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________________ तत्त्वभावना [ ३५ छेदने वाली (निर्वृति) मुक्ति को ( गच्छति ) यह जीव पहुंच सकता है (बल) यह बड़े खेद की बात है । भावार्थ - यहां पर आचार्य खेद प्रगट करते हुए कहते हैं कि मोही जीव मोह में फँसकर अपने स्वरूप को भूल जाता हैं इस लिए अनन्त सुख को देने वाली मुक्ति को कभी नहीं पा सकता है । वास्तव में मुक्ति अपने सच्चे आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति है और वह अपने से ही अपने को अपने में हो प्राप्त होती है। जिसका उपयोग अपने आत्मा के स्वभाव के सन्मुख होगा वही आपको पाएगा, परन्तु जिसका उपयोग अपने आत्मा को छोड़कर परपदार्थों में रमता है वह कभी भी अपने स्वरूप को नहीं पा सकता है। संसार का कारण मोह है, जबकि मुक्ति का कारण निर्मोह है । मोही जीव क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के वशीभूत पड़े रहते हैं, इसीलिए कर्म को बांधकर संसार की चारों गतियों में भ्रमण किया करते हैं। मोही जीवों को अपने आत्मा का अपने शरीर से भिन्न विश्वास नहीं होता है । वह शरीरको ही आपा माना करते हैं। शरीर की भ्रमता से वे पांचों इन्द्रियों की इच्छाओं के दास हो जाते हैं। उन इच्छालों की पूर्ति करने में जो चेतन व अचेतन पदार्थ सहकारी हैं उन्हीं से गाढ़ प्रीतिवान हो जाते हैं। इसलिए शरीरके जितने सम्बन्ध हैं उनको अपना सम्बन्ध समझ लेते हैं: पुत्र, पुत्री, मित्र आदि के मिलने में में हर्ष व उनके वियोग में विषाद किया करते है। एक कुटुम्ब जीव भिन्न- २ गतियों से आकर जमा हो जाते हैं वे ही जोब आयु पूरी करके अपनी-२ बांधी गति के अनुसार चले जाते हैं । धर्मशाला में यात्रियों के समागम के समान कुटुम्बोजनों का समागम है । मोही जीव उनसे गाढ़ मोह करके अपने स्वात्मा को भूल • जाते हैं । इसीलिए आचाची ने बताया है कि जब तक इन भिन्न
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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