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________________ तत्त्वभावना ..-..-.. अविनाशी, पवित्र सुख तो चाहे परंतु उसके लिए अपने आत्मा में ध्यान करना छोड़कर घन परिवार परिग्रह को संचय करे और इन चंचल वस्तुओंको थिर रखना चाहे और यह भी चाहे कि थिर सुख मिल जाये । यह ऐसोही मूर्खताकी बात है कि जैसे कोई प्रलयकालको पवनसे उद्धत सगुनके उसकी न निश्चल रहा वालों तरंगों को स्थिर करके उसे पार करना चाहे। थिर पवित्र सुख कभी भी इंद्रियोंके भोगों से प्राप्त नहीं हो सकता इंद्रियभोग से जो कुछ सुख होगा वह मात्र क्षणिक होगा व तृप्तिकारी न होगा तथा मैला होगा। क्योंकि जिस धन परिवार व परिग्रह के आश्रय से यह इंद्रियसुख होता है वे सब पदार्थ चंचल है व नाशवंत हैं इसलिए इंद्रियसुख भी चंचल व नाशवंत है। तृप्तिकारी अविनाशी सुख तो मात्र अपने पारमा के स्वभावमें है, वह तब ही प्राप्त होगा जब जगतके पदार्थोसे मोह छोड़ के निज आत्मा का अनुभव किया जायगा । इंद्रियोंको भोगते हुए कभी भी थिर व पवित्र सुख नहीं मिल सकता है, वह तो आत्मसन्मुख होने ही पर मिलेगा। तात्पर्य यह है कि सच्चे सुखके लिए अपने आप में ही खोज करनी चाहिए। ऐसा ही श्री शुभचन्द्र मुनि श्री ज्ञानार्णव में कहा है अपास्य करणग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिमिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिक मतम् ॥२४॥ भाषार्थ-इन्द्रियों के विषयों को रोककर जो सुख स्वयम् आत्मामें ही आत्माके ही द्वारा योगियों को प्राप्त होता है वही आत्मीक सुख है। इन्द्रियों का सुख तृष्णा के दुःखों को बढ़ाने वाला है जैसा वहीं कहा है
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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