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नश्वर शरीर से आत्मोन्नति कर जाता। यहां भी सुखी रहता और परलोक में भी शुभ भावों से शुभ गति पाता है। बुद्धिमानों को खूब सोच विचारकर इस शरीर का उपयोग कुचेष्टाओं में न करके सुकर्म में करना चाहिए। जिससे यह मानवजीवन स्व पर उपकारी बनकर अपना समय सफल कर सके ।
तत्त्वभावना
श्री अमितगति आचार्य सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं कि इन्द्रिय सुखों में लीनता महान मूर्खता है । नानाविधव्यसनधूलिविभूतिवातं । तत्वं विविक्तमवगम्यजिनोशिनोक्तम् ॥ यः सेवते विषयसौख्यमसौ विमुच्य । हस्तेऽमृतं पिबति रौद्रविषं निहीनः ॥६५॥ दासत्वमेति वितनोति विहीनसेवां । धमं धुनाति विदधाति विनिन्द्य कर्म ॥ रेकश्चिनोति कुरुतेऽति विषयवेषं । किं वा हृषीकवसतस्तनुते न भरर्यः ॥६६॥
भावार्थ---जो अज्ञानी जिनेन्द्र के कहे हुए उस आत्म स्वरूप को जो सर्व परभावों से रहित है व जो नाना प्रकार आपत्तियों की धूल के ढेर को उड़ाने के लिए पवन के समान है, भले प्रकार समझकर विषयों के सुख को सेवता है वह मूर्ख हाथ में आए हुए अमृत को छोड़कर भयानक विष को पीता है। जो इन्द्रियों का दास हो जाता है वह दूसरों की चाकरी करता है, नोचों की सेवा करने लगता है, धर्म को नाथ कर देता है, हिंसादि निन्द्यकर्म को करने लगता है, पापों को संजय करता है, अपना रूप अति कुरूप कर लेता है। अधिक क्या कहें इन्द्रियों के वश में पड़ा मानव