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तत्त्वभावना
द्रश्य कम है न हरीरादि नोकम हैं न रागवेषादि भाव कम हैं। मैं निश्चयसे सबसे निराला सिद्ध के समान ज्ञातादृष्टा अधिनाशी पदार्थ हूँ। इसलिए मुझे उचित है कि समताभावमें रमण कर आत्मीक सुखका अनुभव करूं । जगत में न मेरा कोई शत्रु है न मेरा मित्र है । इसी तरह श्रीपूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक में कहा है
मामपश्यग्मयं लोको म मे शर्म व प्रियः। ___ मां प्रपश्यन्नयं लोको न में शत्रुन व प्रियः ॥२६॥ । भावार्थ-मेरे को न देखता हया यह लोक न मेरा शय है न मेरा मित्र है अर्थात् चम की आँखों से मेरे आत्माको कोई देख नहीं सकता है इसलिए मेरे मात्माका न कोई शत्र है न मित्र है तथा मेरेको अर्थात् मेरे आत्माको देखनेवाला लोक है वह भी मेरा शत्रु व मित्र नहीं हो सकता क्योंकि वीतरागी आत्मा ही आत्माको देख सकता है । इसलिए न मेरा कोई मित्र है न
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श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी ज्ञानार्णव में कहा है :
अदृष्ट मत्स्वरूपोऽयं जनो मारिन मे प्रियः। साक्षात् सुवष्ट रूपोपि जनो नारिः सुहन्म मे॥३३॥ भाषार्थ-जिस मानव ने मेरे आत्माके स्वराजको देखा ही नहीं है वह न मेरा शत्र है न मित्र है व जिसमे प्रत्यक्ष मेरे
आत्मा को देख लिया है वह महान मानव भी न मेरा शत्रु हो | सकता है न मित्र ।