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________________ २३४ ] तस्यभावना तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु जीवको उचित है कि सदा ही कर्म शत्रुओं को जीतने की ताक में रहे, उनके में वास्तव में कषाय वैरी के नाशक ही साधु सच्चे गुरु हैं । न स्वामी अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैंम रागिणः क्वचन न रोषदूषिता, न मोहिनो भवभयभेदनोखताः गृहीतसन्मननचरित्रवृष्टयो, भवन्तु मे मनसि मुद्दे तपोधनाः । ६८४ मावार्थ- जो न कभी रागी होते हैं न क्रोध से दूषित होते हैं न मोही हैं तथा जो संसार के भय को भेदने के लिए उद्यमी हैं व जिन्होंने सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्र को धारण कर लिया है ऐसे तपस्वी मेरे मन में आनन्द के हेतु होवें । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द मदवर्द्धन सर्व कर्म निर्भर करन जो शोध मनसा घरे । ओ आपी से आ गया उदय में दिन अम यती क्षय करे ॥ बिजयी वीर विचारता कि जाकर निज शत्रु मर्दन करे । सो आपसे आगया स्वघर में बुध तुर्त ही क्षय करे ३६१|| उत्थानिका— आगे कहते हैं कि परिग्रह के स्याग बिना मोक्ष का लाभ नहीं हो सकता है मालिनी वृत्तम् व्रजति भृशमधस्तात् गृह्यमाणेऽर्थ जाते । संत्यज्यमाने ॥ गत भरमुपरिष्टात्तव हतकहृदय तद्येन पद्वत्तुलानं । हिहि दुरितहेतुं तेन संगं विद्यापि ॥ ६२ ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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