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________________ तत्त्वभावना [ १७ वास्तव में ऐसो-२ भावना परिणामोंको निर्मल करनेवाली हैं और सुख शान्ति प्रदान करने वाली हैं। मूल श्लोकानुसार छंद गीता सत् तत्व जीव अजीब जानत बंध आलय रोकते। करते सुसंवर निर्जरा नित मुक्तिप्रिय अवलोकते॥ बेहादिभिन्न सुनिर्मलं परमात्म तत्व सुध्यावते । मम काल बीते हे प्रभो ! वृष ध्यान समता पावते ॥४॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्तम कार्य वही कर सकता है जिसका संसार वास समाप्त होने को आया है व जो मुक्ति पाने के लिए शीघ्र ही अधिकारी हो गया है पवीत सुध कषायमवनिर्जयः सकलसंगनिर्मुक्ता। चरित्रपरमोडमी जननदुःखतो भीरता ।। मुनीन्चपदसेवना जिनवचोविस्थागिता । हषोकहरिनिगहो निकटनिवतेजयिते ॥५॥ अन्षया—(कषायमदनिर्जयः) क्रोधादि कषायोंके मदको जीतना (सकलसंगनिमुक्तता) सर्व परिग्रह का त्याग (चरित्रपरमोद्यमो) चारित्र के लिए गाढ़ प्रयत्न (जननदुःखतो भीरुता) संसारके दुःखोंसे भय (मुनीन्द्रपदसेवना) मुनोश्वरोंके चरणों को सेवा (जिनवचोरुचिः) जिनवाणी में रुचि (त्यागिता) सर्व वस्तु का त्याग या एक देश त्याग अथवा दान करना और (हृषीकहरिनिग्रहा) इन्द्रिय रूपी सिंह को वश करना (निकटनिर्वते:) जिसके मुक्ति निकट है उस महात्मा के (जायते) ये बातें प्रकट होती हैं।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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