर्म को || १०० १ उत्पानिका -- आगे कहते हैं कि विषयसेवन विष खाने के समान है
शार्दूलविक्रीडित छन्द
यो निःश्रेयसशर्म वा नकुशलं संत्यज्य रस्नव्रयम् । मोमं दुर्गमवेदनोदयकरं भोगं मिथः सेवते ।। मन्ये प्राणविपर्ययाविजनकं हालाहलं बल्भते । सद्यो जन्मजातकक्षयकरं पीयूषमत्यस्य सः ||१०१॥
अन्वयार्थ - (यः) जो कोई (निःश्रेयसमंदानकुशलं ) मोक्ष के सुख देने में चतुर ऐसे ( रत्नत्रयम् ) रत्नत्रय को (संत्यज्य ) छोड़ करके (भीमं दुर्गमवेदनोदयकरं ) भयानक और अचित्य वेदनाको पैदा करने वाले (भोगं ) भोग को ( मिथः ) एकांत में छिपके ( सेवते )
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तस्वभावना
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सेवन करता है ( मन्ये) में ऐसा मानता हूँ कि ( स ) वह (जन्मजरांतकक्षयकरं) जन्म जरा मरण को क्षय करने वाले (पीयूषं ) अमृतको (अत्पस्य ) छोड़कर (सद्यः) शीघ्र ही (प्राणी विपर्यादिजनक) प्राणों के घात करने वाले ( हालाहलं ) हालाहल विषको ( बल्भते) पीता है ।
भावार्थ - यहां आचार्य ने बताया है कि सच्चा सुख आत्मा में ही है और वह अपने आत्मा के सच्चे स्वरूपके श्रद्धान, ज्ञान य चारित्रसे अर्थात् स्वात्मानुभव से अनुभव में आता है। इसी निश्चय रत्नत्रयके द्वारा मोक्षण में शा होता है। इस सुखके सामने इंद्रिय भोगों का सुख ऐसा हो है जैसे अमृत के सामने विष । जैसे अमृतके खाने से क्लेश मिटता व पुष्टि आती है वैसे आत्मीक सुखके भोगसे जन्म, जरा, मरण के रोग मिट जाते हैं और यह जीव अविनाशी अवस्था में बना रहता है । जैसे विष हालाहल के पीने से महाकष्ट होता है तथा प्राणोंका वियोग हो जाता है वैसे विषयभोगों के करनेसे पापकर्म का बन्ध होता है जिसके उदयसे नाना प्रकारके दुःख भविष्य में प्राप्त होते हैं इसलिए यह शिक्षा दी जाती है कि इंद्रियविषयभोगों की लालसा छोड़कर एक आत्मीक सुखके लिए आत्मानुभव करना जरूरी है ।
आत्मीक सुखके भोगमें वीतरागता रहती है जिनसे कर्मों की निर्जरा होती है जबकि इंद्रियभोगों में अवश्य तीव्र रागभाव करता पड़ता है जिससे पापकर्मीका बन्ध हो जाता है । वर्तमान में इंद्रिय सुख जब तृष्णाको बढ़ाने वाला है तब आत्मीक सुख परम सन्तोष को व सुख शांति को देने वाला है । आत्मीक सुख स्वाधीन है जब कि इंद्रिय सुख पराधीन है। सम्याष्टी को
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विषयों की इच्छा छोड़कर आत्म सुख का ही उद्यम करना
चाहिए ।
स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं
तत्वभावना
1
सुखं प्राप्तुं गुद्धिर्यदि रामचं मुक्ति हितं सेवध्वं भो जिनपतिमतं पूतरक्षितम् ।। भजध्वं मा तृष्णां कतिपयदिनस्यापिनि धने । यतो नायं सन्तः कमपि मृतमन्वेति विभवः ।। ३३६॥
भावार्थ - यदि मुक्ति के स्थान में निर्मल सुख पाने की तेरी बुद्धि हो तो हे भाई! हितकारी व पवित्र जिनमत का सेवन कर। कुछ दिन साथ रहने वाले धनादि में तृष्णा न कर क्योंकि यह लक्ष्मी होती हुई भी किसी के साथ मरने पर नहीं जाती है ।
मूल वलोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जो शिव सुख बातार रत्नवयको भ्रमभावसे छोड़ता । भदायक अत्यन्त दुःखकारी इन्द्रिय विषय भोगता ॥ मैं मानूं सो अन्म मृत्यु क्षमकर पीयूषको त्यागता । जीवन कारण प्राण धातकर्ता हालाहलं पोवता ॥ १०१ ॥
उस्थानिका – आगे कहते हैं कि दुःख सुख में जो समता धारण करते हैं उनको नया कर्मबन्ध नहीं होता
हरिणी छन्द
भवति भविनः सौख्यं दुःखं पुराकृतकर्मणः । स्फुरति हृश्ये रागो द्वेषः कदाचन मे कथम || मनसि समतां विज्ञायेत्थं तयोर्विदधाति यः । क्षपयति सुधीः पूर्व पापं चिनोति न नूतनम् ||१०२ ॥
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तत्त्वभावना .............[ २५६. अम्बयार्थ-(पुराकृतकर्मणः) पिछले बांधे हुए कर्मों के उदय से (भविनः) इस संसारी प्राणीके (सौख्यं दुःखं) सुख तथा दुःख होता है। तब (मे हृदये) मेरे हृदय में (कधम्) किस लिए (कदाचन) कभी भो (राग द्वेषः) राग या द्वेष (स्फुरति) प्रगट होगा (इत्थं) ऐसा (विज्ञाय) समझकर (यः) जो कोई (मनसि) मनके भीतर (तयोः) उन दोनों सुख तथा दुःख में (समता) समभाव को (दधाति) धारण करता है (सधीः) वह बुद्धिमान (पूर्व पापं) पहले के पापको (क्षपयति) क्षय करता है (नूतनम्) नए पापको (न चिनोति) नहीं बांधता है।।
भावार्थ-यहां पर आचार्यने बताया है कि ज्ञानोको उचित है कि कर्मों के उदयमें समताभाव कोधारण करें। शानो सम्यम्दृष्टी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि पूर्वकृत पुण्यके उदय से सुख तथा पाप के उदय से दुःख होता है। तथा कमों का उदय सदाकाल एकसा नहीं रहता है, वह अवश्य अनित्य है। विनाशीक वस्तु में राग व द्वेष करना वृथा है। समताभाव से सूख तथा दुःखको भोग लेना चाहिए, जो कोई सुख को अवस्था होने पर उन्मत्त तथा दुःखोंके होने पर क्लेशित नहीं होते उनके पूर्व के बाँधे कर्मों की तो निर्जरा हो जाती है तथा नवीन कर्म नहीं बंधता है। कर्मों को निर्जरा होने का बड़ा भारी उपाय समभाव सहित जोवन विताना है । सम्यग्दृष्टी ज्ञानी की रुचि अपने आत्मा के स्वभाव पर रहती है । वह आत्मा के आनन्द का ही प्रेमी होता है । उसका अपनापना अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई सम्पदा से हो रहता है । वह मानव सर्व जगत के पदार्थों से उदास है। यही कारण है तो ज्ञानी मोक्षमार्गो है जब कि अज्ञानी संसार में प्रमण करने वाला है।
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तत्त्वभावना
अमित महाराज मामित ग्नसंटोनमें ज्ञानकी महिमा बताते हैं। शानाद्धितं वेत्ति ततः प्रवृत्ती रत्नत्रय संचितकर्ममोक्षः । ततस्ततः सौख्यभबाधमुच्चस्तेनान यत्रं विविधाति दक्षः ।।१८४
भावार्थ--यह जीव झान के ही प्रताप से अपने हित को समझता है तब उसकी प्रवृत्ति रत्नत्रय धर्म में होती है । धर्म के सेवन से पूर्व बाँधे कर्मों की निर्जरा हो जाती है तब बाधारहित सुख प्राप्त होता है इसलिए चतुर पुरुष सम्यग्ज्ञान के सदा यत्न करते रहते हैं। तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए हित कर्ता को उचित है कि श्री जिनेन्द्र कथित ग्रन्थों का पठन मनन, सदा करते रहें।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द पूरव कृत कर्मानुसार जियको सुख दुःख होता रहे। मेरे मन में राग द्वेष क्या हो शानी विवेकी रहे। ऐसा मान ज साम्य भाव रखते निज तत्वको नानते। काटे पूरब पाप बुद्ध युत ते नूतन नहीं बांधते ॥१०२
जत्थानिका-आगे कहते हैं कि कषाय सहित तप कर्मों को निर्जरा न करके कर्मों का बांधने वाला है
क्षपयितुमनाः कर्मनिष्टं तपोभिनिदितः। नयात रमसा डि नीचः कषायपरायणः॥ बुधजनमः कि भेषज्यनिवितुमुञ्चतः। प्रथयति गदं तं नापण्यात्कवार्षितविग्रहम् ॥१०॥ अन्वयार्थ-(आनन्दितैः) उत्तम (तपोभिः) तपों के द्वारा (अनिष्टं कर्म) अहितकारी कर्मको (क्षपयितु मनाः) नाश करने की मनसा रखता हुआ (नोच:) नीच मनुष्य (कषायपरायगः)
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क्रोधादिक कषायोंमें लीन होता हुआ ( रभसा) शीघ्र ही ( वृद्धि नयति) कर्मोंको और अधिक बढ़ा लेता है जैसे (बुद्धजनमतः ) बुद्धिमानोंके द्वारा सम्मत ( भेषज्यं: ) औषधियोंसे (कदाचित विग्रहम् ) शरीरको दुःखदाई ( गदं ) रोगको ( निसूदितुम ) नाश करने के लिए ( उद्यतः) उद्यमी पुरुष ( अपध्यात्) अपथ्य सेवन करने से ( तं) उस रोगको ( किं न ) क्या नहीं ( प्रथयति ) बढ़ा लेता है ।
तस्वभावना
भावार्थ - यहां पर भी आचार्यने यहाँ दिखलाया है कि कर्मों के नाश करने की मुख्य औषधि वीतरागभाव है। जितना भी बाहरी व अंतरंग तप किया जाता है उस सबका हेतु कषायोंका घटाव व वीतरागभावका झलकाव है। जो कोई तपस्वी होकर अनेक प्रकार शरीरको कष्टकारी पकी करें परन्तु कषायक दमन न करे, शांत भाव को न प्राप्त करे तो उसके कर्मों की निर्जश न होगी । उल्टा और अधिक कर्मोंका बंध हो जायगा । क्योंकि बंधका कारण कषाय परिणामों में विद्यमान है। यहां पर दृष्टांत देते हैं कि जैसे किसीको बहुत कठिन रोग हो रहा है और वह अच्छे प्रवीण वैद्यकी बताई हुई औषधि ले रहा है परंतु रोग वृद्धि के कारण जो अपथ्य या बद परहेजी है उसको नहीं त्याग रहा है तो वह कभी भी रोग से मुक्त न होगा - उल्टा रोग को बढ़ाएगा। प्रयोजन यह है कि वीतरागभावों की प्राप्तिका सदा उद्यम करना चाहिए तथा ध्यान हो मुख्य तप है वह आत्मानुभवके समय पैदा होता है, जहां अवश्य वीतरागता रहती है । सम्यग्दृष्टी का तप हो सच्चा तप है। मिध्यात्व सहित महान तप करता हुआ भी संसारका मार्गी है - मोक्षमार्गी नहीं है । मुमुक्षू जीव को इसलिए श्रीतराग भाव पर ही लक्ष्य रखके
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तत्त्वभावना
उसकी ही प्राप्ति का उपाय करना चाहिए। श्री ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र मुनि कहते हैं
रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुख्यते । जीवो जिनोपदेशोऽयं समासाद्वंधमोक्षयोः ।। नित्यानन्दमयी साध्वी शाश्वती वात्मसंभवाम् । क्षणोति बीतसरंभो धीतरागः शिवश्रियम् ।।४।। भावार्थ- रामी जीव कर्मोको बांधता है जब कि बीतरागी कर्मों से छूटता है ऐसा संक्षेप से जिनेन्द्र भगवान का उपदेश बंध तथा मोक्ष के सम्बंधमें जानना चाहिए । जो आरम्भ का त्यागी वीतरागी साधु है वही नित्य आनन्दमयी, उसम, अविनाशी, मात्मा से हो उत्पन्न मोक्षलक्ष्मी को वरता है।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो चाहे निज दुष्ट कर्म हनना निर्मल तपस्या करे। परतो नीच कषाय माव रत हो निज कर्म बद्धन करे ।। जो चाहे तन दुःखदाय गरको हनना सु औषधि करे। पर त्यागे न अपथ्य खाद्य सो नर निज रोग वर्द्धन करे॥१०३
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो साधु शरीर की रक्षा के लिए आहार मात्र लेते हुए लज्जा पाते हैं वे वस्त्रादिक परिग्रह को कैसे स्वीकार करेंगे ?
शार्दूलविक्रीडति छन्द सवत्नत्रयपोषणाय वपुषस्त्याज्यस्य रक्षापराः । व येशनमानकंगतमलं धर्माणिमितिभिः ।। लज्जते परिगृह्य मुक्तिविषये वद्धस्पहा निस्पहास्ते गझुम्ति परिग्रहं सधरा कि संयमध्वंसकम् ।।१०४
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अन्वयार्य--(ये) जो (मुक्तिविषये) मोक्ष के सम्बंध में (बद्धस्पृहा) अपनी उत्कंठा को बांधने वाले (निस्पृह) संसारीक इच्छाके त्यागी हैं और (सद्रत्नत्रयपोषणाय) सच्चे रत्नत्रय धर्म को पालने के लिए (त्याज्यस्य) त्यागने योग्य (वयुषः) इस शरीर की (रक्षापराः) रक्षामें तत्पर हैं और जो (धर्माभिः )धर्मात्मा (दातृभिः) दातारों से (दत्तं) दिए हुए (गतमलं) दोष रहित (अशन मात्रक) भोजन पात्रको (परिग्रह)ग्रहण करके (लज्जते) लज्जाको प्राप्त होते हैं (ते दमधराः) वे संयमके धारी यति (किं) क्या (संयमध्वंसकम्) संयम को नाश करने वाली (परिग्रह) परिग्रह को (गृह्णन्ति) ग्रहण करते हैं ।
भावार्थ- यहां आचार्य ने बताया है कि जनधर्म को यथार्थ पालने वाले साधुजन कभी भी परिग्रह को ग्रहण नहीं करते हैं। धन, धान्य आदि परिग्रह हिंसादि आरम्भ का कारण है जिसने महावत रूप साधुसंयम नहीं पाल सकता है । इसीलिए साधुजन सर्व परिग्रहको त्याग कर ही मुनि होते हैं । वे परिग्रहको ममता का निमित्त कारण जानते हैं। ऐसे साधुओंको किसी भी इंद्रिय भोगकी कोई इच्छा नहीं होती है। वे मात्र कर्मों से मुक्ति ही चाहते हैं । उनकी रातदिन भावना यही है कि हम आत्मध्यान करके कर्मोको काटकर मुक्त हो जावें, ऐसे साघु संघम पालने के लिए ही इस शरीर की रक्षा करना चाहते हैं । इसलिए वे ऐसा ही भोजनपान शरीरको देते हैं जिसे धर्मात्मा श्रावकों ने भक्ति पूर्वक दिया हो । तथा जिसमें उद्दिष्ट आदिका कोई दोष न हो। ऐसे भोजनको लेते हुए भी उनको लज्जा आती है और रातदिन यह भावना भाते हैं कि इस शरीरको पराधीनता मिटे और यह आत्मा निराकुल भाव में तल्लीन हो ऐसे साध कभी भी धन धान्यादि. परिग्रहको जिसे वे संयममें बाधक जानकर त्याग कर
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तत्त्यभावना
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चुके, प्रहृा नहीं करते हैं । वे साधु अपनी प्रतिज्ञा में अटल रहते हुए रात्रि दिन तत्वज्ञान की भावना भाते हैं । और पूर्ण वीत रागता के लाभ के लिए उद्यम करते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि परिग्रहका त्याग ही उत्तम ध्यानका अधिक है इस बात को कभी भूलना न चाहिए।
ज्ञानार्णव में श्री शुभचन्द्र मुनि कहते हैंरागाविविजयः सत्यं क्षमा शौचं वितृष्णता ।
मुनेः प्रच्याव्यते ननं संमोहितात्मनः ||१४||
भावार्थ - जिस मुनि का वित्त परिग्रहों से मोहित हो जाता है उसके रागादि का जीतना, सत्य, क्षमा, शौच, और तृष्णा रहितपना आदि गुण नष्ट हो जाते हैं ।
परिग्रह को मूर्छा का निमित्त कारण जानकर साधुजन उसे कभी भी ग्रहण नहीं करते हैं ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
जो साधू नित मोक्ष उद्यम करें संसार नहि चाहते । रत्नत्रय वश हेतु हे तनको सुचि मुक्ति दे राखते ॥ धर्मो याता दत्त खाद्य लेते मनमाहि लज्जा घरें । सो पतिगण संयम विराधकर्ता परिग्रह न अंगी करें ॥
उत्थामिका- आगे कहते हैं कि यथार्थ तत्व के ज्ञाता जगत में दुर्लभ हैं
ये लोकोत्तरतां च दर्शनपरां दूत विमुक्तिधिये । रोचन्ते जिनमारतीमनुपमां जल्पति शृण्वन्ति च ॥
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तत्त्वभावना। ___ [ २६५ लोके भूरिकषायदोषमलिमे ते सज्जना बुलंमाः। ये कुर्वन्ति तवयंमुत्तमधियस्तेषां किमनोच्यते ॥१०॥
अन्वयार्थ-(भूरिकषायदोषमलिने लोके) तीव्र कषायों के दोष से मलीन ऐसे इस जगत में (ये सज्जना:)जो सज्जन (विमुस्तिधिये) मोक्षरूपी लक्ष्मीके मिलाने के लिए(दूतों)दूतीके समान (च)और लोकोत्तरता)लोक से तरने का मार्ग बताने वाली तथा (दर्शनपरां)सम्यग्दर्शन को दिखाने वाली (अनुपमा) व जिसकी उपमा जगत में नहीं हो सकती है ऐसी (जिन भारतीम् ) जिनवाणी को (जलपंति) पढ़ते हैं (शृण्वंलि)सुनते हैं(च रोचते) और उस पर रुचि लाते हैं (ते दुर्लभा:) वे कठिन हैं तब (ये) जो (तदर्थम्)उस मुक्तिके लिए(उत्तमधियः)उत्तम ज्ञानका (कुर्धति) -साधन करते हैं (अत्र) यहाँ (तेषां कि उच्यते) उनके लिए क्या कहा जावे ?
भावार्थ-यहाँ आचार्य ने बताया है कि यह संसारो जन कोष, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से मलीन हो रहे हैं। रात-दिन इन्द्रिय विषयको लोलुपता में फंसे हैं । स्त्री पुत्र आदि में मोही हो रहे हैं ऐसे जगत में जिनवाणी को प्रेमसे पढ़नेवाले सुननेवाले तथा उस पर रुचि लाने वाले बहुत कम हैं, यहां तक कि दुर्लभ हैं । यह जिनवाणी सच्चा मुक्तिका मार्ग दिखाती है, रत्नत्रय में सबसे मुख्य सम्यग्दर्शन है उसको प्राप्त करती है, जिसके अभ्यास से दूध पानी की तरह मिले हुए जीव अजीव पदार्थ भिन्न-२ दिखलाई पड़ जाते हैं। इस जिनवाणी की उपमा इसलिए नहीं हो सकती है कि इसमें अनेकान्तरूप पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा दिखाया है। स्याद्वादनय से वस्तु के स्वरूप
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तत्त्वभावना
को बताया है जो बात अन्य शास्त्रों में नहीं मिलती है। दृष्टांत में पदार्थ न सर्वथा नित्य है न सर्वथा अनित्य है। हर समय पदार्थ नित्य अनित्य स्वरूप है । गुणों के व स्वभावों के ध्रुवपने की अपेक्षा पदार्थ नित्य है जब कि पर्यायों के पलटने की अपेक्षा पदार्थ अनित्य है । अवस्थाएं हर समय होती रहती हैं,इस तरह का कथन जिनवाणो ही स्पष्ट खोलकर बताती है। यह अवश्य मुक्तिरूपी स्त्री के मिलने के लिए दुती है क्योंकि जो श्रुतज्ञान द्वारा भेदविज्ञान का लाभ करते हैं और पर से भिन्न वात्मा को अनुभव करते हैं वे सीधे मोक्षरूप स्त्री की ओर चले जाते हैं ऐसी जिनवाणीके कहे हुए तत्वों को श्रद्धान करने वाले व कहते सुनने वाले बहुत कठिन हैं । परन्तु जो तत्वज्ञान के अनुसार मुनि हो मात्मध्यान का अभ्यास करके केवलज्ञान को प्राप्ति का उद्यम करते हैं ऐसे महान पुरुष तो बहुत ही दुर्लभ हैं। उनके सम्बन्धमें क्या शब्द कहा जावे सो कोई शब्द नहीं मिलता है ।
प्रयोजन यह है कि मात्मानुभव के उद्योग को बड़ा हो अपूर्व लाभ जान करके जो मात्माहित करना चाहें उनको प्रमाद न करके मुक्ति का साधन कर लेना चाहिए।
श्री पश्यनंदि मुनि जिनवाणी की स्तुति में कहते हैंकदाचिदेवत्ववनुग्रहं विना श्रुते ह्यधोते पि सत्वनिश्चयः। ततः कुतः पुंसि मद्विवेकिता त्यया विमुफ्तस्य तु जन्मनिष्फलं १११ त्वमेवतीर्थ शुचि बोधिवारिमत् समस्तलोकनयशुद्ध कारणं । त्वमेव चानंबसमुद्रवर्धने, मगांकमूतिः परमार्थदशिनाम् ।।३४३
मावार्थ-हे जिनवाणी माता, तेरी कृपा बिना शास्त्र को
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तस्वभावना
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पढ़ते व सुनते हुए भी तत्व का निश्चय नहीं होता है तब फिर तेरे आश्रय बिना पुरुष में भेद विज्ञान कैसे होगा? जो तेरी सेवा नहीं करते उनका जन्म निष्फल है । तू ही पवित्रज्ञान जल को रखने बालो नदो स्वरूप है, तू तोन लोक के जीवोंको शुद्ध करने का कारण है और तूही निश्चय आत्मतत्वके श्रद्धान करनेवालों को आत्मानन्दरूपी समुद्र के बढ़ाने क लिए चन्द्रमाके समान है ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो अगतारण मोक्षलक्ष्मिवतो सदशनं वायका, अनुपम जिनवर वाणि पाठ करते सुनते रुधिधारक । ते सज्जन दुष्प्राप्य आज जगमें क्रोधाविमल पूर जो। कहना क्या उनका स्वमुक्तिहेतू साधे परमज्ञान जो ॥१०॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो इस संसार समद्र से तर गए हैं वे अरहंत इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं कि अन्य जीव भी तिरेंये स्तयां जन्मसिधोरसुखमितितोलया तारयित्वा । नित्यं निर्धाणलक्ष्मी बधसमितिमता निर्मलामपंयन्ते ।। स्वाधोनास्तेऽपि यत्तस्यपगततमोजानसम्यक्त्वपूर्वाः । पोष्यन्से नान्यशिक्षा मम परममुभौ बिद्यते नान चिनम् 1१०६
अन्वयार्थ-(ये) जो असुखमिलिततेः जन्मसिधो:) दुःखों के समूहसे भरे हुए संसार समुद्रसे(लीलया तारयित्वा)लोला मात्र में पार उतारकर (स्तूयाँ) प्रशंसनीय (नित्यं)अविनामी (बुधसमितिमतां) बुद्धिमानों से माननीय (निर्मलाम्) निर्मल(निर्वाणलक्ष्मी) मोस लक्ष्मी को(अपंयन्ते) प्रदान करते हैं (तेपि) के
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हो (स्वाधीनाः) स्वाधीन है (यत्तत क्योंकि (व्यपगततमोज्ञानसम्यक्तपूर्वाः) उनका अज्ञान अन्धकार सम्यक्तपूर्वक ज्ञान द्वारा नष्ट हो चुका है वे (अन्य शिक्षा न पोष्यंते) अन्य शिक्षाकी पुष्टि नहीं करते हैं (अत्र) यहां (मम उरी) मेरे दिल में(परं चित्र) कोई परम आश्चर्य (न विद्यते) नहीं होता है ।
भावार्थ- जो स्वयं जिस कामको सिद्ध कर लेता है वह उस काम में दूसरे को भी लगाकर उसका उद्धार कर सकता है। अर्हन्त भगवान सम्यग्ज्ञान की सेवा करके स्वयं कों के बंधन से छूटकर स्वाधीन हो गए । वे अपनी दिव्यवाणी से इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं कि जो कोई सम्यक्तपूर्वक ज्ञानको प्राप्त करके आत्मानुभव करेगा वह संसारसमुद्र से उसी तरह पार हो जाएगा जिस तरह हमने पार लिया है।
इ स समय शिक्षा को ग्रहण करते हैं व उस पर चलते हैं वे भी शीघ्र संसारसमद्र से पार हो जाते हैं और उस मोक्षलक्ष्मी को पा लेते हैं जिसके लिए सन्तपूरुष निरन्तर भावना किया करते हैं व जिसका कभी क्षय नहीं होता है तथा जो कर्ममलसे रहित निर्मल है। आचार्य कहते हैं कि जो स्वयं तर गए हैं उनके द्वारा यदि दूसरे तार लिए जाँय तो कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। जो जहाज स्वयं तैरता है वही दूसरों को भी अपने साथ पारकर देता है। तात्पर्य यह है कि हमको श्रीअरहन्त भगवानको परमोपकारिणों शिक्षा के ऊपर चलकर अपना आत्मोद्धार कर लेना चाहिए। स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में अरहंत का स्वरूप बताते हैं
भाषामावस्वरुपं सकलमसकल द्रव्यपर्यायतत्वं । भेषामेवावलीढं निभवनमुखनाम्यातरे वर्तमानम् ॥
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तवमाधना
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लोकालोकावलोको गतनिखिलमलं लोकने यस्य बोधस्तं वेवं मुक्तिकामा भवभवनमिवे भावयम्त्वाप्तमन ॥६४७
भावार्थ-जिसका ज्ञान तीन लोकके भीतर पाए जाने वाले भाव तथा अभाव स्वरूप, अनेकरूप व एकरूप, भेदरूप व अभेद रूप द्रव्यों के और पर्यायों के स्वरूप को देखते हुए लोक और अलोक दोनों को देखने वाला है उस सर्व दोष रहित अरहंत देव को यहां संसार- घरके नाश करने के लिए मोक्ष के चाहने वाले सेवन करहु ।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द जो भवसागर दुःखवाय क्षण में भदि जीव को पारकर, देते मोक्ष पवित्र नित्य लक्ष्मो जो चाहते ज्ञानघर । धे हैं मी सगाहा अम्गादार नानसे, जो वेते नहि अन्य कोय शिक्षा नहि मो अचम्भाविसे ॥१०६।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इस संसार में कोई वस्तु सुखदायक नहीं है
ध्रुवापायः कायः परिमवमवाः सर्वविभवाः । समानार्या भार्याः स्वजनतनया: कायविनयाः ।। असारे संसारे विगतशरणे वत्तमरणे । दुराराधेगाधे किमपि सुखदं नापरपदं ॥१०७11
अन्वयार्य-(कायः) यह शरीर(ध्रुवापाय:)निश्चय से नाश होने वाला है (सर्व विभवा:)सर्व सम्पत्तियें (परिभयभवाः) वियोग के सम्मुख हैं (भार्याः) स्त्रिये (सदा अनार्या) सदा ही सुखकारी व हितकारी व सभ्यतासे व्यवहार करने वाली नहीं हैं (स्वजनतनयाः) अपने कुटुम्बी या पुत्र (कार्यविनयाः) अपने मतलब से विनय करने वाले (दत्तमरणे)मरणको देने वाले विगतशरणे).
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तरवभावना
व शरण रहित (अगाधे) बहुत गहरे (दुराराधे) दुःखों से भो जिसका तसा लिई (सारे संकरे, ऐरो इस सार रहित संसार में (अपरपदं) सिवाय मोक्षके दूसरा कोई पद (सुखदं न) सुख का देने वाला नहीं है।
भावार्थ-यहां आचार्य ने बताया है कि यह संसार बिलकुल असार है । इसमें संसारी प्राणियों को थिरता प्राप्त नहीं होती, वे जन्मते मरते रहते हैं । उनको कोई मरणसे बचा नहीं सकता, इसका आदि अन्त नहीं है तथा यह इतना विशाल है कि इसका पार करना कठिन है । इसमें जितने भी पदार्थ हैं वे सब आत्माको सुखदायी नहीं है । पहले तो यह शरीर ही नाशवंत है आय कर्म के आधीन है, इसके छूट जाने का कोई समय नियत नहीं है । लक्ष्मी आदि बहुत ही चंचल हैं, स्त्रियों का संसर्ग मोह में फंसाने वाला है व आत्मध्यान में बाधक है। कुटुम्बोजन व पुत्रादि सव अपने-२ मतलबको देखते हैं। जब स्वार्थ नहीं सधता है तब वात भी नहीं करते हैं। स्वार्थ में विरोधी पिता को भी पुत्र मार डालते हैं । इस संसार में सर्व ही मित्र आदि मतलबके ही साथी हैं, जिस-२ चेतन व अचेतन पदार्थ का संग्रह किया जाता है कि इससे कुछ सुख मिलेगा उसीका वियोग हो जाता है । पराधीन सुख आकुलता का हो कारण है 1 इसलिए यही अनुभव करना चाहिए कि सच्चा सुख आत्मा में ही है । उसीको चाह करके सामायिक का अभ्यास करना योग्य है। श्री अमितगति स्वामी सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं---
इमा रूपस्थानस्वजनतनयत व्यवलिता, सुता लक्ष्मीकोतियुतिरतिमतिप्रोतिधृतयः ।
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तत्त्वभावना
[ २७१
मदान्धस्त्रोनेत्रप्रकृतिचपलाः सर्वभाविना - महो कष्टं मस्तदपि विषयान्सेवितुमनाः ॥ ३२९ ॥
भावार्थ- सर्व संसारी जीवों के लिए ये रूप, स्थान, कुटुम्बी जन, पुत्र, पदार्थ, स्त्री, पुत्री, लक्ष्मी, यश, चमक, राग, बुद्धि, स्नेह तथा यं सब मद से उन्मत्त स्त्री के नेत्र के स्वभाव के समान चंचल हैं । अहो ! बड़े कष्ट की बात है कि ऐसा जान करके भो यह मानव इंद्रियों के विषयों को सेवन करता है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द
נ.
है यह तन जु विनाशनीक लक्ष्मी है सर्व जग संखला । मार्या नित्य कुमोहकार स्वजना अर पुत्र स्वास्थलमा || है संसार असार शर्ण मह को अब मृत्यु आ जात है । दुस्सर दुर्गम लोक माहि वस्तू सुख करम विखलात है ॥१०७॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि मरण से कोई बच नहीं
सकता ।
मालिनी वृत्तम् असुरसुरविभूनां हंति कालः श्रियं यो । भवति न मनुजानां विघ्नतस्तस्य खथः । 'विचलयति गिरोणाँ चलिकां यः समीरो । गृहशिखरपताका कंपले कि न तेन ॥ १०८॥
अन्वयार्थ - ( यः कालः) जो मरणरूपी काल (असुरसुरविभूनां) भवनवासी, व्यंतर व ज्योतिषी तथा स्वर्गवासी देवों के स्वामियों की (श्रेयं) लक्ष्मीको ( हंति ) नाश कर देता है ( तस्य ) उस कालको ( मनुजानां ) मनुष्यों की सम्पत्तिको ( विघ्नतः ) हरु लेने में (खेदः) खेद ( न भवति) नहीं हो सकता है ( यः समीर: )
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तत्त्वभावना जो पवन (गिरीणां चलिका) पहाड़ों की चोटियों को (विचलयति) हिला देती है(तेन)उस पवन से(गृहशिखरपताका) घरके शिखर को ध्वजा (कि न कंपते) क्यों न कांप जायगी?
भावार्थ--आचार्य दिखलाते हैं कि मरणसे कोई भी संसारी प्राणी बच नहीं सकता। बड़ी-२ आयु के धारक व बड़ी सामथ्य के धारक इन्द्रादिक देवों को भी यह मरण नहीं छोड़ता है तब थोड़ी आयुधारी व थोड़ी सामर्थ्य धारी मनुष्योंको तो मरण कैसे छोड़ सकता है ? जिस समय मरण आ जाता है उस समय वह सब सम्पदा जिसको हम अपनी मान रहे थे बिलकुल छूट जाती है। मरण करते हुए जीवके साथ उसका वांधा पुण्य या पापकर्म तो जाता है परन्तु अन्य कोई चेतन व अचेतन पदार्थ बिलकुल साथ नहीं जा सकते हैं। वास्तव में कर्मभूमि के हम मनुष्य तथा पशओं का जीवन तो पानी के बुदबुदे के समान चंचल है क्योंकि जब देवों. के ब भोगभूमि जीवों के अकाल मृत्यु कोई बाहरी क्षयकारी कारण के मिलने से हो जाती है इसलिए हम लोगों के जीवन को हर लेना तो यमराज के लिए बिलकुल सहज है, यह बात बिलकुल ठोक है कि जो हवा पर्वतों के शिखरों को हिला सकती है उसके लिए घर के ऊपर की पताका को हिलाना क्या कठिन है ? कुछ भी नहीं।
प्रयोजन कहने का यह है कि जब हम लोग मरण के मुख में सदा ही बैठे हुए हैं तब हम लोगों को धर्मसाधनमें व मात्महित में प्रमाद न करना चाहिए । ___ मानव जन्म में देवों के जन्मसे भी यह विशेषता है कि जिस संयम व ध्यानसे आत्मा परम पवित्र हो सकता है वह संयम तथा ध्यान इस मानव शरीरसे ही हो सकता है । इसलिए इस जन्म के समयको बड़ा ही मूल्यवान समझकर हमें इससे आत्महित
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तत्त्वभावना
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कर लेना चाहिए। अमितिगति महाराज सभाषित रत्नसन्दोहमें कहते हैंदेवाराधनमहबनध्यानहन्यांजप.... स्थानत्यागधराप्रवेशागमनत्रज्या द्विजार्चाविमिः॥ अत्युमेण यमेश्वरेण तनुमानंगीकृतो भक्षितुं । व्याने व बुभुक्षितेन गहने नो शक्यते रक्षितुम् ॥२६७ भावार्थ-जैसे बाघसे पकड़ा हुआ प्राणी जंगल में मरण से बच नहीं सकता। इसी तरह जब इस प्राणीको भयानक यमराज भक्षण करता है तब देवपूजा, मंत्र, तंत्र, होम, ध्यान, ग्रहपूजा, जप, स्थानसे चले जाना, धरती में प्रवेश करना, विहारी साधु हो जाना, ब्राह्मणोंकी सेवा आदि कोई बचा नहीं सकते।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द असुर सुर पतीकी जो विभूति छुड़ाये। मानवको हरने खेव नहि काल लावे॥ पर्वतकी चोटी जो पवन डगमगाये।
गहशिखरध्वजाको खेद बिन सो माये ॥१०॥ उत्पानिका-आगे जगतके पदार्थोकी चंचलताको दिखाते हैं
दूतविलंबित छन्द सकललोकमनोहरणकामाः करणयौवनजीवितसंपदः । कमलपापमोलवचंचलाः किमपि न स्थिरमस्ति जगतये ||१०९
अन्वयार्ष-(सकललोकमनोहरणक्षमा:) सर्व लोगों के मन को हरण करनेमें समर्थ (करणयौवन जीवितसम्पदः) इंद्रियों की युवानी व जीवन व सम्पत्तियें (कमलपत्रपयोलबचंचलाः कमल के पत्ते पर पड़े हुए पानीकी बूंदकी तरह चंचल है (जगत्रये) तीनोंही लोकमें (किमपि स्थिरं न अस्ति) कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है।
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तत्त्वभावना
भावार्थ—यहां पर यह बताया गया है कि संसारमें हरएक अवस्था नाशवंत है । जिन महापुरुषोंकी इंद्रियों की रचना ऐसी सुन्दर होती है जो तीन लोकके प्राणियों के मनको हरण कर सके व जिनका जीवन अनेक सांसारिक सुखोंसे पूर्ण होता है व जिनके पास चक्रवर्तीको-सी सम्पदा होती है ऐसे-२ प्राणी इतनी जल्दी नष्ट हो जाते हैं जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानीमी लंद गिर जाती है। संसार के सर्व पदार्थों को चंचल समझ कर किसी से भी मोह करना उचित नहीं है। अमितगति महाराज सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंवर्य येभ्यो जाता मतिमुपगतास्त्र सकलाः। समं यैः संपता ननु विरसता तेपि गमिताः॥ इदानीमस्माकं मरणपरिपाटीकमकृता । न पश्यन्तोष्येवं विषयविरति यान्ति कृपणाः ॥३३७॥ भावार्थ-जिनसे हम पैदा हुए थे वे सब तो मर चुके, व जिनके साथ हम बढ़े थे वे भी वियोग को प्राप्त हो गए, अब हमारा मरण होने वाला है। जो दोन हैं वे ऐसा देखते हुए भी इंद्रियों के विषयों से विरक्त नहीं होते हैं।
वास्तव में चतुर पुरुषको संसार की अनित्यता को ध्यान में लेकर स्वहित में प्रयत्न करना उचित है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जगमनहरसम्पत् अक्ष यौवन स्वजीवन, चंचल हैं सारे, जिम कमलपत्र जलकण। इम सकल पवारण तीन भके अपिर हैं, शानो शाता हो आत्महित वीच बृढ़ हैं ।।१०६॥
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तत्त्वभावना
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द्रुतविलंबित छन्द बलवतो महिषाधिपवाहनो निरनिर्लिपपतीनपहंति यः । अपरमानववर्गविमर्दने भवति तस्य कदाचन न श्रमः ॥११०
अन्वयार्थ-(:, (बलकाः दलन हलाधिपक्षाहनः) बड़े भैसोंकी सवारी करने वाला ऐसा यमराज (निरुनिलिपपतीन्) देवोंके स्वामियों को (अपहति) नाश कर देता है (सस्य) उस कालको (अपरमानववर्गविमर्दने) दूसरे मानवों के गर्वको खण्ठन करने में (कदाचन) कभी भी (धमः) मेहनत (न भवति) नहीं करनी पड़ती है।
भावार्थ-इस श्लोक में यह बताया गया है कि यह मरण किसीको भी छोड़ता नहीं है । बड़े-२ बलवान देवोंके स्वामियों को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है तब अल्पायुधारी मानव के पशुओंकी तो बात ही क्या है। तात्पर्य यह है कि अपना मरण अवश्य एक दिन आने वाला है ऐसा समझ कर आत्महित के साधनमें रंचमात्र भी प्रमाद करने की जरूरत नहीं है । मरण से कोई बच नहीं सकता ऐसा अमितगति महाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा है
ये लोकेशशिरोमणिधुतिमलप्रक्षालिताप्रिया । लोकालोकविलोकिकेवललसस्साम्राज्यलक्ष्मीधराः॥ प्रक्षीणायुषि मान्ति तीर्थपतयस्तेऽप्यस्तदेहास्पर्व । तनान्यस्य कथं भवेत् मयमतः क्षीणायुषो जीवितम् ।।३००
भावार्य-जिन तीर्थंकरों के चरणों को इन्द्र चक्रवर्ती आदि लोकशिरोमणि पुरुष अपनी क्रांतिरूपी जलसे धोते हैं, जो लोक अलोकको देने वाले ऐसे केवल ज्ञानरूपी राज्यलक्ष्मी के घारी
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हैं, ऐसे तीर्थंकर भी आयुकमंके समाप्त होने पर इस शरीर को छोड़कर मोक्षको चले जाते हैं तो फिर अन्य अल्पायुधारी मानवों के जीव का क्या भरोसा ?
तत्त्वभावना
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
जो यम हन डाले, बेय इन्द्राविकों को । वह बलशालिनको दीर्घ वम धारिकों को ॥ सो मानव वर्ग जो धरें आयु अल्पा । हनता क्षणभर में नाहि श्रम कोय करूपा ॥११७॥ उस्थानिका- आगे कहते हैं कि इस जगतमें कोई वस्तु सुखदाई नहीं है-
स्वजनसंगतिरेव बितापिनो भवति यौवनका जरसा रसा । बिपदवैति सखीव च संपदम् किमति शर्मविधायिन दृश्यते ॥११.१
अन्वयार्थ - ( स्वजन संगतिः) अपने बंधुजनों की संगति (एव) ही (वितापिनी) उसके वियोग में दुःख देने वाली हो जाती हैं ( योनिका ) युवानी ( जरसा रसा) बुढ़ापे के साथ हैं ( विपत् ) कापत्ति (सखी इव) सखी के समान ( संपदम् ) सम्पत्ति के पास (अति) जाती है । ( शमंविधायि) सुख देने वाली ( किमपि ) कोई भी वस्तु ( न दृश्यते) नहीं दिखलाई पड़ती है ।
भावार्थ - इस जगत में जिस-जिस पदार्थ का संयोग है वह वियोग के साथ है । आज जिन स्त्री पुत्र मित्रों के साथ में कुछ साता मालूम होती है यदि उनका वियोग हो जावे या वे अपने अनुकूल वर्तन न करें तो ये ही पदार्थ दुखदाई भासते हैं व उनके निमित्तसे नित्य संताप रहता है । जिस युवानी के मद में चूर होकर हम शरीर के बलका व रूपका अहंकार करते हैं वह जवानी
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तत्वभावना
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मात्र थोड़े दिन रहने वाली है, एकदम बुढ़ापा मा जावेगा तब युवानी का पता ही नहीं चलेगा। आज धनसम्पदा राज्यविभूति दिखलाई पड़ती है, यकायक विघ्न आ जाते हैं राज्य छूट जाता है, संपदाएं चली जाती हैं संपत्तिवान विपत्तियों में फंस जाता है, जिस पदार्थ से यह मोही जीव सुख मानता है वे हो पदार्थ नाशन वंत हूँ कि जाते हैं, ना इस को जीनको महान दुःखों का सामना करना पड़ जाता है । जगत का ऐसा क्षणभंगुर स्वभाव जानकर ज्ञानी जीवको निरन्तर आत्मकल्याण के सन्मुख रहना चाहिए।
श्री पद्मनंदि मुनि अनित्यपंचाशत् में कहते हैंराजापि क्षणमानतो विधिवशाबंकायते निश्चित । सर्वव्याधिविजितेपि तरणो आशु क्षयं गच्छति ॥ अन्यः कि किल सारतामुपगते श्रीजीविते । तयोः ।
संसारे स्मितिरोदशोति विदुषा क्वान्यन्न कार्यों मनः ॥४८ . भावार्थ-राजा भी क्षणमात्रमें निश्चयसे रंक हो जाता है। सर्व रोगोंसे रहित जवान शरीर भी शीघ्र नाशको प्राप्त हो जाता है लक्ष्मी और जीतन्य ये दोनों पदार्थ औरों की अपेक्षा जगतमें सार हैं । जब इन हो दोनोंकों ऐसी चंचल हालत हैं तब विद्वान पुरुष और किस पदार्थ में मद करें?
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द संगति निज जनको, तापकारी बखानी। तन की तरुणाई, वृक्षपन माहि सानी ॥ आपर जा घेरे, मित्रवत् सम्पदा को ।
सुखप्रद जगवस्तू, वीखसो नहिं कदराको ॥११२।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मरणसे कोई भी रक्षा करने बाला नहीं है
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तत्त्वभावना
सचिवमंत्रिपदातिपुरोहितास्त्रिदशखेचरवंत्यपुरंदराः। यममटेन पुरस्कृतमातुरं भवभृतं प्रमति न रक्षितुम् ॥११२
अन्वयार्य-(सचिवमंत्रिपदातिपुरोहिताः) दीवान, मंत्री, पैदल, पुरोहिल तथा (त्रिदशखेचरदैत्यपुरंदराः) देव, विद्याधय, दत्य, इन्द्र (यमभटेन) जमालरूपी योद्धासे पुरस्कृत करे हुए (आतुरं) दुःखी (भवभुतं) संसारी प्राणीको (रक्षितुम्) रका करनेको (न प्रभवति) समर्थ नहीं होते हैं।
भावार्ष-यहां पर आचार्य कहते हैं कि जब मरणका समय आ जाता है तब कोई किसीको बचा नहीं सकता है। जिन सम्राटों के बड़े-२ मंत्री, दीवान, पंदल, सिपाहो व पुरोहितादि होते हैं व जिनके आधीन देव, विद्याधर, व्यंतरादि होते हैं व इन्द्रभो जिन की भक्ति करता है ऐसे चक्रवर्ती तीर्थकरादि भी मरणके समय पर इस शरीरमें फिर नहीं रह सकते हैं। जब महान पुरुषों की यह दशा है सब हम सबको तो कालके मुख में बैठा हुमा ही अपने को समझना चाहिए, ऐसा निश्चय कर मात्मकल्याणमें जरा भी प्रमाद न करना चाहिए।
पप्रनंदि मुनि अनित्यपंचाशत् में कहते हैंकालेन प्रलयं यजति नियतं तेपौवचन्द्रावयः । का वार्तान्यजनस्य कोटसवृशो शफ्तेरदीर्घायुषः ।। तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोहं मुधा मा कृथाः। कालः कोडति नान येन सहसा तरिकचिवन्विष्यताम् ॥५१
भावार्थ--जब इन्द्र, चन्द्र, आदि भी मरण के द्वारा निश्चयसे माश किए जाते हैं तब उनके मुकाबले में कीटके समान अल्पायु वाले अन्य जनकी तो बात ही क्या है ? इसलिए अपने किसी प्रिय
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तत्त्वभावना
[२७९.
के मरण हो जाने पर वृथा मोह नहीं करना चाहिए । इस जगत में तू ऐसा कोई उपाय शीघ्र ढूंढ़ जिससे काल अपना दांव न कर सके।
मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द सेनापति मंत्री, अर पुरोहित सिपाही । सुर असुर खगाधिप, इन्द्र बाहुबल धराई ।। जब यमभट जनको, लेत है पाव माई ।
दुःखित हो प्राणो, नहिं सके तब बचाई ॥११२ उत्पानिका-शाने महते हैं कि इस संसार में कोई अपना पक्षक नहीं हैबालकृतोऽशनतोऽपि विपद्यते,
यदि जनो न तवा परतः कथम् । यवि निहन्ति शिशुं जननी हिता,
म परमस्ति तवा शरणं ध्रुवम् ॥११३ अन्वयार्ष--(यदि) यदि(जनः) यह मानव (बलकृतः)शरीर को बलदाई (अशनतःबपि) भोजन से ही (विपद्यते) विपत्ति में आ जाते हैं, रोगी हो जाते हैं तथा मरण कर जाते हैं (तदा) तब (परतः) दूसरे विष आदि पदार्थोसे (कषम् ) किस तरह बच सकते हैं ? (यदि) जब (हिता) हितकारों (जननो)माता(शिशु) बच्चेको (निहति) मार डालती है (तदा) तव(ध्रुव) निश्चयसे (शरण) शरणमें रखने वाला (पर न अस्ति) दूसरा कोई नहीं है।
मावार्थ-इस संसारमें कोई जीव किसी को मरणसे बचाने वाला नहीं है । जिस भोजनसे शरीरको रक्षा होती है व बलदाई होता है वही भोजन रोगी प्राणी के लिए विषमज्वर पैदा करके उसके प्राणोंका अन्त करने वाला हो जाता है । इस जगतमें कोई
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कोई पशु ऐसे हैं कि जिनको जनने वाली माता ही उनका भक्षण कर लेती है जहां माता ही बच्चे को खा लेवे वहां और कौन बचाने वाला है ?
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ऐसा जानकर मानव को आत्मानुभव के भीतर शरण लेनी चाहिए । यही इस जीवका सच्चा रक्षक है यही शुभ गतिमें व परम्परा मोक्ष में इस जीवको पहुंचाने वाला है । वास्तव में इस जगतमें कोई भी तीव्र कर्म के उदयको टाल नहीं सकता है।
कि
पद्मनंदि मुनि अनित्य पंचाशत् में कहते हैंकिं देवः किमु देवता किया मणिः । कि मंत्रः किमुताध्यः किमु सुहृत् किं वा सुगंधोस्ति सः ॥ अम्पे वा किमु भूपतिप्रभूतयः सस्था लोकठाये यैः सर्वेरपि देहिनः स्वसमये कर्मोदितं धार्यते ।। ३२ ।। भावार्थ- न कोई देव है न कोई देवी है, न वैध है न कोई विद्या है, न कोई मणि है न मंत्र है, न कोई आश्रय है न कोई मित्र है, न कोई गंध है न कोई और राजा आदि इस तीन लोक में हैं जो प्राणियोंके उदयमें आए हुए कर्मको रोक सके । मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
बलप्रद भोजन भी प्राणिगण नाश करता ।
तब विष फल खाना, क्यों नहीं मर्ण करता । हितकारी माता, बाल अपना हने है । कौन फिर इस जगत में, शणं जिय राबले है ॥ ११३ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि इस जोव को अपनी करणी का फल अकेला ही भोगना पड़ता है
-
विविधसंग्रह कल्मष मंगिनो विदधलेंग कुटुंब कहेतवे । अनुभवस्य सुखं पुनरेकका नरकवासमुपेत्य सुदुस्हम् ।।११४
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अन्वयार्थ - ( अंगिनः ) यह शरीरधारी प्राणो ( अंगकुटु म्बकहेतवे ) अपने शरीर तथा अपने कुटुम्ब के ( बिविध संग्रह - कल्मषं) नाना प्रकार के पाप के संचयको (विदधते) करते रहते हैं (पुनः) परन्तु ( एकका) अकेले ही (नरकवासं) नरक के स्थान में (उपेत्य ) जाकरके ( सुदुस्सह) अति दुःसह (असुखं ) दुःख को ( अनुभवंति ) भोगते हैं ।
तत्त्वभावना
भावार्थ - ये संसारी गृहस्थ अपने स्त्रीपुजा के मोह में ऐसे अन्धे हो जाते हैं कि उनके मोह में और अपने शरीर के मोह में पड़कर नाना प्रकार के विषयों को भोगने के अभिप्राय से व धन के संत्रय करने के लिए नीतिको उलंघकर व बहुत से परिग्रह को संचय करते हुए बहुत सा पाप बांध लेते हैं। जिस कुटुम्ब के लिए मोही जीव पाप का संचय करते हैं वह कुटुम्ब उस पाप के फल के भोगने में सहकारी नहीं होता है। यह जीव अकेला ही उस पाप के फलसे नर्क में जाता है और वहाँ असहनीय दुख को बहुत काल पर्यन्त भोगता रहता है। वास्तव में हर एक जीव अपने अपने भावों का जिम्मेदार है। अपने भावों से जो पाप बघिता है उसका फल उसी ही को स्वयं भोगना पड़ता है ऐसा 'समझकर ज्ञानवानों को उचित है कि कुटुम्ब के मोह में पड़कर उसके लिए अन्याय व अनर्थं न करे, अपनेको नीति व धर्म के मार्ग से विचलित न करें, स्वात्महित करते हुए परहित करना उचित है।
स्वामी अमितगतिजी सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंरे पापिष्ठातिकुष्टव्यसनगतमते निद्यक में प्रशक्त। न्यायान्यानयामिश प्रतिहतकरुण व्यस्तसन्मार्गबु ||
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तत्त्वभावना
किं किं दुःखं न यातो विषयवशगतो येन जोवो विषा। त्वं तेनैनोऽतिवर्त्य प्रसममिह मना जैनतत्त्वे निधेहि ॥४१८
भावार्थ-अरे पापो, अति दुष्ट, छूतादि व्यसनों में बुद्धि को लगाने वाला, दया रहित, सच्चे मार्ग से बुद्धि को हटाने वाला, न्याय व अन्याय से अनजान ! तूने इन्द्रियों के विषयों के वश में पड़ करके क्या क्या दुःख नहीं सहन किए हैं, अब सू इन पापों से बच्छी तरह मुंह मोड़ और अपना मन जैनतत्त्व में धारण कर ।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द निजतनके काजे या कुटुम्बार्य प्राणी। करत विविध कमें पाप बांधत अमानी॥ एकाकी जावे मऊं में दुख बढ़ाये।
कोई नहिं साथी मूद आपी ठगावे ॥११४ ॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं जब आत्मा के साथ यह शरीर ही नहीं जा सकता है तब अन्य पदार्थ कैसे साथ जावेंगे
वसनवाहनमोजनमंदिरः सुखकरश्चिरवासमुपासितम् । अजति यवतमं न कलेवरं शिमपरं क्त तन गमिष्यति ।११५
मम्वयार्ष-(सुखकरः) सुखदाई (वसनवाहनभोजनमंदिरः) कपड़े, सवारी, भोजन तथा मकानों के द्वारा (चिरवासम्)दीर्घकालबास करके (उपासितम्) सेवन किया हुआ (कलेवर) यह शरीर (यत्र) जहाँ (सम) साथ (न ब्रजति)नहीं जाता है (त) वहाँ (बत) खेदको बात है (अपरं किं) दूसरा क्या (गमिष्यति) साथ जावेगा?
भावार्य-जब मरण आ जाता है तब इस जीव को अकेला ही जाना पड़ा है। इस शरीर को तरह तरह के भोगों से तृप्त
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किया, मनोहर वस्त्रों से सज्जित किया, नाना प्रकार हाथो घोड़े पालकी विमानादि सवारियों पर आरूढ़ किया, हीरे जवा+ हरातसे जड़े हुए सुवर्ण के मकानों में बिठाया व सुलाया । इस तरह दोघं काल तक इसको सेवा की गई तो भी इस कृतघ्नी ने मरते समय साथ न दिया तब स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई, बन्धु, सेना नौकर आदि अपना साथ कैसे दे सकते हैं ? ये तो बिलकुल ही अलग हैं। ऐसा जान ज्ञानी जीवको किसी से भी मोह नहीं करना चाहिए। आपही अपनेको अपने हित अहित का जिम्मेदार समशंकर सदा ही आत्महितमें लवलीन होना चाहिए। स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
तत्त्वभावना
एवं सर्वजगद्विलोक्य कलितं दुवोर्मात्मना । मिस्त्रिशेन समस्तस स्व समितिप्रध्वंसिना मृत्युमा ॥ सद्रत्नत्रयशात मार्गणगणं गृणन्ति परिछतये । सन्तः शांतधियो जिनेश्वरतपः साम्राज्यलक्ष्मोषिताः। ३१८. भावार्थ - इस तरह सर्व जगत को अतुल बोयंधारी, निर्दयो व सर्वप्राणियों को नाश करने वाले मरण द्वारा प्रसित देखकर यान्त परिणामी व जिनेन्द्रकथित तप की राज्यलक्ष्मीका बाश्वय करनेवाले सन्त जन उस मरण के नाशके लिए सम्यग्दर्शन सम्प ज्ञान व सम्यक् चारित्रमई रत्नत्रय धर्म तीक्ष्ण बाणों को ग्रहण करते हैं ।
मूलश्लोकानुसार मालिनी छन्द जिस तनकी सेवा, काल बहु खूब कीनो । सुखकर मंदिर रख, वस्त्र वाहन नवीनो । मोजन इष्टं वे साथ सो भो न जाये । फिर जग है कोजन, संग अपना निभावे ।। ११५।
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२८४]
तत्त्वभावना
उत्यानिका-आगे कहते हैं कि इन्द्रियों के विषयों में जो लोन हो जाते हैं वे नाश को प्राप्त होते हैं।
खचरनागसो दमयन्ति ये कथममी विषया न परं नरम् । समदन्तिमदं क्लयन्ति ये न हरिण हरयो रहयंति ते ।११६
अन्वयार्थ (ये विषयाः) ये इन्द्रियों के विषय जब (खचर नागसदः) विद्याधर व नागकुमारों के समूह को (दमयन्ति) वश कर लेते हैं तब (अमी) ये (परं नरम्) दूसरे मानव को (कयं न) क्यों नहीं वश कर सकेंगे? (ये हरयः) जो सिंह (समददन्तिमदं) मदवाले हाथियों के मद को (दलयन्ति) चूर्ण कर डालते हैं (ते) वे (हिरणं) हिरण को (न रहयन्ति) छोड़ने वाले नहीं हैं। ___ मावार्थ-पाचौ इन्द्रियों के विषय बड़े प्रबल है। ये बड़े-२ विद्याधरों को, नागेन्द्रों को, देवों को, चक्रवर्ती, नारायणों को अपने वश में करके दीन हीन कर डालते हैं और उनको दुर्गतिमें पहुंचा देते हैं तब साधारण मानव को अपने आधीन कर डालें इसमें तो कोई अन्यपने की बात ही नहीं है । भला जो सिंह मव बाले हाथी को चूर कर सकते हैं उनके लिए हिरणों को क्या गिनती ? प्रयोजन यह है कि इन दुष्ट विषयों से सदा अपने को बचाना चाहिए । ये आत्महितके मार्ग में प्राणीको गिराने वाले हैं
और संसार के भयानक जंगल में पटक देने वाले हैं। वहाँ यह प्राणी भटक भटक कर घोर कष्ट उठाता है और ऐसा अन्धा हो जाता है कि फिर इसको सुमार्ग दिखता ही नहीं। स्वामी अमित गति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं--
आदित्यचन्द्रहरिशंकरवासवाघाः । शक्ता न जेतुमतिदुःखकराणि यानि ।।
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तत्त्वभावना
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तः नोन्द्रियाणि मान्ति सुदर्जमानि।
थे निर्जयन्ति मुवने बलिनस्त एके ||६|| भावार्थ-जिनको सूर्य, चन्द्र, विष्णु, शंकर, इन्द्रादिक जीत न सके ऐसी दुखदाई, बलवान व दुर्जन इन्द्रियोंको जो जीत लेते. हैं एक वे ही जगत में बलवान हैं
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जिनमे वश कोना, देव विद्याधरों को। कैसे नहिं जोते, अस सामान्यजनको ।। मन पर हस्तीको, सिंह जो वलमले है।
को गिनती मुगको, ताहि चूरण करे है ।।११।। उस्थानिका-आगे कहते हैं कि मोही जीव आत्महितों में नहीं वर्तता हैमरणमेति विनश्यति जीवितं, झुतिरपैसि जरा परिवर्धते । प्रचुरमोहपिशाचवशीकृतस्तदपि नारमहिते रमते जनः ।।११७॥
अन्वयार्ष-(मरणं एति) मरण आ रहा है (जीवितं विनश्यति) जिंदगी नाश हो रही है (युतिः अपैति) युवानी दूर जा रही है (जरा परिवर्धने) बुढ़ापा बढ़ रहा है (तदपि) तो भी (प्रचुरमोहपिशाचवशीकृतः) भयानक मोहरूपी पिशाचके वश में पड़ा हुआ (जनः) यह मानव (आत्महिते) अपने आत्मकल्याण में (न रमते) नहीं प्रेम करता है।
भावार्थ-यहां आचार्यने मोही जोवकी दशा बताई है। स्त्री पुत्र भित्र व इंद्रियों के विषय इन्द्रादि पदार्थों में अज्ञानी जीव ऐसा उलझ जाता है कि अपने सामने आपत्तियें मौजूद हैं तो भी उन पर ध्यान नहीं देता है। यह देखता है कि दिन-पर-दिन
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२८६ ]
नत्वमानना
जिंदगी पूरी होती चली जाती है। मरण अचानक आने वाला है। शरीरको चमक-दमक घट रही है । जवानी वोत रही है, बढ़ापा आ रहा है तो भी धर्म की ओर बुद्धि नहीं लगाता है। आत्माको परलोकमें दुर्गति न हो इसकी चिंता नहीं करता है। आत्मानुभव रूपी परमोत्तम कार्य को नहीं करता है, आत्मानंद का विलास नहीं लेता है। वास्तव में जिसके भावों में तीव'मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषायका उदय होता है उसकी दशा ऐसी ही भयानक हो जाती है। स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं
बयादमध्यानतपोवतायो । गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्वथा ॥ तुरन्तमिव्यास्वरमोहतात्ममो।
रजोयतालाबगतं यथा पयः ॥१३७।। भावार्थ-जैसे निर्मल पानी धूलसहित तुम्बी में प्राप्त होकर मैला हो जाता है वैसे जिसका आत्मा दुखदाई मिथ्यादर्शनरूपी कर्मकी रजसे गाढ़ छाया गया है उसके भीतर दया, संयम, ध्यान, तप, व्रत आदि ये सर्व गुण बिलकुल नहीं पाए जाते हैं।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जीवन बोते है, मरण आही रहा है। ध्रुति सन खिरती है, वृक्षपन बढ़ रहा है ।। जो मोह पिशाचं, वश पड़ा बीन नर है।
सो भूले हिसको, आस्ममें बे खबर है ।।११७॥ उत्यानिका-आगे कहते हैं कि इन्द्रियों के विषयों में जो अंधा है वह अपना नाश निकट आने पर भी धर्मसे प्रेम नहीं करता है
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तरवभावना
जननमस्युजशनदीपितं जगदिदं सकलोऽपि विलोकते । तक्षवि धर्ममति विदधाति नो
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रतमना विषयाकुलितो जनः ॥ ११८ ॥
अन्वयार्थ --- ( सकल : ) सर्व लोग (अपि) अवश्य ( विलोकते ) देख रहे हैं कि ( इदं जगत् ) यह जगत ( जननमृत्युज रानलदीपितं ) जन्म, मरण व बुढ़ापा इन अग्नियों से बराबर जल रहा है ( तदपि ) तो भी ( रत्नमना विषयाकुलितः जनः ) विषयों को चाह में घबड़ाया हुआ मनुष्य मनको उनमें भाता हुआ | ( धर्ममति) धर्म में बुद्धिको (नो विदधाति ) नहीं लगाता है ।
भावार्थ - आचार्य ने प्रगट किया है कि जो मानव इंद्रियोंके विषयोंका गुलाम हो जाता है वह अपने मनको उनहोकी मूर्ति में रंजायमान किया करता है। ऐसा होकर इस बात को भूल जाता है कि मुझे धर्म भी साधन करना जरूरी है । वह यह देखता भी है कि जगत में कोई मानव जन्मते हैं, कोई बढ़े होते हैं, कोई मरते हैं अर्थात कोई भी थिर नहीं रह सकता है तथापि अपने सम्बन्धमें विचार नहीं करता है कि मुझे शीघ्र मर जाना होगा । आचार्य इस बुद्धिपर खेद प्रकट करते हुए प्रेरणा करते हैं कि बुद्धिमानों को इन विषयों के मोह में अंध होकर अपना आत्महित न भुलाना चाहिए ।
स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
धर्मे वित्तं निधेहि भूतकथितविधि जीव भक्त्या विधेहि । सम्यक् स्वान्तं पुनीह् व्यसनकुसुमितं कामवृक्षं लुनीहि ॥ पापे बुद्धि धुनीहि प्रशमयमवमाझिण्ठि पिष्टि प्रमादं । छिन्धि कोष विमिन्दि प्रचुरमदगिरिस्लेऽस्ति बेल्मुक्तिवांछा १४१४
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भावार्थ हे जीव ! यदि तुझको मुक्तिको इच्छा है तो तू अपने चित्तको धर्म में धारर कर शास्त्र में कही हुई विधि को भक्तिसे पालन कर, अपने भीतर सम्यग्दर्शनसे पवित्रता पैदाकर आपत्तिरूपी फूलों से लहराते हुए कामदेव के वृक्ष को उखाड़ के फेंक दे, पाप में बुद्धि को न लेजा, शान्ति, यम, संयमको पुष्ट कर, प्रमाद को छोड़, क्रोधको नष्ट कर, तथा बड़े भारी मान के पर्वत को तोड़ दे।
तस्वभावना
मूल लोकानुसार पछि
यह सब जग जलता, मूर्ख जन देखता है। जनम खरा मरणं अग्निमय फैलता है । तवपि विषय लोभो अंघ मम हो रहा है। नह से धर्म पापको बो रहा है ॥ ११८ ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि गृहस्थ का वास छोड़ने के ही योग्य है ।
मालिनी वृतम्
क्वचन भजति धर्म क्वाप्यधमं दुरंतम् । क्वचिदुपयमनेकं शुद्धबोधोऽपि गेही ॥ कथमिति गृहवासः शुद्धिकारी मलानामिति विमलमन स्कैस्त्यज्यते स विद्यापि ॥ ११६॥
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अन्वयार्थ - (शुद्धबोध: अपि गेही) शुद्ध ज्ञान को अर्थात् सम्पज्ञान को रखने वाला गृहस्थ भी ( क्वचन ) किसी जगह तो (धर्म) धर्मको (क्व ) कहीं ( दुरंतम् अधर्म ) भयानक अधर्म को ( क्वचित् ) कहीं ( अनेकं उभयं) अनेक प्रकार धर्म और अधर्म दोनों को ( भजति ) सेवन करता है (इति) इसलिए ( गृहवासः )
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तस्वभावना
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गृहस्थमें रहना (कथम् ) किस तरह (मलानाम्) पापके मैलों को (शुद्धिकारी) शुद्ध करने वाला हो सकता है (इति) ऐसा समझ कर (विमलमनस्कः) निर्मल मन वाले महात्माओं के द्वारा (सः) यह गृहवास (त्रिधापि) मन, वचन, काय तीनों से ही त्यज्यते) छोड़ दिया जाता है।
मावार्थ-यहाँ आचार्यने यह स्पष्टपने दिखला दिया है कि कोई भी मानव गृहस्थकी कीचड़में फंसा हुआ कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता है। यहाँ तक कि क्षायिक सम्बदष्टी व तीन ज्ञान के घारी तीर्थंकरको भी गहवास छोड़कर निर्यन्थ होना पड़ता है।
और बिलकुल निर्ममत्व होकर निजात्मानुभव का आनन्द लेना पड़ता है-शुद्ध वीतराग भावों में रमण करना पड़ता है तब कहीं शुक्लध्यान जगता है जो चारों घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान पैदा कर देता है । तब कोई सामान्य मनुष्य कितना भी ज्ञानी क्यों न हो गहवाससे कर्ममलसे मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि गृहस्थीको धर्म पुरुषार्थके सिवाय अर्थ और काम पुरुषार्थ की भी सिद्धि करनी पड़ती है। अर्थ पुरुषार्थ के लिए उनको धन कमाने के लिए बहुत आरम्भ व व्यवसाय करना पड़ता है जिसमें हिंसाजनित बहुत अधर्म करना पड़ता है। कर्म पुरुषार्थ में इन्द्रियों को तुप्त करने के लिए पांचों इन्द्रियोंके भोगों को भी भोगता है। इसमें भी पाप का हो संचय करता है कभी-२ व्यवहार धर्म के ऐसा भी काम करता है जिससे पुण्य व पाप दोनों बंधते हैं जैसे धर्म-स्थान को बनवाना, पूजा प्रतिष्ठा का आरम्भ कराना । जहाँ तक पापों का बिलकुल संवरन हो वहाँ तक कम को निर्जरा होना संभव नहीं है । गृहस्थको गृह संबंधी भाडम्बर में सम्यग्दृष्टी भी क्यों न हो कुछ पाप का संचय
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२६० ]
करता ही पड़ता है । अर्थ व काम पुरुषार्थ में रागद्वेष की उत्क टता होती ही है । इसलिए जो साधुकाका को छोड़कर मात्र आरम्भ व परिग्रहसे रहित होनेके कारण से पापके संचयसे बचते हैं उन्हीं को गृहको आकुलताएँ नहीं सताती हैं वे ही निराकुल हो आत्मध्यान करते व स्वाध्याय आदि में लीन रहते हैं। उनके हो परिणामोंकी बढ़ती हुई शुद्धता होती रहती है। इसलिए जो पूर्णपने आत्मकल्याण करना चाहे उनके लिए यही उचित है कि गृहवास से उदास हो उनकी सेवा करें। वास्तव में गृहादि परिग्रह का त्याग ही ध्यान की सिद्धि का साधन है ।
तस्वभावमा
श्री पद्मनंदि मुनि यतिधर्म में कहते हैंपरिग्रहवां शिवं यदि तदानलः शीतलरे । यवीन्द्रियसुखं तदिह कालकूटः सुधा ॥ स्थिरा यदि सतस्तदा स्थिरतरं तरिवाम्बरे । भवेsa रमणीयता यदि तबोखजालेपि च ।। ५६ ।। भावार्थ -- यदि परिग्रहधारी गृहस्थों को मोक्ष की प्राप्ति हो जावे तो मानना पड़ेगा कि अति ठण्डी हो जायगी । यवि इंद्रियोंके भोगोंसे सच्चा सुख होता हो तो मानना पड़ेगा कि काल कूट विष भी अमृत हो जायगा । यदि यह शरीर सदा स्थिर माना जायगा तो आकाशमें विलोको भी स्थिर मानना होगा यदि संसार में रमणीयता मानी जायगी तो इन्द्रजालके खेल में भी रमणीयता माननी पड़ेगी।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द
ज्ञानी भी गेही, कभी शुभ काम करता । कभी करता अशुभ, कभी वोऊ हि करता ॥ सब घर में रहना किस तरह मैस घोवे । इस लख शुचि मन घर त्याग घर आत्म जोवें ॥११८
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तस्वमावना
[२६१
उस्थानिका—आगे कहते हैं कि जो आत्मा के सच्चे सुखको प्राप्त करना चाहते हैं उनको अपमे परमात्मस्वभाव का निस्य चिन्तवन करना उचित है
सर्वज्ञः सर्वदर्शी अवमरणजरातकशोकव्यतीतो। लब्धात्मीयस्वभावः शतसकलामलः शश्वदात्मानपायः । वः संकोवितासंभवमतचकितर्लोकयावानपेक्षः। नष्टाबाधामनोमस्थिरविशवसुखप्राप्तये चिंतनीयः॥१२०
अन्वयार्थ (दौ :) मोतु पुरुष (गीशिवार: सी इंद्रियों को वश में रखनेवाले हैं, (भवतिचकितैः) जन्म मरणसे भयभीत हैं, (लोकयात्रानपेक्षः) संसार के भ्रमण से उदास है उनको (नष्टाबाधात्मनीनस्थिरशिदसुखप्राप्तये) बाधा रहित, स्थिर व निर्मल आत्मीक सुखकी प्राप्ति के लिए (शाश्वत्) सदा ही (सर्वज्ञः) सबको जानने वाला (सर्वदर्शी) सर्वको देखनेवाला (भवमरणजरातकशोकव्यतीतः) जन्म, मरण, जरा, शोक आदि दोषों से रहित (लग्यास्मीयस्वमाकः) अपने स्वभाव को प्राप्त किए हुए (क्षतसकलमल:) सर्व कर्ममलों से रहित (अनपायः) अविनाशी (आत्मा) अपने आत्मा को ही (चिन्तनीयः) ध्यानमें ध्याना योग्य है।
मावाप-इस श्लोक में आचार्यने इस तत्त्वभावना का सार बता दिया है कि जो भव्यजीव अपने आत्मतत्त्वको प्राप्त करके बात्मीक सच्चे सुखको भोगना चाहें जो सुख स्थिर है, बाधारहित है, उनको उचित है कि वे पहले अपनी पांचों इन्द्रियों को वश करें, क्योंकि इन्द्रियों की चाहना ध्यान में बाधक होती हैं फिर वह मन में दया ला कि मेरा आत्मा इस संसार में बारबार शरीर धारण कर जन्म-मरणके कष्ट न उठावें।
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२९२]
तत्त्वभावना
इसलिए उसके मन में संसार यःमा से उदासीनता हो । स्वामी नताका परम प्रेम हो। ऐसा ज्ञानी जीव निश्चिन्त होकर परमात्माका या निश्चयनयसे अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप ध्यान में लेकर बारबार चिन्तचन करे । निश्चय से सिद्ध परमात्मा में और अपने आत्मामें कोई तरहका अन्तर नहीं है-दोनोंका स्वभाव समान है। यह आत्मा निश्चय से पूर्णज्ञान दर्शन गुण का घारी है, इसमें कर्मों के द्वारा होने वाले राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मानादि भाव व शोक व मन्म, जरा, मरण, आदि अवस्थाएँ नहीं हैं यह तो कर्म रहित शुद्ध वीतराग है, अपने असल स्वभाव में सदा शोभायमान है। इस आत्मा का आदि अन्त नहीं है. इससे यह अविनाशी है। इस तरह ध्यान में अपने स्वरूप को जमाकर बार बार ध्यानका अभ्यास करना चाहिए । जब मनकी वृत्ति परभावोंसे हटकर अपने स्वरूपमें कुछ देरके लिए भी स्थिर होवेगी-स्वात्मानुभव जग जायगा उसी समय मात्मीक सुख का लाभ होगा। आत्मध्यान करने के लिए क्या-२ बाहरी साधनोंकी जरूरत है उसका कथन श्री ज्ञानार्णव ग्रन्थके आधार पर मागे. किया जायगा। वास्तवमें भात्मध्यानसे हो आत्माकी शुद्धि होती है, आत्मध्यानसे ही आनन्दकी प्राप्ति होती है, आत्मध्यानसे ही कर्मोको निर्जरा होती है, आत्मध्यानसे ही कर्मों का संवर होता है, आत्मध्यानसे ही मोक्ष होता है। इसलिए हितेच्युको निरंतर आत्मध्यानका अभ्यास परम निश्चिन्त होकर करना योग्य है। पद्मनंदि मुनि ने एकत्वाशीति में कहा है
मदेव चैतन्यमहं तवेष जानाति तदेव पश्यति । तवेव क परमस्ति निश्चयाद गसोस्मि भावेन तदेकतां परम् ७६ हे हि कर्मरागावि तत्कार्य च विभिमः। उपादेये .परं क्योतिपयागेकलक्षणम् ॥७॥
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तस्वभाधना
तदेवकं परं तस्वं तदेवकं परं एवम् । मयाराध्यं तवेधकं तदेवकं पैरं महः ॥४४॥ मुमणां तदेवकं मुफ्तेः पंथा न वापरः। आनन्दोपि न चान्पन्न तद्विहाय विभाव्यते ॥४६॥ इलाकण्याक्षणानंमहकताधियः ।
तदेवकं परं बोजं निःश्रेयसलससरोः ॥५०॥ भावार्थ-जो कोई चैतन्य स्वरूप है, जो कोई जानता है, जो कोई देखता है वही मैं हूँ। वह एक उत्कृष्ट पदार्थ है इसलिए मैं निश्वयसे उसी एकके साथ एक भावपनेको प्राप्त हो गया हूं॥७६ : रागादि द्रव्य कर्म और उनके कार्य रागादि भाव विवेकियों के लिए त्यागने योग्य हैं। शुद्ध उपयोग लक्षणको रखने वालो एक उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति ही ग्रहण करने योग्य है ।।७४॥ ___ वही एक उत्कृष्ट तत्त्व है वही एक उत्कृष्ट पद है। भव्य जीवों के लिए वहो एक आराधने योग्य हैं। वहीं एक परम ज्योतिमय है ॥४४॥
मोक्षकी इच्छा करने वालोंके लिए वही एक मुक्तिका मार्ग है दूसरा नहीं है, उनको छोड़कर आनन्द और कहीं नहीं पाया जाता है ।।४।। ___अविनाश मोक्षरूपी शोभायमान वृक्षके लिए जो वृक्ष अविन नाशी आनन्दरूपी महाकाल के भार से चमकता रहता है वही एक आत्मतत्त्व परम बीज है ॥५०॥
इन श्लोकों से यही बताया है कि शुद्ध आत्मा का अनुभव ही आनन्द का दातार है 4 स्वाधीनता का उपाय है। वही निरन्तर सेवने योग्य है। .
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२६४]
तस्वभावना
खार्दूलविक्रीडित छन्द जो हैं वक्ष स्वमक्ष रोधकर्ता, जन्मन मरण भय कर। संसति हरके मात्मलीन निर्मल निर्वाध सुख पछि धरें॥ वे चिन्ते निज आत्मरूप निश्चय, सर्वश सब देवता। मिर्मल मिश्य स्वभावरूप, रतिविन रत्नत्रयी एकता ॥१२०
उस्थापिका-आगे ग्रन्थकार अन्य समाप्त करके आशीर्वाद देते हैं
वृतविंशशतेनेति दुर्वता तत्वमावनाम् । सद्योमितगतेरिष्टा निर्वृतिः क्रियते करे॥२११॥ अषयाई-(इति) इस तरह (विशशतेन) एकसौ बीस (सः) श्लोकोंके द्वारा (सत्वभावनाम्) आत्मतत्वकी भावना को (कुवंता) करने वाला (सबः शीघ्र ही। (अमितिगतः इष्टा) सर्वज्ञ को प्रिय या अमितगति आचार्य को प्रिय ऐसी (निर्वृतिः) मुक्तिको (करे क्रियते) अपने हाथमें प्राप्त कर लेता है।
भावार्ष-श्री अमितगति महाराजने इन पहले कहे हुए १२० श्लोकोंसे इस तत्वभावना नामके ग्रन्थको रचा है इसको जो कोई बारम्बार अनुभव करेगा उसको अवश्य मुक्तिकी प्राप्ति होगी ऐसा आशीर्वाद आचार्य ने पाठकों को दिया है। तथा आचार्यने यह भी दिखलाया है कि प्राचीनकाल में जो सर्वज्ञ हो गए हैं उन्होंने भी इसी तत्व की भावनासे मुक्ति प्राप्तकी थी व में इसी हेतुसे तत्वकी भावना कर रहा हूँ। दोहा
विशति सौ श्लोक में, सस्व भावना पाठ । रचो अमितगति मूरिने, कर मावसे पाठ ।। लो पा मिज मुक्सिको, जिम पाई सर्वन । 'सीतल' कर्म सुकाटकें, रहे आत्म मर्मज्ञ ॥१२॥
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सलमापना
[२१५
आत्मध्यान का उपाय ADDRPHARMAMALA
हरएक निमात मानव स्वाधीनतापिय होता है और सुख व शांतिको चाहता है। आत्मा और कमपुद्गल इन दोनों के परस्पर सहबाससे आत्मा की शक्तियें पूर्ण विकाशरूप नहीं है तथा आत्माको अपने वर्तनमें बहुतसी बाधाएं उठानी पड़ती हैं। संसारमें इष्टका वियोग व अनिष्टका संयोग होना कर्मो की ही पराधीनता का कारण है। कोधादि भावोंका झलकना व पूर्णज्ञान का न होना कर्मों के उदयका ही कार्य है। जन्म-जन्म में भ्रमण करना, जरा व मरणके कष्ट उठाना कोका ही वेग है। इसलिए हरएक मानयका यह दृढ़ उद्देश्य होना चाहिए कि वह कर्मोकी संगतिसे छूट कर स्वाधीन हो जावे । फर्मोको संगति रान देष मोहसे हुआ करती है । इसलिए हमें इन भावों को दूर करके वीतरागता पूर्ण आत्मज्ञानके पानेका उद्योग करना चाहिए और उसके बलसे आत्माका ध्यान करना चाहिए । आत्मध्यानको हर एक साधु व श्रद्धावान गृहस्थ कर सकता है। जैनसिद्धान्तों ने मुख्य सात तत्वोंका जानना व श्रद्धान करना जरूरी बताया है। वे तत्व हैं--जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । ___जीव-निश्चय से परमात्माके समान ज्ञाता, दृष्टा, अविमाशी, अमूर्तीक, परमशांत, सुखमई, चैतन्य धातुरूप, असंख्यात प्रदेशी है । इसका स्वभाव स्वाधीन आनन्द का भोग करते हुए
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तत्वभावमा
दीपक के समान स्वपर प्रकाशक है। ऐसा होकर के भी अनादि कालके प्रवाहरूप कर्मों के बंधन के कारण यह शरीर में रहता हुआ अज्ञान और कषायकी कालिमासे अशुद्ध हो रहा है। यह जीव द्रव्य अवस्थामोंकी अपेक्षा तो मनित्य है परन्तु द्रव्य और गुणकी अपेक्षा नित्य है। यह स्वयं कर्म बांधता है व स्वयं उस बंधसे छूट भी सकता है। • अजीव तस्थ- में पांच द्रव्य गभित हैं। पुद्गल द्रव्य जो स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप है । जो परमाणु व स्कंधके भेदोंसे अनेक प्रकारसे 'लोकमर में भरा है। यह स्थूल शरीर भी पुद्गल से बना है तथा सूक्ष्म शरीर जो कर्मोंका है वह भी सूक्ष्म कर्मवर्गणारूपी पुद्गलोंसे मना है । जो कुछ हमारे इंद्रियोंका विषय है वह सब पुद्गल है । बहुतसे पुद्गल ऐसे सूक्षम हैं जिनको हम अपनो
में से नहीं देख सकते हैं।
. धर्मास्सिकाय वध्य-यह दूसरा अजोब द्रव्य है । यह अमूर्तीक तीन लोक व्यापी एक अखण्ड द्रव्य है। इसका काम जीव और पुद्गलों की हलनचलन क्रिया को होते हुए उदासीनता के साथ बिना प्रेरणाके मदद देना है। जैसे मछलीको चलते हुए जल सहकारी है। बिना इसके किसी जीव या पुद्गल में कोई हलन चलन रूप क्रिया नहीं हो सकती है।
अधर्मास्तिकाय-यह तीसरा अजीव द्रव्य है । यह भी अमूक तीन लोक व्यापो एक अखण्ड द्रव्य है इसका काम जोव और पुद्गलों को स्वयं ठहरते हुए उनको उदासीनता के साथ बिना प्रेरणाके ठहरने में मदद देना है। बिना इसके जोव पुद्गल कभी ठहर नहीं सकते हैं । जैसे पथिकको वृक्षकी छाया ठहरने में निमित्त है।
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तस्वभावना
[ २९७
: आकाशद्रव्य-चौथा अजीव द्रव्य अमर्तीक आकाश है जो अनन्त है व एक अखण्ड है। इसका काम सर्व व्योंको अवकाश या स्थान देना है। इसीके मध्य में तोन लोकमय यह जगत है। जगतमें ही जीव पुदगल, धर्म, अधर्म, व काल ये पांच द्रव्य हय स्थान पर पाए जाते हैं। ये पांचों हो अजीव द्रव्य जीव द्रव्य से बिलकुल भिन्न स्वतंत्र द्रव्य हैं। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध ही संसार है व इन दोनोंका भिन्न-२ होना ही मोक्ष है ।
कालद्रव्य-यह भी पांचवां अमूर्तीक अजीव द्रव्य है । इसका काम सर्व द्रव्यों रिनेमें उमासीनतः रोमारा है । इस काल के अणु अलग-अलग आकाशके एक-एक प्रदेश पर बैठे हुए असंख्यात प्रवेशी आकाशमें असंख्यात हैं। लोक में जितने द्रव्य एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थारूप होते हैं उनको नए से पुराना करने में ये कालाणु निमित्त हैं।
आस्रव और बन्ध तत्त्व-ये बतलाते हैं कि किस तरह यह जीव कर्मों को खींचकर बांधा करता है। मन, वचन, कायके द्वारा यह संसारी जीव काम किया करता है। जब यह कोई क्रिया मन, वचन, कायसे करता है तब आल्मा के प्रदेश सकम्प होते हैं उस समय चारों तरफ भरे हुए कार्माण, धर्गणारूप पुदगल खिचकर आ जाते हैं और आत्मा के कर्माण देह से बंध को प्राप्त हो जाते हैं। उनमें अनेकों आस्रव व बन्धन को बंध कहते हैं। रागद्वेष मोहकी यदि प्रबलता होती है तो कर्मों का बंधन बहुत काल तकके लिए होता है, यदि उनकी मंदता होती है तो बंधन थोड़े कालके लिए होता है। क्योंकि संसारी आस्माओं में
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२६८ ]
तत्वभावना हलनचलन व क्रोधादि कबायका होना सदा ही पाया जाता है। इसलिए सर्व ही संसारी जीष अपनी हलन चलन क्रिया व कषाय के अनुसार थोड़े या बद्भुत कर्मों को बांधते रहते हैं। जो मात्मा मुक्ति की तरफ उद्योगी हो खाता है यह कम कर्मों को बांधता है।
संवरतस्व-इस तत्त्वमें यह बताया गया है कि कोके बंधन से किस तरह बचा जावे। जिन-२ कारणोंसे कर्मोका बंध होता है उन-उन कारणों को छोड़ना संचर है, तब कर्मों का बंध रुक जायगा। मुख्य कारण कर्मों से बंध होनेके चार हैं
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग।
सच्चे तरवोंको न समझकर मिथ्या तत्वों पर श्रद्धान रखना मिथ्यात्व है। पराधीनता को अच्छा समझना और स्वाधीनता को न पहचानना मिथ्यात्व है । अतृप्तिकारी इंद्रियों के विषयों को अच्छा समझना और स्वाधीन आत्मीक सुख की रुचि न करना मिथ्यात्व है। हिसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा तृष्णा में लबलीन रहना अविरति है। क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव करना कषाय है । मन, वचन, काय को हिलाना योग है । यदि कोई मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त भाव पैदा कर लेगा, स्वाधीनताका सच्चा श्रद्धालु हो जायगा फिर मिथ्यात्वके दोषसे जो कर्म बंधते थे उनको रोककर उनका यह संवर कर देगा।
जितना-२ पाँच हिंसादि पापोंको छोड़ता जायगा उतना-२ मविरति के द्वारा जो कर्म बंधते हैं उनसे बचता जायगा । साध अवस्थामें ये पांचों पाप बिलकुल छूट जाते हैं तब वहां इसके कार
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तस्वभावना
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बसे होने वाला बन्ध बिलकूल रुक जाता है। कषायों को जितना जितना घटाया जायगा उतना - २ कषाय सम्बन्धी कर्मबंध रुक जायगा। जिस वीतरागी साधु के कषायों का प्रकाश बिलकुल नहीं होता वहाँ कषाय सम्बन्धी सर्व कर्म का बन्ध रुक जाता हैन, वचन, काय कर्मों के आने में कारण है । इनके पूर्णपने रुकनेसे कर्मों का आना बिलकुल रुक जाता है ।
मुख्य
निर्जरा तरब- इसमें यह बताया गया है कि कर्मों का अपने समय पर फल देकर झड़ने मात्र से काम सिद्ध नहीं होता है । कर्मों का बिना फल दिये ही झड़ जाना आवश्यक है | इसका उपाय सच्चा आत्मा व सच्चा आरमध्यान है ।
I
मोक्षतत्त्व -- जब यह जीव सर्व कर्मों से छूट जाता है तब परम पवित्र परमात्मा हो जाता है फिर सदा के लिए बंधरहित हो जाता है। इस तत्व को जो पालते हैं उनको सिद्ध कहते हैं । इस तरह व्यवहारनय से इन सात तत्वों का स्वरूप है । निश्चप नय से इनमें जीव और कर्मपुद्गल इन दो ही का सम्बन्ध है । कर्मपुद्गल मेरा स्वभाव नहीं है ऐसा जानकर उसे छोड़ निज शुद्ध आत्मा ही मैं हूं ऐसा श्रद्धान करना निश्चयसे इन तत्वों का ज्ञान है । व्यवहारनय तो परद्रव्यों के आश्रय लेकर पदार्थ का विचार करता है । निश्चयनय मात्र एक ही द्रव्य के आश्रय उसका विचार करता है । व्यवहारनय से सात तत्वों का श्रद्धान व इनहीं का यथार्थ ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । निश्चयनयसे शुद्ध बारमाही में हूं यह श्रद्धान तथा ऐसा ही ज्ञान सम्यग्जान है ।
व्यवहारयसे मुनिके या धावकके व्रतों को पालना सम्यग्
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३०० ]
तस्वभावमा
चारित्र है। निश्चयनयसे अपने ही शुद्ध स्वरूप में एकता न हो जाना सम्यग्वारित्र है। निश्चयनय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्वारिश्र रूप एक मोक्ष का मार्ग है । श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती कहते हैं
दुविहं वि मोक्खहेज झाणे पाउणदिजं सुणी णियमा । तम्हा पयसचिता जयं झाणं समग्रमसह । ( द्रव्यसंग्रह )
भावार्थ मुनि निश्चय तथा व्यवहार दोनों ही प्रकार के मोक्ष के मार्गको ध्यान में पा लेते है। इ प्रयत्नचित्त होकर ध्यान का भले प्रकार अभ्यास करो। जब आत्मध्यान में एकता होती है तब निश्चय रत्नत्रय में एकता हो ही रही है। उसी समय व्यवहार रत्न त्रय भी पल ही रहा है। क्योंकि उसके भीतर सात तत्वों का सार ज्ञान व श्रद्धान में भरा हुमा है तथा वह आत्मध्यानी हिंसादि पांचों पापों से ध्यान के समय विरक्त है । और भी—
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तवसुदवदधदा शाणरह धुरंधरो हवे अम्हा । तम्हातत्तिय णिरक्षा तल्लबीए सदा होहु ॥
भावार्थ- जो आत्मा तप का साधन करता है, शास्त्र का ज्ञाता है, वह व्रती है, वही ध्यान रूपी रथ को चला सकता है | इसलिए तप, शास्त्र, व व्रत इन तीनों में सदालीन रहना चाहिए जो आत्मध्यान करना चाहें उनको तप का प्रेमी होना चाहिए, संसार विषयों की कामनाएँ मेंटकर निज सुखके रमन का प्रेमी होना चाहिए। जो इंद्रियों के विषयों के लोलुपी हैं उनका ध्यान बड़ी कठिनता से जमता है। जैसा जैसा चित्त बाही भोग उप भोगों की तरफ से हटेगा वैसा वैसा आत्मध्यान कर सकेगा
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तस्वभावना
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ध्यानके अभ्यासी को शास्त्रों का ज्ञान व उनका निरन्तर मनन रहना चाहिए। शास्त्रों के द्वारा मनकी कुज्ञानसे बचकर सुज्ञान में 'दृढ़ता प्राप्त होती है। जितना साफ व अधिक तत्वों का ज्ञान होगा | उतना ही अधिक निर्मल ध्यान का अभ्यास होगा इसी तरह ध्यान के अभ्यासीको व्रती भी होना चाहिए। या तो पूर्ण त्यागी साधु हो या एक देश त्यागी श्रावक गृहस्थ हो । अबिरति में तिष्ठनेवालोंके ध्यानका अम्बास बहुत ही अरूप होता है । व्रती नियमानुसार सर्व कार्य करते हैं। इसलिए ध्यान के लिए अवश्य समयको निकाल लेते हैं ।
वही आचार्य और भी कहते हैं
मा मुक्तह मा रज्जह मा दुस्सहं इट्ठणिट्टअत्थेषु । थिरमिच्छह जइ वित्तं विचित्तज्ञाणप्पसिखीए ॥४६॥
भावार्थ यदि चित्तको नाना प्रकारके ध्यानकी सिद्धिके लिए अपने आधीन करना चाहते हो तो इष्ट व अनिष्ट पदार्थों मेंमोह मत करो, राग मत करो, द्वेष मत करो। ध्यान करनेवाले के मन में यह सच्चा वंशग्य अवश्य होना चाहिए कि इस लोक में कोई पदार्थ अपना हो नहीं सकता । किसोको अपना मानना बड़ी भारी भूल है। इस प्रकार निश्चय करके अपना मोह किसी चेतन व अचेतन पदार्थपर नहीं रखना चाहिए। तथा ज्ञानी को आत्मीक सुखको हो सच्चा सुख मानना चाहिए। इंद्रिय द्वारा पैदा होने वाले क्षणिक सुखको सुख नहीं मानना चाहिए । अज्ञानी प्राणी इंद्रियसुखके हो कारण उन चेतन व अचेतन पदार्थोंसे राग करते हैं, जो विषयसुख में मददगार हैं व जो हानि पहुंचानेवाले चेतन ब अचेतन पदार्थ हैं उनसे द्वेष कर लेते हैं। ज्ञानी आत्मसुख का प्रेमी होकर न किसी से राग करता है न किसीसे द्वेष करता है।
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३०२ ]
जिसका परिणाम वेराग्य युक्तहोगा वही आत्मध्यान कर सकेगा क्योंकि ध्यान चित्तकी एकाग्रता को कहते हैं, आत्मरुचि व आत्मप्रेम ही चित्तको आत्मा में जोड़नेका सच्चा व अचूक उपाय है । जैसा श्री पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक में कहते हैं
तत्त्वभावना
यवेवाहितबुद्धिः पुंसः भद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते या चित्तं तत्रैव लोयते ॥
भावार्थ - जिस पदार्थ को बुद्धिसे निर्णय कर लिया जायना उसी पदार्थ में श्रद्धा या रुचि जम जायगी तथा जिसमें रुचि हो जायगी उसीमें ही चित्त स्वयं लय होने लगता है व जमने लगता है । वास्तव में ध्यान के लिए यह बहुत आवश्यक है कि हमको आत्मद्रव्यका, बात्म के गुणों का तथा आत्माको पर्यायका वि खास हो । हमको यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि जैसा पानी मिट्टी से जुदा निर्मल है वैसा मेरा आत्मा आठ कर्ममल, शरीर व रागादि भाव मलों से दूर, परमनिर्मल सिद्ध भगवान के समान मात्र एक ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक, परमवीतराग आनन्दमई पदार्थ है। मैं वास्तव में ऐसा ही हूं। इसी निश्चय सहित ज्ञान में चित्त को रोकना आत्मध्यान कहलाता है ।
साधारण उपाय ध्यान करनेका यह है कि हम एकांत स्थान में जहाँ कोलाहल न हो जाकर बैठजायें और थोड़ी देर निश्चिन्त हो जावें, सब कामों से फुरसत कर लेवें और अपने मात्माको निर्मल जलके समान देखें। जैसे घड़े में जल भरा होता है कैसे अपने शरीर में पुरुषाकार अपने आत्मा को देखें, चुपचाप देखते रहें मोर अपने मनको उच्च जात्मरूपी जम में जुबा दें।
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[ ३०३
जब चित्त हटने लगे तब नीचे लिखे मंत्रों में से किसी मंत्र को जपने लगें । बीच बीच में मंत्र के अर्थ को भी विचारने लगें फिर अपने मनको उसी आत्मरूपी जल में डबी देवें । इस तरह बाब बार अभ्यास करनेसे हमारा ध्यान और सब बातोंसे हटकर एक आत्मा पर ही रुक जायगा, बहुत कालके अभ्यास में विरक्तता बढ़ती जायगी। जैसा कहा है
तत्वभावना
सोहमिश्यात्तसंस्कारः तस्मिन् भावनया पुनः । लव बृढसंस्काराल्लभतेह्यात्मनि स्थितिम् ॥
भावार्थ- मैं शुद्धात्मा हूं इस तरह बार बार विचार करता हुआ जब ऐसा संस्कार होजाता है तब उसीमें बारबार भावना करने से और भी दृढ़ हो जाता है फिर यह अभ्यासी निश्चय से आत्मामें थिरता प्राप्त कर लेता है ।
द्रव्य संग्रह में नोचे लिखे खास मंत्र जपके लिए बताये हैंपणतोस सोल छप्पण चहु युगमेगं च जवह भाएह । परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेम ॥
भावार्थ - श्री अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमपदके धारी पंचपरमेष्ठीको बताने वाले नीचे लिखे मंत्रोंको व गुरुके उपदेश से और भी मंत्रों को जपे तथा घ्यावे ।
(१) णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सश्व साहूणं । ३५ अक्षरी मंत्र । (२) अर्हत्सिद्धचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नमः । १६ अक्षरी मंत्र ।
(३) अच्छंत सिद्ध-६ अक्षरी मंत्र ।
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३०४ ]
तस्भावना
(४) असि मा उ सा = ५ अक्षरी मंत्र ! (५) अरहंत = ४ अक्षरी मंत्र । (६) सिद्ध, सोहं, ॐ
अक्षरी
(७) १ अक्षरी मंत्र ।
=
अ (अरहंत ) + अ ( अशरीर या सिद्ध) + आ (आचार्य) + उ ( उपाध्याय) +म् (मुनि या साधु) ओम् या ॐ ।
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ध्यान के लिए विशेष विचार
(१) काल का विचार - ध्यान करनेके लिए प्रातः काल, मध्याह्नकाल व सायंकाल तीन समय ठीक है । छः छः घड़ी हर समय ध्यान का समय है । जब सवेरा हो उससे तीन घड़ी पहले से तीन घड़ी बाद तक दोपहरको तीन घड़ो पहले से तीन घड़ी बाद तक संध्या को तीन घड़ी पहले से तीन घड़ी बाद तक । एक घड़ी २४ मिनट की होती है इसलिए छ: घड़ी २ घंटे २४ मिनट की हुई । यदि ध्यान छः घड़ी करना हो तो इस तरह वर्ते । यदि ४ घड़ी ही ध्यान करना हो तो दो घड़ी इधर से दो घड़ी उधर तक लेले । यदि २ घड़ी ही करना हो तो १ घड़ी पहले से १ घड़ी बाद तक ले । यह उत्तम विधि है । मध्यम यह है कि यदि छः घड़ी से कम करना हो तो यह ध्यान में रक्खे कि सूर्योदय, मध्याह्न व संध्या के समय ध्यान में बैठा हो । जघन्य यह है कि दो घड़ी या कुछ अधिक करनाहो तो हर तीन समयों मैं छ घड़ी के समय के भीतर ध्यान कर डालें। इसके सिवाय रात्रि को भी बारह बजे या अन्य किसी भी समय ध्यान किया जा सकता है ।
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आत्मध्यान का उपाय
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(२) स्थान का विचार-ध्यान करने के लिए स्थान ऐसा होना चाहिए जहाँ क्षोभ न हो, कोलाहल न हो, दुष्ट लोगों का, वेश्याओं का, स्त्रियों का, नपुंसकों का आना जाना न हो । आस पाय गाना-बजाना न होता हो. गंध न आती हो, न बहुत गर्मी हो, न सरदी हो, न जानवरों का भय हो, न डांस मच्छरों का अधिक संचार हो, ऐसा योग्य व निराकुल स्थान ध्यान के लिए तलाश कर लेना चाहिए। ध्यान करते हुए विघ्न न हो ऐसा स्थान ढूंढना उचित है। मुख्य व उत्तम स्थान नीचे प्रकार हो सकते हैं-(१)सिद्धक्षत्र, (२)तीर्थंकरोंके पंचकल्याणको स्थान, (३) समुद्र का तट, (४) वन, (५) पर्वत का शिखर, (८) नदी तट, (७) नगर के बाहर कोट पर, (८) नदियों के संगम पर, (९) जलके मध्य द्वीप या भूमि पर, (१०) पुराना वन, (११) स्मशान के निकट, (१२) पर्वत की गुफा, (१३) जिन मन्दिर, (१४) शून्य घर, (१५) पृथ्वी की तलहटी, (१६) वृक्षों का समूह इत्यादि । जैसा कहा है
यत्र रागावयो वोषा अजस्त्रं यान्त लाघवम् ।
तनव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः ॥ भावार्ष-जिस स्थान में रागादि दोष शीघ्र हो दूर हो जावें वहीं बैठना उचित है-ध्यान के समय में तो विशेष करके वहीं बैठे।
(३) संथारे का विचार-निराकुल स्थान पर चटाई का आसन पाटा, पाषाण की शिला आदि पर या मात्र भूमि पर ही ध्यान करे। जैसा कहा है
बापट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले। समातिसिंहये धीरो विमासुस्थिरासनम् ॥
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आत्मध्यान का उपाय
भावार्थ--धीरवीर समाधि की सिद्धि के लिए काष्ठ का तखता, शिला, बालुरेतका स्थान या भूमि इनमेंसे किसी में भले प्रकार स्थिर आसन जमावे ।
(४) आसन का विचार
आसन शरीर को जमाकर रखता है इसलिए किसी न किसी आसन से बैठकर या खड़े होकर ध्यान करना चाहिए। कहा है
पर्यकमबंपर्यकवचं बोरासनं तथा। सुखारविन्यपूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ॥१०॥ येन येन सुखासीना विवष्यनिएपलं मनः । तत्तव विधेयं स्यान्मुनिभियाधुरासनम् ॥११॥ कामोत्सर्गश्च पर्यः प्रशस्तं कश्चिवीरितम् । वेहिनां वीर्यवैफल्याकालदोषेण संप्रति ॥१२॥ भावार्थ—पर्यंक भासन, अर्द्धपर्यंक आसन, वज्रासन, योरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ध्यानके योग्य आसन माने हैं। जिस किसी आसन से ध्यानी अपने मनको स्थिर कर सके उसी सुन्दर आसनको ले लेना चाहिए। इस समय काल दोष से शक्ति कम होने से कायोत्सर्ग और पर्यंक इन-२ आसनों को ठीक कहा हैमासन जमाने से मन स्थिर हो जाता है। कहा है
अथासमअयं योगी करोतु विजितेन्द्रियः। मनागपि न खिचन्ते समाधौ सुस्थिरासनाः ॥३०॥ वातातपतुषाराजंतुजारिनेकशः।। कृतासनजयो योगी खेरितोऽपि न खिचते ॥३२॥ भावार्य-इन्द्रियों को जोतने वाला योगी आसन को जीते। जिनका आसन स्थिर होता है उनको ध्यान करते हुए खेद नहीं
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आत्मध्यान का उपाय
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होता है । आसन को जीतने वाला योगी पवन धूप, पाला आदि से तथा पशुओं से अनेक तरह पीड़ित किये जाने पर भो खेद नहीं मानता है ।
जो पवन पर्वतों को उड़ा दे ऐसे पवन के चलने पर आसन से बैठा हुवा कभी नहीं डिगता है। शरीरको स्थिर रखने का बड़ा सुन्दर उपाय आसन का जीतना है।
सीधे बैठना, अपने दोनों चरणों को एक दूसरे की जाँच के ऊपर रखना, दोनों हाथ गोद में स्वन बाएं हाथ के ऊपन दाहता रखना, आंखें निश्चल रहें. उनकी सोध नाशिका के अन भाग पर हो। इसका मतलब यह नहीं है कि नाककी नोक को देखे परन्तु यदि कोई देखे तो मालूम पड़े कि दृष्टि नाकको सोध पर है, दोनों होठ न बहुत खुले हों न मिले हों मन बड़ा प्रसन्न हो, इस आसन को लौकिक में पद्मासन कहते हैं। जैसे उत्तर हिन्दुस्तान में दि० जैन मन्दिरों में प्रतिमा का आसन होता है । जहाँ एक पग जोधके नीचे व दाहना पग जांघके ऊपर रहे, शेष - सब बातें पद्मासन के समान हों उसको अर्द्ध पद्मासन कहते हैं । दक्षिण में इस आसन में मूर्तियां मिलती हैं। वहां इस ही को पत्यकासन कहते हैं । जैनबद्री के दौर्बलि जिनदास शास्त्री ने पद्मासन, परयंकासन व कायोत्सर्ग के श्लोक इस प्रकार लिखाए थे
समपादौ क्षितौ स्थित्वा चोर्ध्वजानुगतो करो । मला ऋजुमूर्तिः स्यात् दण्डासनमितीरितं ।
भावार्थ- जहां पैरों को बराबर जमीन पर जमाया जावे, आगेके (एक दूसरेसे चार अंगुल की दूरी रहे) अपने दोनों हाथ
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आत्मश्यान का उपाय
लटके हुए जंघा तक चले आवें व सीधी मूर्तिरूप खड़ा रहे उसको दण्डासन व कायोत्सर्ग आसन कहा गया है।
उत्तानबामचरणं दक्षिणाणि विन्यसेत् । उत्तानयाभ्यवरणं वामोणि निवेसयेत् ॥ तस्मध्याधोर्ध्वगोत्तानवामवामेतरौ करौ। स्थित्वा निश्चलयोगेन नासाग्रमवलोकयेत् ।। इदं पद्मासने प्राहुः मुख्य पूजाविकर्मसु । मावार्थ-बाएँ चरण को उठाकर दाहिनी जांघ पर रक्खे व दाहने चरण को उठाकर बाई जांध पर धर, उनके मध्य में नीचे बायाँ हाथ रखके ऊपर दाह्ना हाथ रखे तथा निश्चल बैठे और नासाग्न दृष्टि हो सो पद्मासन कहा गया है। पूजा आदि कार्यों में यह मुख्य है।
वामपावस्य गुल्फन पाम्यपवगल्फकं न्यसेत, तस्योधिः स्थितीत्तानयामोत्तरकरोपरे। वामोत्तरं करं स्थित्वा नासाग्रमवलोकयेत्, पल्यंकासनमित्याहुः सर्वपापनिवारणं ॥ भावार्य-बाएं पैर की गुल्फ या टोहनी के साथ मिलाकर दाहने पैर की टोहनी को बाएँ पग की जांघ पर रक्खे फिर गोदमें बाएँ हाधके ऊपर दाहना हाथ रक्खे । नासाग्र देख्ने सो पल्यंका सन सर्व पाप दूर करने वाला है।
मल्लिषेण कृत विद्यानुवाद मंत्र शास्त्र में लेख है कि २४. तीर्थकर पल्यंकासन तथा कायोत्सर्गासनसे मोक्ष गए । जैसे
ऋषभस्य वासपूज्यस्य नेमेः पल्यंकबध्नता।
कायोत्सर्गस्थितानां तु सिद्धिः शेषजिनेशिमा ।। अर्थात् ऋषभदेव, वासपूज्य तथा नेमिनाथ तो पत्यकासलसे मोक्ष गए व २१ जिन कायोत्सर्ग से मोल गए।
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इस काल में ध्यान करने वालेको पद्मासन, पल्यंकासन तथा कायोत्सर्ग इन तीन आसनों को काम में लेना चाहिए तथा किसी एक आसन का खूब अभ्यास कर लेना चाहिए। आसन ऐसा जमावे किदेखने वाले को चित्राम सा मालूम हो ।
पंडित जयचन्दजी कहते हैं
आत्मध्यान का उपाय
आसन बिते ध्यान में, मन लागे इकतान । तातें आसन योग, मुनि कर धारें ध्यान ॥ ध्यान समायिक के साथ करना उचित है ।
सामायिक को विधि
यह विधि सामान्य व सुगम लिखो जाती है जिसको हर एक समझकर अभ्यास में ला सकती है ।
पहले ही मनको और कामों में हटाकर स्वस्थ करले, बचन के बोलने की व कावसे अन्य काम करने को इच्छा को रोकले व शरीर को अशुचि व गंदगी साफ करले । पवित्र वस्त्र जितने कम पहने उतना ठोक है। जिसमें शरदी गर्भा की बाधा न हो ऐसा होकर मन वचन काय शुद्धकर ठीक समय पर अर्थात् प्रातः काल, मध्यान्ह या सायंकाल एकान्त निराकुल स्थान में जाकर किसी बसनको बिछाकर या भूमिमें ही पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके खड़ा हो क्योंकि अभ्यासी के लिए पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ होकर ध्यान करना शास्त्र में कहा है । यद्यपि अन्य दिशा में भी ध्यान का सर्वथा निषेध नहीं है । जैसा - ज्ञानार्णव के इन श्लोकों से सिद्ध होता है --
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पूर्वाशाभिमुखः साक्षादुतराभिमुखोपि वा । प्रसन्नवदनो व्याता ध्यानकाले प्रशस्यते ॥
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आत्मध्यान का उपाय
धरणज्ञानसम्पन्ना जिताशा बोतमत्सराः । प्रागने कास्ववस्थासु संप्राप्ता यमिनः शिवम् || भावार्थ - ध्यान के समय ध्याता को प्रसन्नमुख रखकर पूर्व या उत्तरको मुख करना चाहिए, यह प्रशंशनीय है तथापि ज्ञान और चारित्रके धारी, जितेन्द्रिय, मानादि रहित ऐसे साधु पूर्वकाल में अनेक अवस्थाओं से मोक्ष गए हैं, उनके दिशा का नियम नहीं था। पहले हाथ लटकाए हुए नौ दफे णमोकार मंत्र अपने मनमें पढ़े, फिर मस्तक भूमिमें लगाकर नमस्कार करे । तब मन में यह प्रतिज्ञा करले कि जबतक इस आसनसे नहीं हटूंगा तबतक या इतने समय तक सर्वं अन्य परिग्रहका त्याग है, जो कुछ मेरे पास है उसके सिवाय तथा चारों तरफ एक- २ गज भूमिको रखकर सब भूमिको भी त्यागता हूँ। फिर कायोत्सर्ग बड़ा होकर तीन दफे या तो दफे णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करे। दोनों हाथ जोड़कर अपने बाएंसे दाहनी तरफ तीन दफे धुमावे | फिर उन जोड़े हुए हाथों पर अपना मस्तक झुकावे । इसका प्रयोजन यह है कि इस तरफ जितने बंदनीय तीर्थं व धर्मस्थान व अरहन्त व साधु आदि हैं उनको मन, वचन, काय तीनों से नमस्कार करता हूँ। फिर अपने दाने खड़ा खड़ा हाथ लटकाए हुए मुड़ जावे । इधर भी नो या तीन दफे णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करें, फिर पीछे, फिर चौथी तरफ, इसी तरह करे । पश्चात् जिधर पहले मुख करके खड़ा हुआ था उधर ही आकर बैठ जावे | पद्मासन, पल्यंकासन जमाले या कायोत्सर्ग ही रहे। सबसे पहले सामायिक पाठ मनमें अर्थ विचार करता हुआ
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आत्मध्यान का उपाय
मंदस्वरसे पढ़ जावे । पाठ पढ़नेसे मन सब तरफसे खिष मावेगा घ तत्वकी भावना हो जायेगी। इस पुस्तक में १२० श्लोकों का बड़ा सामायिक पाठ है, जो थिरता हो तो इसीको पढ़ जावे । अर्थ समझ सके तो संस्कृत मात्र पढ़े नहीं तो हरएक श्लोक में भाषा छन्द दिए हुए हैं उन १२० भाषा छन्दोंको पढ़ जावे । मादि थिरता न हो तो छोटा सामायिक पाठ बत्तीस श्लोको का पढ़े जो इस पुस्तकके अन्त में संस्कृत और उनके भाषा छन्द सहित दिया हमा है। फिर णमोकार मन्त्र को या अन्य किसी मंत्रकी जाप १०८ बार एक दफे या कई दफे जपे । जाप जपने को माला भी दाहने हाथमें ले सकता है जिसको अंगूठेके पासको उंगली पर लटकावे व मंत्र एक-एक दाने पर पढ़ता हुआ अंगूठे से सरकाता जावे या हाषकी अंगुलियों से ही अप सकता है। एक हाथमें १२ खाने हैं उनको पूर्णकर दूसरे हाथ के एक खाने पर अंगूठा रखता रहे, इस तरह जब बाएँ हाथ के नौ खाने पूरे हो जावें तब एक जाप हो जावे। जप करते हुए हाथों को फैलाकर काममें ले सकता है। तीसरी रीति जप करने की यह भी है कि एक कमल आठ पत्तेका हृदयस्थान में बनाले, हरएक पत्ते पर बारह बिन्दु रखले, बीचमें भी घेरे में बारह विन्दु रखले तब १०८ विन्दुओं का कमल हो गया। अब एक-एक पत्ते को लेता हुआ बाईं तरफसे दाहिनी तरफ जपता हुमा आवे या पहले पूर्व दिशा के पत्तेके १२ विन्दु पर १२ दफे मंत्र जप जावे फिर पश्चिमके पत्ते पर, फिर दक्षिणके, फिर उत्तरके पत्ते पर जपकर पूर्व दक्षिण के कोनेके पत्तेको जपे, फिर दक्षिण पश्चिम के, फिर पश्चिम उत्तरके, फिर उत्तर पूर्व के पत्ते पर, फिर बीचके बारह
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आत्मध्यान का उपाय
बिन्दुओं पर जप जावे । यह मनको जाप चित्तको अधिक एकान रखने वाली है।
कमल को जाप का चिन्न
जापके पोछे ध्यानका अभ्यास करे, सुगम रीति यह है कि अपने शरीर को एक घड़ा माने और अपने आत्मा को निर्मल गंगाजल माने और उसमें मनको बार-बार डुबाने का अभ्यास करे । जब मन हटे तब ॐ या सोहं या अहं या सिद्ध ऐसा कोई मन्त्र जपले था आत्मा के शुद्ध गुणों का चिन्तवन करले, ऐसे बारबार मनको नानेका अभ्यास करे। दूसरी रीति अनेक हैं। श्री ज्ञानार्णवजी में चार प्रकार ध्यान बसाया है इनमें से किसी एक रीतिको लेकर ध्यान करें । वे चार प्रकार ध्यान हैं-(१) पिंडस्थ ध्यान, (२) पदस्थ ध्यान, (३) रूपस्थ ध्यान, (४) रूपातीत ध्यान।
इसका वर्णन आगे देते हैं। जब ध्यान कर चुके तब फिर कायोत्सर्ग खड़ा हो जावे या खड़ा हो तो वैसे ही नौ दफे णमोकार मंत्र पढ़े और अंतिम दंडवत करके सामायिक विधिको पूर्ण करे।
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एकांत सेवन विचार
एक ज्ञानी आत्मा विचारता है कि वस्तु का जो स्वभाव है वही मेरा धर्म है। इस आत्मा का स्वभाव चैतन्यमयो दर्शन ज्ञान का बारक मूर्तिक है । लेकिन वह अनादि कर्म बन्धन के कारण से चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करता हुआ अनंत काल अनेक पर्यायें धारण करता फिरा है इसलिए इसको परपदार्थों से भिन्न अनंत दर्शन ज्ञानमयी सचिदानंदरूप सम्यग्दर्शन है, और जो न्यूनाधिकता रहित सूक्ष्म भेदों सहित जाना जाता है वह सम्यग्ज्ञान है, और जो स्वरूप में लीन हो जाना सो सस्य कचारिन है इसलिए निश्चय से मेरा धर्म श्रात्मस्वरूप है। इसको बिना पहनाने मेरा निम्तारा नहीं होगा ।
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पृथ्वी धारणा। में एकांत में बैठ कर विचारता है कि यह संमार समुद्र के समान जीयों से भरा है। समुद्र जल से भरा है। उममें १००० पनों का कमल है। बीच में सुमेरु पर्वन समान मर है। उसके कपर एक चौकी विराजमान है । उस पर बैठा और विचारता हूं कि सब सांसारिक झगड़ों से बच कर इस शरीर पुदुलन में शुद्ध होने का उपाय करू ताकि भव-भ्रमण से छूट जा।
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अग्नि धारणा। जो नाभि-कमल है उसके बीच में अग्नि विराजमान है। इमकी रफ से ज्ञानमई अग्नि निकलकर कर्मम्पी कमल को जलाने लगा है, इम समय शांत भाव से मन को हमी में जोड़े। रहना चाहिए. और कहां स्वाहां बोलने रहना चाहिए |
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अग्नि चिम्नार । मम्प कमल को अलानो हुई अग्नि मम्नक पर आर. नीन भाग होकर शरीर के चारों तरफ जलने लगी है । भम्नक पर और जंघाओं पर ॐ विराजमान का विचारे की तीनों जगह से अग्नि प्रज्वलित हो रही है।
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पूर्ण अग्नि अन्दर की अगि ने कर्मपी कमल को भस्म कर दिया। जी , शरीररूपी पुद्गल है उसको घाहर की अग्नि भस्म कर रही है। आत्मा शांन भाव में ध्यान में लीन है।
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शरीर रूपी खाख की ढेरी ।
कर्मरूपी कमल को और शरीररूपी पुद्गल को ज्ञानभई अग्नि ने भस्म कर दिया है। आत्मा शरीर रूपी भस्म में छिपी है, ऐसा विचार करना चाहिए ।
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वायु धारणा। मानमई आत्मा विचारती है कि वायु वेग से चल रही है। शरीर रूपी मम्म को उड़ा रही है. और शरीर-प्रमाण प्रात्मा शांत थैठा है।
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जल धारणा ।
ज्ञानी आत्मा विचारता है कि चारों तरफ बादल लिए आवे
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हैं। पानी वेग से गिर रहा है। जो कुछ कर्म रुपी और दशरीर रूपी रज श्रात्मा में है उसको धोकर साफ कर रहा है। आत्मा
शांत ध्यान में मस्त है ।
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कमल धारणा ।
मैं उस चौकी पर बैठा विचारता हूँ कि मेरे नाभिस्थान पर सोलह पर्चा का श्वेत रंग का कमल खिला हुआ है, जो बहुत विस्तार में फैला है, तथा जो शुद्ध और साफ है। मैं अपनी जान उस पर जमा कर देखता हूँ |
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बिन्दु धारणा | मेरे नाभि-कमल में जो बिले हुए पत्ते हैं उनमें हर एक पत्ते पर पीत्त रंग के बिन्दु हैं, जो हर एक पत्ते पर भरह-२ हैं। बीच के माग में भी १२ है, और बीच में ह्रीं अक्षर है। वहीं मूल मैं हूँ। मैं बिन्दु के ऊपर दृष्टि रख कर जप करता हूँ। मेरा मन्त्र है स्वाहा-१
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जो नाभि कमल में विराजमान है, जो प्रकाशमान धमक रहा है। मैं उसी में अपने मन को रोकता है। और विचारता कि शरीर भर में प्रकाश ही रहा है।
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मेरी आत्मा के संग आठ कर्म अनंत काल मे लगे हैं। ही मेरे ज्ञान को ढकते हैं। मैं उनको कमल के रूप में एकत्र कर हृदय-स्थान में स्थापन कर भावना रूपी ध्यान की अग्लि में
जलाना चाहता हूँ।
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श्री पारस नाथ टौंक शिखर जी
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आरमध्यान का उपाय
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(१) पिंडस्थ ध्यान का स्वरूप पिंड 'शरीर को कहते हैं इसमें स्थित जो आत्मा उसको पिंडस्थ कहते है, उस आत्मा का करता डिस्थ ध्यान है। इसके लिए पाँच धारणायें बताई गई हैं-(१) पार्थिवी, (२) आग्नेयी, (३) श्वसना या वाय, (४) वाणी या जल, (५) तत्ररूपवती । इनको क्रम-२ से अभ्यास में लावें ।
(१) पार्थिवी धारणा का स्वरूप । इस मध्य लोक को क्षीर समुद्र समान निर्मल जल से भरा हुमा चिन्तवन करे, उसके बीच में जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन चौड़ा एक हजार पत्तों को रखने वाला ताए हुए सुवर्णके समान चमकता हुआ एक कमल विचारे। कमल के बीच में कणिका के समान सुवर्ण के पीले रंग का सुमेरु पर्वत चिन्तवन करे, उसके ऊपर पापड़क वन में पाण्डक शिला पर स्फटिकका सफेद सिंहासन विचारे । फिर यह सोचे कि उस सिंहासन पर मैं आसन लगाकर इसलिए बैठा हूं कि मैं अपने कमों को अला डालूं और आत्मा को पवित्र कर डालू । इतना चितवन वार-२ करना पाथिधी धारणा है।
(२) आग्नेयो धारणा। फिर वहीं सुमेरु पर्वत के ऊपर बैठा हआ वह ध्यानी अपने नाभिके भीतर के स्थान में ऊपर हृदय की तरफको उठा हुआ व फैला हुआ सोलह पत्तों का कमल सफेद वर्ण का विचार करे
और उसके हर एक पत्ते पर पीत रंग के सोलह स्वर लिखे हुए • सोचे । अ था इ ई उ ऊ ऋ ऋलम ए ऐ जो की अंमः ! इस
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यात्मध्यान का उपाय
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कमलके मध्य में जो कणिका सफेद रंग की है उसपर पीले रंग का है अक्षर लिखा हुआ सोचे । दुसरा कमल ठीक इस कमन के ऊपर बौंधा नीचे की तरफ मुख किए हुए आठ पत्तोंका फैला हा विचार करे । इसको कुछ मटोले रंग का सोचे, इसके हर एक पत्ते पर काले रंग के लिखे हुए माठ कर्म सोचे–ज्ञानावर णीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयु कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म ।
फिर नाभिके कमल के बीच में जो हैं लिखा है उसके रेफसे धुआं निकलता विचारे, फिर अग्निकी शिखा होती हुई सोचे। यह मग्नि को लो बढ़ती हुई ऊपरको आवे और आठ कोके कमल को जलाने लगे ऐसे सोचे । फिर यह अग्निकी लो कमलके मध्य में छंदकर ऊपर मस्तक पर आ जाये और उसकी एक लकीर बाई तरफ एक दाहिनी तरफ या जावे फिर नीचे की तरफ माकर दोनों कोनों को मिलाकर एक अग्निमई लकीर बन जाये अर्थात् अपने शरीर के बाहर तीन कोनका अग्निमंडल हो गया ऐसा सोचे । आगकी लकीरों का त्रिकोण (triangle) बन गया एसा विचारे। ____ इसकी तीनों लकीरों में र र र र अग्निमय लिखा हुआ विचारे अर्थात तोनों तरफ र र अक्षरों से ही यह अग्नि मंडल बना है ऐसा सोचे । फिर इस त्रिकोण के बाहर तीनों कोनों पर स्वस्तिक (साथिया) अग्निमय लिखा हुमा व भीतर तीन कोनों में हर एक पर ॐ र ऐसा अग्निमय लिखा हुआ विधारे। फिर सोचे कि भीतर तो आठ कर्मोको और बाहर इस शरीय को यह अग्निमंडल जला रहा है। जलते-२ राख हो जाकर सर्व शारीर व कर्म राख हो गए तब अग्नि धीरे-२ शांत हो गई, इतना विचारना आग्नेयो धारणा है।
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आत्मध्यान का उपाय
(३) श्वसना या वायुधारणा फिर वही ध्यानी ऐसा चितवन करे कि चारों तरफ बड़े जोर से निर्मल पवन बह रही है व मेरे चारों तरफ वायु ने एक मंडल गोल बना लिया है, उस मंडल में आठ जगह घेरेमें 'स्वाय स्वाय' सफेद रंग का लिखा हुआ है। फिर ऐसा सोचे कि यह वायु उस कर्म व शरीर की राख को उड़ा रही है व आत्मा को साफ कर रही है एसा ध्यान करे ।
(४) वारणी या जल धारणा फिर वही ध्यानी विचार करे कि आकाश में मेघों के समह आगए, बिजली चमकने लगी, बादल गरजने लगे और खूब जोर से पानी बरसने लगा। अपने को बीच में बैठा बिचारे, अपने ऊपर अर्ध चन्द्राकार पानी का मण्डल विचारे तथा पप प प जल के बीजाक्षर से लिखा हुआ चिन्तवन करे और यह सोचे कि यह जल मेरे आत्मापर लगे हुए धूलको साफ कर रहा है-आत्मा बिलकुल पवित्र हो रहा है।
(५) तत्वरूपवतो धारणा फिर वही ध्यानो चितवन करे कि अब मैं सिद्धसम सर्वज्ञ धीतराग परम निर्मल कर्म व शरीररहित मात्र चैतन्यात्मा हूं, पुरस्कार चैतन्य धातुकी बनी शुद्ध मूर्ति के समान हूं, पूर्ण चन्द्रमाके समान ज्योतिरूप दैदीप्यमान हूं।
यह पिंडस्थ ध्यान का स्वरूप है। इनमें से हरएक धारणाका क्रमसे अभ्यास करे। जब पाँचों का अभ्यास हो जावे तब हर दफे जब ध्यान करे तब इन पांचों धारणाओं के द्वारा पिंडस्य ध्यान को करे । अन्त में देर तक शुद्ध आत्मा का अनुभव करे। यह ध्यान वास्तव में कर्मों को जलाता है और आत्मीक आमन्द का
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३१६ ]
आत्मध्यान का उपाय
देने वाला है । पंडित जयचन्द्रजी ने कहा है-- चौ---या पिंास्थ ध्यान के माहि, देह विर्षे चित आतम साहि ।
चितवें पंच धारणा धारि, निज आधीन चित्तको पारि ॥
(२) पदस्थ ध्यान का स्वरूप पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यविधीयते ।
तस्पवस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगः ।। भावार्थ—पवित्र पदों के सहारेसे जो ध्यान योगियों के द्वारा किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। पदों के सहारे शुद्ध आत्मा अरहंत या सिद्ध आदि या उनके गुणों का ध्यान करना सो पदस्थ ध्यान है 1 किसी नियत स्थान पर पदों को विराजमान करके उनको देखते हुए चित्त को जमाना तथा उनका स्वरूप बीच बीच में विचारते रहना । श्रद्धान यह रखना कि हम शुद्ध होने के लिए शुद्धात्माओं का ध्यान कर रहे हैं। इसके लिए अनेक पदों का ध्यान श्री ज्ञानार्णव जी में कहा है। यहां कुछ मंत्र बताए जाते हैं
(१) वर्णमात का मंत्र । ध्यान करने वाला अपनी नाभिमें जमे हुए एक मोलह पत्तों के कमलको सफेद रंगका चितवन करे इन पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन सोलह स्वरोंको पीले रंगका लिखा हुआ व क्रम से पत्तों पर धूमता हुआ विचारे, फिर हुदयस्थानमें चौबोस पत्तोंके कमलको सफेद रंगका विचारे । उसको मध्य की कणिकाको लेकर पच्चीस स्थानोंपर पच्चीस व्यंजन पीले रंग के लिखे --
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मात्मासान का जपाय
क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म । फिर मुखमें स्थिति आठ पत्रोंके सफेद कमल पर पीले रंगोंके आठ अक्षरोंको लिखे व भ्रमण करता हुआ विचारे। वे हैं-य र ल व श ष स है।
इस तरह तीनों कमलोंको देखता रहे व मन में अक्षा रक्खे कि ये सर्व श्रतज्ञानके मूल अक्षर हैं, मैं जिनवाणी का ही ध्यान कर रहा हूँ।
(२) मन्त्रराज हैं यह साक्षात् परमात्मा को व चौबीस तीर्थंकरों को याद दिलाने वाला है। पहले इसके दोनों भोहों के बीच चमकता हमा जमाकर देखें फिर वह मुख में प्रवेश करके अमृतको झरता हुआ, फिर नेत्रों की पलकों को छूता हुमा, मस्तकके केशों पर चमकता हुआ फिर चन्द्रमा व सूर्य के विमानों को छूता हुआ तथा ऊपर स्वर्गादिको लांघ कर आता है और मोक्ष स्थान में पहुंच जाता है। इस तरह भ्रमण करता हुआ ध्यावे ।
(३) प्रणब मन्त्र ॐ या ओम् हृदय में सफेद रंगका कमल विचार करे, उसके मध्य में * को चंद्रमाके समान चमकता हुआ ध्यावे । इस कमल के आठ पत्रों पर तोन पर १६ स्वर या पांच पर २५ व्यंजन लिखकर चमकता हुमा ध्यावे । इस तरह ३३ अक्षरसे वेष्टित ॐ का ध्यान करे। इस चमकते हुए ॐ को नोचेके स्थानों पर भी विराजमान करके ध्यान करे । श्रद्धान रखें कि यह मंत्र अरहंतसिद्ध आदि पांच परमेष्ठीका वाचक मंत्र है, ध्यान करता हुआ मध्यमें इनके गुणों का भी चितवन कर सकता है।
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आत्मध्यान का उपाय
दश स्थान - ( १ ) मस्तक, ( २ ) ललाट या माथा, (३) कान, (४) नेत्र, (५) नाककी सोक, (६) दोनों भौहोंका मध्य भाग, (७) मुख, (८) तालु, (६) हृदय, (१०) नाभि ।
(४) णमोकार मन्त्र
हृदयस्थान में चंद्रमा समान चमकता हुआ आठ पत्रों का कमल विचारे । उसके मध्य के कणिका के स्थान में "णमो अरहंताणं" को चमकता हुआ ध्यावे। फिर चार दिशाओंके चार पत्रों पर पूर्व पर णमो सिद्धाणं" पश्चिम पर " णमो आइरियाणं" उत्तर की तरफ "णमो उवज्झायाणं" और दक्षिण की तरफ " णमो लोए सव्वसाहुगं" विराजमान करके क्रमसे घ्यावे । फिर चार कोनोंके पत्तों पर क्रमसे "सम्यग्दर्शनाय नमः" " सम्यग्नाः नाय नमः " " सम्यक्चारित्राय नमः” “सम्यग्तपसे नमः” इन वार पदोंको ध्यावे । नौ पत्तों को क्रमवार बदलता हुआ ध्यान करता रहे। बीच- २ में स्वरूप चिन्तवन करता रहे।
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(५) पंच परमेष्ठी ध्यान
अ, सि, आउ, सा, ये पांच अक्षर पांच परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षर हैं, इनको चंद्रमा के समान चमकता हुआ पांच स्थानों पर पाँच कमलों के मध्य में स्थित घ्यावे |
(१) नाभिकमल के मध्य में अ । ( २ ) मस्तक के कमल में सि । (३) कण्ठ के कमल पर आ । (४) हृदय के कमल पर उ । (५) मुख के कमल पर सा ।
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मात्मध्यान का उपाय
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इस पदस्थ घ्यानके अभ्याससे भी पित्त अन्य विचारोंसे रुक कर धर्म ध्यान में तल्लीन होता है । इसका अभ्यास करना परम हितकारी है । और भी बहुत से मंत्र हैं जिनका वर्णन श्री ज्ञानाजो मासुम हो सकता है । वजो काहो --
अमर पर को अर्थ रूप ले ध्यान में। जे ध्यायें हम मंत्र रूप इफतानमें ।। ध्यान पदस्थ जु माम कहो मुनिराजने ।
यामें हों लीन लहें निज कामने ॥
(३) रूपस्थ ध्यान अरहंत भगवानके स्वरूप में तन्मय होकर उनका ध्यान.करना सो स्वरूपस्थ ध्यान है। किसी एक तीर्थ करको-ऋषभ, पार्श्व, नैमि, या महावीर को विचारे । उनको नीचे प्रमाण ध्यावे।
(2) समवशरण के श्री मंडप में १२ सभायें हैं, उनमें चाय प्रकार के देव, देवियां, मुनि आयिका, मानव व पश सर्व बैठे हैं, तीन कटनी पर गंधकूटी है उसमें अंतरीक्ष चार अंगुल ऊंचे श्री अहंत प्रभु पद्मासन विराजमान है ।
(२) जिसका परमौदारिक शरीर कोटि सूर्यको ज्योति को मन्द करनेवाला है, जिसमें मांस आदि सात धातुएं नहीं हैं। परम शुद्ध रत्नवत् चमक रहा है।
(३) प्रभु परम शांत, स्वरूप मग्न विराजमान हैं, जिनके सर्व शरीर में वीतरागता झलक रही है।
(४) श्री अरहंत भगवानके क्षुधा, तुषा, रोग, शोक, चिंता रागद्वेष, जन्म, मरण आदि अठारह दोष नहीं हैं। ...
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३२० ]
(५) जिनके ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अनंतज्ञान प्रगट हो गया है, जिससे सर्वलोक अलोकको एक समय में जान रहे हैं। दर्शनावरणीय कर्मके क्षय से अनंतदर्शन प्रगट हो गया है जिससे लोकालोक को एक समय में देख रहे हैं। मोहनीय कर्मके क्षयसे क्षायिक सम्यग्दर्शन व यथाख्यात चारित्र या वीतरागत्व प्रगट हो रहा है । अन्तरायकर्म के क्षयसे अनंतवीयं अनंतदान, अनंतलाभ, धर्मग, अहो हैं अर्थात् नव केवल लब्धियोंसे विभूषित हैं । अनंतलाभ शक्तिके प्रगट होने से प्रभुके परमोदारिक शरोरको पुष्ट करने वालो आहारक वर्गणाएँ स्वयं मशरीर में मिलती रहती है जिससे साधारण मानवों की तरह उनको प्रास लेकर भोजन करने की जरूरत नहीं पड़ती है ।
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आरमध्यान का उपाय
(६) जिस प्रभु के आठ प्रतिहार्य शोभायमान हैं- ( १ ) अति मनोहर रत्नमय सिंहासन पर अन्तरीक्ष विराजमान हैं, (२) करोड़ों चंद्रमा को ज्योतिको मंद करने वाला उनके शरीर की प्रभा का मण्डल उनके चारों तरफ प्रकाशमान हो रहा है, (३) तोन चंद्रमा के समान तीन छत्र ऊपर शोभित होते हुए प्रभु तीन लोक के स्वामी हैं, ऐसा शलका रहे हैं । ( ४ ) हंस के समान अति श्वेत चमरों को दोनों तरफ देवगण द्वार रहे हैं, (५) देवों के द्वारा कल्पवृक्षों के मनोहर पुष्पों को वर्षा हो रही है, (६) परम रमणीक अशोक वृक्ष शोभायमान है उसके नीचे प्रभु का सिंहासन है, (७) दंदुभि बाजों की परम मिष्ट व गंभीर वहां रही है, (८) भगवान की दिव्य ध्वनि मेघ गर्जना के समान हो रहा है जिसको सर्व हो देव, मनुष्य, पशु, अपनो २ भाषा में समझ रहे हैं।
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आत्मध्यान का उपाय
[३२१.
(७) भगवान निश्चय सम्यक्त, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्यक्चारित्ररूप होते हुए परम अद्वैस आत्मस्वभावमें तल्लीन हैं उसको इन नामोंसे स्मरण करें-(१) कामनाशक (२) अजज्मा, (३) अध्यक्त, () अतीन्द्रिय. (५) अगतमंन्ट (योगिगम्म, (७) महेश्वर, (८) ज्योतिर्मय, (९) अनाद्यनंत, (१०) सर्वरक्षक, (११) योगीश्वर, (१२) जगद्गुरु, (१३) अनन्त, (१४) मध्युत, (१५) शांत, (१६) तेजस्वी, (१७) सन्मति, (१८) सुगत, (१६) सिद्ध, (२०) जगतश्रेष्ठ, (२१) पितामह, (२२) महावीर, (२३) मुनिश्रेष्ठ, (२४) पवित्र, (२५) परमाक्षर, (२६) सर्वज्ञ, (२७) परमदाता, (२८) सर्वहितैषी, (२९) वर्धमान, (३०) निरामय, (३१) नित्य, (४२) अव्यय, (३३) परिपूर्ण, (३४) पुरातन, (३५) स्वयम्भू, (३६) हितोपदेशी, (३७) वीतराग, (३५) निरंजन, (३९) निर्मल, (४०) परम गम्भोर, (४१) परमेश्वर, (४२) परमतृप्त, (४३) परमामृतपानकर्ता, (४४) अव्याबाध, (४५) निष्कलंक, (४६) निजानन्दी, (४७) निराकुल, (४८) निस्पृह, (४६) देवाधिदेव, (५०) महाशंकर, (५१) परमब्रह्म, (५२) परमात्मा, (५३) पुरुषोत्तम, (५४)परम बुद्ध, (५५) अमर, (५६) अशरण शरण, (५७) गुणसमुद्र, (५८) शिवनारिसम्मोही, (५६) सकल तत्त्वज्ञानी, (६०) आत्मज्ञ, (६१) शुक्लध्यानी, (६२) परमसम्यग्दृष्टी, (६३) तीर्थङ्कर, (६४) अनुपम, (६५) अनन्तलोकावलोकन शक्तिधारी, (६६) परमपुरुषार्थी, (६७) कर्मपर्वतचूरकवज्र, (६८) विश्वज्ञाता, (६६) निराकरण, (७०.) स्वरूपाशक्त, (७१.) सकलागमउपदेशकर्ता, (७२) परमकृतकृत्य, (२३) परम संयमी, (७४) परमाप्त,
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३२२ ]
आरमध्यान का उपाय
(७५) स्नातक निर्मन्थ, (७६) सयोगिजन (७७) परमनिर्जरारूढ़ ( ७० ) परमसंवरपति (७९) आस्रवनिर्वारक, (१) गणनायक (८२) मुनिगणश्रेष्ठ, (८४) आत्मरमी (८५) मुक्तिनारभता, (८७) परमानन्दी (८८) परमतपस्वी,
( ८० ) शुद्ध (८३) तत्ववेत्ता ( ८६) परम वैरागी ( ८६) परक्षमावान, (६०) परमसत्यधर्माद, (११) परमशुचि, (१२) परमत्यागी (६३) अद्भुत ब्रह्मचारी (६४) शुद्धोपयोगी (६५) निरालम्ब (६६) परमस्वतन्त्र (६७) निर्बेर, (८) निर्विकार (६६) मात्मदर्शी, (१००) महाऋषि इत्यादि ।
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इस तरह विचार करके उनके परमवीतराग स्वरूप में ही अपने मनको जोड़ देवे । बार बार देखकर उनमें प्रेमालु हो जावे । ऐसा विचारते विचारते वह द्वैतभाव से अद्वैत में काजावे अर्थात् अपने आत्मा को ही सर्वज्ञ व अरहंत मानने लग जाये जैसा कहा है
एष देवः स सर्वज्ञः सोहं तद्रूपतां गतः । तस्मात्स एव नान्यो विश्वदर्शीति मन्यते ॥ ४३ ॥
भावार्थ - जिस समय सर्वज्ञ स्वरूप अपने को देखता है उस समय ऐसा मानता है कि जो देव है वही मैं हूँ, जो सर्वश है वही मैं हूँ, जो आत्मस्वरूप में लगा है वही मैं हूँ, सर्वज्ञ देखने वाला जो कोई है वह मैं ही हूँ, मैं और कोई नहीं हूँ इस तरह में हो साक्षात् अरहन्त स्वरूप वीतराग परमात्मा हूँ ऐसी भावना करके उसी में स्थिर हो जावे। यह अरहंतके स्वरूपके द्वारा निज आत्मा का ध्यान है जिसको रूपस्य ध्यान कहते हैं। पण्डित जयचंदजी कहते हैं
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आत्मध्यान का उपाय [ ३२३ सोरठा-सर्व विपक्ष नार, योगा।
मन परा करि सत मान, ते पाय तिस मावकं ॥
(४) रूपातीत ध्यान इस ध्यान में सिद्धोंके गुणों को विचारता हुआ अपने आपको ही सिद्ध माने, पहले सिद्ध के स्वरूपको विचारे कि वह अमूर्तीक चैतन्य, पुरुषाकार, परम कृतकृत्य परमशांत, निष्कल, परम शुद्ध, आठ कर्म रहित, परम वीतराग, चिदानन्दरूप सम्यक्तादि आठ गुण सहित, परम निर्लेप, परम संतोषी, स्वरूपमग्न, स्फटिकमणिमयी निर्मल निरंजन, निर्विकार व लोकाग्र विराजमान हैं । फिर विचारते-२ अपने आत्माको ही सिद्धरूप मानकर ध्यावे कि मैं ही परमात्मा हूँ, सर्वश हूं, सिद्ध हूँ,कृतकृत्य हूँ, विश्वलोको हूँ, निरंजन हूँ, स्वभावस्थिर हूँ, परमानन्दभोगी हूँ, कमरहित हूँ, परमवीतरागी हूँ, परम शिव हूँ तथा परमब्रह्म हूं। इस तरह अपने स्वरूप में गुप्त हो जावें।
जहां एकदम सिद्ध परमात्माका ध्यान करते-२ व्रत से अद्वैत में रम जावे, मापको ही सिद्ध सम शुद्ध भावे व उसो में सन्मय हो जाये सो रूमातीत ध्यान है। जैसा पंडित जयचंदजी ने कहा हैदोहा-सिह निरंजन फर्म विन, मूरति रहित अनन्त ।
जो ध्याये परमात्मा, सो पावै शिव सन्त । इस तरह जो ध्यानका अभ्यास करना चाहे उसको निश्चल आसनसे होकरके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ या रूपातीत इनमें से चाहे जिस ध्यानको व्याने का अभ्यास करे। परन्तु एक ध्यान
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३२४ ]
आत्मध्यान का उपाय
जब अभ्यास से पूर्ण हो जावे तब दूसरे प्रकारके ध्यानका अभ्यास करे । ध्यानका प्रयोजन आत्मस्थ होना है । जिस तरह यह प्रयोजन सिद्ध हो उसी तरह ध्यानी को अभ्यास करना चाहिए। ध्यान ही से परमानन्द का लाभ होता है व कर्मों की निर्जरा होती है।
प्राणायाम की विधि
शरीरकी शुद्धि तथा मनको एकाग्र करने के लिए प्राणायाम का अभ्यास सहायक है। यद्यपि वह ऐसा जरूरी नहीं है कि इसके बिना आत्मध्यान न हो सके इसलिए जिसने किसी प्राणानामकेावा नहीं सीखा है वह भी ज्ञान व आत्म बलसे आत्मध्यान कर सकता है । उसका मन स्वयं ही ही बिना किसी आकुलता के रुक जाता है ।
जैसा ज्ञानार्णय में कहा है
संविग्नस्य प्रशांतस्य वीतरागस्य योगिनः । वशीकृतावर्गस्य प्राणायामो न शस्यते ॥८॥
भावार्थ - विरक्त, शांत, वीतरागी व जितेन्द्रिय योगों के लिए प्राणायाम की आवश्यकता नहीं है । कभी-कभी इससे कष्ट भी होता है। जैसा कहा है
प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यावातसंम्भवः । सेन प्रस्यान्यसे ननं ज्ञाततत्त्वोपि लक्षितः || ||
भावार्थ - प्राणायाम में प्राण या श्वासको रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा से कार्तध्यान होना सम्भव है इससे तत्वज्ञानी भी अपने शद्ध भावोंके लक्ष्यसे छूट जाता है ।
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तथापि सहकारी कारण किसीके होसकता है ऐसा जानकर यहाँ कुछ वर्णन ज्ञानार्णवजी के अनुसार किया जाता है । तीन प्रकार के प्राणयाम है । (१) पूरक (२) कुंभक, (३) बेचक १
आत्मध्यान का उपाय
(१) ताल के छेद से या बारह अंगुल पर्यंत से पवनको बींच कर अपने शरीर में भरना सो पूरक है ।
(२) उस खींचे हुए पवन को नाभिके स्थानपर रोके, नाभि से अन्य जगह न चलने दे । जैसे घड़े को भरते हैं वैसे भरे सो कुम्भक है ।
(३) उसी पवन को अपने कोठेसे धीरे-२ बाहर निकाले सो रेचक है ।
अभ्यास करनेवालेको पवनको भीतर लेकर थामनेका फिर धीरे-२ बाहर तालु के द्वारा ही निकालने का अभ्यास करना चाहिए जो अधिक देर तक थाम सकेगा यह मनको अधिक रोक सकेगा । नाक से काम लेकर तालु से हो खींचना व तालु से हो बाहर निकालना चाहिए। इसका अभ्यास खुली हुई स्वच्छ हवामें करना उचित है, तब शरीरको बहुत लाभ होता है । जैसे नाभि के कमल में पवनको रोका जाये वैसा हृदयकमल के वहां भी रोका जा सकता है ।
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प्राणयाम में चार मंडल पहचानने चाहिए - (१) पृथ्वीमंडल, (२) जलमंडल, (३) पवन मंडल, (४) अग्निमंडल
(१) पीले रंगका चौकोर पृथ्वीमंडल है । जब नाक के छेद को पवनसे भरके आठअंगुल बाहर तक पवन मंद-मंद निकलता रहे तब पृथ्त्रोमंडलको पहचानना चाहिए। यह पवन कुछ ऊष्ण होती है ।
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आत्मध्यान का उपाय
(२) आधे चन्द्रमा के समान सफेद वर्ण जलमंडल है। इस मंडल में पवन शीघ्न नीचे को तरफ ठळकको लिये ही १२ अंगुल बाहर तक बहता है।
(३) नीले रंग का गोल पवनमंडल है। इसमें पचन सब तरफ बहतो हुई ६ अगुल तक बाहर आवे। यह उष्ण व भीत दोनों तरह का हाती है।
(v) अग्नि के लिंग के रंग समान तीन कौन के आकार मग्निमंडल है। इसमें पवन ऊपर को जाता हुआ चार अंगुल तक बाहर आवे । यह सा होती है।
नाक के स्वर दो हैं, बाईं तरफके श्वास को चंद्र व दाहिनी तरफ के श्वांसको सूर्य कहते हैं । एकमास के शुक्लपक्ष की पड़वा (प्रतिपदा), दूज व तीज इन तीन दिन प्रातःकाल वामस्वर या चंद्रस्वर चलना शुभ है फिर तीन दिन प्रातःकास दाहिना फिर तीन दिन प्रातः काल बायां इस तरह १५ दिन तक बदलता रहता है।
कृष्णपक्षको प्रतिपदा, दूज या तीजको प्रातःकाल दाहिना या ख्यं स्वर चलना शुभ है। फिर तीन तीन दिन प्रातः काल स्वत्र बदलता रहे । यदि इससे विरुद्ध स्वर चलें तो अशुभ जानने चाहिए। तो भी एक स्वर नाककी बाईं तरफ का या दाहिनी तरफका बराबर २॥ घड़ी या एक घंटे तक चलता रहता है फिर वह दूसरे दाहिनी या बाईं तरफ का हो जाता है। किसी श्राचार्य ने २४ घंटे में १६ बार पवन का पलटना लिखा है।
ऊपर कहे हुए पृथ्वी आदि चार मंडलोंके पवनको पहचानने के लिए दूसरी रीति यह है कि अपने कानों को दोनों हाय .
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भारमध्यान का उपथि
बंगुठों से बन्द करे, तब ही आँखोंको अंगठे के पासळी अंगलियों से और नाकको मध्यमा अंगुलियोंसे व मुखको शेष दो अंगुलियों से बन्द कर मनके द्वारा देखे तो विन्दु दिखलाई पड़ेंगे, वे यदि पीलें दीखें तो पृथ्वीमण्डल समझना, यदि सफेद दीखें तो जल मण्डल समझना, यदि लाल दीखें तो अग्निमण्डल और जो काले दौखें तो पवनमण्डल समझना चाहिए । इन चार मण्डलों में से जब पृथ्वीमण्डल व जलमाल हो तब शुभकार्योको अर्थात् ध्यान स्वाध्याय स्वरसे निकलते हों तो कार्यको सिद्धि बताने वाले होते हैं 1 अग्नि व पवन मंडल दाहिनी तरफ से बहें तो अशुभ सूचक है अग्नि व वायुमंडल यदि बाई तरफ से बहें अथवा पृथ्वी व जल मंडल यदि दाहमे तरफसे बहें तो मध्यम फल के सूचक हैं।
माएं स्वरको हितकर व दाइने स्वरको यहितकर बताया है। जैसे
अमृतमिव सर्वगात्रं प्रीणिमति शरीरिणां ध्रुवं वामा। अपयति तदेव शश्वदहमाना दक्षिणा नारी ।।४४॥ पामा सुधामयो कोयाहिता शश्वच्छरोरिणाम् । संही दक्षिणा नामो समस्तानिष्टसूचिका ॥४३॥
भावार्थ-प्राणियोंके बौया स्वर चलताहआ अमतके समान सर्व शरीर को तृप्त करता है तथा दक्षिण स्वर चलता हुआ शरीरको क्षोण करनेवाला है, प्राणियों को बाया स्वर हितकारी है अमृतके समान है जब कि दाहिना स्वर अनिष्टका सूचक है । यदि किसी को स्वर बदलना हो तो जो स्वर चलता हो उधरके मंगको व स्वर को दाबे तो दूसरी तरफका स्वर चलने लगेगा।
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: स्वरों के द्वारा हूँ मंत्र ध्यानकी विधि नीचे प्रकार है इससे स्वर शुद्ध होता है। पहले नाभिके कमलके मध्य में हुँको चंद्रमा के समान चमकता हुआ विचारे। फिर उसीको विचारे कि दाहने स्वरसे बाहर निकाला और चमकता हुआ आकाश में ऊपर को चला गया फिर लोटा और बाएं स्वर से भीतर प्रवेश करके नाभिकमल में ठहर गया। इस तरह बराबर अभ्यास करके को घुमाकर नाभि कमल में ठहरना चाहिए ।
आत्मध्यान का उपाय
विशेष कथन श्री ज्ञानार्णंव में ग्रन्य देखकर जानना चाहिए । पूरक, कुम्भक, रेचक का अभ्यास खुली हवा में करने से शरोथ की शुद्धि रोकने का साधन है ही उपयोग समझकर किसी जानकार विद्वानकी मदद से प्राणयाम का अभ्यास करना चाहिए।
इस तरह ध्यान का कुछ स्वरूप मोक्षार्थी व आत्मानन्द के ध्यानसे जीवोंके हितार्थ लिखा गया है। इसे पढ़कर भव्यजीव अवश्य निरंतर ध्यान का अभ्यास करो । अभ्यास से अवश्य ध्यान की सिद्धि हो जाती है। यह तस्वभावना ग्रन्थ परम हितकारी है जो मनन करेंगे परम लाभ पायेंगे । इति ।
मिती आसोज वदो ५ गुरुवार वीर सं० २४५४ विक्रम सं० १९८५ ता० ४ अक्टूबर १९२० । ० सीतल ।
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आत्म ध्यान का उपाय
॥ ॐ ॥
श्री अमितगतिसूरिविरचित - सम्तविक पाठ
( हिन्दी छंदानुवाद सहित )
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सत्त्येषु मैत्रों गुणिषु प्रमोई
क्लिष्टेषु जोवेषु कृपापरत्वम | माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ
सदा ममात्मा विवधातु देव ॥ १॥ हे जिनेन्द्र ! सब जोवनसे हो मैत्री भाव हमारे । दुःख दर्द पीड़ित प्राणिन पर करूँ दया हर वारे ॥ गुणधारी सत्पुरुषन पर हो हर्षित मन अधिकारे । नहीं प्रेम नहि द्वेष वहाँ विपरीत भाव जो धारे ॥ १ ॥ शरीरतः कर्तुमनसशर्षित
विभिन्नमात्मानमपात्तदोषम् ।
जिनेन्द्र कोषादिव खड्गयष्ट,
तय प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ||२५|| है जिनेन्द्र ! अब भिन्न करनको इस शरीर से आतम । जो अनन्त शक्तीवर सुखमय दोषरहित ज्ञानातम || शक्ति प्रगट हो मेरेमें अब तब प्रसाद परमातम जैसे खड्ग म्यानसे काढत अलग होत तिमि आतम ||२|| दुःख सुखे वैरिणि वन्धुवर्गे
योगे वियोगे सबने धने वा !
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आत्मध्यान का उपाय
निराकृताशेषममत्वमुझे
समं मनो मेस्तु सवापि माप ॥३॥ दुःख सुखोंमें, शत्रु मित्रमें, हो समान मन मेरा। चन मंदिर में लाभ हानिमें हो समता का रा॥ सर्व जगतके थावर जंगम चेतन जड़ उलझेरा। तिनमें ममत करूँ नहिं कबहूँ छोड़, मेरा तेरा ॥३॥ मुनीश ! लोनाविव कोलिताविव
स्पिरी निषासाविव विम्बितादिव। पायो स्ववीयो मम सिष्ठता सवा
तमोघुनानी हदि दोपकाविव ॥४॥ हे मुनीश ! तब ज्ञानमयी चरणोंको हिय में ध्याऊँ। लीन रहें वे कोलित होयें, थिर उनको बिठलाऊँ। छाया उनकी रहे सदा सब औगुण नष्ट कराऊँ। मोह अंधेरा दूर करनको रत्नदीप सम भाऊ ॥४॥ एकेन्द्रिमाया यदि देव देहिनः,
प्रमावतः संचरता इतस्ततः । मता विमिन्ना मिलिसा निपीडिता,
तवस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ एकेन्द्रो दोइन्द्री आदिक, पंचेन्द्रो पर्यंता । प्राणिनको प्रमादवश होके इत उत में विचरंता ।। नाश छिन्न दुःखित कोने हो भेले कर कर अन्ता। सो सब दुराचार कृत कल्मष दूर होहु भगवन्तः ॥५॥
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आरमध्यान का उपश्य
विमुक्तिमार्गप्रतिकूलयतिमा
मया कषायाक्षवशेन बुधिया ।
चारित्रशुद्ध वकारि लोचनं
तवस्तु मिथ्या मम वुष्कृतं प्रभो ॥६॥
पत्नत्रय मय मोक्षमार्ग से उलटा चलकर मैंने I
तज विवेक इन्द्रियवश होके अर कषाय आधीने ॥
सम्यक् व्रत चारित्र शुद्धि का किया लोप हो मैं । यो सब दुष्कृत पाप दूर हों शुद्ध किया मन मैंने ॥ ६ ॥
बिनिम्बनालोचमाण रहे,
मनोदचः कायकषायनिर्मितम् ।
निहन्मि पापं भवदुःखकारण
[ २३१
भिषग्विषं मम्यगुणैरिवाखिलम् ॥७॥
मन वच काय कषायनके वश जो कुछ पाप किया है । है संसार दुःख का कारण ऐसा जान लिया है ॥ निन्दा गर्दा आलोचन से ताको दूर किया है । चतुर वंद्य जिम मंत्र गुणों से विष संहार किया है ॥७॥
अतिक्रमं यद्विमतेयंतिक्रमं
जिनातिचारं सुचरित्रकम्मंणः ।
bearerrarरमपि प्रमादतः
प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥ ८३॥
मतिभृष्ट हो हे जिन ! मैंने जो अतिक्रम करडाला । 'सुलाचार कर्मों में व्यतिक्रम अतीचार भी डाला ॥
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३३२ 1
आत्मध्यान का उपाय
हो प्रमाद आधीन कदाचित् अनाचार कर डाला। शुद्ध करणको इन दोषोंके प्रतिक्रम कभं सम्हाला ।।८। क्षति मनःशुद्विविधरतिक्रम
व्यतिक्रमं शोलतेविलंघनम् । गोभिनारं विष पनि
वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥६॥ मन विशुद्धिमें हानि करे जो वह विकार अतिक्रम है । गोल स्वभाव सलंघनको मति सो जाना व्यतिक्रम है ।। विषयों में वर्तन हो जाना अतीचार नहिं कम है। स्वच्छंदी बनकर प्रवृत्ति सब अनाचार इकदम है ॥४॥ पवर्थमावापदबाक्यहीनं
मया प्रमावाद्यपि फिधिनोक्तम् । तन्मे शामिस्वा विवधातु देवो
सरस्वती केवलबोधलग्धिम् ॥१०॥ मात्रा पद अस वाक्यहीन या अर्थहीन वचनोंको। कर प्रमाद बोला हो मैंने दोष सहित वचनोंको ।। क्षम्य ! क्षम्य ! जिनवाणि सरस्वति ! शोधो मम वचनोंको। कृपा करो हे मात ! दोजिए पूर्ण ज्ञान रतनों को ॥१०॥ वोधिः समाधिः परिणामशुधिः,
___ स्वात्मोपलम्निः शिवसौख्यसिविः। चिन्तामणि चिन्तितवस्तुबाने
स्वा वंद्यमानस्य ममास्तु वेपि ॥११॥
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| ३३३
बार बार बन्दूं जिन माता ! तू जीवन सुखदाई | मन चिन्तित वस्तुको देवे चिन्तामणि सम भाई ॥ रत्नत्रय अर ज्ञान समाधी शुद्धभाव इकताई । स्वात्मलाभ अर मोक्ष सुखोंकी सिद्धी दे जिनमाई ॥ ११ ॥ यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रपंः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः ।
यो गीयते देवपुराणशास्त्रः,
बारमध्यान का उपाय
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।।१२।। सर्व साधु यति ऋषि और अनगार जिन्हें सुमरे हैं । चक्राधर अर इन्द्र देवगण जिनकी श्रुती करे हैं ॥ वेद पुराण शास्त्र पाठों में जिनका गान करे हैं । परमदेव मम हृदय विराजो तुझ में भाव भरे हैं ॥१२॥
.
यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव:,
समस्त संसारविकारबाह्यः ।
समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः,
स वेवेवो हृदये समास्ताम् ॥१३॥ सबको देखन जानन वाला सुख स्वभाव सुखकारी | सब विकारि भावों से बाहर जिनमें है संसारी ॥ ध्यान द्वारा अनुभव में आवे परमातम शुचिकारी । परमदेव मम हृदय विराजो भाव तुझी में भारी ॥ १३ ॥
निषदते यो भवदुःखजालं,
निरीक्षते यो जगवन्तरानं ।
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आत्मध्यान का उपाय
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः,
स देवदेवो हरये ममास्ताम् ॥१४॥ सकल दुःख संसारजाल के जिसने दूर किये हैं। लोकालोक पदारथ सारे युगपत् देख लिए हैं ।। जो मम भीतर राजत है मुनियों ने जान लिए हैं। परमदेव मम हृदय विराजो सम रस पान किये हैं ॥१४॥ विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो,
यो जन्ममयुष्यसनाद्व्यतीतः। विलोकलोको विकलोकल
सवेक्वेवो हृदये ममास्ताम् ।।१॥ मोक्ष मार्ग क्यरत्नमयी जिसका प्रगटावनहारा । जनम मरण बादि दुःखोंसे सब दोषोंसे न्यारा॥ नहिं शरीर नहिं कलङ्क कोई लोकालोक निहारा। परमदेव मम हृदय विराजो तुम बिन नहिं निस्तारा ॥१५ कोड़ीकृताशेषशरीरिवर्गाः,
___ रागावयो यस्य न सन्सि बोषाः। निरिडियो ज्ञानमयोऽनपायः,
सवेवदेवो हरये ममास्ताम् ॥१६॥ जिनको संसारी जीवोंने अपना कर माना है। राग द्वेष मोहादिक जिसके दोष नहीं जाना है ।। इन्द्रिय रहित सदा अविनाशी ज्ञानमयी बाना है। परमदेव मम हियमें तिष्ठो करता कल्यामा है ॥१॥
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भारमध्यान का उपाय
[ ३३५
यो व्यापको विश्वजनोनवृत्तः
सिकासि नकर्मय ध्यातो धुनीते सकलं विकारं,
स वेववेयो हृदये ममास्ताम् ॥१७॥ जिसका निर्मल ज्ञान जगत में है व्यापक सुखदाई। सिद्ध बुद्ध सब कर्म बंध से रहित परम जिनराई ॥ जिसका ध्यान किये क्षण क्षण में सब विकार मिट जाई। परमदेव मम हिय में तिष्ठो यही भावना भाई ॥१७॥ न स्पृश्यते कर्मकल डूदोष
यो ध्वान्तसंघरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनं नित्यमनेकमेक
तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१॥ कर्म मैलके दोष सकल नहिं जिसे पर्श पाते हैं। जैसे सूरज की किरणों से तम समूह जाते हैं। नित्य निरंजन एक बनेकी इम मुनि गण घ्याते हैं। उसी देव को अपना लखकर हम शरणा आते हैं ॥१८॥ विभासते यत्र मरोधिमालि,
नविद्यमाने भवनावभाति । स्वारमस्थितं बोधमयप्रकाश
तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१९॥ जिसमें तापकरण सूरज नहि ज्ञानमयो जगभासी । बोध भानु सुख शांति सुकारक शोभ रहा सुविफासी ॥
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३३६ ]
आत्मध्यान का उपाय अपने आलम में सिष्ठे है रहित सकल मल पासी। उसो देवको अपना लखकर शरणा लो भवत्रासी ॥१६ विलोक्यमाने सति यन्त्र विश्वं,
विलोक्यते स्पष्टमिव विविक्तम् । शवं शिवं शान्तमनायनन्त,
तं देवमाप्तं शरणं प्रपो॥२०॥ जिसमें देखत ज्ञान दर्श से सकल जगत प्रतिभा से । भिन्न भिन्न षटद्रव्यमयी गुण पर्ययमय समता से॥ शुद्ध शांत शिवरूप अनादो जिन अनंत फटिकासे। उसी देवको अपना लखकर शरणा ली सुख भासे ॥२०॥ पेन आता मन्मपमानमूर्धा,
विषावनिद्रामयसोविता । भयोऽनलेनेव तत्प्रपन्च--
स्तं शेवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२१॥ जिसने नाश किये मन्मथ अभिमान परिग्रह भारी। मन विषाद निद्रा भय चिता रती शोक दुःखकारी ।। जैसे वृक्ष समूह जलावत बन अग्नी भयकारी। उसी देव को अपना लखकर शरणा लो सुखकारी ॥२॥ न संसारोऽश्मा न तणं न मेदिनी
विधानतो नो फलको विनिर्मितः यतो निरस्तानकषायविद्विषः
. सुधीभिरात्मक सुनिर्मलो मतः॥२२॥
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आत्मध्यान का उपाय
है व्यवहार विधान शिला पृथ्वी तृण का संथारा। निश्चयसे नहिं आसन हैं ये इनमें नहि कुछ सारा ॥ इन्द्रिय विषय देषसे विरहित आतम' प्यारा। शानी जीवों ने गुण लखकर आसन उसे विचारा ॥२२ न संस्तरो भनसमाधिसाधनं,
न लोकपूजा न व संघमेलनम् । यतस्तोऽध्यात्मरतो मवानिशं,
विमुख्य समिपि बाबासमाम् ॥२३॥ नहि संथारा कारण हेगा निज समाधि का भाई । नहिं लोगों से पूजा पाना संघ मेल सुखदाई ।। रात दिवस निज आतम में तू लीन रहो गुणगाई। छोड़ सफल भव रूप वासना निज में कर इकताई ॥२३॥ म सन्ति बाह्या मम केवनार्या,
भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्य बिनिश्चित्य विमुच्य बाहा,
स्वस्थः सदा एवं भव भन्न मुक्त्यै ॥२४॥ मम आतम बिन सफल पदारथ नहि मेरे होते हैं। में भी उनका नहिं होता हूं नहिं वे सुम्न बोते हैं ।। ऐसा निश्चल जान छोड़ के बाहर निज टोते हैं। उन सम हम नित स्वस्थ रहें लें मुक्ति कर्म खोते हैं ॥२४॥ ____आत्मानमात्मान्यवलोक्यमान
स्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः।
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i
३३८ ]
आत्मध्यान का उपाय
एका प्रचितः खलु यत्र तत्र,
स्थितोपि साधुर्लभते समाधिम् ॥२५॥
निज आतमने आतम देखी है मम परम सुहाई । दर्शन ज्ञानमयी अविनाशी परम शुद्ध सुखदाई ॥ चाहे जिस ठिकाने पर हो हो एकाग्र सुहाई । जो साधू आपे में रहते सच समाधि उन पाई ||२५|| एक: सवा शाश्वति को ममात्मा
विनिर्मलः साधिगमस्वभावः ।
बहिर्भवाः सत्यपरे समस्ता
न शाश्वततः कर्मभवाः स्वकीयाः ||२६||
मेरा आतम एक सदा अविनाशी गुण सागर है । निर्मल केवल ज्ञानमयी सुख पूरण अमृतधर है ॥
और सकल जो मुझसे बाहर देहादिक सब पर है । नहीं नित्य निज कर्म उदयसे बना यह नाटक घर है ॥२६॥
यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्धं
तस्यास्ति कि पूत्रफलवमित्रः ।
प्रथक्कृते चमंणि रोमकूपाः
कुतो हि तिष्ठन्ति शरोरमध्ये ॥१२७॥
जिसका कुछ भी ऐक्य नहीं है इस शरीर से भाई । सब फिर उसके केसे होंगे नारी बेटा भाई || मित्र शत्र नहि कोई उसका नहि संग साथी दाई । तनसे चमड़ा दूर करे नहि रोम छिद्र दिखपाई ॥२७॥
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आरमध्यान का उपाय
दुवं. यतोऽश्नुते जन्मवने शरोरो ।
ततस्त्रिधासौ परिवर्तनीयो,
यियासुना निर्वृतिमात्मनोनाम् ॥२८॥
परके संयोगों में पड़ तनधारी बहु दुख पाया । इस संसार महावन भोतर कष्ट भोग अकुलाया । मन वच काया से निश्चयकर सबसे मोह छुड़ाया। अपने आतमको मुक्तो ने मन में चाव बढ़ाया ॥२८॥ सर्व निराकृत्य विकल्पजालं संसारकान्तारनिपातहेतुम् ।
विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो
[ ३३८
निलोयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२६॥
इस संसार महावन भीतर पटकन के जो कारण । सर्व विकल्प जाल रागादिक छोड़ो शर्म निवारण || रे मन ! मेरे देख आत्मको भिन्न परम सुखकारण । - लीन होहु परमातम माहीं जो भव ताप निवारण ॥२६॥
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा
फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं
स्वयं कृतं कर्म निश्यक तवा ||३०||
पूर्व कालमें कर्मबन्ध जैसा आतमने कीना । वैसा ही सुख दुख फल पावे होवे मरना जीना ॥ परका दिया अगर सुख दुख पावे यह बात सही ना । अपना किया निरर्थक होवे सो होवे कबहूँ ना ॥३०॥
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३४०]
आत्मध्यान का उपाय
निजाजितं कर्म विहाय वेहिमो,
न कोपि कस्यापि ववाति किंचन । विचारयन्नेवममग्यमानसः
परो बदातोति विमध्य शेमुषीम् ॥३१॥ अपने ही बांधे कर्मोके फलको जिव पाते हैं। कोई किसीको देता नाहीं ऋषिगण इम गाते हैं । कर विचार ऐसा दढ़ मनसे जो आतम ध्याते हैं। पर देता सुख दुख यह बुद्धी नहि चित में लाते हैं ॥३१॥ यः परमात्मामितगतिवन्यः
सर्वविविक्तो भशमनवधः । शश्ववधीतो मनसि लभन्ते
मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥३२॥ जो परमातम सर्व दोषसे रहित भिन्न सबसे है। अमितगती आचारज बदे मनमें ध्यान करे है । जो कोई नित ध्यावे मनमें अनुभव सार करे है। श्रेष्ठ मोक्षलक्ष्मी को पाता मानन्द झान भरे है ॥३२॥
पति द्वत्रिशतिवत्तः, परमात्मानमोक्षते।
पोऽनग्यगतचेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम् ॥३३॥ इन बसोस पदसे भविजन परमातम ध्याते हैं। मनको कर एकाग्र स्वात्म में अव्यय पद पाते हैं । सुखसागर बर्द्धन के कारण सत अनुभव लाते हैं। "सीतल" सामायिकको पाकर भवदधि तर जाते है ॥३३॥
(समाप्तोऽयं सामायिक पाठः)
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आश्मध्यान का उपाय
श्री अमितगति सूरि विरचित सामायिक पाठ
!
परमात्म द्वात्रिंशतिका
{ हिन्दी पद्यानुवाद - श्री रामचरित उपाध्याय) -चित देव, मेरी आत्मा धारणा करे इस नेम को, मंत्री करे सब प्राणियों से गुखों जनों से प्रेम को । उन पर दया करतो रहे, जो दुख ग्राह-ग्रहीत हैं, उनसे उदासी सी रहे जो धर्म से विपरीत हैं ॥१॥ करके कृपा कुछ शक्ति ऐसो दीजिए मुझ में प्रभो ! तलवार को क्यों म्यान से करते विलग हैं हे विमो !! गतवोष श्रात्मा शक्तिशाली है मिली मम अंग से, उसको विलग उस भाँति करनेके लिए ऋजु ढंग से ॥१२॥ नाथ ! मेरे चित्त में समता सदा भरपूर हो, सम्पूर्ण ममता की कुमति मेरे हृदय से दूर हो । वनमें, भवनमें, दुख में, सुख में नहीं कुछ भेद हो, अरि-मित्रमें मिलने बिछड़ने में न हर्ष न खेद हो ॥३॥ अतिशय घनी तम राशिको दीपक हटाते हैं यथा, दोनों कमल-पद श्रापके प्रज्ञान-तम हरते तथा ।
३४१
-
प्रतिबिम्ब सम स्थिर रूप वे मेरे हृदय में लीन हों,
मुनिनाथ | कोलित-तुल्य वे उरपर सदा प्रासीम हों ॥४॥
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३४२
आत्मध्यान का उपाय
यदि एक-इन्द्रिय प्रादि देही घूमते फिरते मही, जिनदेव ! मेरी भूल से पोड़ित हुए होवे कहीं। टुकड़े हुए हों, मल गये हों, चोट खाये हों कमी, तो नाथ ! वे दुष्टाचरण मेरे बनें झूठे सभी ॥५॥ सन्मुक्ति के मार्ग से प्रतिफल पथ मैंने लिया. पञ्चेन्द्रियों चारों कषायों में स्वमन मैंने किया। इस हेतु शुद्ध चरित्र का जो लोप मुझसे हो गया, दुष्कर्म वह मिथ्यात्वको हो प्राप्त प्रभु ! करिए क्या ॥६॥ चारों कषायों से, वचन, मन, काय से जो पाप हैमुझसे हुमा, हे नाथ ! वह कारण हुआ भव ताप है । अब मारता हूं मैं उसे आलोचना-निन्दादि से, ज्यों सकल विष को वैद्यवर है मारता मन्त्रादि से ॥७॥ जिनदेव ! शुद्ध धारित्र का मुझसे अतिक्रम जो हुमा, प्रज्ञान और प्रभाव से व्रत का व्यतिक्रम जो हुमा । अतिचार और अनाचरण जो जो हुए मुझसे प्रभो ! सबकी मलिनता मेटने को प्रतिक्रम करता विभो !uth मन की विमलता नष्ट होने को अतिक्रम है कहा, प्रौ शीलचर्या के बिलंघन को व्यतिक्रम है कहा । हे नाथ ! विषयों में लपटने को कहा अतिचार है, पासपत अतिशय विषय में रहना महानाचार है ॥६॥ यदि अर्थ, मात्रा वाक्यमें परमें पड़ी त्रुटि हो कहीं,
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Un
[ ३४३
तो भूलसे ही वह हुई, मैंने उसे जाना नहीं । जिनदेव वारणी । तो क्षमा उसको तुरत कर बीजिए, मेरे हृदय में देवि ! केवलज्ञान को भर दीजिए ॥१०॥ हे देवि ! तेरी वन्दना मैं कर रहा हूं इसलिए, चिन्तामणि- प्रभु है सभी वरदान देने के लिए । परिणाम-शुद्धि समाधि मुझमें बोधिका संचार हो,
प्राप्ति स्थात्माकी तथा शिवसौख्यकी, भवपारहो । ११ मुनिनायकों के वृत्व जिसको स्मरण करते हैं सदा, जिसका सभी नर अमरपति भी स्तवन करते हैं सदा । सच्छास्त्र वेद-पुराण जिसको सर्वदा हैं गा रहे, वह देव का भी देव बस मेरे हृदय में श्रा रहे ॥ १२॥ जो प्रन्तरहित सुबोध-दर्शन और सौख्य स्वरूप है, जो सब विकारों से रहित, जिससे अलग भवकूप है । मिलता बिना न समाधि जो, परमात्म जिसका नामहै, देवेश वह उर श्री बसे मेरा खुला हृद्धाम है ॥ ॥ १३ ॥ जो काट देता है जगत के दुःख निर्मित जाल फो, जो देख लेता है जगत की भीतरी भी चाल को, योगी जिसे है देख सकते, अन्तरात्मा जो स्वयम्, देवेश ! यह मेरे हृदय पुर का निवासी हो स्वयम् ॥ १४ ॥ कैवल्य के सन्मार्ग को दिखला रहा है जो हमें, जो जन्म के या मरण के पड़ता न दुख- सन्दोह में ।
अत्मिध्यान का उपाय
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३४४ ]
आत्मध्यान का उपाय
प्रशन होलोग दी दूर है कुकलंक से, देवेश वह पाकर लगे मेरे हृदय के अङ्गु से ॥१५॥ अपना लिया है निखिल तनुधारी-निबहने ही जिसे, रागादि दोष-व्यूह भी छु तक नहीं सकता जिसे । जो ज्ञानमय है, नित्य हैं, सर्वेन्द्रियों से हीन है, जिनदेव देवेश्वर वही मेरे हृदय में लीन है ॥१६॥ संसार की सब वस्तुओं में ज्ञान जिसका व्याप्त है, जो कर्म-बन्धन हीन, बुद्ध विशुद्ध सिद्धी प्राप्त है। जो ध्यान करने से मिटा देता सकल कुविकार को, देवेश वह शोभित करे मेरे हृदय-प्रागार को ॥१७॥ सम-संघ जैसे सूर्य-किरणों को न छू सकता कहीं, उस भांति कर्म-कलंक दोषाकर जिसे छूता नहीं। जो है निरंजन वस्त्वपेक्षा, नित्य भी है, एक है, उस प्राप्त प्रभु को शरणमें हं प्राप्त जोकि अनेक है ।।१६ यह विवसनायक लोक का जिसमें कभी रहता नहीं, त्रैलोक्य-भाषक-ज्ञान-रवि पर है वहाँ रहता सही। जो देव स्वात्मा में सदा स्थिर-रूपता को प्राप्त है। मैं हैं उसी की शरण में, जो देववर है, प्राप्त है ॥१९॥ अवलोकने पर ज्ञान में जिसके सकल संसार हीहै स्पष्ट दिखता, एक से है दूसरा मिलकर नहीं। जो शुद्ध शिव है, शांत भी है, नित्यता को प्राप्त है
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आरमध्यान का उपाय
[३४५
उसकी शरण को प्राप्त हूं, जो देववर है प्राप्त है ॥२०॥ वृक्षावली जैसे अनत्व की लपट से रहतो नहीं, त्यों शोक मन्मथ, मानको रहने दिया जिसने नहीं। मय, मोह, नींद, विषाद, चिन्ता भी न जिसको व्याप्तहै उसको कारण में गिरा, जो देनवर है प्राप्त है॥२१॥ विधिवत शुभासन घासका या भूमिका बनता नहीं, चौकी, शिला को ही सुभासन मानती बुधता नहीं। जिससे कषाय-इन्द्रियां खटपट मचाती हैं नहीं, प्रासन सुधी जन के लिए है प्रातमा निर्मल वही ॥२२॥ है भद्र ! प्रासन, लोक पूजा, संघको संगति तथा, ये सब समाधी के न साधन, वास्तविक में है प्रथा । सम्पूर्ण बाहर-वासना को इसलिए तू छोड़ दे, अध्यात्म में तु हर घड़ी होकर निरत रति जोड़ दे ।।२३ जो बाहरी हैं वस्तुएं, वे हैं नहीं मेरी कहीं, उस भांति हो सकता कहीं उनका कभी मैं भी नहीं। यों समझ बाह्याउम्बरों को छोड़ निश्चित रूप से, हे भद्र ! हो जा स्वस्थ तू बच जायगा भवकूप से ॥२४॥ निज को निजात्मा-मध्य में ही सम्यगवलोकन करे, तु वर्शन-प्रज्ञानमय है, शुद्ध से भी है परे । एकाग्र जिसका चित्त है, त सत्य इसको मानना, चाहे कहीं भी हों, समाधी प्राप्त उसको जानना ॥२५॥
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२४६ ]
मेरी अकेली श्रात्मा परिवर्तनों से होन है, अतिशय विनिर्मल है सदा सद्ज्ञान में ही लीन है । जो अन्य सब हैं वस्तुएं वे ऊपरी ही हैं सभी, मिज़ कर्म से उत्पन्न हैं श्रविनाशिता क्यों हो कभी ॥ २६ ॥ है एकता जब बेह के भी साथ में जिसकी नहीं, पुत्रादिकों के साथ उसका ऐक्य फिर क्यों हो कहीं । जब अंग भर से मनुन के चमड़ा अलग हो जाएगा, तो रोंगटों का छिद्रगण कैसे नहीं खो जायगा ॥ २७ ॥ संसाररूपी गहन में है जीव बहु दुख भोगता, वह बाहरी सब वस्तुनों के साथ कर संयोगता । यदि मुक्तिकी है चाह तो फिर जोवगरण ! सुन लीजिए, मनसे, वचनसे- कायसे उसको अलग कर दीजिए ॥ २८ ॥ देही ! विकल्पित जाल को तू दूर कर दे शीघ्र ही, संसार-वन में डालने का मुख्य कारसा है यही । तू सर्वदा सबसे अलग निज श्रात्मा को देखना, परमात्मा के तत्व में तू लोन निज को लेखना ||२६|| पहले समय में आत्मा ने कर्म हैं जैसे किए, वैसे शुभाशुभ फल यहाँ पर इस समय उसने लिए । यदि दूसरे के कर्मका फल जीव को हो जाय तो, हे जीवगरग ! फिर सफलता निज कर्मको खोजाय तो ।३० अपने उपार्जित कर्म-फलको जीव पाते हैं सभी,
आत्मध्यान का उपाय
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I
आत्म ध्यान का उपाय
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उसके सिवा कोई किसी को कुछ नहीं देता कभी । ऐसा समझना चाहिये एकाग्र मन होकर सदा, 'बाता पर है भोगका' इस बुद्धिको खोकर सदा ॥३१॥ सबसे अलग परमात्मा है अमितगति से बन्ध है,
जीवगण ! वह सर्वदा सब भाँति ही अनवद्य है । मनसे उसी परमात्मा को ध्यान में जो लायेगा, वह श्रेष्ठ लक्ष्मी के निकेतन मुक्ति पद को पायेगा ॥ ३२ पढ़कर इन द्वात्रिंश पद्य को,
लखता जो परमात्मवन्द्य फो ।
वह अनन्यमन हो जाता है,
मोक्षं निकेतन को पाता है ||३३||
आलोचना पाठ दोहा
बंदों पाँचो परम गुरु, चौबीसों जिनराज । करूं शुद्ध प्रालोचना, शुद्धि करन के काज ॥ १४ सखी छन्द
सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये प्रति भारी । तिनको प्रब निवृत्ति काजा, तुम सरन लहो जिनराज ॥२ इक वे ते च इंद्री वा, मन रहित सहित जे जीवा । तिनकी नहिं करुणा धारी, निरवह हूं घात विचारी ॥३
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३४८ ]
आत्मध्यान का उपाय
समरंभ समारंभ प्रारंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ । कृतकारित मोबन करिक, क्रोधादि चतुष्टय धरिकै॥४॥ शत पाठ जु इमि भेवन तें, अघ कीने परिछेदन तें। तिनको कहुं कोलों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी ॥५॥ विपरीत एकांत विनय के के, संशय प्रज्ञान कुनय के । वश होय घोर अघ कीने, बचतं नहि जाय कहीने ॥६॥ कुगुरुनकी सेवा कोनी, केवल अदया करि भोनी। या विधि मिश्यात भ्रमायो, चहंगति मधि दोष उपायो।७ हिसा पनि अठ जु चोरी, पर वनिता सों दग जोरी। प्रारंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥६॥ सपरस रसना प्रानन को, चखे कान विषय सेवनको। बहू करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय नजाने ॥६ फल पंत्र उदबर खाये, मधु मांस मद्य चित चाये । नहिं अष्ट मूलगुण धारे, सेये कुविसन दुखकारे ॥१०॥ दुइबीस प्रभख जिन गाये, सो भी निश-दिन भुंजाये। कछु भेदाभेद न पातो, ज्यों त्यों करिउदर भरायो ।।११ अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो । संग्वलन चौकड़ी गुनिये, सब मेद जु षोडश मुनिये ॥१२ परिहास प्ररति रति शोग, भय ग्लानि तिवेव संयोग । पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ॥१३ निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।
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आत्मध्यान का उपाय
[ ३४६
फिरजागि विषय बनधायो, नानाविध विषफलखायो।१४
आहार विहार नीहारा, इनमें नहि जतन विचारा । बिन देखी धरी उठाई, बिन शोधी वस्तु जु खाई ॥१५ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो । कछ सुधि बुधि नाहि रही है, मिथ्यामति छायगई है ।।१६ मरजादा तुम हिंग लीनो, ताहू में दोष जु कोलो। मिन-२ अब कसे कहिए, तुम ज्ञान विर्षे सब पइये ॥१७ हा हा ! मैं दुठ अपराधी, अस जीवन-राशि विराधो। थावरकोज तन न कोनी, उर में करुणा नहि लोनी ॥१८ पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई । पुनि बिन गाल्यो जलढोल्यो, पंखातपवन बिलोक्ष्यो॥१९ हा हा ! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी। तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि पानंदा ॥२०॥ हा हा ! परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई। तामध्य जीव जे पाये, ते हू परलोक सिधाये ॥२१॥ बोध्यो अन राति पिसायो, ईधन बिन सोधि जलायो। झाड़ ले जागां बुहारी, चोंटीप्राविक जीव बिदारी ॥२२ जल छानि जिवानी कोनी, सो हू पुनि डारि जु दीनी। नहिं जल-थानक पहुंचाई, किरिया दिन पाप उपाई ॥२३ जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि-कुल बहुघात करायो। नवियन बिच चोर धुवाये, कोसन के जीव मराये ॥२४
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३५० ]
अन्नाविक शोध कराई, तातें जु जीव निसराई । तिनका नहिजलन कराया, गरियाल धूप डराया ॥२५ पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु प्रारंभ हिंसा सार्ज । किये तिसावश प्रभारी, करुणानहि रंचविचारों |२६ इत्यादिक पाप अनंता, हम कोने श्री भगवंता । संतति चिरकाल उपाई, वाणी से कहिय न जाई ॥ २७ ताको जु उदय अब श्रायो, नाना विध मोहि सतायो । फल भुंजत जिय दुख पावे, वचते कैसें करि गावै ॥२८ तुम जानत केवल जातो, दुख दूर करो शिवथानो । हम तो तुमशरण नही है, जिन तारन विरदसही है । २8 इक गाँवपती जो होथे, सो भो दुखिया दुख खोये । तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी ॥३० द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता-प्रति कमल रचायो । अंजन से किये प्रकामी दुख मेटो अंतरजामी ॥३१॥ मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपना विश्व सम्हारो । सब दोष रहित कर स्वामी, दुख मेटहु प्रन्तरजामी ॥३२ इंद्रादिक पदवी नह चाहूँ, विषयनि में नाहि लुभाकं । रागादिक दोष हरीओ, परमातम निज पद बीजे ॥३३॥ वोहा- वोष रहित जिनदेवजी, निज-पव वीज्यो मोय ।
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सब जीवन के सुख बढ़ें आनंद मंगल होय ॥ अनुभव मासिक पारखी, जौहरि प्राप जिनन्द | येही वर मोहि बीजिए, चरण शरण मानन्व ॥
आत्मध्यान का उपाय
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आत्मध्यान का उपाय
[३५१
सामायिक पाठ भाषा
१. प्रतिक्रमण फर्म काल अनंत भ्रम्यो जग में सहिये दुख भारी। जन्म मरण नित किये पाग को ठहै अधिकारी ।। कोटि भातर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक' । धन्य प्राज मैं भयो योग मिलियो सुख वायक ॥१॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब । ते सब मन-वच-काय-योग की गुप्ति विना लभ ॥ पान समीप हजूर माहि मैं खड़ो खड़ो सब । दोष कहूं सो सुनो करो नठ दुःख देहि अब ॥२॥ क्रोधमानमवलोभ मोह मायावशि प्रानी। दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहिं पानी ।। बिना प्रयोजन एकद्रिय वि ति चउ पंचेद्रिय । प्राप प्रसादहि मिदै दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥३॥ आपस में इकठौर थापिकरि जे दुख वोने । पेलि दिये पगतलें बाबिकरि प्रान हरीने ॥ श्राप जगत के जीव जिते तिन सब के नायक । अरज करू मैं सुनो दोष मेटो दुखदायक ॥४॥
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१. पहले लगे हुए दोषों से निवृत्त होना-पीछे हटना। २. रागद्वेष रहित होकर समभाव रूप आत्मस्वभाव में रहना ।
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... ३५२ ]
मात्मध्यान का उपाय
अंजन प्रादिक चोर महा घनचोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किया । मेरे जे प्रब दोष मये ते क्षमहु दयानिषि । यह पडिकोड़ो कियो आदि षट्कर्म माहि विधि ॥५॥
२. वित्तीय प्रत्याख्यान कर्म इसके आदि व अन्त में आलोचना पाठ वोलकर फिर तीसरे सामायिक कर्म का पाठ चाहिए।
जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे। तिन को जो अपराध भयो मेरे अघ रे ।। सो सब झूठो होउ जगतपति के परसादै । जा प्रसावतें मिले सुख दुःख न लाये ॥६॥ मैं पापी निर्लज्ज दया करि होन महाशठ । किए पाप अघ र पापमति होय चित्त दुठ॥ निहं मैं बार बार निज जिय को गरहूं। सबविधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूं ॥७॥ दुर्लभ है नर जन्म तथा श्रावक कुल भारी । सत संगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ।। जिन बचनामृत धार समावत जिन वानी । तोह जीव संघारे धिक धिक धिक हम जानी ॥६॥ इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिमि कर तिसि विधि हिंसक व्है अब ।। गमनागमन करतो जीव विराधे मोले ।
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[ ३५३
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ते सब दोष किये निदूं अब मन वच तोले ॥६॥ श्रालोचन विधि को दोष लागे जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुम तें जिन मेरे ॥ बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता । ईर्षादिक तँ मये निदि ये जे भयभीता ॥ १० ॥ ३. तृतीय सामायिक भाव कर्म
सब जीवन में मेरे समता भाव जभ्यां है । सब जिय मो सम समता राख्यो भाव लग्यो है ॥ प्रातं रौद्र द्वय ध्यान छाँड़ि करिहूं सामायिक । संजय मो कब शुद्ध होय भाव बधायक ॥११॥ पृथ्वी जल अरु श्रग्नि वायु चउ काय वनस्पति । पंचहि यावर माहिं तथा श्रस जीव बसें जित || बेइन्द्रिय तिय चज पंचेद्रियमहि जीव सय । तिन तें क्षमा कराऊं मुझ पर क्षमा करो अब इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण ॥ १२॥ महल मसान समान शत्रु अरु मित्रह समगा ॥ जामन मरण समान जानि हम समता कीनी । सामायिक का काल जिते यह भाव नवीनी ॥१३॥ मेरो है इक प्रातम तामें ममत जु कोनो । और सबै मम भिन्न जाति ममता रसभीनो ॥
आत्मध्यान का उपाय
मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ५.१४ ॥
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३५४ ]
आत्मध्यान का उपाय
मैं धनादि जग जाल माँहि फँसि रूप न जाण्यो । एकेंद्रिय दे श्रादि जंतु को प्राण हरायो ॥ ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह श्ररजी । भव भव कोअपराध छिमा कोज्योकर मरजी ।।१५ ४. चतुर्थ स्तवन कर्म
नमीं ऋषभ जिनदेव प्रणित जिन जोति कर्म को । सम्भव भव दुख हरण कर ग्रभिनन्द शर्म को ॥ सुमति सुमति दातार तार भव सिंधु पार कर पदम् प्रभ पद्माभ भानि भवमीति प्रीति पर ॥ १६ ॥ श्रीसुपार्श्व कृत पाश नाश भव जास शुद्ध कर भी चन्द्र प्रम चन्द्रकान्तिसम देह कांतिधर । पुष्पदन्त दमि दोष कोष भविपोष रोषहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोष कर ॥१७॥ श्रयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्य जान । वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भव भय हन ॥ विमल विमलमति देन प्रन्तगत है अनन्त जिन । धर्मशर्मशिवकरण शान्ति जिन शान्ति विधायिन ॥१८ कुथु कु थुमुख जीवपाल अरनाथ जाल हर । मल्लिमल्लसम मोहमल्लमारन प्रचारघर | मुनिसुव्रत व्रतकरण ननत सुरसंघ नमिजिन | नेमिनाथ जिन लेनि धर्मस्थ माँहि ज्ञानधन ॥१६॥ पार्श्वनाथ जिनपार्श्व उपलसम मोक्ष रमापति । वर्द्धमान जिन नमू वमूं भवदुःख कर्मकृत ॥
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करायान सामान
था विधि मैं जिन संघरूप चउवीस संख्यघर । स्तवू न हूं बारबार बन्दू शिव सुखकर ॥२०॥
५. पंचम बंदना कर्म बन्वं मैं जिनवीर धीर महावीर सु सनमति । वर्द्धमान प्रतिवीर बन्दि हं मन वचतनकृत ॥ त्रिशलात्तनुज महेश धीश विद्यापति बन्दूं । बंको निःा प्रति कनक रूप तनु पापनिकंदू ॥२१॥ सिद्धारण नानंद इंद दुख दोष मिटाधार । दुरित दबानल ज्वलित ज्वाल जगजीष उधारन । टुण्डल पुर करि जन्म जगत त्रिय प्रानन्द कारन । वर्ष बहतर प्रायु पाच सब ही दुख दारन ॥२२॥ सप्तहस्त तनु तुझभंगकृत जन्ममरण भय । वाल ब्रह्म मय ज्ञेय हेय प्रादेय ज्ञानमय । दे उपवेश उघारि तारि भवसिंधु नोवधन । पाप बसे शिवमांहि ताहि बंदौ मन वच तन ॥२३॥ जाके बंदन थको दोष दुख दूरहि जाद। जाके वंदन थकी मुक्तितिय सन्मुख पावे । जाके बदन थकी वैद्य होवें सुरगन के। ऐसे वीर जिनेश बन्दि हूं क्रम युग तिनके ॥२४॥ सामायिक षटकममाहि बंदन यह पंचम । चंदों घोर जिनेंद्र इंद्रशतवंद्य वंद्य मम ।। जन्म मरण भय हरो करो अघ शांति शान्तिमय । मैं अध कोष पोष दोष को दोष विनाशय ॥२५॥
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३५६ ]
आत्मध्यान का उपाय
६. छठा कायोत्सर्ग कर्म कायोत्सर्ग विधान करूं प्रतिम सुखदाई | कायत्यजनमय होय काय सबको दुखदाई ॥ पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर मैं । जिनगृह वंदन करूं हरूं भवपापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनति मैं करूं नम मस्तक पर धरिकै । श्रावर्तादिक क्रिया करूं मन वच मद हरिके ॥ तीन लोक जिन भवनमांहि जिन है जुधकृत्रिम । कृत्रिम हैं द्वीप महीं देवों लिंग प श्राठ कोड़ि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणं । क्यारि शतक पर असी एक जिनमंदिर जाणूं ॥ व्यंतर ज्योतिष मांहि संख्य रहिते जिन मंदिर । ते सब बंदन करूं हरहु मम मम पाप संघकर ॥२८॥ सामायिकसम नाहि और कोउ वैर मिटायक । सामायिकसमं नाहि और कोउ मंत्री दायक ॥। श्रावक अणुव्रत आदि श्रन्त सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥२६॥ जे भवि प्रातम-काज करण उद्यम के धारी। ते सब काज विहाय करो सामाथि सारी ॥
राग रोष मदमोह क्रोध लोभादिक जे सब ।
बुध 'महाचन्द्र' विलाय जाय तातें कोज्यो श्रम ॥३०॥
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आस्मध्यान का उपाय
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सामायिक पाठ
( अमितगति आचार्य कृत )
( अनुवादक - श्री युगल जी )
प्रेम भाव हो सन जीवों से, गुणी जनों में हर्ष प्रभो । करुणा खोत हे दुखियों पर, हुजंम में मध्यस्थ विभो ||१|| आया हो, शरोर से भिन्न प्रभो । क्यों होती तलवार म्यान से यह अनन्त बल दो मुझको ॥२॥ सुख-दुःख मेरी वधु वर्ग में, कांच कनक में समता हो । बन उपवन, प्रासादकुटी में नहीं खेद नहि ममता हो ॥३॥ जिस सुम्बर-सम पत्र पर चलकर जीते मोहमान मन्मथ । वह सुम्धर बच ही प्रभु 1 मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ॥४॥१ एकेन्द्रिय आविक प्राणी को, यदि मैंने हिंसा को हो । शुद्ध हृदय से कहता हूं वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो ॥ ५ ॥ मोक्ष मार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से । विपथ-गमन सब कालुष मेरे, मिट जायें सद्भावों से ॥६॥ 1 चतुर विष विक्षस करता, त्यों प्रभु ! मैं भी आदि उपांत । अपनी निन्दा आलोधन से, करता हूं पापों को शांत ॥७॥
सरक अहिंसाबिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया । व्रत- विपरोत- प्रवर्तन करके, शोलाचरण विलोन किया ॥८॥
कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया । पी पोकर विषयों की मदिरा, मुझमें पागलपन नामा ॥॥
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३५८
आत्मध्यान का उपाय
मैंने छली और मायावी, हो असत्य-आचरण किया। पर निन्दागालो, चुगली जो, मुंह पर आया बमन किया ।।१०॥ मिरमिमान उज्ज्वल मानस हो, सवा सत्य का ध्यान रहे । निर्मल-जल की सरिता सदश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे ॥११॥ मुनि, चक्री शको के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे। भाते वेद पुराण जिसे वह परम देव मम हृदय रहे ॥१३॥ वर्शन-ज्ञान स्वभावो जिसने, सब विकार हों वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परमदेव मा हृदय रहे ।।१३॥ जो भव दुख का विध्वंसक है,विश्व-विलोकी जिसका ज्ञान । योगी-जन के धान पम्प वह बस हृदय में वेव महान ।।१४॥ मुक्ति-मार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म मरण से परम अतीत । निष्कलंक लोक्य-दर्शि, वे देव रहे मम हुक्य समीप ॥१५॥ निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे ना द्वेष रहे। शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे ॥१६॥ देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्म कलंक विहोन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मलनिर्विकार वह. देव करे मम हृदय पवित्र ॥१७॥ कर्म-कलंक अछूत न जिसको, कमो छू सकें विध्य प्रकाश । मोह तिमिर को भेव चला जो, परमशरण मुझको वह आप्त ।१८ जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फोका पड़ता सूर्य प्रकाश । स्वयं शान मय स्वपर प्रकाशी,परमशरण मशको वह आप्त ।१९ जिसके ज्ञान रूप वर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ । आदिअन्त से रहित,शांत,शिव,परमशरण मुझको वह आप्त ।२० जैसे अग्नि जलाती तक को, तसे नष्ट हए स्वयमेव । भय-विषाप चिन्ता सब जिसके,परमशरण ममको वह देव २१
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आत्मध्यान का उपाय
[ ३५६
सूण, चौकी, शिल शैलशिखरनहि, आत्म समाधी के आसन । संस्तर, पूजा संघ सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन ।।२२॥ इष्ट वियोग अनिष्ट-योग में, विश्व मनाता है मातम । हेय सभी है विश्व बासना, उपादेय निर्मल मातम ॥२३॥ पाह्य अगत कुछ मी नहिं मेरा भौरन वाह्य जगत का मैं। पह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नितस्वस्थ रमें ॥२४ अपनी निधि तो अपने में है, वाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास । जग का सुख तो मग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ ॥२५॥ अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वमावी है। जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है ।।२६।। तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, विय, मित्रों से कसे ? चर्म दूर होने पर तन से, रोम-समूह रहे कसे ? ॥२७॥ महा कष्ट पाता जो करता, पर पवाथं जड-देह संयोग । मोक्ष महल का पथ है सीधा, जड़ चेतन का पूर्ण वियोग ॥२८॥ जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़ । निर्विकल्प निर्द्वन्द्व आत्मा, फिर फिर लीन उसो में हो ॥२६॥ स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही बे वेले । फरे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते ।।३०॥ अपने कर्म सिवाय जोय को, कोई न फल देता कुछ भी। 'पर देता है' यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमावी बुद्धि ॥३१ निर्मल, सत्य, शिध, सुम्बर है, 'अमित गति' यह देव महान । शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण ॥३२॥
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३६० ]
आरमध्यान का उपाय
आत्म सम्बोधन
समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिंतन को घड़ी है। भव उवधि तन अथिर नौका, बीच मंसधारा पड़ी है ॥ टेक ॥ आरम से है पृथक तत-धन, सोधरे नम कर रहा क्या ? लखि अवस्था कर्मजड़ को बोल उनसे डर रहा था ? ज्ञान-दर्शन खेतमा सम और जग में कौन है रे ? दे सके दुख जो मुझे वह शक्ति ऐसी कौन है रे ? कर्म सुख-दुख ये रहे हैं, मान्यता ऐसी करी है। चेट-वेतन प्राप्त असर आम की है ||१|| जिस समय हो आत्मदृष्टि, कर्म पर-थर कांपते हैं। भाव की एकाग्रता लखि, छोड़ खद ही भागते हैं । ले समझ में काम या फिर चतुर्गति ही में विचर ले मोक्ष अरु संसार क्या है, फैसला खुद हो समझ ले || दूर कर सुविधा हृदय से, फिर कहाँ घोखा घी है । समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिन्तन की घड़ी है ॥२॥ कुम्बकुम्बाचार्य गुरुवर, यह सदा ही
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कहि रहे हैं। समझना खूब ही पड़ेगा, भाव तेरे बहि रहे हैं शुभ क्रिया को धमं माना, भव इसी से घर रहा है । है न पर से भाव तेरा, भाव खुद ही कर रहा है ॥ है निमित्त पर दृष्टि सेरी, बान हो ऐसी पड़ी है। घेत-घतन प्राप्त अवसर, आत्म चिन्तन की घड़ी है ॥ ३ ॥ भाव को एकाग्रता रुचि, लीनता पुरुषार्थ कर ले। मुक्ति बन्धन रूप क्या है, बस इसी का अर्थ कर ले ।। भिन्न हूं पर से सदा मैं, इस मान्यता में लीन हो जा । द्रव्य-गुण-पर्याय भुक्ता, आत्म सुख घिर नींद सो जा । आत्म गुण घर लाल अनुपम, शुद्ध रत्नवये जड़ी है। समश उर घर फक्त गुरुवर, आत्मचिन्तन की घड़ी है ॥४॥
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मारमध्यान का उपाय
बड़ा अचंभा लगता जो तू....... बड़ा अचम्मा लगता जो तू अपने से अनजान है। पर्यायों के पार देख ले आप स्वयं भगवान है ।।टेका। मन्दिरतीरथ जिनेन्द्र जिनागम उसकी खोज बताते हैं। जप तप संयमशील साधना में उसको ही तो ध्याते हैं। अब तक उसका पता न पाया दुनिया में भरमाते हैं। चारों गतियों के दुख पाकर फिर निगोव में जाते हैं। पर्यायों को अपना माना यह तेरा अज्ञान है ।।१ तू अनन्त गुण का धारो है अजर अमर सत अविनासी । शुद्ध बुद्ध तू निस्य निरंजन मुक्ति सबन का है वाली। तुममें सुख साम्राज्य भरा क्यों मोन रहे जल में प्यासी। अपने को पहचान न पाया घे हैं भूल तेरी खासी। तू अचित्य शक्ति का धारी तू 'मव की खान है ॥२ तीनों कर्म नहीं तेरे में यह तो अड़ की माया है। तू धेतन है ज्ञानस्वरूपी क्यों इनमें भरमाया है। सुख की सरिता है स्वभावमें जिमवर ने बतलाया है। जिसमे अन्तर में खोजा है उसने प्रभु को पाया है। जिनवाणी मां जगा रही है क्यों व्यर्थ बना मावान है। नव तत्वों में रहकर जिसने अपना रूप नहीं छोड़ा। आतम एक रूप रहता हे कहीं अधिक ना ही चोड़ा। यै पर्याय क्षणभंगुर हैं इनका सेरा क्या जोड़ा। सब कुछ मन जाता जिसने पर्यायों से मुख मोड़ा। अव्यष्टि अपना कर प्राणी बन जाता भगवान है ।।४
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________________ - ' 362 ! - आत्मध्यान का उपाय -- --- -- प्रशस्ति कोही... अवध लखनऊ मप्रमें, अप्रवाल शुभ वंश / मंगलसैन सु शास्त्रवित धर्मी निर्मल हंस // 1 // तिन सुत मक्खनलालजी, तीजा सुत हूं जास। सोसल बत्तिस बय थकी, करत त्याग अभ्यास // 2 // उन्निस पैंतीस विक्रमा, जन्म कार्तिक मास / उन्निस पम्वासी विर्षे, रुहतक बस चौमास / / 3 / / मन्दिर तीन दिगम्बरी, बालक माला एक / कन्याशाला भी लस, धर्मशाल पुनि एक // 4 // औषधिशाला दो लसे, एक सव समुदाय / ओरावरसिंह से चले, द्वितीय रुग्न सुखदाय / / 5 / / अग्रवाल जैनी बसें दो शत घर समुदाय / निज-२ मति अनुसार सब, सेवत धर्म स्वभाय / / 3!! कपूरचन्द अरु दोपचन्द, तथा जयन्तिप्रसाद / नानकचन्द सुलालधन्द, श्यामलाल दुखवाद / / 7 / / रत्नलाल उग्रसेनजी, और जिनेश्वर दास / आदि वकील प्रवीण हैं, सिंह दीवान उदास ||8|| मास्टर हैं शिवराम बुध, रामलाल विद्वान / इत्यादि सार्धाप में, किया सुनिज कल्याण ||6|| अमितिगती आचार्यकृत, तत्वमाखना ग्रन्थ / संस्कृत से भाषा लिखी, चले ध्यान का पंथ // 10 // नरनारी चित्त दे पढ़ो, समझों अथ विचार / मनन करो आतम लखो, पावो ज्ञान उदार // 11 // धी जिमेन्द्र के ध्यान से, होवे आतम ज्ञान / आतम सुख नितप्रति रहे, होवे सब कल्याण // 12 // मंगल श्री अरहंत है, मंगल सिद्ध महान / मंगल श्री जिनधर्म है, "सीतल" का सुखवान // 13 // 0 बोतल / ता० 4-1028 / ------