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________________ तस्वभावना [७१ मावार्ष-जो आत्मतत्व सर्व रागादि उपाधियों से रहित है सपा ज्ञानमय है वही तश्व इमको इष्ट है। उसके समान और कोई भी अल्प भी तत्व मोक्ष का कारण नहीं है। यही योग का निश्चय या सार है ! अर्थात् मात्मतत्व के अनुभव से ही मुक्ति हो सकती है। मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द दुःसह दुखकारी, काम रिपु कर निवारी। कर आतम ध्यानः चित्त वैराग्य धारो॥ या विनबुध संङ्ग, औ तप नहि नशा। लख आसम भिन्न, देह से मुक्त पावे ॥२२॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि जो अविवेकी हैं वे सदा संसारचक्र में भ्रमण करते रहते हैं कः कालो मम कोऽधुना अवमहं वत्तें कथ सांप्रतम् । कि कर्मात हितं परत मम कि कि मे निजं कि परम् । इस्थं सर्वविचारणाविरहिता दूरीकुतात्मश्यिाः । जन्मांमोधिविवर्तपातनपराः कुर्वन्ति सर्वाः क्रियाः ॥२३॥ अन्वयार्थ(मम) मेरा (कः) कौन सा (कालः) काल है (अधुना) अब (कः) कौन सा (भवम्) जन्म है (सांप्रतम्) वर्तमान में (अहं) मैं (कथं) किस तरह (बतें, वर्ताव करूं (अत्र) इस जन्म में (मम) मेस (किं कर्म) कौनसा कार्य (हितं) हितकारी है (परत्र)पर जन्ममें (किं)कोनसा कर्म हितकारी है। (मे) मेरा (निज) अपना(किं) क्या है (परम्) पर (कि)क्या है (इत्थं)इस प्रकारकी (सर्वविचारणाविरहिता)सर्वविवेक बुद्धिको न करते हुए (दूरीकृतात्मक्रिया:)तथा आत्माका आचार दूर ही
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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