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________________ २१४ ] तत्त्वभावना योग्य है जो उसके काम के सिद्ध करने में बाधक न हो । सुखके लिए धर्म का सेवन करना जरूरी है । --- स्वामी अमितगति सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंअवति निखिललोकं यः पिसेवावृतात्मा । वहति दुरितराशि पावके वेन्धनौधम् ॥ वितरति शिवसौख्यं हन्ति संसारशत्रुं । विदधति शुभबुद्धया तं बुधा धर्ममत्र || ६६० |l भावार्थ - बुद्धिमान लोग यहाँ उसी धर्म को शुभ बुद्धि से धारण करते हैं जो आदर किया हुआ सर्व लोगों को पिता के समान रक्षा करने वाला है, जो पापके ढेरको इस तरह जलाता है जिस तरह अग्नि ईन्धन के ढेर को जलाती है, जो संसाररूपी शशु को नाश करता है व जो मोक्ष के सुख को देता है । शत्रु मूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द घर तृष्णा बहु करत कार्य हिंसक षट रूप उद्यम नये । बांधत पाप अधार दुःखकारी, नहिं बूझते सत्य थे । जो चाहे नीरोगता पर भखे, भोजन बहुत कष्ट कर पावे रोग महान वेह अपनी, पोड़े महा दोष कर ॥२॥ उत्पानिका - आगे कहते हैं कि कर्म शत्रुओं को नाश करने से ही मोक्ष सुख प्राप्त हो सकता है रौद्रः कर्ममहारिभिभववने योगिन् ! विचित्रैश्वरम् । नायं नायमथापितस्त्वमसुखं येरुच्चकैर्दुःसहम् ॥ तान् रत्नत्रय भावनासिलतया न्यक्कृत्य निर्मूलतो । राज्यं सिद्धिमहापुरेऽमचसुखं मिष्कंटकं निविंश ॥ ८३ ॥ •
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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