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________________ तस्वभावमा मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द रे मन तू चाहे नागिनी सुक्ख भोगें। स्वर्गों में जाकर देवनारी सु भो ॥ होकर वकों में राज्य सुख सार होगा ... : भ्रम में भला जिन वचन अमृप्त न जोधे ॥२६॥ उत्थानिका-फिर भी कहते हैं कि हे मन ! तू संसार वनमें भ्रमण मन कर भीमे मन्मथलुब्धके बहुविश्वव्याध्याधिदीर्घद्रुमे । रौद्रारंभहषोकपाशिकगणे भज्जद्वतद्विषि ? ॥ मा त्वं चित्तकुरंग ! जन्मगहने जातुभ्रमी ईश्वर । प्राप्तुं ब्रह्मपदं दुरापमपरर्यद्यस्ति वांछा तव ॥३०॥ अन्वयार्थ--(ईश्वरचित्तरंग)हे समर्थ मनरूप हिरण(यदि)। (तव वांछा) तेरी इच्छा (अपरैः। दूसरोंसे (दुरापम् ) कठि-1 वत्ता से प्राप्त होने योग्य ऐसे (ब्रह्मपदं), आत्मीक मोक पदको (प्राप्तु) पाने की हो तो तू (मन्मथलुब्ध के कामदेवरूपी पारधी से बासित (बहुविधव्याधि दीर्घद्रमे) नाना प्रकार रोग व मानसिक कष्टों के बड़े-२ वृक्षोंसे भरे हुए (रौद्रारंभहषीकपाशिकगणे) तथा भयानक आरंभ कराने वाले इद्रियरूपी भीलगणोंसे पूरित तथा (ऐतिषि) मनरूपी हिरण के शत्रुओंसे युक्त भयानक । (जन्मगर्ने संसारूपी वनमे (वत ) व्यर्थ ही (स्व) तू (जातु मा भ्रमी) कभी न भ्रमण कर। . भावार्थ-आचार्य फिर भी अपने मनको समझाते हैं किहै मन ! तू बड़ा बावला है, तू विश्रांति नहीं भजता, तू चाहता हैं कि मुझे शांत भात्मानंदरूपी जल मिल जावे जिससे तेरी अनादि की तृष्णारूपी प्यास बुझ । परन्तु तू उस संसाररूपी वन का
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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