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मुख्य आत्मानुभव है, यही औषधि है जिससे वैराग्य आजाता है और कामकाजाताहैए जो सच्चे हितके वांछक हैं उनको वैराग्य सहित आत्मध्यान का अभ्यास सदा करना चाहिए। ध्यानके सम्बन्ध में विशेष कथन पुस्तक अन्त में दिया गया है वहांसे पाठक ध्यानकी रीतियों को समझें। यहां यह मतलब है कि कामभावको आत्माकी उन्नति का परम वैरी समझकर उसके नाश करने के उपाय में लगे रहें तथा उसके आक्रमण से बचने के लिए सदा सावधार रहे। यह बात अच्छी तरह समझ लें कि कामकी उत्पत्ति मनमें होती है । जिसके मन में ब्रह्मभावका स्वाद बाजाता है वही मन कामभाव के स्वादको बुरा जानने लगता है । जैसे किसी मनुष्य ने अपने ग्रामके खारे कुएं का पानी पिया है और वह उसे ही मोठा समझ रहा है । एक दिन वह दूसरे ग्राम में जाता है और वहां उसे मीठे कुएंका मीठा पानी कोई पिलाता है, तब उसका भाव एकदम फिर जाता है । वह जब इस मोठे पाना के स्वाद का मुकाबला अपने कुएं के खारे पानी के स्वादसे करता है तब इसको यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि असली मौठा पानी तो वह है जो आज पिया है । अब तक जो मैंने अपने ग्राम के कुएंके पानीको मीठा समझा था सो मेरी भूल थी। इसी तरह जब आत्मध्यान से आत्मानन्द का स्वाद आने लगता है तब विषय सुख विरस है, सच्चा सुख नहीं है यह बुद्धि जमती है। इसलिए आत्मध्यानका ही उपाय करना परम श्रेयस्कर है। श्री पद्मनंदि मुनि ने सद्द्बोधचंद्रोदय में कहा है कि आत्मध्यान ही परम कल्याणकारी है
बोधरूपमखिलैरुपाधिभिः वर्जितं किमपि यसदेव नः । नान्यवल्पमपि तत्वमीशम् मोक्ष हेतुरितियोगनिश्चयः ||२५
तस्वभावना