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तत्त्व भावना
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द्वेष करता है जो हमारे अहित की बातें करते हैं तथा अपने व्यवहारसे हमारी कुछ हानि करते हैं। सामायिक करते हुए प्राणी मनसे रागदेष हटाने के लिए आचार्य कहते हैं कि हे भाई! तू किस पर राग व किस पर द्वेष करेगा जरा तुझे विचारता चाहिए। यदि तू मित्रके शरीरसे राग व शके शरीरसे द्वेष करे तो यह तेरी मुर्खताही होगी क्योंकि शरीर विचारा जड़ अचेतन है वह न किसीका बिगाड़ करता है न सुधार करता है। शरीय के सिवाय उनका आरमा है उसको यदि तु सुख तथा दुःखका देते वाला माने तो वह बारमा बिलकुल नहीं दिखता, उसका भाव यह हो गया है कि इन्द्रियोंके भोगोंसे आत्माको सुख-शांति नहीं होती है । किन्तु उल्टा रागद्वेषकी मात्राएं बढ़कर मोक्षमार्ग में विघ्न आता है। उसकी लालसा खाने-पीने देखने आदिसे हट गई हो । तथा आत्मसुखका अनुभव होने लग गया हो और यह सच्चा ज्ञान हो कि जैसे कोई यात्री अपनी यात्रामें भिन्न-२ स्थानोंसे विधाम करता हुआ जाता है वैसे यह आत्मा भी एक यात्री है जिसकी यात्राका ध्येय मोक्ष द्वीप है सो जबतक मोक्ष न पहुंचे यह भिन्न-२ शरीरमें वास करता हुआ यात्रा करता रहता है तथा यह अविनाशी है। शरीरके बिगड़ते हुए आत्मा नहीं बिगड़ता है । यह अनादिसे अनंतकाल तक अपनी सत्ता रखने वाला है । इस तरह जिसका लक्ष्य शरीररूपी ठहरनेके स्थान पर नहीं रहता है किन्तु मुक्तिद्वीपमें पहुंचना है यह लक्ष्य रहता है तथा जिस किसी शरीरमें कुछ काल के लिए ठहरता है उसे मात्र एक धर्मशाला जानता है उस शरीरमें व उसके संबंधी घेतन व अचेतन न जाने तबतक उस पर राग व द्वेष किस तरह किया जा सकता है। तथा मेरा स्वभाव भी रागद्वेष करने का नहीं है । मैं सर्प संगसे रहित हूँ। न मेरे में कोई भानावरणादि