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________________ २२ ] पवित्र (वाक्यम्) वचन को (स्वान्ते) अपने मन में ( दधानस्य ) धारण करते हुए (मम) मेरे ( दिवसाः ) दिन (यांतू) वीर्त । भावार्थ इन दो श्लोकों में आचार्य ने सामायिक के स्वरूप को दिखला दिया है। वास्तव में समताभाव को ही सामायिक कहते हैं । यह समताभाव असल में तबही जगता है जब निश्चय नयकी शरण ग्रहण की जावे औरव्यवहार नयकी दृष्टिको गौण रक्खा जावे। निश्चय नय वह दृष्टि या अपेक्षा है जिसके द्वारा देखने से हर एक पदार्थ का मूल या असली रूप दिख जाता है। यही द्रव्य दृष्टि है, द्रव्यको मात्र उसके असली स्वभाव में देखने वाली है । व्यवहार नय वह दृष्टि है जिसके पदार्थ की भिन्न- २ अवस्थाओं को व पार्थ के भेदी को व असली हालत पर पहुंचने के साधनों को व उसके अशुद्ध स्वरूप को देखा जा सके। जैन सिद्धांत ने यह आवश्यक बताया है कि दोनों नयों से पदार्थों को देखना चाहिए जैसा कहा है- व्यवहार निश्वयो यः प्रबुद्धय तत्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः सएव फलमविफलं शिष्यः ॥ ( पुरुषार्थ ० ) । भावार्थ - जो शिष्य व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों को समझकर मध्यस्थ या वीतरागी हो जाता है या किसी एक नय के पक्षपात से रहित हो जाता है वही जिनवाणी को समझने के पूर्ण फल को प्राप्त करना है । - तत्त्वभावना यह जगत व्यवहारनय ( PRACTICAL POINT OF VIEW ) से देखते हुए अनंत भेदरूप विचित्र दिखलाई पड़ता है । यह राजा है यह रंक है, यह स्वामी यह सेवक है, यह धनवान
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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