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________________ तस्वभावना ।२३५ यह चित्तमें ठान लेते हैं कि किसी भो तरह इन कर्म-शत्रुओं का सर्वनाश करना चाहिए । इसलिए घर तम वन में जाते हैं और तपस्या करके कर्मों को, जो दीर्घकाल में नाश होते, उनको शीन उदयमें लाकर नाश करते रहते हैं। ऐसे साधुओंके सामने यदि कर्मशत्र स्वयं उदय में बार यह र सही माय बहुत अधिक उदयमें आकर उपसर्ग व परीषह द्वारा दुःख पैदा करके नाश होने लगे तो साधु उस समय बड़ा हर्ष मानते हैं व उनके नाश होने में कुछ भी अपना विगाड़ नहीं करते । प्रयोजन यह है कि जब साधुओं को तीन असातावेदनी कर्म की उदीरणा से घोर उपसर्ग पड़ जावे व घोर परीषह सहना पड़े तो वे साधु उस समय अपने आत्मध्यान में निश्चल रहकर उन आए हुए कर्मशत्रुओं को क्षय होने देते हैं। उस समय यदि साधु संक्लेश भाषधारी हो जावें तो नवीन असाता कर्म को बांध लेवें तब मानो उन्होंने शत्रु को नाश नहीं किया, उल्टा आप कर्मशत्रु के बन्धन में फंस गए। परन्तु सच्चे पुरुषार्थी साघु संकटों के समय उत्तम क्षमा की ढाल से अपने भावों को पवित्र व आत्मरमी रखते हैं इससे उन कोका बड़ी सुगमता से क्षयकर डालते है, बहुधा उपसर्ग पड़ने पर साधओं को तुतं केवलज्ञान हो जाता है । मभिप्राय यह है कि साधुओं को कर्मों का आक्रमण होनेपर उनको समताभावसे नाश कर डालना चाहिए, कभी भी आकुलित न होना चाहिए। उस वक्त यह हो वीरमाव धारना चाहिए कि जैसा कोई वीर योद्धा अपने मन में रखता है, किसी शत्रु को विजय करने के लिए उसको चढ़ाई करके जाना था। कारणवश वह शत्रु यदि स्वयं चढ़ करके आ गया तब वह वीरयोद्धा अपनी अकाट्य सेना द्वारा उस शत्रु का व उसके दल का नाश करने में कोई कमी नहीं करता किन्तु बिना अधिक परिश्रम के बड़ी सुगमता से उस शत्रु का नाश कर देता है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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