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________________ तत्यभावना [ २३१ के उदयसे जीव संसार में दुःख पाते हुए व पुण्य कर्मों के उदय से जीव सुख पाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। यदि यह सुख ध्रुव होता, तृप्तिकारी होता व आगामी पापबन्धकारी न होता तब तो इस सुखको भी त्यागने योग्य न मानता । परन्तु इस सुखको महात्मा पुरुषोंवे मृगजल के समान क्षोभकारी व तृष्णा वर्द्धक माना है। इस जगत में ऐसे साधु भी कम हैं धर्वापारों से बढ़ते हुए पुष्प के हेतु से तपस्या करते हैं । वे यद्यपि यथार्थ मोक्षमार्ग से पतित हैं तथापि जगत को अपकारी नहीं हैं। प्रशंशनीय तो वे ही महात्मा साधु हैं जो आत्मानंद के प्रेमी होकर आत्मा में ही रमण करते हैं। इसी भावको ग्रहण कर पाठकों को स्वात्मलाभ करके अपना हित कर्तव्य है । श्री पद्मनंदि मुनि ने एकत्व भावनादशक में कहा हैचैतन्यत्त्वसंधितिदुर्लभा संघ मोक्षदा । लब्ध्या कथं कथंचिचेच्चितनोया मुहुर्मुहुः ॥४॥ मोक्ष एव सुखं साक्षात् तच्च साध्यं मुमुक्षुभिः । संसारेव तु सन्नास्ति यदस्ति खलु तग्म तत् ॥५१ भावार्थ - अपने चेतन स्वभाव का अनुभव दुर्लभ है परन्तु वह भी मोक्ष को देने वाला है किसी भी तरह से उसको पाकरा बारबार उसका चिन्तवन करना चाहिए। मोक्षही साक्षात् सुख है, उसीका ही साधन मुमुक्षु पुरुषों को करना योग्य है। यह सुख संसार भाव में नहीं है, जो कुछ है वह वह सुख नहीं है जो आत्मीक मोक्ष का सुख होता है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द सूरव पाप करे खु दुःख बहु वे शुभ कर्म सुख देत हैं। ऐसा लख सम अघविनाश अयं तप मांहि चित बेत हैं ।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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