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________________ तस्वभावना [ २२४ सहारा भी छोड़कर जिनका मन स्वरूपमें तन्मय है। यद्यपि इस शरीरकी ही मददसे वे अपना आत्मसाधन करते हैं तथापि इससे अत्यन्त विरागी हैं- इसका सम्बंध मिटाना ही चाहते हैं। वास्तव में उनका सारा उद्यम इस शरीर के कारावाससे निकल कर स्वतंत्र होनेका है । शरीर को दुष्ट चाकरके समान कुछ थोडासा भोजनपान देकर जीवित रखते हैं। ऐसे साधु निर्जन वन, पर्वत, नदीतट, वृक्षतल आदि कठोर व दुर्गम स्थानों पर खड़े होकर या बैठकर एका मन हो हैं तौभी उस तपमें प्रेम नहीं रखते हैं, तप करने को वह एक सोढ़ो मात्र जानते हैं, ध्यान अपने स्वाधीन सुखके लाभ में ही रखते हैं। ऐसे वीतरागी आत्मरसी साधु महात्मा ही कर्मों की निर्जरा करके भयानक संसार-वनसे निकल कर परमानन्दमई मोक्षमें पहुंच जाते हैं । वास्तव में आत्मानुभवी साधु ही सच्चे सुख के पात्र हैं । स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैं-निवृत्तलोकव्यवहार वृत्तिः संतोषदानस्ल समस्तदोषः । यत्सौख्यमाप्नोति गतान्तरागं कि तस्य लेशोपि सरागविसः । २३७ भावार्थ - जिसने अपनी वृत्ति को सर्वलौकिक व्यवहार से हटा लिया है, जो अत्यन्त सन्तोषी है व सर्व दोषों से रहित है, वह जैसे बाधारहित सुखको पाता है ऐसे सुखके लेश अंश को भी सराग मत वाला नहीं पा सकता है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडति छन्द पर आलम्बन छोड़ आत्स रमते मिज सोल संयम भरे। सम सहकारि शरीर मात्र से रागवार घड़े ।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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