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________________ तरवभावना जननमस्युजशनदीपितं जगदिदं सकलोऽपि विलोकते । तक्षवि धर्ममति विदधाति नो [ २८७ रतमना विषयाकुलितो जनः ॥ ११८ ॥ अन्वयार्थ --- ( सकल : ) सर्व लोग (अपि) अवश्य ( विलोकते ) देख रहे हैं कि ( इदं जगत् ) यह जगत ( जननमृत्युज रानलदीपितं ) जन्म, मरण व बुढ़ापा इन अग्नियों से बराबर जल रहा है ( तदपि ) तो भी ( रत्नमना विषयाकुलितः जनः ) विषयों को चाह में घबड़ाया हुआ मनुष्य मनको उनमें भाता हुआ | ( धर्ममति) धर्म में बुद्धिको (नो विदधाति ) नहीं लगाता है । भावार्थ - आचार्य ने प्रगट किया है कि जो मानव इंद्रियोंके विषयोंका गुलाम हो जाता है वह अपने मनको उनहोकी मूर्ति में रंजायमान किया करता है। ऐसा होकर इस बात को भूल जाता है कि मुझे धर्म भी साधन करना जरूरी है । वह यह देखता भी है कि जगत में कोई मानव जन्मते हैं, कोई बढ़े होते हैं, कोई मरते हैं अर्थात कोई भी थिर नहीं रह सकता है तथापि अपने सम्बन्धमें विचार नहीं करता है कि मुझे शीघ्र मर जाना होगा । आचार्य इस बुद्धिपर खेद प्रकट करते हुए प्रेरणा करते हैं कि बुद्धिमानों को इन विषयों के मोह में अंध होकर अपना आत्महित न भुलाना चाहिए । स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं धर्मे वित्तं निधेहि भूतकथितविधि जीव भक्त्या विधेहि । सम्यक् स्वान्तं पुनीह् व्यसनकुसुमितं कामवृक्षं लुनीहि ॥ पापे बुद्धि धुनीहि प्रशमयमवमाझिण्ठि पिष्टि प्रमादं । छिन्धि कोष विमिन्दि प्रचुरमदगिरिस्लेऽस्ति बेल्मुक्तिवांछा १४१४
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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