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भावार्थ हे जीव ! यदि तुझको मुक्तिको इच्छा है तो तू अपने चित्तको धर्म में धारर कर शास्त्र में कही हुई विधि को भक्तिसे पालन कर, अपने भीतर सम्यग्दर्शनसे पवित्रता पैदाकर आपत्तिरूपी फूलों से लहराते हुए कामदेव के वृक्ष को उखाड़ के फेंक दे, पाप में बुद्धि को न लेजा, शान्ति, यम, संयमको पुष्ट कर, प्रमाद को छोड़, क्रोधको नष्ट कर, तथा बड़े भारी मान के पर्वत को तोड़ दे।
तस्वभावना
मूल लोकानुसार पछि
यह सब जग जलता, मूर्ख जन देखता है। जनम खरा मरणं अग्निमय फैलता है । तवपि विषय लोभो अंघ मम हो रहा है। नह से धर्म पापको बो रहा है ॥ ११८ ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि गृहस्थ का वास छोड़ने के ही योग्य है ।
मालिनी वृतम्
क्वचन भजति धर्म क्वाप्यधमं दुरंतम् । क्वचिदुपयमनेकं शुद्धबोधोऽपि गेही ॥ कथमिति गृहवासः शुद्धिकारी मलानामिति विमलमन स्कैस्त्यज्यते स विद्यापि ॥ ११६॥
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अन्वयार्थ - (शुद्धबोध: अपि गेही) शुद्ध ज्ञान को अर्थात् सम्पज्ञान को रखने वाला गृहस्थ भी ( क्वचन ) किसी जगह तो (धर्म) धर्मको (क्व ) कहीं ( दुरंतम् अधर्म ) भयानक अधर्म को ( क्वचित् ) कहीं ( अनेकं उभयं) अनेक प्रकार धर्म और अधर्म दोनों को ( भजति ) सेवन करता है (इति) इसलिए ( गृहवासः )