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________________ तस्वभावना [ २५३ भुजामों से उस समुद्र को पार करके चले जायेंगे जो कल्पकाल की घोर पवन से डावांडोल है व जहां अनेक मगरमच्छ आदि भयानक जंतु भरे हुए हैं। प्रयोजन कहने का यह है कि सम्यऔर तीनों की एकता की जरूरत है । लौकिक में भी हम देखते हैं कि यदि किसीको कोई व्यापार करना होता है तो वह पहले उसकी रीतियों को समझता है और उसपर विश्वास लाता है फिर जब उस विश्वास सहित ज्ञान के अनुसार उद्योग करता है तबही व्यापार करने का फल पा सकता है इसी तरह हमको जानना चाहिए कि आत्मध्यानही मोक्षमार्ग. है, इसी बात को मनन करने से जब मिथ्यात्व का परदा हट जाता है तब सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता है अर्थात् आत्मप्रीति स्वानुभवरून जागृत हो जाती हैं। उसी समय उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पाता है इतने से ही काम न चलेगा ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव को आत्मध्यान का अभ्यास करना होगा । मन को निराकुल करने के लिए श्रावक या मुनिका चरित्र पालना होगा जहां श्रद्धान ज्ञान सहित आत्मस्वरूप में रमणता होती है वहीं स्वानुभव या आरमध्यान पैदा होता है। यही ध्यान मोक्ष का मार्ग है, यही कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को शुद्ध करता है। इसलिए मात्र जानने से ही कार्य बनेगा इस बुद्धि को दूर कर श्रद्धान व ज्ञान सहित चारित्र को पालना चाहिए । अमितगति महाराज ने सुभाषित रत्नसंदोह में कहा हैसदर्शनलामतपोवमाध्यश्चारित्रभाजः सफलाः समस्ताः । व्यर्थाश्चरित्रण बिना भवन्ति शास्वेह सन्तरधरिते यतते । २४२ कषायमुक्तं कथितं चरित्र कषायवद्धावपघातमेति । मा कषायः राममेति पुंसस्तवा चरित्र पुनरेति पूतम् ॥ २३३ ॥
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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