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अवस्थाएं हैं। आत्मा असल में शुद्ध गुण व शुद्ध पर्यायों का धनी है । यह अमूर्तीक है। इसमें न क्रोधादि विकार रूप भावकर्म हैं, न ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप द्रव्यकर्म है, न शरीरादि नोकर्म हैं। संसार संबंधी भाव कि में सुखी हूं या दुःखी हूं यह भी मोह का विकार है । सांसारिक सुख तृप्तिकारक नहीं है, पराधीन है, जब कि आत्मीक सख स्वाधीन व परम संतोषकारक है । ऐसा भेद विज्ञान जिस किसीके चित्त में हो जाता है और जो इस भेद विज्ञान के बल से आत्माको सर्व अन्य द्रव्यों से व सवं प्रकार अशुद्ध भावों से भिन्न अनुभव करता है उसको अभ्यासके बल से आरमीक आनन्द का बढ़िया स्वाद आने लगता है । तब उसकी बुद्धि से इन्द्रिय सुख की रुचि हट जाती है । बस यही वह बीज है जिससे कामभावको जीता जा सकता है। जिसको बारबार मात्मज्ञान के अभ्यास से चित्त की निश्चलता हो जाती है और दृढ़ उदासीनता संसारके कामोंसे हो जाती है व निजसुख के भोगनेकी तीव्र रुचि बढ़ जाती है, उसके दिल से कामभाव बिलकुल निकल जाता है । आत्मज्ञान सहित जो वैराग्य है वही कर्मोकी निर्जरा करता है। इस आत्मज्ञान सहित वैराग्य के लिए उपवास करना, रस त्यागना आदि तप, तथा ज्ञानियोंकी संगति में बैठकर शास्त्रका विचार करना निमित्त है, जो आत्मध्यानकी खोज इन निमित्तों को मिलाकर नहीं करता है उसके मनमें कामभाव का वैरी ब्रह्मज्ञान नहीं पैदा होता है । इसीलिए आचार्य ने दिखाया है कि बात्मध्यान और वैराग्य के बिना, मात्र तप व मात्र ज्ञानियों को संगति करना कामदेव को नाश नहीं कर सकते - L.
तत्वभावना