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तस्वभावना पुष्कर गुरुतर तपश्चरण करते वोछा न सपकी करे। सो तपसी भयदाय भववन त शिवनारिको मा परें।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ऐसे तपसी जो पुण्य की बांछा भी नहीं रखते, बहुत दुर्लभ हैं--
पूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्यं शुभं निमितम् । विज्ञायेत्यशुभं निहतुमनसो ये पोषयंते तपः।। जायते शमसंयमैकनिषधयस्ते दुर्लमा योगिनो। ये स्वनोमयकर्मनाशनपरास्तेषां किमनोध्यते ॥१०॥
अन्वयार्म-(पूर्व अशुभं कर्म) पहले का बांधा हुमा पापन कर्म (दुःखं) दुःखको व (शुभं निर्मितम्) शुभ कर्म बांधा हुना (सौख्यं) सुखको (करोति) करता है (इति) ऐसा (विज्ञाय) जानकर ( जो अशुभ मिहंतुमनस. पापमान को नाश करने की मनसा करके (तपः पोषयंते) तप का साधन करते हैं (ते) वे (शमसंयमैकनिधयः) शांति व संयम के एक निधिरूप (योगिनः) योगी (दुलेभा जायन्ते) बहुत कठिनता से मिलते हैं (तु) परन्तु (ये) जो (मत्र) इस जगत में (उभयकर्मनाशनपराः) पुण्य पाप दोनों कर्मों के नाशमें उद्यमी हों (तेषां) उन साघुओंके सम्बन्ध में (अत्र) यहाँ (कि उच्यते) क्या कहा जावे? अर्थात् वे तो दुर्लभ ही हैं।
भावार्ष-इस कथन से आचार्य ने बताया है कि वास्तव में वही मोक्षमार्ग है जहां पर पुण्य तथा पाप दोनोंसे विरक्त हो मात्र शुद्ध आत्माकी ओर लक्ष्य रक्खा जावे ! निस्पृहपना ही एक साधु का लक्ष्य है । आत्मानन्दमें मगन रहना ही साधु का चिन्ह है । यद्यपि इस कालमें ऐसे विरले ही साधु मिलते हैं तथापि इसी रत्नमयमईभावको मोक्षमार्ग प्रदान करना चाहिए। पापक्रमों