SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ | तत्त्वभावना क्या - २ अनर्थं नहीं कर लेता है ? वास्तव में जो इन्द्रियों का दास है वह पशु से भी निकृष्ट है। मानव ही वह है जो इन्द्रियों को काबू में रखकर अपना जीवन सुकायों में विता कर सफल करता है । मूलश्लोकानुसार गीता उन्द जग नोच जन हो दास इन्द्रिय काय सुखको चाहते । इस लोकद्वयको नाशकारी कर्म निन्द्य रचावते ॥ बहु काय मन पोड़ा सहें तो काय शारद मेघ सम । यह नष्ट होती हा ! कुधी नित पाप करते हैं अधम ॥६॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि मोह में अन्धो हुई बुद्धि संसार बढ़ाने वाली और मोक्ष को बहुत दूर रखने वाली है। कांतेयं तनुमूरयं सुहृदयं मातेयमेषा स्वसा । जामेयं रिपुरेष पत्तनमिवं सद्मेवमेतद्वनम् ।। एवा यावदुदेति बुद्धिरधमा संसारसंवर्द्धिनी । तावद्गच्छति निर्वृति बत कुतो दुःखमोच्छेदिनीं ॥१०॥ अन्वयार्थ - ( इयं ) यह (कांता ) स्त्री है (अर्थ) यह पुत्र है (अयं ) यह ( सुहृत्) मित्र है ( इयम् ) यह (माता) मा है (एषा ) यह (स्वसा ) बहिन है ( इयं ) यह (जामा) पुत्री है ( एषः ) यह (रिपुः ) मात्र है ( इदं ) यह ( पत्तनम् ) नगर है (इदम्) यह ( स ) घर है ( एतत् ) यह (वनं) बाग है ( यावत्) जब तक (एषा ) ऐसी ( अधमा ) तुच्छ व (संसार संवर्धिनी) संसार को बढ़ाने वाली (बुद्धिः ) बुद्धि ( उदेति) पैदा होती रहती है ( तावत् ) तब तक ( कुतः ) किस तरह से (दुःखदुमोच्छेदिनी) दुःखरूपी वृक्षों को
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy