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________________ [ १६५ हैं । मात्र अपने ही अनुभव गोचर है, अनाशी है, स्वाधीन है, बाधारहित है तथा अनन्त है, योगियोंके द्वारा माननीय है । लस्वभावता वास्तव में आत्मीक सुख जब अमृत है तब इंद्रियसुख खारे पानी के समान है । मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडति छन्द जो सुख अपने आत्म बीच बसता है मलरहित शाश्वता । थिरभावोंसे आपमें सु मिलता विद्वान नित चाहता ॥ फिर क्यों नीरस बाहरी क्षणिक सुख अर्थ जु कष्टं सहे । शिवमंदिर में भोज्य सहज मिलते भिक्षार्थं भ्रम दुख सहे ॥७४ उत्पानिका- आगे कहते हैं कि जो थिर सुख पाना तो चाहे पर उपाय उल्टा करे उसको वह सुख कैसे मिल सकता है ? मालिनी वृत्तम् अभिलषति पवित्र स्थावरं शर्म लब्धुं । धनपरिजनलक्ष्मी यः स्थिरीकृत्य मूढः || जिगमिषति पयोवेरेव पारं दुरापं । प्रलयसमयवीच निश्चलीकृत्य शंके ।। ७५ । अन्वयार्थ - ( यः मूढः ) जो मूख ( धनपरिजनलक्ष्मी ) धन, बंधुजन व सम्पत्तिको ( स्थिरीकृत्य ) स्थिर रख करके (पवित्र) निर्मल ( स्थवरं ) अविनाशी ( शर्मं ) सुख (लघु) पानेकी ( अभिलपति ) इच्छा करता है ( शंके) मैं ऐसी आशंका करता हूँ कि (एषः) यह मूर्खजन (प्रलयसमयवीचि) प्रलयकालको उठने वाली तरंगों को ( निश्चली कृत्य ) निश्चल करके ( पयोधेः) समुद्रके (दुरापं पारं ) न पार होने योग्य पारको (जिगमिषति ) जाना चाहता है। भावार्थ – आचार्य कहते हैं कि वह मानव महा मूर्ख है जो
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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