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________________ तत्त्वभावना [ २८५ तः नोन्द्रियाणि मान्ति सुदर्जमानि। थे निर्जयन्ति मुवने बलिनस्त एके ||६|| भावार्थ-जिनको सूर्य, चन्द्र, विष्णु, शंकर, इन्द्रादिक जीत न सके ऐसी दुखदाई, बलवान व दुर्जन इन्द्रियोंको जो जीत लेते. हैं एक वे ही जगत में बलवान हैं मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द जिनमे वश कोना, देव विद्याधरों को। कैसे नहिं जोते, अस सामान्यजनको ।। मन पर हस्तीको, सिंह जो वलमले है। को गिनती मुगको, ताहि चूरण करे है ।।११।। उस्थानिका-आगे कहते हैं कि मोही जीव आत्महितों में नहीं वर्तता हैमरणमेति विनश्यति जीवितं, झुतिरपैसि जरा परिवर्धते । प्रचुरमोहपिशाचवशीकृतस्तदपि नारमहिते रमते जनः ।।११७॥ अन्वयार्ष-(मरणं एति) मरण आ रहा है (जीवितं विनश्यति) जिंदगी नाश हो रही है (युतिः अपैति) युवानी दूर जा रही है (जरा परिवर्धने) बुढ़ापा बढ़ रहा है (तदपि) तो भी (प्रचुरमोहपिशाचवशीकृतः) भयानक मोहरूपी पिशाचके वश में पड़ा हुआ (जनः) यह मानव (आत्महिते) अपने आत्मकल्याण में (न रमते) नहीं प्रेम करता है। भावार्थ-यहां आचार्यने मोही जोवकी दशा बताई है। स्त्री पुत्र भित्र व इंद्रियों के विषय इन्द्रादि पदार्थों में अज्ञानी जीव ऐसा उलझ जाता है कि अपने सामने आपत्तियें मौजूद हैं तो भी उन पर ध्यान नहीं देता है। यह देखता है कि दिन-पर-दिन
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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