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हैं -- जीव और अजीव । इन दोनों में से जोवको हो ग्रहण करके उसके हो शुद्ध स्वरूप का अनुभवव करना चाहिए इसलिए आचार्यने कहा है कि जीव अजीब से भिन्न है ऐसा जाना, आस्रव बंधके कारणों को रोका, सदा संबर और निर्जराका उपाय करो, स्वाधीनता रूप मोक्ष पाने को उत्कंठा रक्खो तथा निश्चयनय से एक अपने हो शुद्ध आत्मतत्व को भेद विज्ञान के बल से रागद्वेषादि भावों से भिन्न वीतराग विज्ञानमय विचारो ओर अनुभव करो। यही मार्ग सुख शांति पाने का तथा कर्मोके बंध से छूटने का है। जब तक हम इस देह में हैं हमें अपना समय इसी तरह पर बिताकर सफल करना चाहिए। यही मानव-जीवन का लाभ है। श्री पद्मनंदि मुनि ने आलोचना के पाठ में मुक्तिपद की हो भावना की है जैसे
तत्त्व भावना
इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा घोनयः । संसारे क्षमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयानंतशः ॥ तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विभुक्तप्रदाम् । सम्यग्दर्शन बोधवृत्तिपदंची तां देव ! पूर्णां कुरुः ।। मावार्थ- हे देव ! मैंने इस संसार में चिरकालसे भ्रमण करते हुए इन्द्रपना तथा निगोदपना तथा इनके मध्य की बहुत प्रकार योनियों को अनंतबार पाया। इसलिए सिवाय मोक्षके देनेवाले सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रमई रत्नत्रय की पदवी के और कोई वस्तु मेरे लिए अपूर्व नहीं है अर्थात् मैं सिजाय अभेद रत्नत्रयरूप आत्मानुभव के और किसी वस्तुको नहीं चाहता हूँ; क्योंकि इसी से ही मुक्ति प्राप्त होती है। इस कारण आप इसी की पूर्ति कीजिए ।