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________________ २८ ] तत्त्व भावना है : एक मानव की अपेक्षा देवगति ही ऊंची है नरकगति व पशुगति नीची है व मानब गति बराबर की है। यदि उच्चभाव होंगे तो ऊंचो आयु को नीच भाव होंगे तो नीच आयु को, मध्यम भाव होंगे तो मध्यम आयु को वांधकर तदनुसार गति में जाता है । जो रौद्रध्यानी हिंसक, दुष्कर्मी है वह नर्कायु बांध नर्क को, जो आर्तध्यानी दुःखित भावधारी है वह तिर्यंच आयु बांध कर पशु गति को, जो धर्मध्यानी है वह देव आयु बांधकर देव गति को, जो कोमल परिणामो है यह मनुष्य आयु बांधकर मनुष्य गति को जाता है। परन्तु जो शक्लध्यान को आराधता है और गुणस्थानों में चढ़ता हुआ अर्हत केवलो हो जाता है वह कोई भी आयु न बांधकर सब कमों से छुटकर शुद्ध परमात्मा हो जासः . ! इस लोक में भी देखा जाता है कि जो लोग परोपकार, दान, पूजा, गुरु सेवा आदि शुभ काम किया करते है उनकी प्रतिष्ठा व मान्यता होती है तथा जो परका अपकार, पर को बुराई, अन्याय के विषयों में प्रवृत्ति हिसककर्म, चोरी आदि बुरे काम करते हैं वे निन्दायोग्य व बुरे समझे जाते हैं। यहां दृष्टांत दिया है कि जो लोग राजमहल बनाते हैं वे दिन पर दिन ऊपर को चढ़ते जाते हैं परन्तु जो कुआं खोदते हैं वे दिन पर दिन नीचे धंसते जाते है।। __इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि सदा धर्म के सेवन मेंलगे रहें । जो सम्प्रकदर्शन पूर्वक धर्म का सेवन करगे वे इस लोक तथा परलोक दोनों में सुख पाएंगे। वास्तव में जैन धर्म वीतराग विज्ञानमय है । इसको हरएक धर्म क्रिया में आत्मा के गुणों का ध्यान आता है । आत्मा सुखशांति मय है, इससे धर्म सेवन करते हुए सुख शांति तो तुतं प्राप्त
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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