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________________ तत्वभावना जीवाजोवावितस्वप्रगटनपटपो ध्वस्तफायदा । निसकोधयोधा मुदि मवितमदा हविद्यानवधा ।। ये सप्पन्तेऽनपेक्षं जिनमदिततपो मुक्तये मुक्ननसंगा। से मुक्ति मुक्तबाधाममितगतिगुणाः साधवो नो विशन्तु Hot भावार्थ- जोजोब अजीब कादि तपी के जानने में चतुर हैं, जिन्होंने कामदेव के भेदको विध्वंस कर डाला है, क्रोध रूपी योद्धा को क्षय कर दिया है, माठों मदों को चूर्ण कर दिया है, अज्ञान दूर करके दोष रहित हैं, ऐसे जो साघु सर्व परिग्रह रहित होकर बिना किसी वांछा के मात्र मुक्ति के लिए आनन्द मन से जिनेन्द्र भगवान का कहा हुआ तप तपते हैं व अमर्याद ज्ञानगुण के धारी साधु हमको बाधारहित मुक्ति दे । वास्तवमें कषायरहित ही तप सच्चा तप है ऐसे ही तपस्वी स्वयं मुक्त होते हैं और दूसरों को भवसागर से तारते हैं । मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द दखमय भवकर पूर्व पाप संचय जो शीत्र मर्वन करे। ऐसे निर्मल शुद्ध हेतु तप को मन मैल धरकर करे । सो निर्बुद्धि कुकर्म अर्जन करे नहि कर्म से शुद्ध हो । मलतनधारी नर मलोन जल से नहाकर नहीं शुद्ध हो ॥६३|| उत्थानिका--मागे कहते हैं भेदज्ञान द्वारा प्राप्त शुद्ध ध्यान से ही कर्मों का नाश होता है लकवा बुर्लभमेवयोः सपदि ये देहात्मनोरंतरम्। अगवा बाबहुताशनेन मुनयः सीन कर्मधनम् ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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