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________________ अरु राज्य गृह रच उच्च जाते कूप खनते नीच हों। हम जान बुधजन धर्म से पाप से भयभीत हो ||८|| उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो लोग शरीर के सुख के लिए कुचेष्टा करते हैं वे अपनी शक्ति को नष्ट करते हैं चेष्टाश्चिसशरीरबाधनकरोः कुर्वति चित्तेऽधमाः। सौख्यं यस्य चिकोर्षवोऽक्षवशमा लोकद्वयध्वंसिनीः ।। कायो यत्र विशीयंते, स शतधा मेघो यथा शारदस्तवामी बत ! कुर्वते किमधियः पापोद्यम सर्वदा ॥६॥ अन्वयार्य-(अक्षवशगाः) इन्द्रियों के वश में पड़े हुए (अधमाः) नीच पुरुष (यस्य) जिस शरीर के (सौख्यं) सुख को (चिकीर्षवः) चाहते हुए (चित्तशरीरबाधनकरीः) मन और शरीर को बाधा देनेवाली तथा (लोकदयविध्वंसिनीः) इस लोक व परलोक दोनों को बिगाड़ने वाली (चेष्टा:) क्रियाएं (चित्ते) अपने मन में (कुर्वन्ति) करते रहते हैं व (पत्र) जिस संसार में (स काय:) वही शरीर (यथा) जैसे (शारद:) शरद ऋतु का (मेघो) मेघ विघट जाता है तैसे (शतधा) सैकड़ों तरह से (विर्शीयले) नष्ट हो जाता है (नत्र) तिस संसार में (अमी) ये (अधियः) मूर्ख लोग (किं) क्यों (सर्वदा) सदा (पापोद्यम) पाप का उद्यम (कुर्वते) करते रहते हैं (बत !) यह बड़े खेद की बात है। भावार्थ-इस श्लोक में आचार्य ने बताया है कि जो पुरुष मिथ्या दृष्टि बहिरात्मा है अर्थात् जिनको आत्मीक सच्चे सुख का पता नहीं है वे शरीर के सुख को सुख मानते हैं वे इंद्रियों के दास हो जाते हैं और इन इंद्रियों के द्वारा जो नाना प्रकार की इच्छाएं पैदा होती हैं उन्हीं को पूरा करने के लिए रात-दिन
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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