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________________ ६४ ] तत्वभावना यह है कि इस मन को छूत रण, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यासक्ति परस्त्रो रमन, शिकार और चोरी व ऐसेहो और भी ध्यसनों का सामाना न पड़े। जिन बरी आदतों में पड़ने से हमारा इह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं वे सब आदतें व्यवसना के भीतर शामिल हैं । हरएक मानव को जो अपना हित करना चाहता है यह आवश्यक है कि खेतके कंकड़ पत्थरको तरह व्यसनों को दूर फेंक देवे । जिनका मन किसी व्यसन में उलझा होता है उनके मन में आत्मज्ञान नहीं बस सकता है औय : आत्मज्ञान के बिना अपना हित नहीं हो सकता है। इसलिए दूसरी बात यह चाहता है कि ज्ञान को उन्नति हो। शान के पीछे चरित्र बढ़ाना चाहिए। इसलिए तीसरी बात यह चाही गई है कि पवित्र गुणधारी व्यक्तियों की संगति रहे क्योंकि सच्चारित्रवान पुरुषों के आचरण का बड़ा भारी असर बद्धिपर पड़ता है। फिर चारित्र जो वीतराग भाव है उसके कारण जो मुख्य उपाय हैं उनकी भावना की जाती है इसलिए चौथी बात यह है कि इन्द्रियों का विजय हो। वास्तव में जिते न्द्रिय मानव हो संतोष व शांतभावको पा सकता है। बिना इंद्रियों को अपने अधीन किये न श्रावक न मुनि कोई भी अपने अपने योग्य आचरण को नहीं पाल सकते हैं । पाँचवी बात यह वाही गई है कि संसार से भय हो–क्योंकि जिसको यह भय होगा कि मेरा आत्मा इस जन्म मरण रूपी भयभीत संसारबन में न भटके वही मोक्ष होनेका चारित्र पालेगा। छठीबात यह है कि कषायोंको दूर किया जावे 1 क्योंकि क्रोध, मान, माया लीभ कषायों के अधीन ही प्राणी आकुलता के फंदे में फंस जाता है तथा जितना-२ कषायों का दमन होता है उतना वीतराग भाव प्रगट होता रहता है । कषायोंके विजय से ही जिनमत जो बीत राग विज्ञानमय है व स्वानुभवरूप है उसमें प्रीति होतो है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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