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________________ १६४ ] लाभ के लिए अपने आत्मा के भीतर प्रवेश नहीं करते हैं तथा बाहरी इंद्रियजनित नीरस और अतृप्तिकारी सुखकी प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हैं वे वृथा ही कष्ट उठाते हैं, क्यों कि यदि परिश्रम करने से कदाचित इच्छित बाहरी सुख प्राप्त भी हो जाये तोमी उससे तृप्ति नहीं होती तथा वह ठहरता नहीं है, वह शीघ्र नाश हो जाता है। जिस किसी को अपने स्थान में हो मनमोहन खाने को मिले और वह उसको तो न खावे किन्तु भीख माँगता फिरे उसे भीख में तो पूरा भोजन भी मिलना गाबाद रहे ये यह है कि ज्ञानी जीवको अपने ही भीतर भरे हुए सुख समुद्रकी खोजकर के उसमें ही स्नान करना चाहिए व उसीके जलको पीना चाहिए। उसी से ही तृप्ति होगी और वही सदा पीने में भी आयगा उसे जलका कभी वियोग नहीं होगा क्योंकि वह सुखसमुद्र अपने ही पास है और अपने को अपनेसे मिल जाता है। इसलिए इंद्रियोंके सुख की वांछा छोड़ आत्मिक सुख के लिए अपने आप में रहना ही हितकर है। तस्यभावना Ay श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैंअतृप्तिजनकं मोहबाव रहे महेन्धनम् । असात सन्तते बजमक्ष सौख्यं जगुर्जिनाः ||१२|| अध्यात्मजं यत्यक्षं स्वसंवेद्यमनश्वरम् । आत्माधीनं निराबाधमनन्तं योगिना मतम् ||२३|| भावार्थ - जिनेन्द्रोंने कहा है कि जो सुख इंद्रियोंसे पैदा होता है वह तृप्त करनेवाला नहीं है तथा वह सुख मोहरूपी द्रावानल को लिए महा ईंधन के समान है तथा दुखों की परिपाटीका चीन है, जबकि अधामिक सुखों की कार से रहित
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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