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________________ तत्त्वभावना [ ३१ उद्यम करते रहते हैं। वे धनके पिपासु होकर, किसोको सताकर झूठ बोलकर, चोरी करके, विश्वासघात करके धन कमाने में ग्लानि नहीं मानते, उनको अपनी स्त्री व परस्त्री का विवेक नहीं रहता है, वे भक्ष्य व अभक्ष्यके विचार से शून्य हो जाते हैं। जिस तरह इंद्रियों की तृप्ति हो उसी तरह वर्तन करना उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उनको मांस व मदिरा से भी परहेज नहीं रहता है । उनको जो जो क्रियायें होती हैं वे सब हानिकारक होती हैं । इंद्रियों की लम्पटता से विवेक शुन्य हो, चाहे जो कुछ खा पी लेते हैं और वे रोगों के शिकार हो जाते हैं, अधिक विषयभोग से निर्बल हो जाते हैं। फिर तो उनको शारीर सम्बन्धी और मन सम्बन्धी महान् कष्ट होते हैं उस समय उनके मन की आकुलता को समझना एक अनुभवी मानव का ही काम है। इंद्रियों के भोगों को चाहना रहनेपर भी वे विचारे इन्द्रियों का भोग शरीर की निर्बलता व रोग के कारण नहीं कर सकते । आर्तध्यान में मन दुःखित रहता है। यदि कदाचित् थोड़ी भी मुक्ति रोग से हो जाती है कि फिर अन्धे हो विषयों के बन में पागल हो दौड़ते हैं, फिर अधिक रोगी हो जाते हैं। भावों में तीन विषयवासना से व हिंसा, झूठ, चोरी कुशील तथा तीन शरीर की व धन की व विषयभोग योग्य पदार्थों की ममता से अशुभ उपयोग में फंस जाते हैं । यह अशुभ उपयोग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय और मोहनीय कर्म का तीव्र बंध करता है, साथ में असाता वेदनीय, अशुभनाम व नीच गोत्र का बंध हो जाता है तथा जब आयुकर्म के बंध का अवसर
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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