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रे मन ऐसा भेद ज्ञान करके निज आत्म में लीन हो । परसे अपना मोह सर्व हरले मल दुष्टसे छोन हो ॥८८॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि वीतरागी तपस्वी ही मोक्ष के अधिकारी हैं
सत्वभावना
मार्दूलविक्रीडित छन्द
स्वास्मारोपितशील संयम भरास्त्यवसान्य साहाय्यकाः । कायेनापि विलक्षमाणहृदयाः साहायकं कुर्वता ॥ तप्यते परदुष्करं गुरुतपस्तत्रापि ये निस्पृहा । जन्मारण्यमतीत्य भूरिमयवं गच्छति ते निर्वृतिम् ॥ ८६ ॥
अम्वयार्थ - ( स्वात्मारोपितशील संयमभराः ) जो शील व संयमके भारसे भरे हुए अपने आत्मा में हो लीन हैं ( त्यक्तान्यसाहाय्यकाः ) जिन्होंने परवस्तु के आलम्बन का त्याग किया है ( साहायकं कुर्वता कायेन अपि विलक्षमाणहृदया:) जिनका मन ध्यानके साधन में सहाय करने वाले इस शरोरसे भी उदास है ऐसे साधु ( पर दुष्करं गुरुतपः तप्यते ) बहुत भारी कठिन तपस्या तपते हैं (तत्र अपि ये निष्पृहा :) परन्तु उस तपमें भी जो वांछा नहीं रखते हैं अर्थात् जिनका लक्ष्य निज आत्मानुभव पर है (ते) वे (भूरिभयदं ) इस अत्यन्त भय देने वाले (जन्मारण्यं ) संसार नको (अतीत्य ) उल्लंघन करके (निर्वृतिम् ) मोक्षको (गच्छति ) चले जाते हैं ।
भावार्थ - यहां पर आचार्यने मोक्ष के अधिकारी तपस्वियों का स्वरूप बताया है कि जो शील व संग्रम पालते हुए भी अपने आत्माके स्वभाव में लीन होने को ही असली शील व संयम समझते हैं, तथा जिन्होंने अपने मनको ऐसा वश कर लिया है कि उस 'मनको दूसरोंकी मदद नहीं लेनो पड़ती है। वास्तव गुरुपदेशका