SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ ] ऐसे योगी संयमी चितसमी दुर्लभ तु इस काल हैं। अति दुर्लभ शुभ अशुभ हनन तपसो वे सत्य शिवसुख लहैं ॥। ६० तस्वभावना उत्थानिका- आगे कहते हैं कि साधुजन सदा कर्मशत्रुओं के नाशमें उद्यमी रहते हैं विच्छेद्यं यमुदीर्यं कर्म रमसा संसारविस्तारकम् । साधुनामुक यो गत्वा विजिगीषुणा बलवता वैरी हादन्यते । नाहत्वा गृहमागतः स्वयमलो संत्यज्यते कोविदः ॥ १ ॥ अन्वयार्थ -- ( साधूनां ) साधुओंके लिए ( यत्संसारविस्तारकं कर्म ) जो कर्म संसारका बढ़ाने वाला है ( रमसा उदीर्य) उसे शीघ्र उदय में लाकर (विच्छेद्यं ) छेदना उचित है तब फिर (स्वयं उदयागतं इवं ) अपने आप ही उदय में आए हुए इस कर्म को ( विच्छेदने ) नाश करने में (कः श्रमः ) क्या परिश्रम है या क्या कठिनता है । ( बलवता ) बलवान (विजिगीषुणा ) विजयको चाहते वाला पुरुष (गत्वा) जाकरके (य: वैरी ) जिस शत्रुको ( हठात् ) बलपूर्वक ( हन्यते) मारता है (असो) यह शत्रु (स्वयम् ) अपने आप ही (गृहम् ) घर में ( आगतः ) आ गया तब ( कोविदैः ) बुद्धिमान (अहृत्वा ) विना मारे (न संत्यज्यते) नहीं छोड़ते । भावार्थ - आत्मा के शत्रु कर्म हैं क्योंकि ये कर्म ही बंधन में डाले हुए आत्माको स्वाधीनताको हरण किए हुए हैं, चारों गतियों में अनेक शारीरिक व मानसिक कष्ट देने में कारणभूत ये कर्मरूपी शत्रु ही हैं, जो सम्यग्दृष्टी ज्ञानी महात्मा कमौको अपना घातक समझ लेते हैं वे अपनी स्वाधीनता पाने के लिए उद्यमी होकर
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy