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________________ २४० ] लोकालोक विलो किलो कनयना भूत्वा द्वि लोकाचिताः । पंथानं कथयति सिद्धिवसतेस्ते संतु नः सिद्धये ।। ६४ ।। तत्वभावना अन्वयार्थ - ( ये ) जो ( मुनयः ) मुनि (दुर्लभभेदयोः देहात्मनो ) कठिनता से भिन्न २ किए जाने योग्य शरीर और आत्मा के (अंतरम्) भेद को ( सपदिपा करके (शुद्धेन ) शुद्ध वीतरागतामई (ध्यानहुताशनेन ) आत्मध्यान की अग्नि से ( कर्मेधनम् ) कर्मों के ईन्धन को ( दग्ध्वा ) जला करके ( लोकालोक विलोकिलोकनयना ) लोक और अलोकको देखने वाले केवलज्ञान नेत्र के घारी हो जाते हैं तथा (द्विलोकाचिताः ) इस लोकके चक्र वर्ती आदि मानव व परलोक के इन्द्रादि देव आदि के द्वारा पूजे जाते हैं (भूत्वा ) ऐसे महान परमात्मा अरहंत होकर (सिद्धिवसते ) मोक्षरूपी वसती के ( पथानं ) मार्ग को ( कथयति ) बनाते हैं (ते) वे (नः) हम लोगों को (सिद्धये ) सिद्धि के लिए (संतु) होखें । भावार्थ - यहाँ पर आचार्य ने बताया है कि भेदविज्ञान की सबसे पहले प्राप्ति करनी उचित है। आत्मा और शरीरादि कर्म ये दोनों दूध पानी की तरह मिले हुए हैं और इनका संबंध भी अनादिकाल से प्रवाहरूप चला जाता है । कर्माण व तेजस शरीरों से तो यह जीव कोई क्षण भी अलग नहीं होता है, कर्मों के उदय के निमित्तसे ही अज्ञान और रागद्वेषादि भाव होते हैं, जो जिनवाणी के भले प्रकार अभ्यास के बल से अपने आत्माको बिलकुल शुद्ध परमात्मा के समान जाने और सर्व रागादि भावों को व परद्रव्यों को अपने आत्मा से भिन्न जाने तथा इस ज्ञानको बार-बार मनन कर पक्का ज्ञान प्राप्त कर ले तब उसकी बुद्धि परसे राग हटका है और अपने वामस्वरूप में रमणा की शक्ति
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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