SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ ] तस्वभावना भावार्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा तप व इन्द्रियदमन I जो जीव चारित्र को पालने वाले है ये सर्वं ही सफलता को पा लेते हैं क्योंकि चारित्र के बिना उन सबका होना व्यर्थ है ऐसा जानकर संत पुरुष चारित्रका यत्न करते हैं । चारित्र वही है जहां कषाय न हो । कषाय की वृद्धि से चारित्र का नाश हो जाता है । जब कषाय शांत होती है. तब हो आत्मा के पवित्र चारित्र होता है । जो मुखर इक ज्ञान मात्रसे ही भव दुर्ग लांघन चहे ! निर्मल दर्शनज्ञान दत्त विनगहि निजसुख प्रकाशन चहे ।। ते मानो युग बाहु सेहि तरकर निजयान जाना चहे । जो सागर कल्पांत वायु उद्धत जलचर महा भर रहे ।। ६२ ।। उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो साधु रत्नत्रय सहित तप करते हैं उन्ही का जीतव्य सफल है । शार्दूलविक्रीडतं ये ज्ञात्वा भवमुक्तिकारणगणं बद्धया सदा शुद्धया । कृत्वा चेतसि मुक्तिकारणगणं वेधा विमुख्यापरम् ॥ जन्मारण्यनिसूदनक्षमभरं जनं तपः कुर्वते । तेषां जन्म च जोवितं च सफलं पुण्यात्मनां योगिनां ।। १०० अन्वयार्थ - ( ये ) जो मुनिगण ( सदा ) सदाही (शुद्धया - बुद्धया) निर्मल बुद्धि के द्वारा ( भवमुक्तिकारणगणं) संसार के कारणोंको और मोक्षके कारणों को ( ज्ञात्वा ) जान करके ( श्रेधा ) मन, वचन काय तीनोंसे (अपरं) इस जो संसार के कारण हैं उनको (विमुच्य ) त्याग करके ( चेतसि ) अपने चित्तमें (मुक्तिकारणगणं ) मोक्ष के कारण रत्नत्रयको (कृत्वा) धार करके ( जन्मारण्य निसूदनक्षम भरं ) ·
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy