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तत्त्वभावना
भीतर-२ वे अवश्य गिर जाते हैं। जिन कर्मों के अनुकूल सामग्री होती हैं वे कर्मफल देकर व अनुकूल सामग्री विना फल दिये भी झड़ जाते हैं।
आस्रव और बंध तत्व से यह ज्ञान होता है कि जीव अशुद्ध कैसे होता है। क्योंकि जब तक परमात्म स्वभावके निकट न पहुंचे तबतक संसारी जीवोंके मन वचन काय काम किया करते हैं और हर समय जैसे पुराने कर्म झड़ते हैं वैसे नए पुण्य या पाप कर्म बंधते भी जाते हैं। यदि आत्मा को कर्मबंध से छुड़ाना हो तो संबर और निर्जरा तत्वको समझना चाहिए । कोंके आने और बंधके रोकने को संवर कहते हैं। संवर के लिए उद्यम करना चाहिए। जिन भावों से कर्म बंधते हैं उनको रोकना चाहिए । इस संवर के लिए हिंसादि पांच पाप छोड़कर अहिंसा सत्य आदि पाँच व्रत पालना चाहिए, क्रोधादि भागोंको रोककर उत्तम क्षमा आदि दशधर्म पालना चाहिए, आर्तध्यान रौद्रध्यान रोककरधर्म. ध्यान शुक्लध्यान साधना चाहिए, प्राचीन बंधे हुए कर्मोको अपने समय के पहले व उनका बिना फल भोगे हुए दूर करने की रोति को निर्जरा तत्व कहते हैं तप करनेसे अर्थात् इच्छाओं को रोक कर आत्मध्यान व वोत राग भावका अभ्यास करनेसे कर्म मड़ते जाते हैं । सर्व कर्मों के बंधसे छुटकर आत्माके पवित्र हो जानेका नाम मोक्ष तत्व है। मोक अवस्था में आत्मा सदा अपने ज्ञानानंदका विलास किया करता है। इन सात तत्वोंमें अजीव आस्रव व बंध त्यागने योग्य है जबकि जीव, संवर, निरा व मोक्ष ग्रहण करने योग्य हैं। परंतु निश्चयनयसे इन सात तत्वोंमें दो ही पदार्थ