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तत्त्वभावना
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होती है तथा अन्तराय कर्म का क्षयोपशम होने से आत्म बल बढ़ता है। तथा पाप कर्मों का रस कम होने से व पुण्य कर्मों का रस बढ़ने से सांसारिक क्लेश घटते हैं और सांसारिक सुख बढ़ते हैं तथा तीव्र आपत्ति पड़ने पर धैर्य की प्राप्ति होती है। इतने लाभ इस शरीर में रहते हुए ही प्राप्त होते हैं, इसलिए जो धर्म का सेवन करते हैं वे परलोक के लिए उत्तम आयु बांधकर शुभ गति में जाते हैं, ऐसा समझकर हा पदाको सपनिमन धर्म की शरण में सदा रहकर व इसे निरंतर आराधनकर इस लोक तथा परलोक को प्रशंसनीय बनाना चाहिएश्री शुभचन्द्राचार्य श्री ज्ञानावर्णव में लिखते हैं
मालिनी छन्द) यवि नरकनिपातस्यक्तुमत्यन्तमिष्ट --- स्त्रिदशपतिमहद्धि प्राप्तुमेकान्ततो या॥ यदि चरमपुमर्यः प्रार्यनीयस्तदानीं ।
किमपरमभिधेयं नाम धर्म विधत्त ॥२३॥ भावार्थ-यदि तुझ नरक में जाने से रुकना अति प्यारा है व यदि तू इंद्र की महा विभूति को प्राप्त करना चाहता है, अथवा यदि तू चारों पुरुषार्थों में से अन्तिम मोक्ष पुरषार्थ को करना चाहता है तो तुझसे और अधिक क्या कहें तू एक मात्र धर्म ही का साधन कर ।।
मूल श्लोकानुसार गीता छन्द जो निन्धजन दुष्कर्म करते निन्ध गति में जात हैं। जो सन्तजन शुभ कर्म करते उच्च गति को पात है।