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संपत्ती वा मम विपदि वा जीवते वा मृतौ या कालो देव ! व्रजतु सकलः कुर्वतस्तुल्यवत्तिम् ॥ ६ ॥
तत्वभावना
अन्वयार्थ -- (देव) हे जिनेन्द्रदेव ! (मम) मेरा ( सकलः ) सर्व ( काल : ) समय ( विद्विष्टे वा) मेरे से द्वेष करने वाले में ( प्रशमवति वा ) अथवा मेरे ऊपर शांत भाव रखने वाले में, ( बांधवा) बन्ध में (रिपी वा ) अर्थात् शत्रु में (मूखौं घे बा ) भूखों के समुदाय में ( बुधसदसि वा ) अथवा बुद्धिमानों की सभा मैं ( पसने वा ) नगर में ( बने वा) अथवा जंगल में (संपत्ती वा ) घनादि की प्राप्ति में (विपदि वा ) अथवा आपत्ति में ( जीवते वा) जीने में (मृतौ वा ) अथवा मरने में ( तुल्यवृत्तिम् ) समान रूप या समता रूप वर्तन ( बुर्बत: ) करते हुए ( ब्रजतु) बीते 1 शिखरिणी छन्द
सुखे वा दुःखे वा व्यसनजन के या सुहृदि था। गृहे वारण्ये वा कनकनिकरे वा दृषदि वा ॥ प्रिये वातिष्टे वा मम समधियों यांतु दिवसा । वधानस्य स्वान्ते तव जिनपते ! वाक्यमनघम् ॥७॥
अन्वयार्थ - ( जिनपते) हे जिनेन्द्र ( सुखे वा ) सुख में (दुःखे वा ) अथवा दुःख में ( व्यसनजन के वा) आपत्ति में डालने वाले शत्रु में (सुहृदि वा ) अथवा मिश्र में (गृहे वा ) घर में ( अरण्ये वा) अथवा जंगल में ( कनकनिकरे वा) सुवर्णके ढेर में (दुषादि वा) अथवा पाषाण में ( प्रिये वा) किसी प्रिय या मनोज्ञ वस्तुमें ( अनिष्टे वा) अथवा किसी अमनोज्ञ वस्तु में (समधियः ) समता बद्धिको रखते हुए तथा ( तव ) आपके ( अनयम् ) पापरहित या