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________________ ३२ ] तत्त्वभावना आता है तब यह प्राणी नरक व पशु आयु को बांध लेता है। एक न एक दिन चाह की दाह में जलता हुआ शरीर त्यागता है और नारकी या पशु या एकेंद्रिय जीव पैदा हो जाता है। इस तरह विषयलम्पटी प्राणी अपने इस अमूल्य शरीरको नष्ट करते हुए इस लोक में दुःखी व अपयश के भागी होते हैं और परलोक में कुमति के अधिकारी होते हैं । आचार्य खेद करते हैं कि ऐसे अज्ञानी लोगों को क्या यह मालूम नहीं है कि यह शरीर शरद ऋतु के मेधों की तरह नष्ट होने वाला है, यह स्थिर रहने का नहीं है। जैसे मिट्टी का घड़ा थोड़ी सी ठोकर लगने पर टूट जाता है ऐसे ही यह शरीर आयुकर्मी के क्षेत्र से कभी तो पूरी आयु भोग कर कभी अकाल में ही छूट जाता है तब पछताता हुआ चला जाता है । तब वे कोई भी सचेतन या अचेतन पदार्थ इसका साथ नहीं देते हैं जिनके ऊपर ये अपने सुख का आधार रखता था। योड़ी सी मनुष्यायु में पापों का उद्यम करके इसलोक और परलोक को बिगाड़कर वे मूर्खजन अपना घोर अहित कर लेते हैं। आचार्य सचेत करते हैं कि हे जीवो ! यदि तुम इन्द्रियों के दास न होकर उनको अपने वश में रखते और अपनी बुद्धिबल से अपने आत्मा को समझ लेते तो तुम्हें आत्मा के भीतर रहे हुए सुख समुद्र का पता लग जाता जिसमें स्नान करने के लिए किसी परपदार्थ की जरूरत नहीं रहती है। यदि आत्मा को समझ लिया जाता तो जगत की आत्माओं से प्रेम पैदा हो जाता तब यह हिंसादि पापों में स्वयं नहीं प्रवर्तता किन्तु जीव दया व परोपकार भाव में वर्तता हुआ पुण्य की कमाई करता-इस
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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