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________________ तत्त्वभावमा [६५ इसलिए सातमी बात यह चाही गई है । मुक्तिका उपाय मुनि का चारित्र है इसलिए आठमी बात चाहो गई है कि परिग्रहका त्याग करूं । मुनि होकर १: प्रकार तप करना चाहि । क्योंकि तप के बिना कर्मों की निजरा नहीं हो सकती है। इसमें भी मुख्य तप ध्यान है, ध्यान ही से केवल ज्ञान होता है, ध्यान ही से निर्वाण होतात त्र्यानाही हा वेडा मारसमुहाने पर करके शिवद्वीप में पहुंचा देता है। इसलिए तप करने के साधन रूप आठ बातों को भावना भाई गई है । वास्तव में जो तपस्वी इन आठ गुणोंसे अलंकृत होता है वही सिद्ध होकर सम्यक्त' आदि आठ गुणों से विभूषित हो जाता है। ध्यान ही से मुक्ति की सिद्धि होती है। उस ध्यान के लिए श्रीशुभ चन्द्राचार्य ज्ञानाणंवमें कहते हैं विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पहाम् । निर्ममत्वं यदि प्राप्तस्तवा ध्यातासि नान्यथा ||२३॥ भावार्थ-जब काम भोगों से विरक्त होकर शरीर में भी अभिलाषाको छोड़ा जाता है तब ममता रहितपना प्राप्त होता है तब ही ध्यानी हो सकता है अन्यथा नहीं। __मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द व्यसन रहे दूरं ज्ञान उन्नति सुसंगति । करण विजय भव भय क्रोध मानादि निकृति ।। जिनमत रुचि संग त्याग श्री जिनज होये। भवसागर तरना हेतु सप मोहि होवे ॥३१॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि संसार वन में वास करना दुःखदायक है---
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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