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________________ २५२ ] रे मूरख मघवन महान भ्रमते क्या सौख्य कारण लखा । जिससे तू सब बाह्यवस्तु तज के निज स्वार्थ में नहीं धसा उत्थानिका – आगे कहते हैं कि मात्र ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त नहीं होता रत्नत्रय की जरूरत है । तस्य भावना सम्यक्त्वज्ञानवृत्तत्रयमनघमृते ज्ञानमात्रेण मूढा । लंघिता जन्मदुर्ग निरुपमितसुखां ये यियासंति सिद्धि ॥ ते शिश्रवन्ति नूनं निजपुरमुध बाहुयुग्मेन ती । कल्पांतोद्भूतवातक्षुभितजलचरा सारकीर्णान्तरालम् ॥६६॥ अन्वयार्थ - ( ये मूढाः ) जो मुर्ख पुरुष ( अनधं ) निर्दोष ( सम्यकत्वज्ञानवृत्तत्रयम् ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यम्चारित्र इन तीन रत्नों के (ऋते ) बिना (ज्ञानमात्रेण) अकेले एक ज्ञान से ( जन्मदुर्ग ) संसार के किले को (लंघित्वा) लांघकर (निरुपमितन सुखां सिद्धि) अनुपम सुख को रखने वाली सिद्धि को ( यियासंति) पाना चाहते हैं (ते) वे ( नूनं ) मानो ( बाहुयुग्मेन) अपनी दोनों भुजाओं से ( कल्पांतोद्भूतवातक्षुभितजतचरासारकीर्णान्तरालम् उदधि) कल्पांतकाल को पवनसे उद्धृत तथा जलचरोंसे भरे हुए समुद्र को (ती) तर करके ( निजपुरम् ) अपने स्थान को ( शिश्रीषन्ति ) जाना चाहते हैं । भावार्थ -- यहां आचार्य ने दिखलाया है कि मोक्ष का उपाय रत्नत्रय की एकता है । मार्ग को जान लेने मात्र से ही कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। जो ऐसा मानते हैं कि हमने आत्माको पहचान लिया है अब हमें कुछभी चारित्र पालने की आवश्यकता नहीं है, हम चाहे पाप करें चाहे पुण्य करें हमें बंध नहीं होगा, वे ऐसे ही मूर्ख हैं जैसे वे लोग मूर्ख हैं जो यह चाहें कि हम अपनी
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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