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________________ २८६ ] नत्वमानना जिंदगी पूरी होती चली जाती है। मरण अचानक आने वाला है। शरीरको चमक-दमक घट रही है । जवानी वोत रही है, बढ़ापा आ रहा है तो भी धर्म की ओर बुद्धि नहीं लगाता है। आत्माको परलोकमें दुर्गति न हो इसकी चिंता नहीं करता है। आत्मानुभव रूपी परमोत्तम कार्य को नहीं करता है, आत्मानंद का विलास नहीं लेता है। वास्तव में जिसके भावों में तीव'मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषायका उदय होता है उसकी दशा ऐसी ही भयानक हो जाती है। स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं बयादमध्यानतपोवतायो । गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्वथा ॥ तुरन्तमिव्यास्वरमोहतात्ममो। रजोयतालाबगतं यथा पयः ॥१३७।। भावार्थ-जैसे निर्मल पानी धूलसहित तुम्बी में प्राप्त होकर मैला हो जाता है वैसे जिसका आत्मा दुखदाई मिथ्यादर्शनरूपी कर्मकी रजसे गाढ़ छाया गया है उसके भीतर दया, संयम, ध्यान, तप, व्रत आदि ये सर्व गुण बिलकुल नहीं पाए जाते हैं। मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जीवन बोते है, मरण आही रहा है। ध्रुति सन खिरती है, वृक्षपन बढ़ रहा है ।। जो मोह पिशाचं, वश पड़ा बीन नर है। सो भूले हिसको, आस्ममें बे खबर है ।।११७॥ उत्यानिका-आगे कहते हैं कि इन्द्रियों के विषयों में जो अंधा है वह अपना नाश निकट आने पर भी धर्मसे प्रेम नहीं करता है
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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