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________________ तत्त्वभावना बड़ा उत्तम समय मानना चाहिए और प्रमाद छोड़कर अपने हित में दढ़ रहना चाहिए । जो पुरुषार्थी होते हैं वे ही साधु निजानन्द भोगते हुए अनंत सुख के अधिकारी हो जाते हैं । श्रीपद्मनंद मुनि यतिभावनाष्टक में मुनिका स्वरूप कहते हैंआवाय व्रतमास्मतत्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा बनम् । निःशेषामपि मोहकर्मनितां हित्वा विकल्पाबलीम् । में मिति मनोमान्चिटनलकत्त्वप्रमोदं गता। निष्कम्पा गिरिवज्जयन्ति मुनयस्ते सर्वसंगोजिसताः ॥१॥ मावार्थ-जो साधु महावतों को लेकर, निर्मल आत्मा के तत्व को समझकर तथा वन में जाके सब ही मोह कर्म के वश से पैदा होने वाले अनेक विकारों को छोड़ करके मन, श्वासोच्छवास और आत्मा तीनों को निश्चलता में एकतान होते हुए आनन्द को भोगते हुए पर्वत के समान कंप रहित रहते हैं वे सर्व परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ साधुविनय प्राप्त करते हैं अर्थात् कर्मोंको जीतकर परमात्मा, परमेश्वर व परमब्रह्म हो जाते हैं मूलश्लोकानुसार छन्द गोता कुकषाय अरिको चूरना अर सब परिगह त्यागना । चारित्रमें उद्यम घना संसार क्लेश निवारना । आचार्य पद का सेवना जिनयाणि में रुचि धारना । इन्द्रिय विजय पर त्याग हों दिग मोक्ष का जब आधना ॥५ उत्थानिका-आगे भावना भाते हैं कि सुख-दुःख आदि में मेरा भाव समता भाव को भजे क्योंकि यही समता निर्जरा का कारण है। मंदाक्रांता विद्विण्टे वा प्रशमबति या बांधवे वा रिपौवा। मोघे वा बुधससि व पसने वा बने वा ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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