________________
[ १६७
अपि संकलिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं विसर्पति ॥३०॥ भावार्थ- जैसे- २ इच्छित भोग मिलते जाते हैं वैसे २ मनुष्यों के चित्त को जनस में फैलती जाती है।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द शुचि थिर सुख पाऊँ चाह ऐसा करे है। धन सुत तिय पृथ्वी भोगमें मति घरे है ।। मानूं मूरख सो उदधिका पार चाहे । प्रलय समय लहर यिर करूँ बुद्धि गाहे ॥७५॥ उत्थानिका -- आगे कहते हैं कि बुद्धिमान पुरुष इन्द्रिय
विषयों से दूर रहते हैं ।
तत्त्वभावना
शार्दूलविक्रीडित छन्द
ये दुःखं वितरन्ति घोरमनिशं लोकद्वये पोषिताः । दुर्वारा विषयारयोः विकरुणाः सर्वांगशर्माश्रयाः ॥ प्रोच्यते शिवकांक्षिभिः कथममो जन्मावलीबद्वतो । दःखोकविवर्धनं न सुधियः कुर्वन्ति शर्मार्थिनः ॥१७६॥ अन्वयार्थ - ( ये ) जब ये ( दुर्वारा:) कठिनता से दूर होने योग्य (त्रिकरुणाः) और निर्दयी ( विषय रय:) इन्द्रिय विषयरूपी शत्र ( पोषिता: ) पूष्ट किये जाने पर ( लोकद्वये ) इस लोक व परलोक दोनों में (अनिशं) रातदिन ( घोरं दुखं) भयानक कष्टों को (निरंनि) विमारते हैं तब (शिवकांक्षिभिः) मोक्ष के आनन्द को चाहने वाले ( कथं । किस तरह (जन्मावलीबर्द्धिनः) संसार की परिपाटी को बढाने वाले अभी इन विषयरूपी शत्रुओं को (सर्वागशर्माश्रयः ) सर्व प्रकार शरीर को सुख